बुधवार, 27 अगस्त 2014

ईमानदारी

चारों ओर सुंदर वन में उदासी छाई हुई थी। वन को अज्ञात बीमारी ने घेर लिया था। वन के लगभग सभी जानवर इस बीमारी के कारण अपने परिवार का कोई न कोई सदस्य गवाँ चुके थे। बीमारी से मुकाबला करने के लिए सुंदर वन के राजा शेर सिंह ने एक बैठक बुलाई। बैठक का नेतृत्व खुद शेर सिंह ने किया। बैठक में गज्जू हाथी, लंबू जिराफ, अकड़ू सांप, चिंपू बंदर, गिलू गिलहरी, कीनू खरगोश सहित सभी जंगलवासियों ने हिस्सा लिया। जब सभी जानवर इकठ्ठे हो गए, तो शेर सिंह एक ऊँचे पत्थर पर बैठ गया और जंगलवासियों को संबोधित करते हुए कहने लगा, "भाइयो, वन में बीमारी फैलने के कारण हम अपने कई साथियों को गवाँ चुके हैं। इसलिए हमें इस बीमारी से बचने के लिए वन में एक अस्पताल खोलना चाहिए, ताकि जंगल में ही बीमार जानवरों का इलाज किया जा सके।' इस पर जंगलवासियों ने एतराज जताते हुए पूछा कि अस्पताल के लिए पैसा कहाँ से आएगा और अस्पताल में काम करने के लिए डॉक्टरों की जरूरत भी तो पड़ेगी? इस पर शेर सिंह ने कहा, यह पैसा हम सभी मिलकर इकठ्ठा करेंगे।
यह सुनकर कीनू खरगोश खड़ा हो गया और बोला, "महाराज! मेरे दो मित्र चंपकवन के अस्पताल में डॉक्टर हैं। मैं उन्हें अपने अस्पताल में ले आऊँगा।' इस फैसले का सभी जंगलवासियों ने समर्थन किया। अगले दिन से ही गज्जू हाथी व लंबू जिराफ ने अस्पताल के लिए पैसा इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। जंगलवासियों की मेहनत रंग लाई और जल्दी ही वन में अस्पताल बन गया। कीनू खरगोश ने अपने दोनों डॉक्टर मित्रों वीनू खरगोश और चीनू खरगोश को अपने अस्पताल में बुला लिया। राजा शेर सिंह ने तय किया कि अस्पताल का आधा खर्च वे स्वयं वहन करेंगे और आधा जंगलवासियों से इकठ्ठा किया जाएगा। इस प्रकार वन में अस्पताल चलने लगा। धीरे-धीरे वन में फैली बीमारी पर काबू पा लिया गया। दोनों डॉक्टर अस्पताल में आने वाले मरीजों की पूरी सेवा करते और मरीज़ भी ठीक हो कर डाक्टरों को दुआएँ देते हुए जाते। कुछ समय तक सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा। परंतु कुछ समय के बाद चीनू खरगोश के मन में लालच बढ़ने लगा। उसने वीनू खरगोश को अपने पास बुलाया और कहने लगा यदि वे दोनों मिल कर अस्पताल की दवाइयाँ दूसरे वन में बेचें तथा रात में जाकर दूसरे वन के मरीज़ों को देखें तो अच्छी कमाई कर सकते हें और इस बात का किसी को पता भी नहीं लगेगा। वीनू खरगोश पूरी तरह से ईमानदार था, इसलिए उसे चीनू का प्रस्ताव पसंद नहीं आया और उसने चीनू को भी ऐसा न करने का सुझाव दिया। लेकिन चीनू कब मानने वाला था। उसके ऊपर तो लालच का भूत सवार था। उसने वीनू के सामने तो ईमानदारी से काम करने का नाटक किया। परंतु चोरी-छिपे बेइमानी पर उतर आया। वह जंगलवासियों की मेहनत से खरीदी गई दवाइयों को दूसरे जंगल में ले जाकर बेचने लगा तथा शाम को वहाँ के मरीजों का इलाज करके कमाई करने लगा। धीरे-धीरे उसका लालच बढ़ता गया। अब वह अस्पताल के कम, दूसरे वन के मरीजों को ज्यादा देखता। इसके विपरीत, डॉक्टर वीनू अधिक ईमानदारी से काम करता। मरीज भी चीनू की अपेक्षा डॉक्टर वीनू के पास जाना अधिक पसंद करते। एक दिन सभी जानवर मिलकर राजा शेर सिंह के पास चीनू की शिकायत लेकर पहुँचे। उन्होंने चीनू खरगोश की कारगुजारियों से राजा को अवगत कराया और उसे दंड देने की माँग की। शेर सिंह ने उनकी बात ध्यान से सुनी और कहा कि सच्चाई अपनी आँखों से देखे बिना वे कोई निर्णय नहीं लेंगे। इसलिए वे पहले चीनू डॉक्टर की जांच कराएँगे, फिर अपना निर्णय देंगे। जांच का काम चालाक लोमड़ी को सौंपा गया, क्योंकि चीनू खरगोश लोमड़ी को नहीं जानता था। लोमड़ी अगले ही दिन से चीनू के ऊपर नजर रखने लगी। कुछ दिन उस पर नज़र रखने के बाद लोमड़ी ने उसे रंगे हाथों पकड़ने की योजना बनाई। उसने इस योजना की सूचना शेर सिंह को भी दी, ताकि वे समय पर पहुँच कर सच्चाई अपनी आँखों से देख सकें। लोमड़ी डॉक्टर चीनू के कमरे में गई और कहा कि वह पास के जंगल से आई है। वहाँ के राजा काफी बीमार हैं, यदि वे तुम्हारी दवाई से ठीक हो गए, तो तुम्हें मालामाल कर देंगे। यह सुनकर चीनू को लालच आ गया। उसने अपना सारा सामान समेटा और लोमड़ी के साथ दूसरे वन के राजा को देखने के लिए चल पड़ा। शेर सिंह जो पास ही छिपकर सारी बातें सुन रहा था, दौड़कर दूसरे जंगल में घुस गया और निर्धारित स्थान पर जाकर लेट गया। थोड़ी देर बाद लोमड़ी डॉक्टर चीनू को लेकर वहाँ पहुँची, जहाँ शेर सिंह मुँह ढँककर सो रहा था। जैसे ही चीनू ने राजा के मुँह से हाथ हटाया, वह शेर सिंह को वहाँ पाकर सकपका गया और डर से काँपने लगा। उसके हाथ से सारा सामान छूट गया, क्योंकि उसकी बेइमानी का सारा भेद खुल चुका था। तब तक सभी जानवर वहाँ आ गए थे। चीनू खरगोश हाथ जोड़कर अपनी कारगुजारियों की माफी माँगने लगा। राजा शेर सिंह ने आदेश दिया कि चीनू की बेइमानी से कमाई हुई सारी संपत्ति अस्पताल में मिला ली जाए और उसे धक्के मारकर जंगल से बाहर निकाल दिया जाए। शेर सिंह के आदेशानुसार चीनू खरगोश को धक्के मारकर जंगल से बाहर निकाल दिया गया। इस कार्रवाई को देखकर जंगलवासियों ने जान लिया कि ईमानदारी की हमेशा जीत होती है।

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

जीवन बस एक जीवन है

जीवन जीना भी एक कला है अगर हम इस जीवन को किसी कला की तरह जिए तो बहुत सुन्दर जीवन जिया जा सकता है ! वर्तमान में जब चारों ओर अशांति और बेचैनी का माहौल नजर आता है । ऐसे में हर कोई शांति से जीवन जीने की कला सीखना चाहता है । जीवन अमूल्य है ! जीवन एक यात्रा है ! जीवन एक निरंतर कोशिश है ! इसे सफलता पूर्वक जीना भी एक कला है ! जीवन एक अनंत धडकन है ! जीवन बस एक जीवन है ! एक पाने-खोने-पाने के मायाजाल में जीने और उसमे से निकलने की बदिश है ! इसे किस तरह जिया जावे कि एक सुखद, शांत, सद्भावना पूर्ण जीवन जीते हुये, समय की रेत पर हम अपने अमिट पदचिन्ह छोड़ सकें ? यह सतत अन्वेषण का रोचक विषय रहा है ।अक्‍सर देखने में आता है कि सुबह से लेकर साम तक बल्कि देर रात तक हमारे मित्र अनर्गल वार्तालाप, अनर्गल सोच विचार, करते रहते है, ऑफिस में सहकर्मियों से, दोस्तों से, बाजार में दुकानदार, घर में परिवार के सदस्यों से मनभेद करते है क्यों ? क्‍या आपने कभी यह सोचा है कि - जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या आपको पता है की आपका जन्म किस लिए हुआ है ? क्या है यह जीवन ? इस तरह के प्रश्न बहुत कीमती हैं । जब इस तरह के प्रश्न मन में जाग उठते हैं तभी सही मायने में जीवन शुरू होता है । ये प्रश्न आपकी जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं । ये प्रश्न वे साधन हैं जिनसे आपके अंत:करण में और गहरी डुबकी लगा सकते हो और जवाब तुम्हारे अंदर अपने आप उभर आएंगे । जब एक बार ये प्रश्न आपके जीवन में उठने लगते हैं, तब आप सही मायने में जीवन जीने लग जाते है ........ अगर आप जानना चाहते हो कि इस धरती पर आप किसलिए आए हो तो पहले यह पता लगाओ कि यहां किसलिए नहीं आए हो । आप यहां शिकायत करने नहीं आए हो, अपने दुखड़े रोने नहीं आए हो या किसी पर दोष लगाने के लिए नहीं आए हो । ना ही आप नफ़रत करने के लिए आए हो । ये बातें आपको जीवन में हर हाल में खुश रहना सिखाती हैं । उत्साह जीवन का स्वभाव है । दूसरों की प्रशंसा करने का और उनके उत्साह को प्रोत्साहन देने का मौका कभी मत छोड़ो । इससे जीवन रसीला हो जाता है । जो कुछ आप पकड़ कर बैठे हो उसे जब छोड़ देते हो, और स्वकेंद्र में स्थित शांत हो कर बैठ जाते हो तो समझ लो आप के जीवन में जो भी आनंद आता है, वह अंदर की गहराइयों से आएगा ।

सोमवार, 25 अगस्त 2014

जीवन का सार....

दुख एक मानसिक कल्पना है। कोई पदार्थ, व्यक्ति या क्रिया दुख नहीं है। संसार के सब नाम-रूप गधा-हाथी, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि खिलौने हैं। हम अपने को खिलौना मानेंगे तो गधा या हाथी होने का सुख-दुख होगा, अपने को स्वर्ण, मूल्यधातु देखेंगे तो यह मनुष्य देह नहीं रहेंगे। हम विराट् हैं, साक्षात्‌ ब्रह्म है। जो मनुष्य इस जगत प्रपंच को सत्य देखता है, उसे माया ने ठग लिया है। जो पहले भी नहीं थे, आगे भी नहीं रहेंगे, बीच में थोड़ी देर को दिखाई दे रहे हैं, उन्हीं को सब कुछ समझ कर माया मोहित मनुष्य व्यवहार कर रहा है। तत्वज्ञान शिक्षा देता है कि जो कुछ दिखाई दे, उसे दिखाई देने दो, जो बदलता है, उसे बदलने दो, जो आता-जाता है, उसे आने जाने दो। यह सब जादू का खेल है। ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।
पुराणों में एक कथा आती है महाराज जनक के जीवन में कोई भूल हो गई थी। मरने पर उन्हें यमलोक जाना पड़ा। वहां उससे कहा गया- नरक चलो। महाराज जनक तो ब्रह्मज्ञानी थे। उन्हें क्या स्वर्ग, क्या नरक। वे प्रसन्नतापूर्वक चले गए। नरक में पहुंचे तो चारों ओर से पुकार आने लगी- 'महाराज जनक जी! तनिक यहीं ठहर जाइए।' महाराज जनक ने पूछा- 'यह कैसा शब्द है?' यमदूतों ने कहा-'नरक के प्राणी चिल्ला रहे हैं।' जनक ने पूछा-'क्या कह रहे हैं ये?' यमदूत बाले-'ये आपको रोकना चाहते हैं।' जनक ने आश्चर्य से पूछा-'ये मुझे यहां क्यों रोकना चाहते हैं?' यमदूत बोले- 'ये पापी प्राणी अपने-अपने पापों के अनुसार यहां दारुण यातना भोग रहे हैं। इन्हें बहुत पीड़ा थी। अब आपके शरीर को स्पर्श करके पुण्य वायु इन तक पहुंची तो इनकी पीड़ा दूर हो गई। इन्हें इससे बड़ी शांति मिली।' जनक जी बोले-'हमारे यहां रहने से इन सबको शांति मिलती है, इनका कष्ट घटता है तो हम यहीं रहेंगे।' तात्पर्य यह है कि भला मनुष्य नरक में पहुंचेगा तो नरक भी स्वर्ग हो जाएगा और बुरा मनुष्य स्वर्ग में पहुंच जाए तो स्वर्ग को भी नरक बना डालेगा।

एक बार में सौ बच्चों को जन्म देती है बिच्छू

रायपुर। छत्तीसगढ़ में बारिश के बाद अब बिच्छुओं की फौज भी दिखने लगी है। वन्य प्राणी विशेषज्ञ कहतें है कि बारिश के दौरान ही बिच्छू प्रजनन करते हैं. बिच्छू एक बार में करीब 100 बच्चों को जन्म देते हैं, जिन्हें गर्मी देने और बचाने के लिए मादा बिच्छू अपनी पीठ पर लादकर सुरक्षित स्थान पर ले जाती है।
छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में इन दिनों ऐसे नजारे लोगों को भी आश्चर्यचकित कर रहे हैं. राजधानी स्थित रविशंकर शुल्क विश्वविद्यालय के लाइफ साइंस के प्रो. ए.के. पति के मुताबिक ब्लैक इंडियन स्कार्पियो छत्तीसगढ़ के कई क्षेत्रों में पाया जाता है. बिच्छू एक बार में करीब 100 बच्चों को जन्म देता है, और बरसात से बचने के लिए अपने बच्चों को पीठ पर लादकर सुरक्षित स्थान तक ले जाता है.वन्य प्राणी विशेषज्ञ मोइज अहमद बताते हैं कि इसे जयंत फॉरेस्ट स्कॉर्पियन भी कहा जाता है, इसका वैज्ञानिक नाम होटेना टोटा है, यह कम जहरीली प्रजाति का है. मादा बिच्छू के शरीर के अंदर अंडे विकसित होते हैं, लेकिन पैदा बच्चे के रूप में लेते हैं. जो एक बार में 100 तक होते हैं.उन्होंने बताया कि बच्चे के शरीर में छह परिवर्तन होते हैं. पहले परिवर्तन तक उनकी मां साथ रहकर बच्चों का ध्यान रखती है. बारिश की वजह से वह अपने बच्चों को पीठ पर लादकर सुरक्षित स्थान तक ले जाती है. यह प्रदेश के कई क्षेत्रों में पाया जाता है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

………तो उदासी कैसी

एक आदमी सागर के किनारे टहल रहा था। एकाएक उसकी नजर चांदी की एक छड़ी पर पड़ी, जो बहती-बहती किनारे आ लगी थी। वह खुश हुआ और झटपट छड़ी उठा ली। अब वह छड़ी ले कर टहलने लगा। धूप चढ़ी तो उसका मन सागर में नहाने का हुआ। उसने सोचा, अगर छड़ी को किनारे रखकर नहाऊंगा, तो कोई ले जाएगा। इसलिए वह छड़ी हाथ में ही पकड़ कर नहाने लगा। तभी एक ऊंची लहर आई और तेजी से छड़ी को बहाकर ले गई। वह अफसोस करने लगा। दुखी हो कर तट पर आ बैठा। उधर से एक संत आ रहे थे। उसे उदास देख पूछा, इतने दुखी क्यों हो? उसने बताया, स्वामी जी नहाते हुए मेरी चांदी की छड़ी सागर में बह गई। संत ने हैरानी जताई, छड़ी लेकर नहा रहे थे? वह बोला, क्या करता? किनारे रख कर नहाता, तो कोई ले जा सकता था। लेकिन चांदी की छड़ी ले कर नहाने क्यों आए थे? स्वामी जी ने पूछा। ले कर नहीं आया था, वह तो यहीं पड़ी मिली थी, उसने बताया। सुन कर स्वामी जी हंसने लगे। बोले, जब वह तुम्हारी थी ही नहीं, तो फिर दुख या उदासी कैसी? कभी कुछ खुशियां अनायास मिल जाती हैं और कभी कुछ श्रम करने और कष्ट उठाने से मिलती हैं। जो खुशियां अनायास मिलती हैं, परमात्मा की ओर से मिलती हैं, उन्हें सराहने का हमारे पास समय नहीं होता। इंसान व्यस्त है तमाम ऐसे सुखों की गिनती करने में, जो उसके पास नहीं हैं- आलीशान बंगला, शानदार कार, स्टेटस, पॉवर वगैरह। और भूल जाता है कि एक दिन सब कुछ यूं ही छोड़कर उसे अगले सफर में निकल जाना है।

सोमवार, 18 अगस्त 2014

ख़त्म हो चुका है यदुवंश ?

यदुवंशियों का नाश हो गया था महाभारत का युद्ध अधर्म के विरुद्ध धर्म का युद्ध था। लेकिन अधर्म की ओर वे लोग भी थे, जो धर्म के पक्षधर थे। एकमात्र यह युद्ध ऐसा युद्ध था जिससे कई घटनाओं और कहानियों का जन्म हुआ और जिससे भारत का भविष्य तय हुआ। इस युद्ध में एक ओर जहां भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा आदि को शाप दिया था वहीं भगवान कृष्ण को भी शाप का सामना करना पड़ा।
मथुरा अंधक संघ की राजधानी थी और द्वारिका वृष्णियों की। ये दोनों ही यदुवंश की शाखाएं थीं। यदुवंश में अंधक, वृष्णि, माधव, यादव आदि वंश चला। श्रीकृष्ण ने मथुरा से जाकर द्वारिका में अपना स्थान बनाया था। श्रीकृष्ण ने द्वारिका का फिर से निर्माण कराया था, क्योंकि उनकी चीन यात्रा के दौरान शिशुपाल ने द्वारिका को नष्ट कर दिया था। श्रीकृष्ण वृष्णि वंश से थे। वृष्णि ही 'वार्ष्णेय' कहलाए, जो बाद में वैष्णव हो गए। अब सवाल यह उठता है कि क्या कृष्ण के वंश का नाश हो जाने का शाप दिया गया था या कि संपूर्ण यदुवंश के नाश का? यदि गांधारी के शाप से यदुवंशियों का नाश हो गया था तो फिर आज भी क्यों यदुवंशी पाए जाते हैं। यदि पाए जाते हैं तो क्या ये सभी यदुवंशी नहीं हैं? श्रीकृष्ण को मिला था श्राप पहला शाप : महाभारत के युद्ध के पश्चात भगवान कृष्ण ने गांधारी को अपने सौ पुत्रों की मृत्यु के शोक में विलाप करते हुए देखा तो वे सांत्वना देने के उद्देश्य से उनके पास गए। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे कुल-वंश का भी आपस में एक-दूसरे को मारने के कारण नाश हो जाएगा। गौरतलब है कि गांधारी ने यहां यदुवंश के नाश का शाप नहीं दिया था। दूसरा शाप : एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ वृष्णिवंशी बालकों, जिनमें कृष्ण पुत्र साम्ब भी था, ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। शास्त्रों के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारकापुरी में आए रुद्र अवतार दुर्वासा मुनि के रूप व दुबले-पतले शरीर को देख उनकी नकल करने लगा। अपमानित दुर्वासा मुनि ने साम्ब को ऐसे कृत्य के लिए कुष्ठ रोगी होने का शाप दिया। फिर भी साम्ब नहीं माना और वही कृत्य दोहराया। तब दुर्वासा मुनि के एक ओर शाप से साम्ब से लोहे का एक मूसल पैदा हुआ, जो अंतत: यदुवंश की बर्बादी और अंत का कारण बना। श्रीकृष्ण का कुल और वंश, पुत्र-पुत्री भगवान श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं- रुक्मणि, जाम्बवती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। रुक्मणी : रुक्मणी से कृष्ण के 10 पुत्र थे जिसमें प्रद्युम्न सबसे बड़े थे। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध हुए जिनका विवाह बाणासुर की बेटी उषा से हुआ। जाम्बवती : जाम्बवती से कृष्ण के 2 पुत्र हुए। बड़े बेटे का नाम साम्ब और छोटे का नाम चारुभानु था। शूरसेन की पीढ़ी में ही वासुदेव और कुंती का जन्म हुआ। कुंती तो पांडु की पत्नी बनी जबकि वासुदेव से कृष्ण का जन्म हुआ। कृष्ण से प्रद्युम्न का और प्रद्युम्न से अनिरुद्ध का जन्म हुआ। कृष्ण के कई पुत्र और पौत्र थे। सभी के अपने-अपने क्षेत्र थे और अलग-अलग रहते थे। कैसे हुआ यदुवंशियों का नाश... पहली कथा : एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाए। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आए। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले होकर एक-दूसरे को मारने लगे। इस तरह से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को छोड़कर एक भी यादव जीवित न बचा। दूसरी कथा- 'गर्भवान’ साम्‍ब : महाभारत युद्ध के बाद जब 36वां वर्ष प्रारंभ हुआ तो राजा युधिष्ठिर को तरह-तरह के अपशकुन दिखाई देने लगे। विश्‍वामित्र, असित, दुर्वासा, कश्‍यप, वशिष्‍ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारका के पास पिंडारक क्षेत्र में निवास कर रहे थे। एक दिन सारण आदि किशोर जाम्‍बवती नंदन साम्‍ब को स्‍त्री वेश में सजाकर उनके पास ले गए और बोले- ऋषियों, यह कजरारे नैनों वाली बभ्रु की पत्‍नी है और गर्भवती है। यह कुछ पूछना चाहती है लेकिन सकुचाती है। इसका प्रसव समय निकट है, आप सर्वज्ञ हैं। बताइए, यह कन्‍या जनेगी या पुत्र। ऋषियों से मजाक करने पर उन्‍हें क्रोध आ गया और वे बोले, 'श्रीकृष्‍ण का पुत्र साम्‍ब वृष्णि और अर्धकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए लोहे का एक विशाल मूसल उत्‍पन्‍न करेगा। केवल बलराम और श्रीकृष्‍ण पर उसका वश नहीं चलेगा। बलरामजी स्‍वयं ही अपने शरीर का परित्‍याग करके समुद्र में प्रवेश कर जाएंगे और श्रीकृष्‍ण जब भूमि पर शयन कर रहे होंगे, उस समय जरा नामक व्याध उन्‍हें अपने बाणों से बींध देगा।' मुनियों की यह बात सुनकर वे सभी किशोर बहुत डर गए। उन्‍होंने तुरंत साम्‍ब का पेट (जो गर्भवती दिखने के लिए बनाया गया था) खोलकर देखा तो उसमें एक मूसल मिला। वे सब बहुत घबरा गए और मूसल लेकर अपने आवास पर चले गए। उन्‍होंने भरी सभा में वह मूसल ले जाकर रख दिया। उन्होंने राजा उग्रसेन सहित सभी को यह घटना बता दी। उन्‍होंने उस मूसल का चूरा-चूरा कर डाला तथा उस चूरे व लोहे के छोटे टुकड़े को समुद्र में फिंकवा दिया जिससे कि ऋषियों की भविष्यवाणी सही न हो। लेकिन उस टुकड़े को एक मछली निगल गई और चूरा लहरों के साथ समुद्र के किनारे आ गया और कुछ दिन बाद एरक (एक प्रकार की घास) के रूप में उग आया। मछुआरों ने उस मछली को पकड़ लिया। उसके पेट में जो लोहे का टुकडा था उसे जरा नामक ब्‍याध ने अपने बाण की नोंक पर लगा लिया। मुनियों के शाप की बात श्रीकृष्‍ण को भी बताई गई थी। उन्‍होंने कहा- ऋषियों की यह बात अवश्‍य सच होगी। एकाएक उन्‍हें गांधारी के शाप की बात याद आ गई। वृष्णिवंशियों को दो शाप- एक गांधारी का और दूसरा ऋषियों का। श्रीकृष्‍ण सब कुछ जानते थे लेकिन शाप पलटने में उनकी रुचि नहीं थी। 36वां वर्ष चल रहा था। उन्‍होंने यदुंवशियों को तीर्थयात्रा पर चलने की आज्ञा दी। वे सभी प्रभास में उत्सव के लिए इकट्ठे हुए और किसी बात पर आपस में झगड़ने लगे। झगड़ा इतना बढ़ा कि वे वहां उग आई घास को उखाड़कर उसी से एक-दूसरे को मारने लगे। उसी 'एरका' घास से यदुवंशियों का नाश हो गया। हाथ में आते ही वह घास एक विशाल मूसल का रूप धारण कर लेती। श्रीकृष्‍ण के देखते-देखते साम्‍ब, चारुदेष्‍ण, प्रद्युम्‍न और अनिरुद्ध की मृत्‍यु हो गई। कैसे शुरू हुई आपसी झगड़े की शुरुआत... मौसुल युद्ध : इस आपसी झगड़े को मौसुल युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध के कई रहस्य हैं। झगड़े की शुरुआत कृतवर्मा के अपमान से हुई। सात्‍यकि ने मदिरा के आवेश में उनका उपहास उड़ाते हुए कहा कि अपने को क्षत्रिय मानने वाला ऐसा कौन वीर होगा, जो रात में मुर्दे की तरह सोए मनुष्‍यों की हत्‍या करेगा। तूने जो अपराध किया है, यदुवंशी उसे कभी माफ नहीं कर सकते। उसके ऐसा कहने पर प्रद्युम्‍न ने भी कृतवर्मा का अपमान करते हुएउनकी बात का समर्थन किया। कृतवर्मा ने महाभारत का युद्ध लड़ा था और वे युद्ध में जीवित बचे 18 योद्धाओं में से एक थे। कृतवर्मा यदुवंश के अंतर्गत भोजराज हृदिक का पुत्र और वृष्णि वंश के 7 सेनानायकों में से एक था। महाभारत युद्ध में इसने एक अक्षौहिणी सेना के साथ दुर्योधन की सहायता की थी। कृतवर्मा कौरव पक्ष का अतिरथी योद्धा था। कृतवर्मा को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने एक हाथ उठाकर सात्‍यकि का तिरस्‍कार करते हुए कहा, 'भूरिश्रवा की बांह कट गई थी और वे मरणांत उपवास का निर्णय कर युद्ध भूमि में बैठ गए थे, उस अवस्‍था में भी तुमने वीर कहलाकर भी उनकी नृशंसतापूर्वक हत्‍या क्‍यों कर दी थी। यह तो नपुंसकों जैसा कृत्य था। इस बात पर सात्‍यकि को क्रोध आ गया। उन्‍होंने तलवार से कृतवर्मा का सिर धड़ से अलग कर दिया। बात बढ़ती चली गई और सब काल-कवलित हो गए। मूसल के प्रहार से उन सबने एक-दूसरे की जान ले ली। भगवान श्रीकृष्ण का निधन कैसे हुआ, इस घटना के बाद बलरामजी ने समुद्र में जाकर जल समाधि ले ली। भगवान श्रीकृष्ण महाप्रयाण कर स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गए। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण स्वधाम को पधार गए। इस तरह गांधारी तथा ऋषि दुर्वासा के शाप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया और ऋषियों द्वारा दिया गया शाप कि 'इस मूसल से सभी मारे जाएंगे' वह भी पूरा हुआ, क्योंकि मछली के पेट में मूसल का एक टुकड़ा था जिससे जरा ने अपना तीर बना लिया था।

रविवार, 17 अगस्त 2014

गरीबी से बालश्रम नहीं, बालश्रम से बढ़ रही गरीबी

हम हर साल यही कहा जाता है की बच्चो के हाथों में कलम किताब पकड़ाएं उन्हें स्कूल भेजे। सरकार कई योजनाएं चलाती है । छत्तीसगढ़ में सरकार ने स्कूल उत्सव मनाया और बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाने सभी मंत्री ,अधिकारी डटे रहे पर क्या सभी बच्चे स्कूल जा रहे है। चार दिन तक तो सभी इस पर ध्यान देते रहे बाद में इन बच्चो का सुध लेने वाला कोई नहीं है। आज भी सैकड़ों बच्चे रोज सड़कों पर काम करते देखे जा सकते हैं। सच में बचपन पर चारो ओर से खतरे हैं, यह एक कटु सच्चाई है. बाल अधिकारों के प्रति हम आज भी उतने सहिष्णु नहीं हो पाये हैं जितना हमें होना चाहिए. करीब दो महीने पहले भी पूरे देश में सरकारी स्तर पर बाल दिवस मनाया गया. कुछ अन्य संस्थाओं ने भी कार्यक्रम आयोजित किये लेकिन उनका तात्कालिक या दूरगामी नतीजा क्या रहा? देश में एक दो नहीं, लाखों बच्चे ऐसे हैं जो उचित व्यवस्था के अभाव में मानसिक-शारीरिक शोषण के शिकार हो रहे हैं. ऐसा नहीं है कि देश में बाल अधिकारों के रक्षण से जुड़े कानून नहीं हैं लेकिन या तो वे इतने दोषपूर्ण कि बाल अधिकारों को संरक्षण नहीं दे पा रहे या इन कानूनों के पालन सही तरीके से हो इस पर निगरानी रखने वाली कोई जिम्मेदार एजेंसी हमारे पास नहीं है.
बाधाएं जैसी हों, यह तय है कि ऐसे बच्चों की कमी नहीं जिनका बचपन असमय ही छीन लिया गया है. 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में लगभग 1 करोड़, 20 लाख बच्चे श्रमिक हैं. यकीनन बाद के नौ वर्षों में इस संख्या में इजाफा ही हुआ है. बच्चों के मौलिक अधिकार की बातें कागजों पर ही सीमित हैं. समाज बच्चों को उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में असफल रहा है. उनकी शिक्षा दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऐसे कामों में लगाना बदस्तूर जारी है जो उनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हुआ है. ऐसे कार्य जो बच्चों के बौद्धिक, मानसिक, शैक्षिक, नैतिक विकास में बाधा पहुंचाये बालश्रम की परिधि में आते हैं. बालश्रम के उन्मूलन के लिए 1986 में बने बालश्रम उन्मूलन कानून में कई खामी है. इनमें जोखिम भरे कार्यों में बाल श्रमिकों के कार्य करने पर रोक लगाने को विशेष जगह दी गई है. इस कानून के अनुच्छेदों से यही प्रतिध्वनित होता है कि केवल जोखिम भरे कार्यों में लगे बच्चे ही बाल श्रमिक की परिधि में आते हैं. जबकि सच्चाई यही है कोई भी स्थिति जो बच्चे को कमाई करने पर मजबूर कर रही हो बालश्रम है और ऐसे कार्यों में लगे बच्चे बाल श्रमिक. इन बाल श्रमिकों की संख्या पर रोक लगना तो दूर बल्कि अब और नये किस्म के बाल श्रमिक सामने आ रहे हैं.
रिएल्टी शो में कार्य करने वाले बच्चों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है. इन शो को देखकर साफ लगता है कि ये बच्चों का भला नहीं कर रहे बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं. बच्चों की चंचलता, उनकी हंसी, उनका भोलापन सभी को बाजार की चीज बना दी गई है. ऐसे शो भावनाओं को उभारने और इस जरिये अपना बाजार तलाशने में लगे रहते हैं. गौर करने वाली बात है कि ऐसे कार्यक्रमों के जरिये बच्चों में कलात्मकता और रचनात्मकता का विकास नहीं बल्कि शॉर्टकट तरीके से नेम फेम पाने की भावना जन्म ले रही है. आज बच्चों को चकाचौंध में लाकर उन्हें बाजारवाद का खिलौना बना दिया जा रहा है. बालश्रम का समूल विनाश किये बगैर बच्चों को सही आजादी नहीं दी जा सकती. मेरी समझ है कि बालश्रम पर रोक लगाने से बेरोजगारी भी दूर होगी. अभी जिन छह करोड़ बच्चों से काम कराया जा रहा है अगर उनकी जगह बड़े काम करें तो समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. हमें इस सच्चाई को भी समझना होगा कि गरीबी के कारण बालश्रम नहीं बढ़ रहा बल्कि बालश्रम के कारण गरीबी बढ़ रही है. हमें हर बच्चे को शिक्षा देने की दिशा में आगे बढ़ना होगा. इससे बालश्रम की समसया स्वत: दूर हो जाएगी. आज शिक्षा की दिशा में बालश्रम बड़ी बाधा खड़ी कर रही है.सभी प्रमुख देशों की तरह भारत में भी मुफ्त शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है, परंतु इससे सारे बच्चे जुड़ें ऐसी स्थिति अभी नहीं बन पायी है. आने वाले कुछेक वर्षों में हमें ऐसी स्थिति बनानी होगी तभी बच्चे सचमुच बच्चे रह पाएंगे।

कान्हा की लीला

कान्हा के 5240वें जन्मदिवस पर विशेष
भगवान श्रीकृष्ण का प्रत्येक रूप मनोहारी है। उनका बालस्वरूप तो इतना मनमोहक है कि वह बचपन का एक आदर्श बन गया है। इसीलिए जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण के इसी रूप की पूजा-अर्चना की जाती है, जिसमें वे चुराकर माखन खाते हैं, गोपियों की मटकी तोड़ते हैं और खेल-खेल में असुरों का सफाया भी कर देते हैं। इसी प्रकार उनकी रासलीला, गोपियों के प्रति प्रेम वाला स्वरूप भी मनमोहक है। इसी प्रकार उनका योगेश्वर रूप और महाभारत में अर्जुन के पथ-प्रदर्शक वाला रूप सभी को लुभाता और प्रेरणा देता है। अपनी लीलाओं में वे माखनचोर हैं, अर्जुन के भ्रांति-विदारक हैं, गरीब सुदामा के परम मित्र हैं, द्रौपदी के रक्षक हैं, राधाजी के प्राणप्रिय हैं, इंद्र का मान भंग करने वाले गोवर्धनधारी हैं। उनके सभी रूप और उनके सभी कार्य उनकी लीलाएं हैं। उनकी लीलाएं इतनी बहुआयामी हैं कि उन्हें सनातन ग्रंथों में लीलापुरुषोत्तम कहा गया है। मान्यता है कि चौंसठ विद्याओं और सोलह कलाओं के ज्ञाता कहे जाने वाले कला मर्मज्ञ चंद्रवंशी श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अ‌र्द्धरात्रि के समय रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। धर्मग्रंथों में इसे जन्म के बजाय प्रकट होना बताया गया है। उनके अनुसार, इसी तिथि को कारागारगृह में भगवान विष्णु देवकी और वसुदेव के समक्ष चतुर्भुज रूप में शंख, चक्र, गदा और कमल लिए प्रकट हुए थे, किन्तु माता देवकी के अनुरोध पर उन्होंने शिशु रूप धारण कर लिया। यही कारण है कि कुछ लोग जन्माष्टमी को गोपाल कृष्ण का जन्मोत्सव कहते हैं, तो कुछ उनका प्राकट्योत्सव। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के 51वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपना परिचय इस प्रकार देते हैं: ब्रह्मा जी ने मुझसे धर्म की रक्षा और असुरों का संहार करने के लिए प्रार्थना की थी। उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के यहां अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूं, इसलिए लोग मुझे वासुदेव कहते हैं।' महाभारत के अश्वमेध पर्व में भगवान श्रीकृष्ण अवतार लेने का कारण बताते हैं, 'मैं धर्म की रक्षा और उसकी स्थापना के लिए बहुत सी योनियों में जन्म (अवतार) धारण करता हूं।' जन्माष्टमी पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। झांकियां सजती हैं, मटकी फोड़ प्रतिस्पर्धाएं होती हैं। 'गोविंदा आला रे' गूंजता है। लीला पुरुषोत्तम का प्रत्येक प्रसंग प्रेरणा प्रदान करता है। जब मन अशांत हो, तब भगवान श्रीकृष्ण की वाणी 'गीता' घोर निराशा के बीच आशा की किरण दिखाने लगती है। तभी तो श्रीकृष्ण को 'आनंदघन' अर्थात आनंद का घनीभूत रूप कहा जाता है। नंदघर आनंद भयो, जय कन्हैयालाल की..। उन्होंने सिर्फ नंद के घर को आनंद से नहीं भरा, अपितु सभी के आनंद का मार्ग प्रशस्त किया।

शनिवार, 16 अगस्त 2014

सोलह कलाओं के अवतार हैं श्रीकृष्ण

पवित्र है कृष्‍ण जन्माष्टमी का दिन
भगवान श्रीकृष्ण को सोलह कलाओं का अवतार माना जाता है। सच में कृष्ण ने समाज के छोटे से छोटे व्यक्ति का सम्मान बढा़या, जो जिस भाव से सहायता की कामना लेकर कृष्ण के पास आया, उन्होंने उसी रूप में उसकी इच्छा पूरी की। अपने कार्यों से उन्होंने लोगों का इतना विश्वास जीत लिया कि आज भी लोग उन्हें 'भगवान श्रीकृष्ण' के रूप में ही मानते और पूजते हैं। कृष्ण पूर्णतया निर्विकारी हैं। तभी तो उनके अंगों के साथ भी लोग 'कमल' शब्द जोड़ते हैं, जैसे- कमलनयन, कमलमुख, करकमल आदि। उनका स्वरूप चैतन्य है। कृष्ण ने तो द्रोपदी का चीर बढ़ाकर उसे अपमानित होने से बचाया था।
श्रीकृष्‍ण जन्माष्टमी का दिन बड़ा ही पवित्र है। जैनियों के भावी तीर्थंकर और वैदिक परंपरा के नारायण श्रीकृष्ण के अवतरण का दिन है। कृष्ण ने सारी दुनिया को कर्मयोग का पाठ पढ़ाया। उन्होंने प्राणीमात्र को यह संदेश दिया कि केवल कर्म करना आदमी का अधिकार है। फल की इच्छा रखना उसका अधिकार नहीं। इंसान सुख और दुख दोनों में भगवान का स्मरण करता है। श्रीकृष्ण का जीवन भी उतार-चढ़ाव से भरा रहा है। उनके जीवन को हम तीन भागों में विभक्त करें तो वे जेल में पैदा हुए, महल में जिए और जंगल से विदा हुए। जेल में पैदा होना बुरी बात नहीं है, जेल में जीना और मरना अपराध हुआ करता है। आदमी जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। भगवान श्रीकृष्ण, मर्यादा पुरुषोत्तम राम और भगवान महावीर आदि महापुरुषों ने हमें जीवन जीने की सीख दी है। राम, कृष्ण और महावीर का जीवन अलग-अलग मर्यादाओं और संदेशों पर आधारित है। राम ने जीवन भर मर्यादाएं नहीं तोड़ीं वे देव बनकर जिए। श्रीकृष्ण वाकपुटता में जीवन जीते रहे। मर्यादाओं से नीरस हुए जीवन को कृष्ण ने रस और आनंद से भर दिया, लेकिन महावीर ने परम विश्राम और समाधि का सूत्र दिया। उन्होंने मौन साधना सिखाई।मित्रता सीखनी हो तो कृष्ण से सीखो वे सबको अपने समान चाहते थे। उनकी दृष्टि में अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं था। अत: हमें भी कृष्ण की इसी सीख को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।

कारागार में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण की जन्म कथा
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि यह दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिवस माना जाता है। इसी तिथि की घनघोर अंधेरी आधी रात को रोहिणी नक्षत्र में मथुरा के कारागार में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। यह तिथि उसी शुभ घड़ी की याद दिलाती है और सारे देश में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। जन्माष्टमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण की जन्म संबंधी कथा भी सुनते-सुनाते हैं, जो इस प्रकार है- 'द्वापर युग में भोजवंशी राजा उग्रसेन मथुरा में राज्य करता था। उसके आततायी पुत्र कंस ने उसे गद्दी से उतार दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा। कंस की एक बहन देवकी थी, जिसका विवाह वसुदेव नामक यदुवंशी सरदार से हुआ था। एक समय कंस अपनी बहन देवकी को उसकी ससुराल पहुंचाने जा रहा था। रास्ते में आकाशवाणी हुई- 'हे कंस, जिस देवकी को तू बड़े प्रेम से ले जा रहा है, उसी में तेरा काल बसता है। इसी के गर्भ से उत्पन्न आठवां बालक तेरा वध करेगा।' यह सुनकर कंस वसुदेव को मारने के लिए उद्यत हुआ। तब देवकी ने उससे विनयपूर्वक कहा- 'मेरे गर्भ से जो संतान होगी, उसे मैं तुम्हारे सामने ला दूंगी। बहनोई को मारने से क्या लाभ है?' कंस ने देवकी की बात मान ली और मथुरा वापस चला आया। उसने वसुदेव और देवकी को कारागृह में डाल दिया। वसुदेव-देवकी के एक-एक करके सात बच्चे हुए और सातों को जन्म लेते ही कंस ने मार डाला। अब आठवां बच्चा होने वाला था। कारागार में उन पर कड़े पहरे बैठा दिए गए। उसी समय नंद की पत्नी यशोदा को भी बच्चा होने वाला था।
उन्होंने वसुदेव-देवकी के दुखी जीवन को देख आठवें बच्चे की रक्षा का उपाय रचा। जिस समय वसुदेव-देवकी को पुत्र पैदा हुआ, उसी समय संयोग से यशोदा के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ, जो और कुछ नहीं सिर्फ 'माया' थी। जिस कोठरी में देवकी-वसुदेव कैद थे, उसमें अचानक प्रकाश हुआ और उनके सामने शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए चतुर्भुज भगवान प्रकट हुए। दोनों भगवान के चरणों में गिर पड़े। तब भगवान ने उनसे कहा- 'अब मैं पुनः नवजात शिशु का रूप धारण कर लेता हूं। तुम मुझे इसी समय अपने मित्र नंदजी के घर वृंदावन में भेज आओ और उनके यहां जो कन्या जन्मी है, उसे लाकर कंस के हवाले कर दो। इस समय वातावरण अनुकूल नहीं है। फिर भी तुम चिंता न करो। जागते हुए पहरेदार सो जाएंगे, कारागृह के फाटक अपने आप खुल जाएंगे और उफनती अथाह यमुना तुमको पार जाने का मार्ग दे देगी।' उसी समय वसुदेव नवजात शिशु-रूप श्रीकृष्ण को सूप में रखकर कारागृह से निकल पड़े और अथाह यमुना को पार कर नंदजी के घर पहुंचे। वहां उन्होंने नवजात शिशु को यशोदा के साथ सुला दिया और कन्या को लेकर मथुरा आ गए। कारागृह के फाटक पूर्ववत बंद हो गए।
अब कंस को सूचना मिली कि वसुदेव-देवकी को बच्चा पैदा हुआ है। उसने बंदीगृह में जाकर देवकी के हाथ से नवजात कन्या को छीनकर पृथ्वी पर पटक देना चाहा, परंतु वह कन्या आकाश में उड़ गई और वहां से कहा- 'अरे मूर्ख, मुझे मारने से क्या होगा? तुझे मारनेवाला तो वृंदावन में जा पहुंचा है। वह जल्द ही तुझे तेरे पापों का दंड देगा।' यह है कृष्ण जन्म की कथा।

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

तीन बार बदला हमारे तिरंगे का रूप

* सन्‌ 1921 में गांधी जी द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के लिए इस झंडे की पेशकश की गई। * सन्‌ 1931 में कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के लिए पारित स्वराज झंडा। * 1947 से इस ध्वज को स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया गया। हमारे देश की शान तिरंगा झंडा। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज तक तिरंगे की कहानी में कई रोचक मोड़ आए। पहले उसका स्वरूप कुछ और था और आज कुछ और है। हम प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाते हैं लेकिन बहुत ही कम लोगों को अपने राष्ट्रीय ध्वज के बारे में पूरी जानकारी है। अपने पाठकों को तिरंगे की कहानी के रूप में कुछ जानकारियां स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रस्तुत कर रहे हैं। बापू की पेशकश
सबसे पहले देश के राष्ट्रीय ध्वज की पेशकश 1921 में महात्मा गांधी ने की थी। जिसमें बापू ने दो रंग के झंडे को राष्ट्रीय ध्वज बनाने की बात कही थी। इस झंडे को मछलीपट्टनम के पिंगली वैंकैया ने बनाया था। दो रंगों में लाल रंग हिन्दू और हरा रंग मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करता था। बीच में गांधी जी का चरखा था जो इस बात का प्रमाण था कि भारत का झंडा अपने देश में बने कपड़े से बना। फिर बना स्वराज झंडा
इसके बाद स्वतंत्रता के आंदोलन के अंतर्गत खिलाफत आंदोलन में तीन रंगों के स्वराज झंडे का प्रयोग किया गया। खिलाफत आंदोलन में मोतीलाल नेहरू ने इस झंडे को थामा और बाद में कांग्रेस ने 1931 में स्वराज झंडे को ही राष्ट्रीय ध्वज की स्वीकृति दी। जिसमें ऊपर केसरिया बीच में सफेद और नीचे हरा रंग था। साथ ही बीच में नीले रंग से चरखा बना हुआ था। 1947 में आया नया तिरंगा
देश के आजाद होने के बाद संविधान सभा में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 22 जुलाई 1947 में वर्तमान तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज घोषित किया। जिसमें तीन रंग थे। ऊपर केसरिया, बीच में सफेद और नीचे हरा रंगा। सफेद रंग की पट्टी में नीले रंग से बना था अशोक चक्र जिसमें 24 तीलियां थीं जो धर्म और कानून का प्रतिनिधित्व करती थीं। राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का वही स्वरूप आज भी मौजूद है। खादी का झंडा
स्वराज झंडे पर आधारित तिरंगे झंडे के नियम-कानून फ्लैग कोड ऑफ इंडिया द्वारा बनाए गए। जिसमें निर्धारित था कि झंडे का प्रयोग केवल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर ही किया जाएगा। इसके बाद 2002 में नवीन जिंदल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। जिसके पक्ष में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को निर्देश दिए कि अन्य दिनों में भी झंडे का प्रयोग नियंत्रित रूप में हो सकता है। इसके बाद 2005 में जो सुधार हुआ उसके अंतर्गत कुछ परिधानों में भी तिरंगे झंडे का प्रयोग किया जा सकता है। भारतीय ध्वज संहिता के प्रावधान के अनुरूप नागरिकों एवं बच्चों से शासन की अपील है कि वे स्वतंत्रता दिवस पर केवल कागज के बने राष्ट्रीय ध्वज का ही उपयोग करें। साथ ही कागज के झंडों को समारोह संपन्न होने के बाद न विकृत किया जाए और न ही जमीन पर फेंका जाए। ऐसे झंडों का निपटान उनकी मर्यादा के अनुरूप ही किया जाना चाहिए। आमजन से आग्रह है कि वे स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्लास्टिक से बने झंडों का उपयोग बिलकुल ही न करें, क्योंकि प्लास्टिक से बने झंडे लंबे समय तक नष्ट नहीं होते हैं और जैविक रूप से अपघट्य न होने के कारण ये वातावरण के लिए हानिकारक होते हैं। साथ ही इधर-उधर पड़े रहने से राष्ट्रीय ध्वज की गरिमा को आघात पहुंचता है।

बुधवार, 13 अगस्त 2014

बहुरूपिया गधा (पंचतंत्र की चटपटी कहानी)

एक नगर में धोबी रहता था। उसके पास एक गधा था, जिस पर वह कपड़े लादकर नदी तट पर ले जाता और धुले कपड़े लादकर लौटता। धोबी का परिवार बड़ा था। सारी कमाई आटे, दाल और चावल में खप जाती। गधे के लिए चारा खरीदने के लिए कुछ न बचता। गांव की चारागाह पर गाय-भैंसें चरतीं। अगर गधा उधर जाता तो चरवाहे डंडों से पीटकर उसे भगा देते। ठीक से चारा न मिलने के कारण गधा बहुत दुर्बल होने लगा।
धोबी को भी चिंता होने लगी, क्योंकि कमजोरी के कारण उसकी चाल इतनी धीमी हो गई थी कि नदी तक पहुंचने में पहले से दुगना समय लगने लगा था। एक दिन नदी किनारे जब धोबी ने कपड़े सूखने के लिए बिछा रखे थे तो आंधी आने से कपड़े इधर-उधर हवा में उड़ गए। आंधी थमने पर उसे दूर-दूर तक जाकर कपड़े उठाकर लाने पड़े। अपने कपड़े ढूंढता हुआ वह सरकंडो के बीच घुसा। सरकंडो के बीच उसे एक मरा बाघ नजर आया। धोबी कपड़े लेकर लौटा और गट्ठर को बांधकर गधे पर लादने लगा, तो वह लड़खड़ाने लगा। धोबी ने देखा कि उसका गधा इतना कमजोर हो गया है कि एक-दो दिन बाद बिल्कुल ही बैठ जाएगा। तभी धोबी को एक उपाय सूझा। वह सोचने लगा, 'अगर मैं उस बाघ की खाल उतारकर ले आऊं और रात को इस गधे को वह खाल ओढ़ाकर खेतों की ओर भेजूं तो लोग इसे बाघ समझकर डरेंगे, जिससे कोई निकट नहीं फटकेगा और गधा खेत चर लिया करेगा।' धोबी ने ऐसा ही किया। दूसरे दिन नदी तट पर कपडे जल्दी धोकर सूखने डाल दिए और फिर वह सरकंडो के बीच जाकर बाघ की खाल उतारने लगा। शाम को लौटते समय वह खाल को कपड़ों के बीच छिपाकर घर ले आया।
रात को जब सब सो गए तो उसने बाघ की खाल गधे को ओढ़ाई। गधा दूर से देखने पर बाघ जैसा ही नजर आने लगा। धोबी संतुष्ट हुआ। फिर उसने गधे को खेतों की ओर खदेड़ दिया। गधे ने एक खेत में जाकर फसल खाना शुरू किया। रात को खेतों की रखवाली करने वालों ने खेत में बाघ देखा तो वे डरकर भाग खडे हुए। गधे ने भरपेट फसल खाई और रात अंधेरे में ही घर लौट आया। धोबी ने तुरंत खाल उतारकर छिपा ली। अब तो गधे के मजे हो गए। हर रात धोबी उसे खाल ओढ़ाकर छोड़ देता। गधा सीधे खेतों में पहुंच जाता और मनपसंद फसल खाने लगता। गधे को बाघ समझकर सब अपने घरों में दुबक कर बैठे रहते। फसलें चर-चरकर गधा मोटा होने लगा। अब वह दुगना भार लेकर चलता। धोबी भी खुश हो गया। मोटा-ताजा होने के साथ-साथ गधे के दिल का भय भी मिटने लगा। उसका जन्मजात स्वभाव जोर मारने लगा। एक दिन भरपेट खाने के बाद गधे की तबीयत मस्त होने लगी। वह भी लगा लोट लगाने। खूब लोट लगाने वह गधा, इसी बीच बाघ की खाल तो एक ओर गिर गई और अब वह केवल गधा बनकर उठ खडा हुआ और डोलता हुआ खेत से बाहर निकला। गधे के लोट लगाने के समय पौधों के रौंदे जाने और चटकने की आवाज फैली। एक रखवाला चुपचाप बाहर निकला। खेत में झांका तो उसे एक ओर गिरी बाघ की खाल नजर आई और दिखाई दिया खेत से बाहर आता एक गधा। वह चिल्लाया, 'अरे, यह तो गधा है।'
उसकी आवाज औरों ने भी सुनी। सब अपने-अपने डंडे लेकर दौड़े। गधे का कार्यक्रम खेत से बाहर आकर रेंकने का था। उसने मुंह खोला ही था कि उस पर डंडे बरसने लगे। क्रोध से भरे रखवालों ने उसे वहीं ढेर कर दिया। उसकी सारी पोल खुल चुकी थी। धोबी को भी वह नगर छोड़कर कहीं और जाना पड़ा। सीखः पहनावा बदल कर दूसरों को कुछ ही दिन धोखा दिया जा सकता है। अंत में असली रूप सामने आ ही जाता है।

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

प्याज़ से निकले आत्मनिर्भरता के आंसू

मैंने जब-जब आत्मनिर्भर होने की कोशिश की, कोई न कोई ट्रैजेडी हो ही जाती है। पिछले महीने मैं अपने गांव गया था, रास्ते में किसी जेबकतरे ने मुझे आत्मनिर्भर होने से रोक दिया। घर पहुंचकर पता चला कि मैं बगैर फोन के हूं। इस कलियुग में बगैर बीवी के जिया जा सकता है, बगैर सेलफोन के नहीं। नई सरकार देश को आत्मनिर्भर बनाने में लगी हुई है। यह प्रयास सनातन काल से चल रहा है। जो भी पार्टी सत्ता में आती है, देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहती है, पर बदकिस्मती देखिए कि कोई सरकार मंहगाई और भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाती है, तो कोई 'अच्छे दिन' में प्याज़ के आंसू रोने लगती है। नतीजा आत्मनिर्भरता की इस दौड़ में नेता आगे निकल जाता है, देश पीछे छूट जाता है। दो दशक में सियासत में भी सब्ज़ी मंडी का बोलबाला रहा। पिछले पचास साल से देश को शिक्षा के मामले में आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास चल रहा है। कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल उग आए। शिक्षा मंडी लग गई, नौजवानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए शिक्षित होना अनिवार्य बता कर सरकार और शिक्षा मंत्री कोमा में चले जाते हैं। अब अभिभावक अपनी औलाद को लेकर इस मंडी में खड़ा है। सरकारी कॉलेज की कट ऑफ लिस्ट में कहीं नाम नहीं और प्राइवेट शिक्षा मंडी में 'एडमिशन' खरीदने की औकात नहीं। जाएं तो जाएं कहां! मन मारकर युवा टैलंट 'हुक्का पार्लर में' आत्मनिर्भर होने लगता है। पिछली सरकार साठ साल से देश को आत्मनिर्भर बनाने में लगी रही। घोटालों के चक्रवात में जनता गोल-गोल घूमती रही। क्लर्क से लेकर काउन्सलर तक आत्मनिर्भर होते रहे -देश का फिर नंबर नहीं आया। बीजेपी सरकार को और जल्दी है। उनके एक नेता तो 'कुंवारों' को भी आत्मनिर्भर बनाने का वादा कर रहे हैं। आज जनता 'अच्छे दिन' की चपेट में है। महंगाई की सूनामी फिर आहट दे रही है। प्याज़ का प्रेत उठ खड़ा हुआ है। खाद्य मंत्री कह रहे हैं-'देश पूरी तरह (अन्न के मामले में) आत्मनिर्भर हैं-। मंत्री जी! अन्न के बारे में आत्मनिर्भर होने पर बधाई, पर लगे हाथ यह तो बता दो कि उन्हें सुरक्षित रखने के बारे में कब तक आत्मनिर्भर हो जाएंगे? आए दिन खुले आसमान के नीचे लाखों टन अनाज सड़ जाता है। अब मुझे पूरा यकीन है कि देश महंगाई के मामले में 'आत्मनिर्भर' हो चुका है। महंगाई एक शाश्वत सत्य है। इसके पीछे सरकार का तो बिल्कुल हाथ नहीं है। जब-जब जांच हुई जनता ही कुसूरवार पाई गई। पिछली सरकार ने जांच के बाद पाया था कि महंगाई के पीछे जनता का 'खानपान जिम्मेदार है। (जनता चटोरी हो गई या फिर ज्यादा खाने लगी है ) अब नई सरकार ने भी मंहगाई के लिए जनता के खानपान को जिम्मेदार ठहराया है। उम्र के पचास साल पूरे करने के बाद भी मैं अक्ल के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया। एक से एक 'मंगनी लाल' आलू बेचते आए और देखते ही देखते अरबपति हो गए। हम तो-कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे। लाइफ में जितनी बार आत्मनिर्भर होने की कोशिश की, घर की थाली का कद छोटा होता गया। कल चौधरी मुझसे पूछ बैठा- 'उरे कू सुण भारती! तू आत्मनिर्भर हुआ कि नहीं?' 'पिछले महीने किसी जेबकतरे ने मेरा सेलफोन निकाल लिया। तबसे बड़ा कन्फ्यूज्ड हूं।' 'अरे, मैं तो तब तक आत्मनिर्भर होने की सोच भी नहीं सकता, जिब तक तू कुंडली में बैठो है।' 'आज अचानक तुम्हें आत्मनिर्भर होने की क्या सूझी?' 'कल टीवी पर खबर सुनी, तब मन्ने पतो लग्या-अक-मैं आत्मनिर्भर हो रहा हूं। उतै खबर में एक आत्मनिर्भर नेता नू कह रहो-अक-इस प्रक्षेपण के बाद देश घना आत्मनिर्भर हो गयो-।' 'फिलहाल तो महंगाई की बौछार में जनता का कंबल और भारी हो गया है। सूखी हलक और पथरायी आंखों से जनता कभी प्याज़ की बुलंदी देखती है तो कभी प्रक्षेपित सेटेलाइट्स की। ऐसे कालाहारी में तुझे आत्मनिर्भर होने की पड़ी है?' चौधरी मुझे घूर रहा था।

सोमवार, 11 अगस्त 2014

जीवन में जरूरी है यह जानना

दिन और तिथि से जानें कब क्या न खाएं शास्त्रों में खाद्य पदार्थों के सेवन संबंधी कुछ नियम दिए गए हैं। आइए जानें कि दिन और तिथि के अनुसार क्या खाना आपके लिए नुकसानदायक हो सकता है- सूर्यास्त के बाद तिल की कोई भी वस्तु का प्रयोग नहीं करनी चाहिए। अमावस्या, रविवार और पूनम को तिल का तेल हानिकारक होता है। रविवार को तुलसी, अदरक, लाल मिर्च और लाल सब्जी नहीं खाना चाहिए। रविवार, शुक्रवार और षष्ठी को आंवला नहीं खाना चाहिए। तृतीया तिथि को परवल नहीं खाना चाहिए (तृतीया को परवल खाने से शत्रुओं की वृद्धि होती है)। चतुर्थी को मूली नहीं खाना चाहिए (चतुर्थी को मूली खाने से धन-नाश होता है)। अष्टमी को नारियल नहीं खाना चाहिए (अष्टमी नारियल खाने से बुद्धि कमजोर होगी, रात को नारियल नहीं खाना चाहिए) त्रयोदशी को बैगन नहीं खाना चाहिए (त्रयोदशी को बैंगन खाने से पुत्र नाश या पुत्र से दुख मिलता है) ०००००००००००००००००००००० कालसर्प दोष को दूर करने के अचूक उपाय 12 प्रकार के होते हैं कालसर्प दोष कालसर्प दोष को लेकर लोगों में काफी भय और आशंका-कुशंकाएं रहती हैं, लेकिन कुछ आसान और अचूक उपायों से इसके असर को कम किया जा सकता है। शोध से पता चलता है कि जिनकी भी कुंडली में यह दोष पाया गया है, उसका जीवन या तो रंक जैसे गुजरता है या फिर राजा जैसे। राहु का अधिदेवता काल है तथा केतु का अधिदेवता सर्प है। इन दोनों ग्रहों के बीच कुंडली में एक तरफ सभी ग्रह हों तो कालसर्प दोष कहते हैं। राहु-केतु हमेशा वक्री चलते हैं तथा सूर्य चंद्रमार्गी। ज्योतिषी शास्त्रों के अनुसार कालसर्प दोष 12 प्रकार के बताए गए हैं।
1. अनंत, 2. कुलिक, 3. वासुकि, 4. शंखपाल, 5. पद्म, 6. महापद्म, 7. तक्षक, 8. कर्कोटक, 9. शंखनाद, 10. घातक, 11. विषाक्त, 12. शेषनाग। कुंडली में 12 तरह के कालसर्प दोष होने के साथ ही राहु की दशा, अंतरदशा में अस्त-नीच या शत्रु राशि में बैठे ग्रह मारकेश या वे ग्रह जो वक्री हों, उनके चलते जातक को कष्टों का सामना करना पड़ता है। इस योग के चलते जातक असाधारण तरक्की भी करता है, लेकिन उसका पतन भी एकाएक ही होता है। किसी कुंडली के जानकार व्यक्ति से ही कालसर्प दोष का निवारण कराया जाना चाहिए। कुछ सरल उपायों से भी व्यक्ति अपने दुख तथा समस्याओं में कमी कर सकता है। 1. राहु तथा केतु के मंत्रों का जाप करें या करवाएं- राहु मंत्र : ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम: केतु मंत्र : ॐ स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं स: केतवे नम:। 2. सर्प मंत्र या नाग गायत्री के जाप करें या करवाएं। सर्प मंत्र- ॐ नागदेवताय नम: नाग गायत्री मंत्र- ॐ नवकुलाय विद्यमहे विषदंताय धीमहि तन्नो सर्प: प्रचोदयात् 3. ऐसे शिवलिंग (शिव मंदिर में) जहां ॐ शिवजी पर नाग न हो, प्रतिष्ठा करवाकर नाग चढ़ाएं। 4. श्रीमद् भागवत और श्री हरिवंश पुराण का पाठ करवाते रहें। 5. दुर्गा पाठ करें या करवाएं। 6. भैरव उपासना करें। 7. श्री महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने से राहु-केतु का असर खत्म होगा। 8. राहु-केतु के असर को खत्म करने के लिए रामबाण है- पाशुपतास्त्र का प्रयोग। 9. पितृ शांति का उपाय करें। 10. घर में फिटकरी, समुद्री नमक तथा देशी गाय का गौमूत्र मिलाकर रोज पोंछा लगाएं तथा गुग्गल की धूप दें। 11. नागपंचमी को सपेरे से नाग लेकर जंगल में छुड़वाएं। 12. घर में बड़ों का आशीर्वाद लें तथा किसी का दिल न दुखाएं और न अपमान करें।

जीवन में श्रीकृष्ण का गुणगान जरूरी

(हेमलता यादव ,जयपुर)|
जन्म-जन्मांतरों का सुकृत पुण्य जब उदय होता है, तभी हमारे जीवन में भगवान के मंगलमय लीला चरित्र के गुणगान का सौभाग्य मिलता है। हमारे जीवन का वही क्षण कृतार्थ है, जिसमें उत्तम श्लोक भगवान श्री राधा-कृष्ण के गुणों का गान होता है। जीवन की सार्थकता श्री राधा-कृष्ण लीला श्रवण में है। श्री राधा-कृष्ण नाम का संकीर्तन, कथा श्रवण, श्री राधा-कृष्ण के गुणों का गान दर्शन ही हमारे जीवन का परम महोत्सव है। परंतु दुर्भाग्य से यह महोत्सव हमारे जीवन में संपन्न नहीं होता। अन्य विविध प्रकार के उत्सव मनाने का हमें अनुभव है। बड़ा उल्लास होता है उत्सवों में। कितना प्रकाश, कितना शोर, कितनी मेहमानी मेजबानी होती है। परंतु इन सारे उत्सवों की रात गुजर जाने के बाद सुबह का सूरज हमारी जिंदगी में कुछ अंधेरी रेखाएं और खींच जाता है कभी ऐसा उत्सव हमारी जिंदगी में नहीं आया है जिसके पीछे हमें कोई आनंद, उल्लास मिला हो। दिखावे में प्रदर्शन में हम पार्टियां करते हैं, अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर देते हैं और जब मांगने वाले द्वार पर खड़े होते हैं तो हम चीखते-चिल्लाते तनाव से भर जाते हैं। एक के बाद एक हमारा उत्सव चलता है। परंतु उल्लास हमसे छिन जाता है। जो शांति जो चेतना, जो प्रकाश हमारे जीवन में मिला था हम अपने ही अज्ञान के कारण उससे वंचित हो जाते हैं। भगवान की कथा नाम संकीर्तन में ही वह शक्ति है कि शोक का समुद्र भी हो तो सूख जाता है। जीवन परम आनंद तथा शांति को उपलब्ध हो जाता है। समस्याएं और संकट तो जीवन में आते ही हैं। पुत्र है तो कभी बिछुड़ सकता है। तरुण रूठ सकता है विमुख हो सकता है, बूढ़ी आंखों के सामने। भाई-बहन का विछोह हो सकता है। संसार में शोक के कारण तो पैदा होंगे ही, क्योंकि उसके साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ा हुआ है। जब तक शरीर है, शरीर से बने हुए संबंध हैं, कहीं संयोग होगा तो कहीं वियोग होगा। कहीं हर्ष होगा तो कहीं विषाद होगा। दोनों से हमें जो परे कर दे ऐसा जो नित्य नवनवायमान परम महोत्सव है- 'तदेव शाश्वन्मनसो महोत्सवम्‌' अर्थात् वही हमारे मन का शाश्वत महोत्सव है। शरीर का उत्सव नहीं है, विवाह का उत्सव नहीं है, जन्मदिन का उत्सव नहीं है, वह तो शाश्वत महोत्सव है हमारे मन का जो शोक सागर का भी शोषण करने में समर्थ है। जिसने अपने को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया है, उसके जीवन में कौन-सा शोक आ सकता है, कौन-सी आपत्तियां-विपत्तियां आ सकती हैं। और यदि आई भी हैं तो प्रभु चरणों में समर्पित कर देना है कि प्रभु यह सब तुम्हारी ही लीला है। तुम जानो तुम्हारा काम जाने। फिर हम हैं कहां बीच में। अगर हम बीच में आ जाते हैं तो सहना पड़ेगा, झेलना पड़ेगा।हमारा वस्तुतः हम बीच में आ ही जाते हैं, क्योंकि समर्पण नहीं है अपने प्रियतम प्रभु के प्रति हमारे जीवन में। समर्पण क्यों नहीं है? क्योंकि विश्वास नहीं हैं। जरा-सी संकट की घड़ी आई नहीं कि भागने लगे इधर से उधर। परीक्षा की घड़ी आती है तो विश्वास हमारा टूट जाता है। श्रद्धा समर्पण भरे हृदय से शुद्ध भाव से श्री राधा-कृष्ण के श्रीचरणों में हमारा समर्पण हो जाए तो जीवन सार्थक हो जाए।

भारत में बहती हैं देश-प्रेम की गंगा!

० इस धरती ने अनेक शूरवीरों को जन्मा
मां तुझे सलाम! अमर शायर इकबाल के उक्त कथन में पूर्ण सच्चाई है हमारा देश भारत सचमुच संसार का शिरोमणि देश है। यह केवल एशिया का ही दिव्य भाल नहीं है, विश्व का मुकुट है। भारत प्रकृति का पालक है। छः ऋतुएं यहां मुस्कराती हुई गुजर जाती हैं। सिंधु, गंगा, यमुना, कृष्णा, काबेरी, नर्मदा सरिताएं अपने अमृत जल से इस धरती को सींचती हैं। तभी तो यहां की उर्वरा भूमि अनाज उगलती है। भारत की स्वर्ण भूमि विदेशियों के लिए सदा ही आकर्षक का केंद्र रही है। सिकंदर बार, कोलंबस, वास्कोडिगामा आदि की यात्राएं इसी तथ्य को सिद्ध करती हैं। मानव की तो विसात ही क्या देवता और भगवान तक इस भूमि पर जन्म लेने के लिए ललचाते रहे हैं। राम, कृष्ण, गौतम, गुरु नानक जैसे अवतारी पुरुष भारत में ही जन्मे थे। मां ने अपनी कोख से अनेक शूरवीरों को जन्म दिया। धर्मवीर युधिष्ठिर, दानवीर कर्ण, युद्धवीर अर्जुन, दयावीर महावीर सब भारत भूमि की ही तो उपज थे।भारत ही वह देश है जिसमें ज्ञान और विज्ञान की रश्मियां सबसे पहले विकीर्ण हुई थीं। नालंदा और तक्षशिला के खड्डहर आज भी इसी बात के साक्षी हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का लुप्त वैभव प्राचीन भारतीय संस्कृति का ही शंख फूंक रहा है। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मत मतान्तरों और जातियों का देश रहा है। अनेक धर्मों की त्रिवेणी यहीं हैं अनेक जातियों का संगम इस देश में हुआ है। हिंदू, मुस्लिम, जैन, ईसाई और पारसी सब सुखपूर्वक यहां निवास करते हैं। देश-प्रेम की पावन गंगा भारत में बहती है। हमारा देश विदेशियों के द्वारा पद्दलित हुआ दो सौ वर्ष तक हम अंग्रेजों के गुलाम रहे। इस अद्योगति से हमें देश के रत्न बाल गंगाधर तिलक, पंजाब केसर लाला लाजपतराय, शहीद भगत सिंह, त्यागमूर्ति चन्द्रशेखर आजाद, वीर सुभाष, नेहरू, लौह हृदय श्री लालबहादुर शास्त्री आदि देश भक्तों ने उबारा। इन लोगों ने परतंत्र भारत की बेड़ियां काटीं। 15 अगस्त 1947 के दिन देश स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के बाद भारत के राष्ट्रीय गौरव को नेहरू जी ने दिन प्रतिदिन बढ़ाया। पुराने तीर्थों की जगह नए तीर्थों ने ले ली। आज भारत शिक्षा, विज्ञान, राजनीति, प्रौद्योगिक विकास आदि सभी क्षेत्रों में प्रगति पथ पर है। भारत की इस अद्भुत संस्कृति, गौरवमय गाथा, उज्ज्वल भविष्य, प्रकृति शिरोमणि को देखते हुए प्रत्येक भारतीय के दिल से केवल एक ही आवाज निकलती है- 'मां तुझे सलाम।

ब्रजभूमि : जहां कृष्ण ने की अनेक लीलाएं...

(अरुण कुमार बंछोर)
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भगवान्‌ श्रीकृष्ण धन्य हैं, उनकी लीलाएं धन्य हैं और इसी प्रकार वह भूमि भी धन्य है, जहां वह त्रिभुवनपति मानस रूप में अवतरित हुए और ब्रजभूमि जहां उन्होंने वे परम पुनीत अनुपम अलौकिक लीलाएं कीं।हिंदुस्थान में अनेक तीर्थ स्थान हैं, सबका महात्म्य है, भगवान्‌ के और-और भी जन्मस्थान हैं पर यहां की बात ही कुछ निराली है। यहां के नगर-ग्राम, मठ-मंदिर, वन-उपवन, लता-कुंज आदि की अनुपम शोभा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने को मिलती है।अपनी जन्मभूमि से सभी को प्रेम होता है फिर वह चाहे खुला खंडहर हो और चाह सुरम्य स्थान, वह जन्मस्थान है, यह विचार ही उसके प्रति होने के लिए पर्याप्त है।इसी से सब प्रकार से सुंदर द्वारका में वास करते हुए भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब ब्रज का स्मरण करते थे, तब उनकी कुछ विचित्र ही दशा हो जाती थी।
जब ब्रज भूमि के वियोग से स्वयं ब्रज के अधीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण का ही यह हाल हो जाता है, तब फिर उस पुण्यभूमि की रही-सही नैसर्गिक छटा के दर्शन के लिए, उस छटा के लिए जिसकी एक झांकी उस पुनीत युग का, उस जगद् गुरु का, उसकी लौकिक रूप में की गई अलौकिक लीलाओं का अद्भुत प्रकार से स्मरण कराती, अनुभव का आनंद देती और मलिन मन-मंदिर को सर्वथा स्वच्छ करने में सहायता प्रदान करती है, भावुक भक्त तरसा करते हैं। इसमें आश्चर्य ही क्या है? नैसर्गिक शोभा न भी होती, प्राचीन लीलाचिह्न भी न मिलते होते तो भी केवल साक्षात्‌ परब्रह्म का यहां विग्रह होने के नाते ही यह स्थान आज हमारे लिए तीर्थ था, यह भूमि हमारे लिए तीर्थ थी, जहां की पावन रज को ब्रह्मज्ञ उद्धव ने अपने मस्तक पर धारण किया था। वह ब्रजवासी भी दर्शनीय थे, जिनके पूर्वजों के भाग्य की साराहना करते-करते भक्त सूरदास के शब्दों में बड़े-बड़े देवता आकर उनकी जूठन खाते थे, क्योंकि उनके बीच में भगवान अवतरित हुए थे। व्रज-वासी-पटतर कोउ नाहिं। ब्रह्म सनक सिव ध्यान न पावत, इनकी जूठनि लै लै खाहिं॥ हलधर कह्यौ, छाक जेंवत संग, मीठो लगत सराहत जाहिं। 'सूरदास' प्रभु जो विश्वम्भर, सो ग्वालनके कौर अघाहिं॥ तब फिर यहां तो अनन्त दर्शनीय स्थान हैं, अनन्त सुंदर मठ-मंदिर, वन-उपवन, सर-सरोवर हैं, जो अपनी शोभा के लिए दर्शनीय हैं और पावनता के लिए भी दर्शनीय हैं। सबके साथ अपना-अपना इतिहास है। यद्यपि मुसलमानों के आक्रमण पर आक्रमण होने से ब्रज की सम्पदा नष्टप्राय हो गई है। कई प्रसिद्ध स्थानों का चिह्न तक मिट गया है, मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी हैं, तथापि धर्मप्राण जनों की चेष्टा से कुछ स्थानों की रक्षा तथा जीर्णोद्धार होने से वहां की जो आज शोभा है, वह भी दर्शनीय ही है।

विचित्र किन्तु सत्य

यहां पक्षी करते हैं सामूहिक आत्महत्या... असम में जतिंगा नामक एक ऐसा गांव है, जहां की कछार नामक घाटी की तलहटी में कूदकर हजारों पक्षी एक साथ एक खास मौसम में आत्महत्या कर लेते हैं। इसका क्या रहस्य है? वैज्ञानिक इस पर अभी तक कोई खुलासा नहीं कर पाए हैं। यह गांव पक्षियों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं के कारण दुनियाभर में सुर्खियों में बना हुआ है। जापान के माउंट फूजी तलहटी में आवकिगोहारा का घने जंगल में जिस तरह से लोग आत्महत्या करने आते हैं ठीक उसी तरह जतिंगा में पक्षी आत्महत्या करने जाते हैं। आदमी आत्महत्या अकेले ही करता है और उसके आत्महत्या करने के कारण समझ में आते हैं। लेकिन यहां मामला जरा अलग है, कोई अकेला पक्षी आत्महत्या नहीं करता बल्कि सामूहिक रूप से सभी आत्महत्या कर लेते हैं। आखिर ऐसी कौन-सी शक्ति उनको इसके लिए प्रेरित करती है या ऐसा कौन-सा दुख है, जो सभी को एकसाथ आत्महत्या करने पर मजबूर कर देता है।हालांकि वैज्ञानिक कुछ ठोस बात कह पाने की स्थिति में नहीं हैं। फिर भी कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ऐसा जतिंगा घाटी की विशेष भौगोलिक स्थिति के कारण होता है, तो कुछ राज्य में होने वाली वर्षा को इससे जोड़कर देखते हैं।वैज्ञानिकों का कहना है कि मरने वाले पक्षियों में अधिकतर पानी के आसपास रहने वाली जातियां हैं। इससे इस बात को बल मिलता है कि इसका संबंध राज्य में होने वाली वर्षा और बाढ़ से है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि शोध से यह पता चला है कि जिस साल पक्षियों ने ज्यादा जान दी उस साल राज्य में अधिक मेघ बरसे और बाढ़ का प्रकोप भी अधिक रहा। उदाहरण के लिए वर्ष 1988 में सबसे अधिक पक्षी मरे थे और उस साल राज्य में वर्षा और बाढ़ का प्रकोप अधिक था।ये घटनाएं सितंबर से नवंबर के बीच अंधेरी रात में घटती हैं, जब नम और कोहरे-भरे मौसम में हवाएं दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहने लगती हैं। रात के अंधेरे में पक्षी रोशनी के आस-पास उड़ने लगते हैं। इस समय वे मदहोशी जैसी अवस्था में होते हैं जिसके कारण ये आसपास की चीजों से टकराकर मर जाते हैं। इस मौके का यहां के लोग भी खूब फायदा उठाते हैं। ऐसा देखा गया है कि पक्षी शाम 7 से रात 10 बजे के बीच ऐसा व्यवहार ज्यादा करते हैं। अगर इस दौरान हल्की बारिश हो रही हो तो ये पक्षी और ज्यादा उत्तेजित हो जाते हैं। भारत सरकार : भारत सरकार ने इस गुत्थी को सुलझाने के लिए प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ डॉ. सेन गुप्ता को नियुक्त किया था। डॉ. गुप्ता ने यहां लंबे समय तक अध्ययन करने के बाद कहा कि पक्षियों के इस असामान्य व्यवहार के पीछे मौसम और चुम्बकीय शक्तियों का हाथ है।उन्होंने बताया कि वर्षा के मौसम में जब कोहरा छाया हो और हवा चल रही हो, तब शाम के समय जतिंगा घाटी की चुम्बकीय स्थिति में तेजी से बदलाव आ जाता है। इस परिवर्तन के कारण ही पक्षी असामान्य व्यवहार करते हैं और वे रोशनी की ओर आकर्षित होते हैं। अपने शोध के बाद उन्होंने यह सलाह दी कि ऐसे समय में रोशनी जलाने से बचा जाए।उनके इस सलाह पर अमल करने से यहां होने वाली पक्षियों की मौत में 40 फीसदी की कमी आई है।जतिंगा में 44 जातियों की स्थानीय चिड़ियाएं आत्महत्या करती हैं। इनमें टाइगर बिट्टर्न, ब्लैक बिट्टर्न, लिटिल इहरेट, पॉन्ड हेरॉन, इंडियन पिट्टा और किंगफिशर जाति की चिड़ियाएं अधिक शामिल होती हैं।

शनिवार, 9 अगस्त 2014

गजराज व मूषकराज

प्राचीनकाल में एक नदी के किनारे बसा नगर व्यापार का केन्द्र था। फिर आए उस नगर के बुरे दिन, जब एक वर्ष भारी वर्षा हुई। नदी ने अपना रास्ता बदल दिया।लोगों के लिए पीने का पानी न रहा और देखते ही देखते नगर वीरान हो गया अब वह जगह केवल चूहों के लायक रह गई। चारों ओर चूहे ही चूहे नजर आने लगे। चूहों का पूरा साम्राज्य ही स्थापित हो गया। चूहों के उस साम्राज्य का राजा बना मूषकराज चूहा। चूहों का भाग्य देखो, उनके बसने के बाद नगर के बाहर जमीन से एक पानी का स्त्रोत फूट पड़ा और वह एक बड़ा जलाशय बन गया। नगर से कुछ ही दूर एक घना जंगल था। जंगल में अनगिनत हाथी रहते थे। उनका राजा गजराज नामक एक विशाल हाथी था। उस जंगल क्षेत्र में भयानक सूखा पड़ा। जीव-जन्तु पानी की तलाश में इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। भारी-भरकम शरीर वाले हाथियों की तो दुर्दशा हो गई।
हाथियों के बच्चे प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाने व दम तोड़ने लगे। गजराज खुद सूखे की समस्या से चिंतित था और हाथियों का कष्ट जानता था। एक दिन गजराज की मित्र चील ने आकर खबर दी कि खंडहर बने नगर के दूसरी ओर एक जलाशय है। गजराज ने सबको तुरंत उस जलाशय की ओर चलने का आदेश दिया। सैकड़ों हाथी प्यास बुझाने डोलते हुए चल पड़े। जलाशय तक पहुंचने के लिए उन्हें खंडहर बने नगर के बीच से गुजरना पड़ा। हाथियों के हजारों पैर चूहों को रौंदते हुए निकल गए। हजारों चूहे मारे गए। खंडहर नगर की सड़कें चूहों के खून-मांस के कीचड़ से लथपथ हो गईं। मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई। हाथियों का दल फिर उसी रास्ते से लौटा। हाथी रोज उसी मार्ग से पानी पीने जाने लगे। काफी सोचने-विचारने के बाद मूषकराज के मंत्रियों ने कहा, 'महाराज, आपको ही जाकर गजराज से बात करनी चाहिए। वह दयालु हाथी है।' मूषकराज हाथियों के वन में गया। एक बडे पेड़ के नीचे गजराज खड़ा था। मूषकराज उसके सामने के बड़े पत्थर के ऊपर चढ़ा और गजराज को नमस्कार करके बोला, 'गजराज को मूषकराज का नमस्कार। हे महान हाथी, मैं एक निवेदन करना चाहता हूं।' आवाज गजराज के कानों तक नहीं पहुंच रही थी। दयालु गजराज उसकी बात सुनने के लिए नीचे बैठ गया और अपना एक कान पत्थर पर चढ़े मूषकराज के निकट ले जाकर बोला, 'नन्हे मियां, आप कुछ कह रहे थे। कृपया फिर से कहिए।' मूषकराज बोला, 'हे गजराज, मुझे चूहा कहते हैं। हम बड़ी संख्या में खंडहर बनी नगरी में रहते हैं। मैं उनका मूषकराज हूं। आपके हाथी रोज जलाशय तक जाने के लिए नगर के बीच से गुजरते हैं। हर बार उनके पैरों तले कुचले जाकर हजारों चूहे मरते हैं। यह मूषक संहार बंद न हुआ तो हम नष्ट हो जाएंगे।' गजराज ने दुखभरे स्वर में कहा, 'मूषकराज, आपकी बात सुन मुझे बहुत शोक हुआ। हमें ज्ञान ही नहीं था कि हम इतना अनर्थ कर रहे हैं। हम नया रास्ता ढूंढ लेंगे।' मूषकराज कृतज्ञता भरे स्वर में बोला, 'गजराज, आपने मुझ जैसे छोटे जीव की बात ध्यान से सुनी। आपका धन्यवाद। गजराज, कभी हमारी जरूरत पड़े तो याद जरूर कीजिएगा।' गजराज ने सोचा कि यह नन्हा जीव हमारे किसी काम क्या आएगा। सो, उसने केवल मुस्कराकर मूषकराज को विदा किया। कुछ दिन बाद पड़ोसी देश के राजा ने सेना को मजबूत बनाने के लिए उसमें हाथी शामिल करने का निर्णय लिया। राजा के लोग हाथी पकड़ने आए। जंगल में आकर वे चुपचाप कई प्रकार के जाल बिछाकर चले जाते थे। सैकड़ों हाथी पकड़ लिए गए। एक रात हाथियों के पकड़े जाने से चिंतित गजराज जंगल में घूम रहे थे कि उनका पैर सूखी पत्तियों के नीचे छल से दबाकर रखे रस्सी के फंदे में फंस जाता है। जैसे ही गजराज ने पैर आगे बढ़ाया रस्सा कस गया। रस्से का दूसरा सिरा एक पेड़ के मोटे तने से मजबूती से बंधा था। गजराज चिंघाड़ने लगा। उसने अपने सेवकों को पुकारा, लेकिन कोई नहीं आया। कौन फंदे में फंसे हाथी के निकट आएगा? एक युवा जंगली भैंसा गजराज का बहुत आदर करता था। जब वह भैंसा छोटा था तो एक बार वह एक गड्ढे में जा गिरा था। उसकी चिल्लाहट सुनकर गजराज ने उसकी जान बचाई थी। चिंघाड़ सुनकर वह दौडा और फंदे में फंसे गजराज के पास पहुंचा। गजराज की हालत देख उसे बहुत धक्का लगा। वह चीखा, 'यह कैसा अन्याय है? गजराज, बताइए क्या करूं? मैं आपको छुड़ाने के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं।' गजराज बोले, 'बेटा, तुम बस दौड़कर खंडहर नगरी जाओ और चूहों के राजा मूषकराज को सारा हाल बताना। उससे कहना कि मेरी सारी आस टूट चुकी है। भैंसा अपनी पूरी शक्ति से दौड़ा-दौड़ा मूषकराज के पास गया और सारी बात बताई। मूषकराज तुरंत अपने बीस-तीस सैनिकों के साथ भैंसे की पीठ पर बैठा और वो शीघ्र ही गजराज के पास पहुंचे। चूहे भैंसे की पीठ पर से कूदकर फंदे की रस्सी कुतरने लगे। कुछ ही देर में फंदे की रस्सी कट गई व गजराज आजाद हो गए। सीखः आपसी प्रेम और सद्भाव हमेशा एक-दूसरे के कष्टों को हर लेते हैं।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

कौए और उल्लू

बहुत समय पहले की बात है। एक वन में एक विशाल बरगद का पेड़ कौओं की राजधानी था। हजारों कौए उस पर वास करते थे। उसी पेड़ पर कौओं का राजा मेघवर्ण भी रहता था।बरगद के पेड़ के पास ही एक पहाड़ी थी, जिसमें असंख्य गुफाएं थीं। उन गुफाओं में उल्लू निवास करते थे, उनका राजा अरिमर्दन था। अरिमर्दन बहुत पराक्रमी राजा था। कौओं को तो उसने उल्लुओं का दुश्मन नंबर एक घोषित कर रखा था। उसे कौओं से इतनी नफरत थी कि किसी कौए को मारे बिना वह भोजन नहीं करता था। जब बहुत अधिक कौए मारे जाने लगे तो उनके राजा मेघवर्ण को बहुत चिंता हुई। उसने कौओं की एक सभा इस समस्या पर विचार करने के लिए बुलाई। मेघवर्ण बोला, 'मेरे प्यारे कौओ, आपको तो पता ही है कि उल्लुओं के आक्रमणों के कारण हमारा जीवन असुरक्षित हो गया है। हमारा शत्रु शक्तिशाली है और अहंकारी भी। हम पर रात को हमले किए जाते हैं। हम रात को देख नहीं पाते। हम दिन में जवाबी हमला नहीं कर पाते, क्योंकि वे गुफाओं के अंधेरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं।' फिर मेघवर्ण ने सयाने और बुद्धिमान कौओं से अपने सुझाव देने के लिए कहा।
एक डरपोक कौआ बोला, 'हमें उल्लुओं से समझौता कर लेना चाहिए। वह जो शर्तें रखें, हम स्वीकार करें। अपने से ताकतवर दुश्मन से पिटते रहने में क्या तुक है?' बहुत-से कौओं ने कांव-कांव करके विरोध प्रकट किया। एक गर्म दिमाग का कौआ चीखा, 'हमें उन दुष्टों से बात नहीं करनी चाहिए। सब उठो और उन पर आक्रमण कर दो।' एक निराशावादी कौआ बोला, 'शत्रु बलवान हैं। हमें यह स्थान छोड़कर चले जाना चाहिए।' सयाने कौए ने सलाह दी, 'अपना घर छोड़ना ठीक नहीं होगा। हम यहां से गए तो बिल्कुल ही टूट जाएंगे। हमे यहीं रहकर और पक्षियों से सहायता लेनी चाहिए।' कौओं में सबसे चतुर व बुद्धिमान स्थिरजीवी नामक कौआ था, जो चुपचाप बैठा सबकी दलीलें सुन रहा था। राजा मेघवर्ण उसकी ओर मुड़ा, 'महाशय, आप चुप हैं। मैं आपकी राय जानना चाहता हूं।' स्थिरजीवी बोला, 'महाराज, शत्रु अधिक शक्तिशाली हो तो छलनीति से काम लेना चाहिए।' 'कैसी छलनीति? जरा साफ-साफ बताइए, स्थिरजीवी।' राजा ने कहा। स्थिरजीवी बोला, 'आप मुझे भला-बुरा कहिए और मुझ पर जानलेवा हमला कीजिए।’ मेघवर्ण चौंका, 'यह आप क्या कह रहे हैं स्थिरजीवी?' स्थिरजीवी राजा मेघवर्ण वाली डाली पर जाकर कान में बोला, 'छलनीति के लिए हमें यह नाटक करना पड़ेगा। हमारे आसपास के पेड़ों पर उल्लू जासूस हमारी इस सभा की सारी कार्यवाही देख रहे हैं। उन्हें दिखाकर हमें फूट और झगड़े का नाटक करना होगा। इसके बाद आप सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत पर जाकर मेरी प्रतीक्षा करें। मैं उल्लुओं के दल में शामिल होकर उनके विनाश का सामान जुटाऊंगा। घर का भेदी बनकर उनकी लंका ढाऊंगा।'
फिर नाटक शुरू हुआ। स्थिरजीवी चिल्लाकर बोला, 'मैं जैसा कहता हूं, वैसा कर राजा के बच्चे। क्यों हमें मरवाने पर तुला है?' मेघवर्ण चीख उठा, 'गद्दार, राजा से ऐसी बदतमीजी से बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?' कई कौए एक साथ चिल्ला उठे, 'इस गद्दार को मार दो।' राजा मेघवर्ण ने अपने पंख से स्थिरजीवी को जोरदार झापड़ मारकर टहनी से गिरा दिया और घोषणा की, 'मैं गद्दार स्थिरजीवी को कौआ समाज से निकाल रहा हूं। अब से कोई कौआ इस नीच से कोई संबध नहीं रखेगा।' आसपास के पेड़ों पर छिपे बैठे उल्लू जासूसों की आंखें चमक उठीं। उल्लुओं के राजा को जासूसों ने सूचना दी कि कौओं में फूट पड़ गई है। मारपीट और गाली-गलौच हो रही हैं। इतना सुनते ही उल्लुओं के सेनापति ने राजा से कहा, 'महाराज, यही मौका है कौओं पर आक्रमण करने का। इस समय हम उन्हें आसानी से हरा देंगे।' उल्लुओं के राजा अरिमर्दन को सेनापति की बता सही लगी। उसने तुरंत आक्रमण का आदेश दे दिया। बस, फिर क्या था हजारों उल्लुओं की सेना बरगद के पेड़ पर आक्रमण करने चल दी, परंतु वहां एक भी कौआ नहीं मिला। मिलता भी कैसे? योजना के अनुसार मेघवर्ण सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत की ओर कूच कर गया था। पेड़ खाली पाकर उल्लुओं के राजा ने थूका, 'कौए हमारा सामना करने की बजाए भाग गए। ऐसे कायरों पर हजार थू।' सारे उल्लू ‘हू-हू’ की आवाज निकालकर अपनी जीत की घोषणा करने लगे। नीचे झाड़ियों में गिरा पड़ा स्थिरजीवी कौआ यह सब देख रहा था। स्थिरजीवी ने कांव-कांव की आवाज निकाली। उसे देखकर जासूस उल्लू बोला, 'अरे, यह तो वही कौआ है, जिसे इनका राजा धक्का देकर गिरा रहा था और अपमानित कर रहा था।' उल्लुओं का राजा भी आया। उसने पूछा, 'तुम्हारी यह दुर्दशा कैसे हुई?' स्थिरजीवी बोला 'मैं राजा मेघवर्ण का नीतिमंत्री था। मैंने उनको नेक सलाह दी कि उल्लुओं का नेतॄत्व इस समय एक पराक्रमी राजा कर रहे हैं। हमें उल्लुओं की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए। मेरी बात सुनकर मेघवर्ण क्रोधित हो गया और मुझे फटकार कर कौओं की जाति से बाहर कर दिया। मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।' उल्लुओं का राजा अरिमर्दन सोच में पड़ गया। उसके सयाने नीति सलाहकार ने कान में कहा, 'राजन, शत्रु की बात का विश्वास नहीं करना चाहिए। यह हमारा शत्रु है। इसे मार दो।' एक चापलूस मंत्री बोला, 'नहीं महाराज! इस कौए को अपने साथ मिलाने में बड़ा लाभ रहेगा। यह कौओं के घर के भेद हमें बताएगा।' राजा को भी स्थिरजीवी को अपने साथ मिलाने में लाभ नजर आया और उल्लू स्थिरजीवी कौए को अपने साथ ले गए। वहां अरिमर्दन ने उल्लू सेवकों से कहा, 'स्थिरजीवी को गुफा के शाही मेहमान कक्ष में ठहराओ। इन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।' स्थिरजीवी हाथ जोड़कर बोला, 'महाराज, आपने मुझे शरण दी, यही बहुत है। मुझे अपनी शाही गुफा के बाहर एक पत्थर पर सेवक की तरह ही रहने दीजिए। वहां बैठकर आपके गुण गाते रहने की ही मेरी इच्छा है।' इस प्रकार स्थिरजीवी शाही गुफा के बाहर डेरा जमाकर बैठ गया। गुफा में नीति सलाहकार ने राजा से फिर से कहा, 'महाराज! शत्रु पर विश्वास मत करो। उसे अपने घर में स्थान देना तो आत्महत्या करने समान है।' अरिमर्दन ने उसे क्रोध से देखा, 'तुम मुझे ज्यादा नीति समझाने की कोशिश मत करो। चाहो तो तुम यहां से जा सकते हो।' नीति सलाहकार उल्लू अपने दो-तीन मित्रों के साथ वहां से सदा के लिए यह कहता हुआ, 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि।' कुछ दिनों बाद स्थिरजीवी लकड़ियां लाकर गुफा के द्वार के पास रखने लगा, 'सरकार, सर्दियां आने वाली हैं। मैं लकड़ियों की झोपड़ी बनाना चाहता हूं ताकि ठंड से बचाव हो।’ धीरे-धीरे लकड़ियों का काफी ढेर जमा हो गया। एक दिन जब सारे उल्लू सो रहे थे तो स्थिरजीवी वहां से उड़कर सीधे ॠष्यमूक पर्वत पर पहुंचा, जहां मेघवर्ण और कौओं सहित उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्थिरजीवी ने कहा, 'अब आप सब निकट के जंगल से जहां आग लगी है, एक-एक जलती लकड़ी चोंच में उठाकर मेरे पीछे आइए।' कौओं की सेना चोंच में जलती लकड़ियां पकड़ स्थिरजीवी के साथ उल्लुओं की गुफाओं में आ पहुंची। स्थिरजीवी द्वारा ढेर लगाई लकड़ियों में आग लगा दी गई। सभी उल्लू जलने या दम घुटने से मर गए। राजा मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को 'कौआ रत्न' की उपाधि दी। सीखः शत्रु को अपने घर में पनाह देना अपने ही विनाश का सामान जुटाना है।

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

ब्रह्म मुहूर्त में जागने से मिलती है लक्ष्मी और बुद्धि

हमें रोज सुबह ब्रह्म मुहूर्त में बिस्तर का त्याग कर देना चाहिए। ब्रह्म का मतलब परम तत्व या परमात्मा। मुहूर्त यानी अनुकूल समय। रात्रि का अंतिम प्रहर अर्थात प्रात: 4 से 5.30 बजे का समय ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है। हमारी दिनचर्या सुबह उठने से आरंभ होती है। इसलिए सुबह जल्दी उठना दिनचर्या का सबसे पहला और महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसी कारण हमारी संस्कृति में सुबह उठने का समय भी तय किया गया है, वह है ब्रह्म मुहूर्त। इस समय जागने से सुंदरता, लक्ष्मी और बुद्धि मिलती है। ब्रह्म मुहूर्त में उठना हमारे जीवन के लिए बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है और दिनभर स्फूर्ति बनी रहती है। स्वस्थ रहने और सफल होने का यह ऐसा फार्मूला है जिसमें खर्च कुछ नहीं होता। केवल आलस्य छोड़ने की जरूरत है।
शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है- वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति। ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥ - भाव प्रकाश सार-93 अर्थात- ब्रह्म मुहूर्त में उठने से व्यक्ति को सुंदरता, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु आदि की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता है। अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य हमारे धर्मग्रंथों में ब्रह्म मुहूर्त में उठने का सबसे बड़ा लाभ अच्छा स्वास्थ्य बताया गया है। क्या है इसका रहस्य? दरअसल सुबह चार बजे से साढ़े पांच बजे तक वायुमंडल में यानी हमारे चारों ओर आक्सीजन अधिक होती है। वैज्ञानिक खोजों से पता चला है कि इस समय आक्सीजन 41 प्रतिशत, करीब 55 प्रतिशत नाइट्रोजन और 4 प्रतिशत कार्बन डाईआक्साइड गैस रहती है। सूर्योदय के बाद वायुमंडल में आक्सीजन कम और कार्बन डाईआक्साइड बढ़ती है। आक्सीजन हमारे जीवन का आधार है। शास्त्रों में इसे प्राणवायु कहा गया है। ज्यादा आक्सीजन मिलने से हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति का गहरा नाता है। इस समय में पशु-पक्षी जाग जाते हैं। उनका मधुर कलरव शुरू हो जाता है। कमल का फूल भी खिल उठता है। मुर्गे बांग देने लगते हैं। एक तरह से प्रकृति भी ब्रह्म मुहूर्त में चैतन्य हो जाती है। यह प्रतीक है उठने, जागने का। प्रकृति हमें संदेश देती है ब्रह्म मुहूर्त में उठने के लिए।

इस पांडव की दूसरी पत्नी थीं द्रौपदी

पहली पत्नी से था एक पुत्र भी स्वयंवर जीतने के बाद माता कुंती की आज्ञा से पांचों पांडवों ने द्रौपदी से विवाह किया। द्रौपदी पांच में चार पांडवों की पहली पत्नी थी, जबकि एक पांडव की दूसरी पत्नी थी। इस विवाह से पूर्व भीम का विवाह हिडिम्बा नामक राक्षसी के साथ हो चुका था। भीम और हिडिम्बा का एक पुत्र भी था घटोत्कच्छ।
दुर्योधन और मामा शकुनि ने षड़यंत्र रचकर सभी पांडवों को मारने के लिए लाक्षागृह का निर्माण किया था। लाक्षागृह से बचने के बाद सभी पांडव माता कुंती के साथ छिपकर एक जंगल में रहने लगे थे। उस जंगल में हिडिम्ब नामक राक्षस का राज का था। यह राक्षस मानवों का मारकर खा जाता था। भीम ने हिडिम्ब राक्षस का वध किया और उसकी बहन हिडिम्बा से विवाह किया। इसके बाद उनके पुत्र घटोत्कच्छ का जन्म हुआ। इस प्रसंग के बाद ही द्रौपदी का विवाह पांचों पांडवों के साथ हुआ था। द्रौपदी पूर्व जन्म में थी अविवाहित शास्त्रों के अनुसार द्रौपदी पूर्व में अविवाहित थी। पति पाने की कामना से द्रौपदी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। शिवजी प्रसन्न हुए और उन्होंने द्रौपदी से वर मांगने को कहा, तब द्रौपदी से पांच बार में वर मांगा। शिवजी ने तथास्तु कहा और वे अंर्तध्यान हो गए। इसके बाद द्रौपदी के अगले जन्म में शिवजी के वरदान स्वरूप पांच पांडवों पति के रूप में प्राप्त हुए।