रविवार, 3 नवंबर 2019

पौराणिक कथाओं में माँ तुलसी

कौन हैं और उनकी पूजा क्यों की जाती है?
पौराणिक कथाओं के आधार पर हम आपको बता रहे है कि माँ तुलसी कौन है और उन्हें पूजना क्यू ज़रूरी है.माँ तुलसी के बारे में जानने के लिए हमें इस कहानी को जानना होगा.माँ तुलसी का नाम वृंदा था. वृंदा का जन्म राक्षस कुल में हुआ था. राक्षस कुल में जन्म लेने के बावजूद भी वृंदा भगवान श्री विष्णु जी की परम भक्त थी और सदैव बड़े मन से उनकी पूजा अर्चना किया करती थी.वृंदा जब विवाह लायक हुई तो उनकी शादी राक्षस कुल के दानव राज जलंधर से कर दी गई. ये कहा जाता है कि जलंधर ने समुद्र से जन्म लिया था. विवाह के बाद वृंदा बड़ी ही पतिव्रता से अपने पति की सेवा किया करती थी.एक बार की बात है जब देवताओं और दानवो में युद्ध छीडा. युद्ध पर जाते हुए वृंदा ने अपने पति जलंधर से कहा कि ‘स्वामी आप तो युद्ध पर जा रहे लेकिन जब तक आप जीत हासिल कर वापस नहीं आजाते तब तक मै आपके लिए पूजा (अनुष्ठान) करती रहूंगी और अपना संकल्प नहीं छोडूंगी’

जलंधर तो युद्ध में चले गए और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई.वृंदा के व्रत का प्रभाव इतना था कि देवता जलंधर से जीतने में नाकाम हो रहे थे. जब देवता हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास जा पहुचे. सभी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि किसी भी तरह वे देवताओं को युद्ध जिताने में मदद करे.भगवान् विष्णु बड़े ही असमंजस की स्थिति  में थे. वे सोच रहे थे कि वृंदा को कैसे रोका जाए, जबकि वो उनकी परम भक्त थी.बड़े ही सोचने समझने के बाद श्री विष्णु जी ने वृंदा के साथ छल करने का निर्णय ले ही लिया. वृत पूजा को तोड़ने के लिए उन्होंने वृंदा के पति जलंधर का रूप धारण किया. जलंधर के रूप में विष्णु वृंदा के महल में जा पहुचे. वृंदा ने जैसे ही अपने पति जलंधर को देखा तो उनके चरण छुने के उद्देश्य से पूजा से उठ पडी. जिससे वृंदा का संकल्प टूट गया.वृंदा का वृत संकल्प टूटते ही देवताओं ने दानव जलंधर सिर धड से अलग करके उसे मार दिया.भगवान् विष्णु के छल का पता जब वृंदा को ज्ञात हुआ तो पहले तो वो जलंधर का कटा हुआ सिर लेकर खूब रोई और सती होने के पहले विष्णु जी को श्राप दे दिया.वृंदा ने विष्णु जी को पत्थर बन जाने का श्राप दिया. विष्णु जी पत्थर बन भी गए.लेकिन इस बात से सभी देवता-देवियाँ और लक्ष्मी जी खूब रोने लगे. सभी ने मिलकर वृंदा से खूब मिन्नते की कि वे विष्णु जी को श्राप से वंचित करदे. आखिरकार वृंदा मानी. भगवान् विष्णु फिर से अपने अवतार में आए. विष्णु जी ने देखा कि वृंदा जिस जगह सती हुई उस जगह एक पौधा खिला हुआ है.वृंदा से किए गए छल का प्राश्चित करते हुए विष्णु जी ने खिले हुए पौधे को तुलसी का नाम दिया और ये ऐलान किया कि। ‘’आज से इनका नाम तुलसी है और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और तुलसी जी की पूजा के बगैर मै कोई भी भोग स्वीकार नहीं करुगा’’तब से तुलसी जी की पूजा सभी करने लगे. कार्तिक मास में तुलसी जी के साथ शालिग्राम जी का विवाह किया जाता है. एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह पर्व के रूप में मनाया जाता है. तुलसी बड़ी पवित्र और बड़े काम की चीज है.चरणामृत के साथ तुलसी को मिलाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है.हिन्दू धर्म में सभी अपने दरवाजे या आंगन में तुलसी का पौधा लगाते है. शरीर के कई विकारों के लिए भी यह फायदेमंद है.जो पवित्र है, हमारे लिए समर्पित है, उसे हम माँ कहते है. इसलिए हम उन्हें माँ तुलसी कहते है.
क्या है तुलसी पूजा का विधान?
- तुलसी का पौधा किसी भी बृहस्पतिवार को लगा सकते हैं.
- तुलसी का पौधा लगाने के लिए कार्तिक का महीना सबसे उत्तम है.
- कार्तिक महीने में तुलसी के पौधे की पूजा से पूरी होती है हर कामना.
- तुलसी का पौधा घर या आगन के बीच में लगाना चाहिए.
-अपने सोने के कमरे की बालकनी में भी लगा सकते हैं तुलसी का पौधा.
- सुबह तुलसी के पौधे में जल डालकर उसकी परिक्रमा करनी चाहिए.
- शाम को तुलसी के पौधे के नीचे घी का दीपक जलाना उत्तम होता है.
तुलसी पूजा में भूलकर भी ना करें ये गलतियां-
धार्मिक मान्यताओं में तुलसी को लेकर कुछ विशेष नियम और सावधानियां हैं जिनका ध्यान रखने से खराब से खराब किस्मत भी चमक उठती है तो आइए हम आपको बताते हैं कि तुलसी पूजन या तुलसी के प्रयोग में आपको किन बातों का ध्यान रखना जरूरी है.
- तुलसी के पत्ते हमेशा सुबह के समय ही तोड़ना चाहिए.
- रविवार के दिन तुलसी के पौधे के नीचे दीपक न जलाएं.
- भगवान विष्णु और इनके अवतारों को तुलसी दल जरूर अर्पित करें.
- भगवान गणेश और मां दुर्गा को तुलसी कतई न चढ़ाएं.
क्या है तुलसी का महत्व ?
- सनातन परंपरा में जड़ और चेतन सभी में ईश्वर का भाव रखते हैं.
- नदियां, पहाड़, पत्थर और पेड़-पौधों में भी ईश्वर का वास माना जाता है.
- पौधों में नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करने कि क्षमता होती है.
-इसलिए पौधों में देवी-देवताओं का वास माना जाता है.
- तुलसी का पौधा भी ऐसा ही एक पौधा है.
-तुलसी में औषधीय और दैवीय दोनों गुण पाए जाते हैं.
- पुराणों में तुलसी को भगवान विष्णु की पत्नी कहा गया है.
- मान्यता है कि श्रीहरि ने छल से तुलसी का वरण किया था.
-इसलिए श्रीहरि को पत्थर हो जाने का शाप मिला और श्रीहरि ने शालिग्राम रूप लिया.
- शालिग्राम रूपी भगवान विष्णु की पूजा बिना तुलसी के नहीं हो सकती.
तुलसी जी की पूजा विधि
घर में तुलसी जी की पूजा कैसे करे आइये जानते है पूजा विधि | हमारे सनातन धर्म में तुलसी का पौधा एक देवी लक्ष्मी के तुल्य है | यह विष्णु के ही एक रूप  भगवान शालिग्राम जी की पत्नी है | यह घर के आँगन में लगी रहती है तो उस घर में सौभाग्य और अन्न धन की कभी कमी नही आती | घर में इसे परिवार का सदस्य मानकर नित्य ध्यान से पूजा और सींचना (जल देना ) चाहिए |
पूजन सामग्री
    एक प्लेट
    एक शुद्ध जल का लोटा
    अगरबत्ती या धुप
    देशी घी का एक दीपक
    हल्दी और सिंदूर
सबसे पहले माँ तुलसी जी को नमन करे | यह आपके घर की रक्षक है | अब लोटे से जल चढ़ाये और मंत्र पढ़े-  “महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्यवर्धिनी , आधि व्याधि हरा नित्यं तुलसी त्वं नमोस्तुते।।” इसके बाद उन्हें सिंदूर और हल्दी चढ़ाये | यह उनका श्रंगार है | अब तुलसी जी की पूजा के लिए घी का दीपक जलाये और शालिग्राम और वृंदा देवी को याद करके उनकी जय जयकार करे | अब धुप अगरबत्ती जलाये और माँ तुलसी की आरती करे | अब घर और परिवार के सदस्यों के लिए अच्छे भाग्य की विनती करे |
पूजन से जुड़े नियम
- रविवार को तुलसी जी को नही तोड़े ना ही जल डाले |
- रोज पूजा करे |
- जब भी तुलसी जी के पत्ते तोड़े पहले ताली बजाये फिर क्षमा मांगे और फिर तोड़े |
- कभी तुलसी जी के पौधे को सूखने ना दे |
- जो भी भोग आप देवी देवताओ के निकालते है उनमे तुलसी दल जरुर रखे |
- गणेश जी और शिव जी की पूजा में तुलसी काम में नही ले |
सूखा पौधा न रखें
अगर घर में लगा हुआ तुलसी का पौधा सूख जाए तो उसे किसी नदी या बहते पानी में प्रवाहित कर देना चाहिए। क्योंकि घर में सूखा पौधा रखना अशुभ माना जाता है।
पत्ते को चबाएं नहीं
किसी प्रसाद या खाने-पीने की चीज में तुलसी का सेवन करते समय इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए की उन्हें चबाएं नहीं बल्कि निगल लें। इस तरह तुलसी का सेवन करने से कई रोगों में लाभ मिलता है। क्योंकि इसमें पारा धातु के कई तत्व होते है जिन्हे चबाने से दांतों को नुकसान हो सकता है। इसीलिए तुलसी के पत्ते चबाएं नहीं।
इन पर कभी न चढ़ाएं तुलसी पत्ते
शिवलिंग और गणेश जी के पूजन में तुलसी के पत्तों का प्रयोग वर्जित होता है। जिसके पीछे अलग-अलग मानयताएं हैं। इसलिए इन दोनों के पूजन में तुलसी का प्रयोग नहीं किया जाता।

सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

जब किसान के घर ठहर गई मां लक्ष्मी

कार्तिक कृ्ष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन धनतेरस का पर्व पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ मनाया जाता है। धनवंतरी के अलावा इस दिन,देवी लक्ष्मी और धन के देवता कुबेर की भी पूजा करने की मान्यता है। इस दिन को मनाने के पीछे धनवंतरी के जन्म लेने की कथा के अलावा, इसके बारे में एक दूसरी कहानी भी प्रचलित है।कहा जाता है कि एक समय भगवान विष्णु मृत्युलोक में विचरण करने के लिए आ रहे थे तब लक्ष्मी जी ने भी उनसे साथ चलने का आग्रह किया। तब विष्णु जी ने कहा कि यदि मैं जो बात कहूं तुम अगर वैसा ही मानो तो फिर चलो। तब लक्ष्मी जी उनकी बात मान गईं और भगवान विष्णु के साथ भूमंडल पर आ गईं। कुछ देर बाद एक जगह पर पहुंचकर भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा कि जब तक मैं न आऊं तुम यहां ठहरो। मैं दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूं,तुम उधर मत आना।
विष्णुजी के जाने पर लक्ष्मी के मन में कौतुहल जागा कि आखिर दक्षिण दिशा में ऐसा क्या रहस्य है जो मुझे मना किया गया है और भगवान स्वयं चले गए।लक्ष्मी जी से रहा न गया और जैसे ही भगवान आगे बढ़े लक्ष्मी भी पीछे-पीछे चल पड़ीं। कुछ ही आगे जाने पर उन्हें सरसों का एक खेत दिखाई दिया जिसमें खूब फूल लगे थे। सरसों की शोभा देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गईं और फूल तोड़कर अपना श्रृंगार करने के बाद आगे बढ़ीं। आगे जाने पर एक गन्ने के खेत से लक्ष्मी जी गन्ने तोड़कर रस चूसने लगीं।उसी क्षण विष्णु जी आए और यह देख लक्ष्मी जी पर नाराज होकर उन्हें शाप दे दिया कि मैंने तुम्हें इधर आने को मना किया था,पर तुम न मानी और किसान की चोरी का अपराध कर बैठी। अब तुम इस अपराध के जुर्म में इस किसान की 12 वर्ष तक सेवा करो। ऐसा कहकर भगवान उन्हें छोड़कर क्षीरसागर चले गए। तब लक्ष्मी जी उस गरीब किसान के घर रहने लगीं।
एक दिन लक्ष्मीजी ने उस किसान की पत्नी से कहा कि तुम स्नान कर पहले मेरी बनाई गई इस देवी लक्ष्मी का पूजन करो,फिर रसोई बनाना,तब तुम जो मांगोगी मिलेगा। किसान की पत्नी ने ऐसा ही किया। पूजा के प्रभाव और लक्ष्मी की कृपा से किसान का घर दूसरे ही दिन से अन्न,धन,रत्न,स्वर्ण आदि से भर गया। लक्ष्मी ने किसान को धन-धान्य से पूर्ण कर दिया। किसान के 12 वर्ष बड़े आनंद से कट गए। फिर 12 वर्ष के बाद लक्ष्मीजी जाने के लिए तैयार हुईं।विष्णुजी लक्ष्मीजी को लेने आए तो किसान ने उन्हें भेजने से इंकार कर दिया। तब भगवान ने किसान से कहा कि इन्हें कौन जाने देता है,यह तो चंचला हैं, कहीं नहीं ठहरतीं। इनको बड़े-बड़े नहीं रोक सके। इनको मेरा शाप था इसलिए 12 वर्ष से तुम्हारी सेवा कर रही थीं। तुम्हारी 12 वर्ष सेवा का समय पूरा हो चुका है। किसान हठपूर्वक बोला कि नहीं अब मैं लक्ष्मीजी को नहीं जाने दूंगा।तब लक्ष्मीजी ने कहा कि हे किसान तुम मुझे रोकना चाहते हो तो जो मैं कहूं वैसा करो। कल तेरस है। तुम कल घर को लीप-पोतकर स्वच्छ करना। रात्रि में घी का दीपक जलाकर रखना और शायंकाल मेरा पूजन करना और एक तांबे के कलश में रुपए भरकर मेरे लिए रखना,मैं उस कलश में निवास करूंगी। किंतु पूजा के समय मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी। इस एक दिन की पूजा से वर्ष भर मैं तुम्हारे घर से नहीं जाऊंगी। यह कहकर वह दीपकों के प्रकाश के साथ दसों दिशाओं में फैल गईं। अगले दिन किसान ने लक्ष्मीजी के कथानुसार पूजन किया। उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया। इसी वजह से हर वर्ष तेरस के दिन लक्ष्मीजी की पूजा होने लगी।


बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

क्यों करवा चौथ पर छलनी से देखा जाता है पति का चेहरा

नई दिल्ली। हर सुहागन स्त्री के लिए करवाचौथ का व्रत काफी महत्वपूर्ण होता है। प्यार और आस्था के इस पर्व पर सुहागिन स्त्रियां पूरा दिन उपवास रखकर भगवान से अपने पति की लंबी उम्र और गृहस्थ जीवन में सुख की कामना करती हैं। करवा चौथ का व्रत कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। इस साल यह व्रत 17 अक्टूबर को रखा जाएगा। करवाचौथ' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है,'करवा' यानी 'मिट्टी का बरतन' और 'चौथ' यानि 'चतुर्थी '। इस त्योहार पर मिट्टी के बरतन यानी करवे का विशेष महत्व बताया गया है। माना जाता है करवाचौथ की कथा सुनने से विवाहित महिलाओं का सुहाग बना रहता है, उनके घर में सुख, शान्ति,समृद्धि और सन्तान सुख मिलता है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार 70 सालों बाद इस करवाचौथ पर एक शुभ संयोग बन रहा है, जो सुहागिनों के लिए विशेष फलदायी होगा। बता दें, इस बार रोहिणी नक्षत्र के साथ मंगल का योग बेहद मंगलकारी रहेगा। रोहिणी नक्षत्र और चंद्रमा में रोहिणी के योग से मार्कंडेय और सत्याभामा योग भी इस करवा चौथ बन रहा है। चंद्रमा की 27 पत्नियों में से उन्हें रोहिणी सबसे ज्यादा प्रिय है। यही वजह है कि यह संयोग करवा चौथ को और खास बना रहा है। इसका सबसे ज्यादा लाभ उन महिलाओं को मिलेगा ​जो पहली बार करवा चौथ का व्रत रखेंगी। करवाचौथ की पूजा के दौरान महिलाएं पूरा दिन निर्जला व्रत करके रात को छलनी से चंद्रमा को देखने के बाद पति का चेहरा देखकर उनके हाथों से जल ग्रहण कर अपना व्रत पूरा करती हैं।
करवा चौथ की पूजा का शुभ मुहूर्त-
करवा चौथ पूजा मुहूर्त- सायंकाल 6:37- रात्रि 8:00 तक चंद्रोदय-
सायंकाल 7:55 चतुर्थी तिथि आरंभ- 18:37
(27 अक्टूबर) चतुर्थी तिथि समाप्त- 16:54 (28 अक्टूबर)

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

परशुराम ने नहीं, खुद बप्पा ने तोड़ा था अपना दांत

आज हम आपको सुनाते हैं एक कहानी कि कैसे गणपति बप्पा का एक दांत टूटा. हो सकता है कि आपने परशुराम से युद्ध वाली कहानी सुनी हो, लेकिन हम आपको बताते हैं एक दूसरी कहानी जिसके अनुसार बप्पा ने
खुद ही अपना दांत तोड़ दिया था. बात उस समय की है जब महर्षि वेदव्यास महाभारत लिखने के लिए बैठे, तो उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो उनके मुख से निकले हुए महाभारत की कहानी को लिखे. इस कार्य के लिए उन्होंने श्री गणेश जी को चुना. गणेश जी भी इस बात के लिए मान गए पर उनकी एक शर्त थी कि पूरा महाभारत लेखन को एक पल के लिए भी बिना रुके पूरा करना होगा. गणेश जी ने कहा कि अगर आप रुकेंगे तो मैं भी लिखना बंद कर दूंगा.अब महर्षि नें एक शर्त और रखी कि गणेश जी जो भी लिखेंगे वह उसे समझ कर ही लिखेंगे. गणेश जी भी शर्त मान गए. अब दोनों ने काम शुरू किया और महाभारत के लेखन का काम प्रारंभ हुआ. कुछ देर लिखने के बाद अचानक से गणेश जी की कलम टूट गई. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि महर्षि बहुत तेजी से बोल रहे थे. अब अपने काम में बाधा को दूर करने के लिए गणपति ने अपने एक दांत को तोड़ दिया और स्याही में डूबा कर महाभारत की कथा लिखने लगे.

सोमवार, 2 सितंबर 2019

रात में सोने से पहले मंदिर पर पर्दा डाल देना चाहिए


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  • घर के मंदिर से जुड़ी 10 बातें ध्यान रखेंगे तो बनी रहती है सकारात्मकता
  • शौचालय के आसपास मंदिर बनाने से बचना चाहिए, वरना वास्तु दोष बढ़ते हैं
  • घर में मंदिर बनाने की परंपरा पुराने समय से चली आ रही है। मान्यता है कि मंदिर की वजह से घर में सकारात्मकता बनी रहती है। इस संबंध ध्यान रखना चाहिए कि मंदिर के आसपास गंदगी नहीं होनी चाहिए, नियमित रूप से सुबह-शाम पूजा करनी चाहिए।

मंदिर से जुड़ी खास बातें

  1. घर के मंदिर में ज्यादा बड़ी मूर्तियां न रखें। शिवपुराण के अनुसार मंदिर में हमारे अंगूठे के आकार से बड़ा शिवलिंग नहीं रखना चाहिए। शिवलिंग बहुत संवेदनशील होता है और इसी वजह से घर के मंदिर में छोटा सा शिवलिंग रखने का नियम है। अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी छोटे आकार की ही रखनी चाहिए।
  2. ध्यान रखें मंदिर में खंडित मूर्तियां न रखें। जो भी मूर्ति खंडित हो जाती है, उसे मंदिर से हटा देना चाहिए। खंडित मूर्तियां पूजा के लिए अशुभ मानी गई हैं, लेकिन ध्यान रखें सिर्फ शिवलिंग कभी भी, किसी भी अवस्था में खंडित नहीं माना जाता है, शेष देवी-देवताओं की मूर्तियां टूटी हो तो उन्हें मंदिर में न रखें।
  3. रोज रात में सोने से पहले मंदिर पर पर्दा डाल देना चाहिए। जिस प्रकार हम सोते समय किसी भी तरह की बाधा पसंद नहीं करते हैं, ठीक उसी भाव से मंदिर पर भी पर्दा ढंक देना चाहिए। जिससे भगवान के विश्राम में बाधा उत्पन्न ना हो।
  4. घर में पूजा करने वाले व्यक्ति का मुंह पश्चिम दिशा की ओर होगा तो ये बहुत शुभ रहता है। इसके लिए मंदिर का दरवाजा पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। अगर ये संभव न हो तो पूजा करते समय व्यक्ति का मुंह पूर्व दिशा में होगा तब भी श्रेष्ठ फल प्राप्त होते हैं।
  5. शौचालय के आसपास मंदिर बनाने से बचना चाहिए। ऐसी जगह पर मंदिर शुभ फल नहीं देता है। इसकी वजह से वास्तु दोष बढ़ते हैं।
  6. घर में मंदिर ऐसी जगह पर बनाना चाहिए, जहां कुछ देर के लिए सूर्य की रोशनी अवश्य पहुंचती हो। सूर्य की रोशनी और ताजी हवा से घर के कई दोष शांत हो जाते हैं। सूर्य की रोशनी वातावरण की नकारात्मक ऊर्जा को खत्म करती है।
  7. सुबह और शाम घर में पूजा जरूरी करनी चाहिए। मंदिर में दीपक जलाएं। पूजन में घंटी बजाएं। घंटी की आवाज और दीपक की रोशनी से नकारात्मकता नष्ट होती है।
  8. जब भी श्रेष्ठ मुहूर्त आते हैं, तब पूरे घर के मंदिर में और अन्य कमरों में गौमूत्र का छिड़काव करें। गौमूत्र के छिड़काव से पवित्रता बनी रहती है और वातावरण सकारात्मक हो जाता है।
  9. पूजा में बासी फूल, पत्ते अर्पित न करें। स्वच्छ और ताजे जल का ही उपयोग करें। ध्यान रखें तुलसी के पत्ते और गंगाजल कभी बासी नहीं माने जाते हैं, इनका उपयोग कभी भी किया जा सकता है।
  10. घर में जिस जगह पर मंदिर बना है, वहां चमड़े से बनी चीजें, जूते-चप्पल नहीं ले जाना चाहिए।

शनि देव की जन्मकथा और महत्व

Shani Jayanti 2019: Importance of Shani Jayanti Katha And Puja Vidhi
 शनि जयंती हिन्दू कैलेंडर के अनुसार ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। इसे शनि अमावस्या भी कहा जाता है। माना जाता है कि इस दिन ही शनि देव का जन्म हुआ था। शनि देव, भगवान सूर्य तथा छाया (संवर्णा) के पुत्र हैं। सूर्य के अन्य पुत्रों की अपेक्षा शनि शुरू से ही विपरीत स्वभाव के थे। ये क्रूर ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है। ब्रह्म पुराण में इस शाप की कथा बताई गई है।
  • शनि देव के जन्म की कथा
शनि जन्म के संदर्भ में एक पौराणिक कथा बहुत मान्य है जिसके अनुसार शनि, सूर्य देव और उनकी पत्नी छाया के पुत्र हैं। सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ। कुछ समय बाद उन्हें तीन संतानों के रूप में मनु, यम और यमुना की प्राप्ति हुई। इस प्रकार कुछ समय तो संज्ञा ने सूर्य के साथ रिश्ता निभाने की कोशिश की, लेकिन संज्ञा सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन नहीं कर पाईं। इसी वजह से संज्ञा अपनी छाया को पति सूर्य की सेवा में छोड़कर वहां से चली चली गईं। कुछ समय बाद छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ।
  • शनि जयंती पर ऐसे करें पूजा
शनि जयंती के अवसर पर शनिदेव के निमित्त विधि-विधान से पूजा पाठ तथा व्रत किया जाता है। शनि जयंती के दिन किया गया दान पुण्य एवं पूजा पाठ शनि संबंधी सभी कष्ट दूर कर देने में सहायक होता है।
1. सुबह जल्दी नहाकर नवग्रहों को नमस्कार करें।
2. फिर शनिदेव की लोहे की मूर्ति स्थापित करें और सरसों या तिल के तेल से उसका अभिषेक करें।
3. इसके बाद शनि मंत्र बोलते हुए शनिदेव की पूजा करें।
4. शनि देव को प्रसन्न करने के लिए हनुमान जी की पूजा भी करनी चाहिए।
5. शनि की कृपा एवं शांति प्राप्ति हेतु तिल, उड़द, काली मिर्च, मूंगफली का तेल, लौंग, तेजपत्ता तथा काला नमक पूजा में उपयोग कर सकते हैं।
6. ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम: मंत्र बोलते हुए शनिदेव से संबंधित वस्तुओं का दान करें।
7. शनि के लिए दान में दी जाने वाली वस्तुओं में काले कपड़े, जामुन, काली उडद, काले जूते, तिल, लोहा, तेल, आदि वस्तुओं को शनि के निमित्त दान में दे सकते हैं।
8. इस प्रकार पूजन के बाद दिन भर कुछ न खाएं और मंत्र का जप करते रहें।
  • शनि जयंती का महत्त्व
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि के दिन हुआ है। जन्म के समय से ही शनि देव श्याम वर्ण, लंबे शरीर, बड़ी आंखों वाले और बड़े केशों वाले थे। इस दिन प्रमुख शनि मंदिरों में पूजा होती है और शनि से संबंधित चीजों का दान किया जाता है। जिससे कुंडली में शनि की अशुभ स्थिति का असर कम हो जाता है। इस दिन शनिदेव की पूजा करने से या उनसे जुड़ी चीजें दान करने से शनि के दोष दूर हो जाते हैं। इस दिन शनि देव की जो भक्तिपूर्वक व्रतोपासना करते हैं वह पाप की ओर जाने से बच जाते हैं। जिससे शनि की दशा आने पर उन्हें कष्ट नहीं भोगना पड़ता। शनि देव की पूजा से जाने-अनजाने में किए पाप कर्मों के दोष से भी मुक्ति मिल जाती है।

रामायण सिखाती है जीने के तरीके

Ramayana Teaches Ways to Live, 5 Things That Are Important for Growth According to Ramayana
 रामायण हिंदुओं का प्रमुख ग्रन्थ है। रामायण बताती है कि कुछ गुणों को अपनाकर और कुछ खास बातों का ध्यान में रखकर मर्यादा एवं अनुशासन वाला जीवन जीना चाहिए। इससे बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। रामायण एक राजपरिवार और राजवंश की कहानी है जो पति-पत्नी, भाई और परिवार के अन्य सदस्यों के आपसी रिश्तों के आदर्श पेश करती है। रामायण से हर इंसान को कुछ न कुछ सीखकर अपने जीवन में अच्छी बातें शामिल करनी चाहिए। इससे जीवन का स्तर बढ़ेगा। वहीं अच्छे गुणों के प्रभाव से हर कामों सफलता मिलेगी। मानसिक तनाव से बचेंगे और परेशानियों से भी दूर रहेंगे।  ये बातें सीख सकते हैं रामायण से
1. विविधता में एकता
  • विविधता में एकता रामायण की बड़ी सीख है । इस महाकाव्य में जब श्रीराम लंका पर चढ़ाई करने जाते हैं तो उनकी सेना में मनुष्यों से लेकर बंदर और अन्य जानवर भी शामिल थे। सभी ने श्रीराम का साथ दिया इसके अलावा राजा दशरथ के चारों बेटों का चरित्र अलग होने के बावजूद उनमें एकजुटता रहती है यह हर परिवार के लिए दुःख के समय से बाहर निकलने की सीख है।
2. रिश्‍ते और विश्वास का महत्व
  • श्रीराम ने सब कुछ जानते हुए भी कैकई को दिया वचन को निभाया। वहीं सभी भाइयों में प्रेम था। ऐसे प्रेम में लालच, गुस्से या विश्वासघात के लिए जगह ही नहीं थी। लक्ष्मण ने 14 साल तक भाई राम के साथ वनवास किया, वहीं दूसरे भाई भरत ने राजगद्दी के अवसर को ठुकरा दिया। भाइयों के प्यार की ये सीख हमें लालच और सांसारिक सुखों के बजाय रिश्तों को महत्व देने के लिए प्रेरित करती है।
3. मर्यादा और अनुशासन
  • श्रीराम का व्यक्तित्व मर्यादा और अनुशासनपूर्ण था। उन्होने मर्यादओं में रहकर अपने जीवन की हर जिम्मेदारी को अच्छे से पूरा किया। उनके जीवन से हमें यही सीखना चाहिए कि मर्यादा और अनुशासन में रहकर हम एक अच्छे इंसानबन सकते हैं।  
4. दया और प्रेम
  • श्रीराम शांत स्वभाव के थे। उनमें हर इंसान के लिए दया का भाव था। उन्होंने प्रेम और दया के साथ एक पुत्र, पति, भाई और एक राजा की जिम्मेदारियों को भी अच्छे से निभाया। श्रीराम का ये स्वभाव आपसी प्रेम और सम्मान जैसेमानवीय गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित करता है। इन गुणों को अपनाकर हम खुशहाल और संतुष्ट जीवन जी सकते हैं। इसी की मदद से हम समाज की बुराइयों पर जीत हासिल कर सकते हैं।
5. सबसे समान व्यवहार
  • भगवान राम का विनम्र आचरण और सभी के प्रति सम्मान का भाव हमको सीख देता है। हमें पद, उम्र, लिंग आदि के भेदभावों के बावजूद सबसे समान व्यवहार करना चाहिए। पशुओं के प्रति प्यार और दया भी हमारे मन में होनी चाहिए। सच्चा मानव वही है जो सबसे समानता से पेश आता है।

रविवार, 1 सितंबर 2019

द्रौपदी यदि पांचों पांडवों से विवाह नहीं करती तो..............!

महाभारत में द्रौपदी एक अहम् किरदार है। द्रौपदी के जीवन और चरित्र को समझना बहुत ही कठिन है। उन्हें तो सिर्फ कृष्ण ही समझ सकते थे। द्रौपदी श्रीकृष्ण की मित्र थी। मित्र ही मित्र को समझ सकता है। दरअसल, ऐसा माना जाता है कि द्रौपदी ने 4 ऐसी गलतियां की थी जिसके चलते महाभारत का युद्ध हुआ था।पहली गलती खुद
के स्वयंवर में कर्ण को सूत पुत्र कहकर उसका अपमान करना, दूसरी गलती दुर्योधन को इंद्रप्रस्थ में 'अंधे का पुत्र भी अंधा' कहकर अपमानित करना, तीसरी गलती जयद्रथ के सिर के बाल मुंडवाकर उसको अपमानित करना और चौथी गलती चिरहरण के बाद पांडवों को युद्ध के लिए प्रेरित करना। हालांकि उपरोक्त सभी गलतियों में से तीसरी और चौथी गलती को गलती नहीं मान सकते हैं, क्योंकि यह परिस्थितिवश किया गया कार्य था। मतलब यह कि द्रौपदी ने कर्ण और दुर्योधन को अपमानित किया था जिसके बदले में जयद्रथ और दुर्योधन ने द्रौपदी को अपमानित किया। लेकिन द्रौपदी की एक सबसे बड़ी गलती यह थी कि उसने पांचों पांडवों के साथ विवाह करने को मंजूरी दे दी। दरअस्ल, अर्जुन ने स्वयंवर की प्रतियोगिता को जीत लिया था लेकिन किन्हीं भी परिस्थितियों में द्रौपदी यदि पांचों पांडवों की पत्नी बनना स्वीकार नहीं करती तो आज इतिहास कुछ ओर होता। द्रौपदी कुंति के कहने या स्वयंवर के बाद युधिष्ठिर और वेद व्यासजी के कहने पर पांचों से विवाह करना स्वीकार किया था।यदि द्रौपदी ऐसा नहीं करती तो वह सिर्फ अर्जुन की ही पत्नी होती। यह भी कि यदि वह पांचों से ही विवाह नहीं करती तो फिर संभवत: वह कर्ण की पत्नी होती। तब महाभारत कुछ और होती।एक कथा के अनुसार द्रौपदी ने सभी पांडवों और श्रीकृष्ण के सामने यह स्वीकारा भी था कि 'मैं आप पांचों से प्यार करती हूं लेकिन मैं किसी 6वें पुरुष से भी प्यार करती हूं। मैं कर्ण से प्यार करती हूं। जाति की वजह से उससे विवाह नहीं करने का मुझे अब पछतावा होता है। अगर मैंने कर्ण से विवाह किया होता तो शायद मुझे इतने दुख नहीं झेलने पड़ते। तब शायद मुझे इस तरह के कड़वे अनुभवों से होकर नहीं गुजरना पड़ता। मैं शिक्षित होने के बावजूद बिना सोच-विचारकर किए गए अपने कार्यों के लिए पछता रही हूं। उल्लेखनीय है कि इसी कथा में युधिष्ठिर ने पांडवों के साथ हुए सभी बुरे घटनाक्रमों के लिए द्रौपदी को जिम्मेदार ठहराया था।

श्री गणेश के 108 नाम देते हैं यश, कीर्ति, पराक्रम और वैभव

श्री गणेश, गजानन, लंबोदर, विनायक के कई हजार नाम हैं लेकिन उन सभी का वाचन संभव नहीं अत: भक्त अपनी सुविधा से 108 नामों का पाठ कर सकते हैं। यह 108 गजानन नाम श्री गणेश को प्रसन्न करते हैं और वे यश, कीर्ति, पराक्रम, वैभव, ऐश्वर्य, सौभाग्य, सफलता, धन, धान्य, बुद्धि, विवेक, ज्ञान और तेजस्विता का आशीष प्रदान करते हैं।

श्री गणेश के 108 नाम 
1) बालगणपति – Baalganapati
2) भालचन्द्र – Bhalchandra
3) बुद्धिनाथ – Buddhinath
4) धूम्रवर्ण – Dhumravarna
5) एकाक्षर – Ekakshar
6) एकदंत – Ekdant
7) गजकर्ण – Gajkarn
8) गजानन – Gajaanan
9) गजनान – Gajnaan
10) गजवक्र – Gajvakra
11) गजवक्त्र – Gajvaktra
12) गणाध्यक्ष – Ganaadhyaksha
13) गणपति – Ganapati
14) गौरीसुत – Gaurisut
15) लंबकर्ण – Lambakarn
16) लंबोदर – Lambodar
17) महाबल – Mahaabal
18) महागणपति – Mahaaganapati
19) महेश्वर – Maheshwar
20) मंगलमूर्ति – Mangalmurti
21) मूषकवाहन – Mushakvaahan
22) निदीश्वरम – Nidishwaram
23) प्रथमेश्वर – Prathameshwar
24) शूपकर्ण – Shoopkarna
25) शुभम – Shubham
26) सिद्धिदाता – Siddhidata
27) सिद्धिविनायक – Siddhivinaayak
28) सुरेश्वरम – Sureshvaram
29) वक्रतुंड – Vakratund
30) अखूरथ – Akhurath
31) अलंपत – Alampat
32) अमित – Amit
33) अनंतचिदरुपम – Anantchidrupam
34) अवनीश – Avanish
35) अविघ्न – Avighn
36) भीम – Bheem
37) भूपति – Bhupati
38) भुवनपति – Bhuvanpati
39) बुद्धिप्रिय – Buddhipriya
40) बुद्धिविधाता – Buddhividhata
41) चतुर्भुज – Chaturbhuj
42) देवदेव – Devdev
43) देवांतकनाशकारी – Devantaknaashkari
44) देवव्रत – Devavrat
45) देवेन्द्राशिक – Devendrashik
46) धार्मिक – Dharmik
47) दूर्जा – Doorja
48) द्वैमातुर – Dwemaatur
49) एकदंष्ट्र – Ekdanshtra
50) ईशानपुत्र – Ishaanputra
51) गदाधर – Gadaadhar
52) गणाध्यक्षिण – Ganaadhyakshina
53) गुणिन – Gunin
54) हरिद्र – Haridra
55) हेरंब – Heramb
56) कपिल – Kapil
57) कवीश – Kaveesh
58) कीर्ति – Kirti
59) कृपाकर – Kripakar
60) कृष्णपिंगाक्ष – Krishnapingaksh
61) क्षेमंकरी – Kshemankari
62) क्षिप्रा – Kshipra
63) मनोमय – Manomaya
64) मृत्युंजय – Mrityunjay
65) मूढ़ाकरम – Mudhakaram
66) मुक्तिदायी – Muktidaayi
67) नादप्रतिष्ठित – Naadpratishthit
68) नमस्तेतु – Namastetu
69) नंदन – Nandan
70) पाषिण – Pashin
71) पीतांबर – Pitaamber
72) प्रमोद – Pramod
73) पुरुष – Purush
74) रक्त – Rakta
75) रुद्रप्रिय – Rudrapriya
76) सर्वदेवात्मन – Sarvadevatmana
77) सर्वसिद्धांत – Sarvasiddhanta
78) सर्वात्मन – Sarvaatmana
79) शांभवी – Shambhavi
80) शशिवर्णम – Shashivarnam
81) शुभगुणकानन – Shubhagunakaanan
82) श्वेता – Shweta
83) सिद्धिप्रिय – Siddhipriya
84) स्कंदपूर्वज – Skandapurvaj
85) सुमुख – Sumukha
86) स्वरुप – Swarup
87) तरुण – Tarun
88) उद्दण्ड – Uddanda
89) उमापुत्र – Umaputra
90) वरगणपति – Varganapati
91) वरप्रद – Varprada
92) वरदविनायक – Varadvinaayak
93) वीरगणपति – Veerganapati
94) विद्यावारिधि – Vidyavaaridhi
95) विघ्नहर – Vighnahar
96) विघ्नहर्ता – Vighnahartta
97) विघ्नविनाशन – Vighnavinashan
98) विघ्नराज – Vighnaraaj
99) विघ्नराजेन्द्र – Vighnaraajendra
100) विघ्नविनाशाय – Vighnavinashay
101) विघ्नेश्वर – Vighneshwar
102) विकट – Vikat
103) विनायक – Vinayak
104) विश्वमुख – Vshvamukh
105) यज्ञकाय – Yagyakaay
106) यशस्कर – Yashaskar
107) यशस्विन – Yashaswin
108) योगाधिप – Yogadhip

माता पार्वती जब शिशु गणेश को छोड़ आई जंगल में

कहते हैं कि एक घने जंगल में शिशु गणेश को माता पार्वती छोड़कर चली गई। उस जंगल में हिंसक जीव ही घूमते रहते थे। वहां कभी कभार ऋषि मुनि भी उस जंगल से गुजरते थे। उस भयानक जंगल में एक सियार ने उस शिशु को देखा और वह उसके पास जाने लगा।तभी उसी समय ही वहां से ऋषि वेद व्यास के पिता पराशर मुनि गुजरे और उनकी दृष्टि उस अबोध बालक पर पड़ी और उन्होंने देखा की एक सियार भी उस शिशु की ओर धीरे-धीरे आ रहा है। पहले तो पराशर मुनि ने सोच कि कहीं यह इंद्र का कोई खेल या माया तो नहीं जो मेरा तप भंग करना चाहता हो? यह सोचते हुए महर्षि पराशर तेजी से शिशु की ओर बढ़े और यह देखकर वह सियार अपनी जगह पर ही रुक गया और फिर चुपचाप ही वन में कहीं गुम हो गया। महर्षि पराशर ने उस बालक को ध्यान देखा। उसकी चार भुजाएं थीं। रक्त वर्ण और गजवदन था। सुंदर वस्त्र पहन रखे थे। तब उन्होंने उसके छोटे छोटे चरणों को देखा तो उस पर ध्वज, अंकुश और कमल की रेखाएं स्पष्ट नजर आ रही थी।
यह देखकर महर्षि के शरीर में रोमांच हो आया और वे समझ गए कि यह कोई साधारण बालक नहीं बल्की स्वयं प्रभु थे। तब उन्होंने शिशु के चरणों में अपना मस्तक रख दिया और वे खुद को भाग्यशाली समझने लगे। वे उस शिशु को लेकर अपने आश्रम चल पड़े।
उनकी पत्नी वत्सला ने जब महर्षि के हाथों में एक नन्हें बालक को देखा तो पूछा यह आपको कहां से मिला। महर्षि ने कहा कि यह जंगल के एक सरोवर के तट पर पड़ा था। लगता है कि को क्रूर हृदय अभागा इसे वहां छोड़ गया है। वत्सला शिशु को देखककर प्रसन्न हो गई। तब पराशर ने अपनी पत्नी को समझाया कि यह साक्षात त्रिलोकी नाथ है। यह हमारा उद्धार करने के लिए आया है। यह वचन सुनकर वत्सला रोमांचित हो गई। दोनों ने मिलकर गणेश का लालन पालन किया।कहते हैं कि भगवान श्री गणपति ने कृत युग में कश्यप व अदिति के यहां श्रीअवतार महोत्कट विनायक नाम से जन्म लिया। इस अवतार में गणपति ने देवतान्तक व नरान्तक नामक राक्षसों का संहार कर धर्म की स्थापना की व अपने अवतार की समाप्ति की।त्रेता युग में गणपति ने उमा के गर्भ से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन जन्म लिया और उन्हें गुणेश नाम दिया गया। इस अवतार में गणपति ने सिंधु नामक दैत्य का विनाश किया व ब्रह्मदेव की कन्याएं, सिद्धि व रिद्धि से विवाह किया।
द्वापर युग में गणपति ने पुन: पार्वती के गर्भ से जन्म लिया व गणेश कहलाए। परंतु गणेश के जन्म के बाद किसी कारणवश पार्वती ने उन्हें जंगल में छोड़ दिया, जहां पर पराशर मुनि ने उनका पालन-पोषण किया। इन्ही गणेश ने ही ऋषि वेद व्यास के कहने पर महाभारत लिखी थी।
इस अवतार में गणेश ने सिंदुरासुर का वध कर उसके द्वारा कैद किए अनेक राजाओं व वीरों को मुक्त कराया था। इसी अवतार में गणेश ने वरेण्य नामक अपने भक्त को गणेश गीता के रूप में शाश्वत तत्व ज्ञान का उपदेश दिया। ऐसा भी कहा जाता है कि वे महिष्मति वरेण्य वरेण्य के पुत्र थे। कुरुप होने के कारण उन्हें जंगल में छोड़ दिया गया था।

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

आखिर क्यों है गंगा पवित्र


हिन्दुओं ने कर्मकांड के नाम पर गंगा माता को अधमरा कर दिया है। यदि भविष्य में गंगा लुप्त होती है तो इसका सबसे बड़ा दोष उन लोगों को लगेगा जो गंगा में अस्थि विसर्जन करते हैं, कचरा डालते हैं, दीपक छोड़ते हैं और शहरों और फैक्ट्रियों का गंदा पानी उसी में डालते हैं। गंगा की सफाई के नाम पर करोड़ों रुपए पानी में बहा दिए गए लेकिन गंगा जस की तस है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा के पानी में बैक्टीरिया को खाने वाले बैक्टीरियोफ़ाज वायरस होते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया की तादाद बढ़ते ही सक्रिय होते हैं और बैक्टीरिया को मारने के बाद फिर छिप जाते हैं। शायद इसीलिए हमारे ऋषियों ने गंगा को पवित्र नदी माना होगा। इसीलिए इस नदी का जल कभी सड़ता नहीं है।
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत सब धार्मिक ग्रंथों में गंगा की महिमा का वर्णन है। करीब सवा सौ साल पहले आगरा में तैनात ब्रिटिश डॉक्टर एमई हॉकिन ने वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध किया था कि हैजे का बैक्टीरिया गंगा के पानी में डालने पर कुछ ही देर में मर गया।दिलचस्प ये है कि इस समय भी वैज्ञानिक पाते हैं कि गंगा में बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है। लखनऊ के नेशनल बॉटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनबीआरआई) के निदेशक डॉक्टर चंद्रशेखर नौटियाल ने एक अनुसंधान में प्रमाणित किया है कि गंगा के पानी में बीमारी पैदा करने वाले ई कोलाई बैक्टीरिया को मारने की क्षमता बरकरार है।
प्राकृतिक गुणों से भरपूर औषधीय जल
 गंगा जल की वैज्ञानिक खोजों ने साफ कर दिया है कि गंगा गोमुख से निकलकर मैदानों में आने तक अनेक प्राकृतिक स्थानों, वनस्पतियों से होकर प्रवाहित होती है। इसलिए गंगा जल में औषधीय गुण पाए जाते हैं जो व्यक्ति को शक्ति प्रदान करते हैं। यह जल सभी तरह के रोग काटने की दवा भी है।

काल भैरव की प्रतिमा के मदिरापान करने का रहस्य

  
करती काल भैरव की प्रतिमा 
क्या मूर्ति मदिरापान कर सकती...आप कहेंगे नहीं, कतई नहीं। भला मूर्ति कैसे मदिरापान कर सकती है। मूर्ति तो बेजान होती है। बेजान चीजों को भूख-प्यास का अहसास नहीं होता, इसलिए वह कुछ खाती-पीती भी नहीं है। लेकिन उज्जैन के काल भैरव के मंदिर में ऐसा नहीं होता। वाम मार्गी संप्रदाय के इस मंदिर में काल भैरव की मूर्ति को न सिर्फ मदिरा चढ़ाई जाती है, बल्कि बाबा भी मदिरापान करते हैं । 
आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हमने इसी तथ्य को खंगालने की कोशिश की। अपनी इस कोशिश के लिए हमने सबसे पहले रुख किया उज्जैन का...महाकाल के इस नगर को मंदिरों का नगर कहा जाता है। लेकिन हमारी मंजिल थी, एक विशेष मंदिर- काल भैरव मंदिर। यह मंदिर महाकाल से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर है। कुछ ही समय बाद हम मंदिर के मुख्य द्वार पर थे। 
मंदिर के बाहर सजी दुकानों पर हमें फूल, प्रसाद, श्रीफल के साथ-साथ वाइन की छोटी-छोटी बोतलें भी सजी नजर आईं। इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते, जान पाते, उससे पहले ही हमारे सामने कुछ श्रद्धालुओं ने प्रसाद के साथ-साथ मदिरा की बोतलें भी खरीदीं। जब हमने दुकानदार रवि वर्मा से इस बारे में बातचीत की तो उन्होंने बताया कि बाबा के दर पर आने वाला हर भक्त उनको मदिरा (देशी मदिरा) जरूर चढ़ाता है। बाबा के मुंह से मदिरा का कटोरा लगाने के बाद मदिरा धीरे-धीरे गायब हो जाती है। 
रवि से जानकारी लेने के बाद हम मंदिर के अंदर गए...
मंदिर में भक्तों का तांता लगा हुआ था। हर भक्त के हाथ में प्रसाद की टोकरी थी। इस टोकरी में फूल और श्रीफल के साथ-साथ मदिरा की एक छोटी बोतल भी जरूर नजर आ जाती थी...हम मंदिर के गर्भ गृह में एक तरफ खड़े हो गए और देखने लगे कि बाबा कैसे मदिरा का पान करते हैं।अंदर का दृश्य बेहद निराला था। भैरव बाबा की प्रतिमा के पास बैठे पुजारी गोपाल महाराज कुछ मंत्र बुदबुदा रहे थे। इतने में ही एक भक्त ने प्रसाद और मदिरा का चढ़ावा चढ़ाया। पंडित जी ने मदिरा को एक छोटी प्लेट में निकाला और बाबा की मूरत के मुंह से लगा दिया... और यह क्या...भोग लगाने के बाद प्लेट में मदिरा की एक बूंद भी नहीं बची।
जरूर देखें मदिरापान करते हुए बाबा की चमत्कारिक प्रतिमा को...
यह सिलसिला लगातार चलता रहा...एक-के-बाद-एक भक्त आते गए और बाबा की मूर्ति मदिरापान करती रही। सब कुछ हमारी आंखों के सामने घट रहा था। हम काफी देर तक यहीं खड़े रहे। मदिरा पिलाने का सिलसिला भी लगातार जारी था। पंडित जी भैरव बाबा को लगातार प्रसाद चढ़ाते जा रहे थे...लेकिन कहीं भी मदिरा की एक बूंद भी नजर नहीं आ रही थी।हमने राजेश चतुर्वेदी नामक एक भक्त से इस बाबत चर्चा की। राजेश ने बताया 'वे उज्जैन के रहने वाले हैं और हर रविवार काल भैरव को मदिरा का भोग लगाने जरूर आते हैं। राजेश बताते हैं, पहले-पहल वे भी यह जानने की कोशिश करते थे कि मदिरा आखिर जाती कहां हैं, लेकिन अब उन्हें पक्का विश्वास है कि मदिरा का भोग भगवान काल भैरव ही लगाते हैं।'
  तांत्रिक मंदिर : 
 काल भैरव का यह मंदिर लगभग छह हजार साल पुराना माना जाता है। यह एक वाम मार्गी तांत्रिक मंदिर है। वाम मार्ग के मंदिरों में मांस, मदिरा, बलि, मुद्रा जैसे प्रसाद चढ़ाए जाते हैं। प्राचीन समय में यहां सिर्फ तांत्रिकों को ही आने की अनुमति थी। वे ही यहां तांत्रिक क्रियाएं करते थे और कुछ विशेष अवसरों पर काल भैरव को मदिरा का भोग भी चढ़ाया जाता था। कालान्तर में ये मंदिर आम लोगों के लिए खोल दिया गया, लेकिन बाबा ने भोग स्वीकारना यूं ही जारी रखा। 
  अब यहां जितने भी दर्शनार्थी आते हैं, बाबा को भोग जरूर लगाते हैं। मंदिर के पुजारी गोपाल महाराज बताते हैं कि यहां विशिष्ट मंत्रों के द्वारा बाबा को अभिमंत्रित कर उन्हें मदिरा का पान कराया जाता है, जिसे वे बहुत खुशी के साथ स्वीकार भी करते हैं और अपने भक्तों की मुराद पूरी करते हैं।
  काल भैरव के मदिरापान के पीछे क्या राज है, इसे लेकर लंबी-चौड़ी बहस हो चुकी है। पीढ़ियों से इस मंदिर की सेवा करने वाले राजुल महाराज बताते हैं, उनके दादा के जमाने में एक अंग्रेज अधिकारी ने मंदिर की खासी जांच करवाई थी। लेकिन कुछ भी उसके हाथ नहीं लगा...उसने प्रतिमा के आसपास की जगह की खुदाई भी करवाई, लेकिन नतीजा सिफर। उसके बाद वे भी काल भैरव के भक्त बन गए। उनके बाद से ही यहां देसी मदिरा को वाइन उच्चारित किया जाने लगा, जो आज तक जारी है।मंदिर में काफी देर तक बैठने और आसपास की जगहों का मुआयना करने के बाद और तमाम जानकार लोगों से बातें करने के बाद हमें भी पूरा यकीन हो गया कि जहां आस्था होती है, वहां शक की कोई गुंजाइश नहीं होती।
कब से शुरू हुआ सिलसिला
काल भैरव को मदिरा पिलाने का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। यह कब, कैसे और क्यों शुरू हुआ, यह कोई नहीं जानता। यहां आने वाले लोगों और पंडितों का कहना है कि वे बचपन से भैरव बाबा को भोग लगाते आ रहे हैं, जिसे वे खुशी-खुशी ग्रहण भी करते हैं। उनके बाप-दादा भी उन्हें यही बाताते हैं कि यह एक तांत्रिक मंदिर था, जहां बलि चढ़ाने के बाद बलि के मांस के साथ-साथ भैरव बाबा को मदिरा भी चढ़ाई जाती थी। अब बलि तो बंद हो गई है, लेकिन मदिरा चढ़ाने का सिलसिला वैसे ही जारी है। इस मंदिर की महत्ता को प्रशासन की भी मंजूरी मिली हुई है। खास अवसरों पर प्रशासन की ओर से भी बाबा को मदिरा चढ़ाई जाती है।

अनूठा मंदिर! जहां मर्द पहनते हैं जनाने कपड़े...

धर्म को लेकर हमारे देश में जहां तरह-तरह के प्रतबिंध लगाए गए हैं। देश में बहुत से मंदिर ऐसे हैं जिनमें महिलाओं का प्रवेश करने पर रोक होती है। ये मंदिर देश भर में इस तरह के लिए जाना जाता है कि यहां प्रवेश करने और पूजा करने के इच्छुक पुरुषों को बकायदा महिलाओं की ड्रेस में आना पड़ता है।
इस मंदिर में उन्हें पूजा करने के लिए महिलाओं, किन्नरों पर कोई रोक नहीं है, लेकिन पुरुष अगर इस मंदिर में पूजा अर्चना करना चाहता है तो उसे महिलाओं की तरह पूरा सोलह श्रृंगार करना पड़ता है। यह खास मंदिर के कोल्लम जिले में ‌हैं जहां पर श्री में हर साल चाम्याविलक्कू त्यौहार मनाया जाता है।
इस त्योहार में हर साल हजारों की संख्या में पुरुष श्रद्घालु आते हैं। उनके तैयार होने के लिए मंदिर में अलग से मेकअप रूम बनाया जाता है। पुरुष महिलाओं की तरह न केवल साड़ी पहनते है, बल्कि जूलरी, मेकअप और बालों में गजरा भी लगाते है। इस उत्सव में शामिल होने के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है।
यही नहीं ट्रांसजेंडर भी इस मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए आते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में देवी की मूर्ति स्वयं प्रकट हुई थी। अपनी खास परंपरा के लिए दुनियाभर में मशहूर इस मंदिर के ऊपर कोई छत नहीं हैं। इस राज्य का यह ऐसा एकमात्र मंदिर है जिसके गर्भगृह के ऊपर छत या कलश नहीं हैं।
ऐसी मान्यता है कि कुछ चरवाहों ने महिलाओं के कपड़े पहनकर पत्‍थर पर फूल चढ़ाए थे, जिसके बाद उस पत्‍थर से दिव्य शक्ति निकलने लगी। इसके बाद इसे मंदिर का रूप दिया गया। एक मान्यता यह भी है कि कुछ लोग पत्‍थर पर नारियल फोड़ रहे थे और इसी दौरान पत्‍थर से खून निकलने लग गया जिसके बाद से यहां देवी की पूजा होने लगी।

यहां राम ने ब्रह्महत्या का पाप धोया था...

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  हम आपको एक ऐसे के बारे में बताने जा रहे हैं जिसमें स्नान करने के बाद आपके सारे पाप समाप्त हो जाते हैं और पुनः साफ-सुथरे मन से आप आगे का जीवन जीने के लिए अग्रसर हो सकते हैं। ऐसा हम नहीं कह रहे हैं, इस सरोवर से जुड़ी कथाएं व यहां के लोगों की आस्था इस बात का प्रतीक है कि इस सरोवर में नहाने से लोगों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
इस सरोवर से जुड़ी कथाओं की पुष्टि करने के लिए जब हम उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर बने हत्याहरण तीर्थ सरोवर पहुंचे, जो हरदोई जनपद की संडीला तहसील में पवित्र नैमिषारण्य परिक्रमा क्षेत्र में स्थित है। जब हम इस सरोवर के साक्षात दर्शन करने पहुंचे तो इस सरोवर से जुड़ी लोगों की आस्थाओं को देखकर एक बार विश्वास हो चला कि हो ना हो इस सरोवर में स्नान करने के बाद कहीं न कहीं पापों से मुक्ति मिल जाती है क्योंकि सरोवर में स्नान करने वालों की अपार भीड़ थी।
इस सरोवर से जुड़ी कथाओं को जानने का प्रयास किया तो कई बातें सामने निकलकर आईं। सरोवर के पास पीढ़ियों से फूलमालाओं का काम करने वाले 80 साल के जगन्नाथ से इस सरोवर से जुड़ी बातों को जानना चाहा तो जगन्नाथ ने बताया की पौराणिक बातों में कितनी सत्यता है, इसकी पुष्टि तो वे नहीं करते लेकिन जो वह बताने जा रहे हैं, इसके बारे में उन्होंने अपने पिताजी से सुना था।
उन्होंने कि कहा जब मैं अपने पिताजी के साथ इस सरोवर पर फूल बेचने के लिए आता था तो मैंने एक दिन अपने पिता से पूछा कि यहां पर इतने सारे लोग क्या करने आते हैं तो उन्होंने मुझे बताया कि हजारों वर्ष पूर्व जब भगवान ने रावण का वध कर दिया था तो उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लग गया था। उस पाप को मिटाने के लिए भगवान राम भी इस सरोवर में स्नान करने आए थे।
इस सरोवर के निर्माण के बारे में शिव पुराण में वर्णन है कि माता पार्वती के साथ भगवान भोलेनाथ एकांत की खोज में निकले और नैमिषारण्य क्षेत्र में विहार करते हुए एक जंगल में जा पहुंचे। वहां पर सुरम्य जंगल मिलने पर तपस्या करने लगे। तपस्या करते हुए माता पार्वती को प्यास लगी। जंगल में कहीं जल न मिलने पर उन्होंने देवताओं से पानी के लिए कहा तब सूर्य देवता ने एक कमंडल जल दिया। देवी पार्वती ने जलपान करने के बाद शेष बचे जल को जमीन पर गिरा दिया। तेजस्वी पवित्र जल से वहां पर एक कुंड का निर्माण हुआ और जाते वक्त भगवान शंकर ने इस स्थान का नाम प्रभास्कर क्षेत्र रखा।
यह कहानी सतयुग की है। काल बीतते रहे द्वापर में ब्रम्हा द्वारा अपनी पुत्री पर कुदृष्टि डालने पर पाप लगा। उन्होंने इस तीर्थ में आकर स्नान किया तब वे पाप मुक्त हुए। जगन्नाथ ने बताया कि तब से यहां पर मान्यता चली आ रही है की जो इस स्थान पर आकर स्नान करेगा वह पाप मुक्त हो जाएगा। हत्या मुक्त हो जाएगा। यहां पर राम का एक बार नाम लेने से हजार नामों का लाभ मिलेगा। तब से आज तक लोग यहां इस पावन तीर्थ पर आकर हत्या, गोहत्या एवं अन्य पापों से मुक्ति पा रहे हैं।

हनुमान जी भी ला सकते थे माता सीता को लेकिन.......!

पवनपुत्र हनुमानजी भगवान शिव के ग्यारहवें अवतार के रूप में सर्वत्र पूजनीय हैं। वे बल और बुद्धि के देवता हैं। कई हनुमान मंदिरों में उनकी मूर्ति को पर्वत उठाए तथा राक्षस का मान मर्दन करते हुए दिखाया जाता है, लेकिन प्रभु श्रीराम के मंदिरों में वे राम के चरणों में मस्तक झुकाए बैठे हैं।
भगवान शिव भी प्रभु श्रीराम का स्मरण करते हैं इसलिए उनके अवतार हनुमान को भी राम नाम अधिक प्रिय है। कोई भी रामकथा हनुमानजी के बिना पूरी नहीं होती।
हनुमान के एक प्रसंग के अनुसार- एक बार वे माता अंजनी को रामायण सुना रहे थे।
उनकी कथा से प्रभावित होकर माता अंजनी ने उनसे पूछा- तुम इतने शक्तिशाली हो कि तुम पूंछ के एक वार से पूरी लंका को उड़ा सकते थे, रावण को मार सकते थे और मां सीता को छुड़ा कर ला सकते हो फिर तुमने ऐसा क्यों नहीं किया? अगर तुम ऐसा करते तो युद्ध में नष्ट हुआ समय बच जाता?
इस पर हनुमानजी विनम्रता के साथ माता अंजनी को कहते हैं- क्योंकि प्रभु श्रीराम ने कभी मुझे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था। मैं उतना ही करता हूं मां, जितना मुझे प्रभु श्रीराम कहते हैं और वे जानते हैं कि मुझे क्या करना है। इसलिए मैं अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता और वही करता हूं जितना मुझे बताया गया है।
प्रभु श्रीराम के प्रति उनके इस अगाध प्रेम और श्रद्धा के कारण ही हनुमानजी पूरे संसार में पूजे जाते हैं। अगर कोई भी परेशान हनुमान भक्त हनुमान जयंती, मंगलवार तथा शनिवार के दिन हनुमान चालीसा का सात बार पाठ करें, तो उनके कष्टों का निवारण होता है। ऐसा माना जाता है।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

क्यों मनाया जाता है राम नवमी

जानिए पूजा के शुभ मुहूर्त
राम नवमी का संबंध भगवान विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम से है। भगवान विष्णु ने अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करने के लिये हर युग में अवतार धारण किए। इन्हीं में एक अवतार उन्होंने भगवान श्री राम के रुप में लिया था। जिस दिन भगवान श्री हरि ने राम के रूप में राजा दशरथ के यहां माता कौशल्या की कोख से जन्म लिया वह दिन चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी का दिन था। यही कारण है कि इस तिथि को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि का भी यह अंतिम दिन होता है।
श्री राम का जन्म
पौराणिक ग्रंथों में जो कथाएं हैं उनके अनुसार भगवान राम त्रेता युग में अवतरित हुए। उनके जन्म का एकमात्र उद्देश्य मानव मात्र का कल्याण करना, मानव समाज के लिए एक आदर्श पुरुष की मिसाल पेश करना और अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना था। यहां धर्म का अर्थ किसी विशेष धर्म के लिए नहीं बल्कि एक आदर्श कल्याणकारी समाज की स्थापना से है। राजा दशरथ जिनका प्रताप 10 दिशाओं में व्याप्त रहा। उन्होंने तीन विवाह किए थे लेकिन किसी भी रानी से उन्हें पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। ऋषि मुनियों से जब इस बारे में विमर्श किया तो उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने की सलाह दी। पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने के पश्चात यज्ञ से जो खीर प्राप्त हुई उसे राजा दशरथ ने अपनी प्रिय पत्नी कौशल्या को दे दिया। कौशल्या ने उसमें से आधा हिस्सा केकैयी को दिया इसके पश्चात कौशल्या और केकैयी ने अपने हिस्से से आधा-आधा हिस्सा तीसरी पत्नी सुमित्रा को दे दिया। इसीलिए चैत्र शुक्ल नवमी को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में माता कौशल्या की कोख से भगवान श्री राम जन्मे। केकैयी से भरत ने जन्म लिया तो सुमित्रा ने लक्ष्मण व शत्रुघ्न को जन्म दिया।
कैसे मनाते हैं रामनवमी
भगवान श्री राम को मर्यादा का प्रतीक माना जाता है। उन्हें पुरुषोत्तम यानि श्रेष्ठ पुरुष की संज्ञा दी जाती है। वे स्त्री पुरुष में भेद नहीं करते। अनेक उदाहरण हैं जहां वे अपनी पत्नी सीता के प्रति समर्पित व उनका सम्मान करते नज़र आते हैं। वे समाज में व्याप्त ऊंच-नीच को भी नहीं मानते। शबरी के झूठे बेर खाने का और केवट की नाव चढ़ने का उदाहरण इसे समझने के लिए सर्वोत्तम है। वेद शास्त्रों के ज्ञाता और समस्त लोकों पर अपने पराक्रम का परचम लहराने वाले, विभिन्न कलाओं में निपुण लंकापति रावण के अंहकार के किले को ध्वस्त करने वाले पराक्रमी भगवान श्री राम का जन्मोत्सव देश भर में धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री राम की भक्ति में डूबकर भजन कीर्तन किए जाते हैं। श्री रामकथा सुनी जाती है। रामचरित मानस का पाठ करवाया जाता है। श्री राम स्त्रोत का पाठ किया जाता है। कई जगहों भर भगवान श्री राम की प्रतिमा को झूले में भी झुलाया जाता है। रामनवमी को उपवास भी रखा जाता है। मान्यता है कि रामनवमी का उपवास रखने से सुख समृद्धि आती है और पाप नष्ट होते हैं।