सोमवार, 31 मई 2010

स्वर्ग और नरक


 -अरुण कुमार बंछोर
जापान के जैन समुदाय के एक महान आचार्य थे, रिंजेई। उनकी ख्‍याति दूर-दूर तक थी। एक दिन एक युवक उनके पास आया। उसने कहा - मुनिवर मैं स्वर्ग और नरक के रहस्य को जानना चाहता हूँ। कृपया मुझे समझाएँ। रिंजेई ने गौर से उसे देखा। फिर प्रश्न किया वह मैं समझाता हूँ। पर तुम कौन हो? करते क्या हो? युवक ने बड़े दर्प से कहा - मैं योद्धा हूँ। राजा की सेना में एक उच्च पद पर...
रिंजेई बोले - योद्धा? तुम क्या योद्धा होंगे। देखने में तो घसियारे या मोची लगते हो।
युवक ने तैश में आकर कमरबंद में खोंसी हुई तलवार निकाल ली और बोला - क्या यह तलवार आपको दिखाई नहीं दी? क्या यह मेरे योद्धा होने का प्रमाण नहीं है?
रिंजेई पुन: उपहासपूर्वक उसे देखते हुए बोले - हुंह। तलवार! इस तलवार से तो सब्जी-भाजी भी न कटती होगी। तुम इससे घास छीलते होगे।
युवक तलवार को म्यान से खींचकर बोला - बहुत हो गया। अब आपने एक भी अपशब्द कहा तो यह तलवार आपकी गर्दन धड़ से अलग करके ही म्यान में लौटेगी।
रिंजेई के चेहरे पर एक शांत मुस्कान तैरने लगी। वह बोले - युवक, अब तुम नरक में हो। अच्छी तरह देख लो। समझ लो।
अपना संयम खोने और आवेश की ज्वाला में जलने का परिणाम क्षण भर में युवक के सम्मुख स्पष्ट हो गया। उसने लज्जित होकर क्षमा माँगी और सिर झुकाकर आचार्य रिंजेई के चरणों के समीप बैठ गया। रिंजेई ने कहा - वत्स, यही स्वर्ग है।

शेख चिल्ली ‍की चिट्‍ठी
बच्चो, तुमने मियाँ ‍शेख चिल्ली का नाम सुना होगा। वही शेख चिल्ली जो अकल के पीछे लाठी लिए घूमते थे। उन्हीं का एक और कारनामा तुम्हें सुनाएँ।
मियाँ शेख चिल्ली के भाई दूर किसी शहर में बसते थे। किसी ने शेख चिल्ली को बीमार होने की खबर दी तो उनकी खैरियत जानने के लिए शेख ने उन्हें खत लिखा। उस जमाने में डाकघर तो थे नहीं, लोग चिट्‍ठियाँ गाँव के नाई के जरिये भिजवाया करते थे या कोई और नौकर चिट्‍ठी लेकर जाता था।
लेकिन उ‍न दिनों नाई उन्हें बीमार मिला। फसल कटाई का मौसम होने से कोई नौकर या मजदूर भी खाली नहीं था अत: मियाँ जी ने तय किया कि वह खुद ही चिट्‍ठी पहुँचाने जाएँगे। अगले दिन वह सुबह-सुबह चिट्‍ठी लेकर घर से निकल पड़े। दोपहर तक वह अपने भाई के घर पहुँचे और उन्हें चिट्‍ठी पकड़ाकर लौटने लगे।
उनके भाई ने हैरानी से पूछा - अरे! चिल्ली भाई! यह खत कैसा है? और तुम वापिस क्यों जा रहे हो? क्या मुझसे कोई नाराजगी है?
भाई ने यह कहते हुए चिल्ली को गले से लगाना चाहा। पीछे हटते हुए चिल्ली बोले - भाई जान, ऐसा है कि मैंने आपको चिट्‍ठी लिखी थी। चिट्‍ठी ले जाने को नाई नहीं मिला तो उसकी बजाय मुझे ही चिट्‍ठी देने आना पड़ा।
भाई ने कहा - जब तुम आ ही गए हो तो दो-चार दिन ठहरो। शेख चिल्ली ने मुँह बनाते हुए कहा - आप भी अजीब इंसान हैं। समझते नहीं। यह समझिए कि मैं तो सिर्फ नाई का फर्ज निभा रहा हूँ। मुझे आना होता तो मैं चिट्‍ठी क्यों लिखता?

साहस-जोखिम-रोमांच का संगम


अगर आप देश-विदेश में घूमने-फिरने का शौक रखते हैं और समुद्र की अठखेलियां करती लहरें आपको सहज ही आकर्षित करती हैं तो मर्चेंट नेवी का क्षेत्र आपके लिए रोमांच और साहस से भरा एक बेहतरीन करियर ऑप्शन सिद्ध हो सकता है। शौक के साथ भविष्य निर्माण का अनोखा संगम यह प्रोफेशन अपने आप में समेट हुए है।

पे-पैकेज 15 हजार रुपए प्रतिमाह से लेकर पद और अनुभव के साथ 7-8 लाख रुपए प्रतिमाह के स्तर तक पहुँच सकता है। मर्चेंट नेवी को लोग अमूमन नौसेना से जोड़ लेते हैं जबकि मर्चेंट नेवी मूलतः व्यापारिक जहाजों का बेड़ा कहा जा सकता है जिसमें समुद्री यात्री जहाज, मालवाहक जहाज, तेल टैंकर, रेफ्रिजरेटेड शिप आदि शामिल होते हैं।

इनमें कार्यरत प्रोफेशनल्स शिप के परिचालन, तकनीकी रखरखाव और यात्रियों के लिए अन्य प्रकार की सेवाएँ प्रदान कराने के कार्यकलापों से संबद्ध होते हैं। इनकी ट्रेनिंग विशिष्ट और मेहनत से भरी होती है। पारंगत होने के विश्वास पर ही ट्रेनिंग संस्थानों द्वारा इन्हें अधिकृत किया जाता है।

हालाँकि डिग्री या डिप्लोमाधारकों को भी 6 माह से लेकर एक वर्ष तक बतौर ट्रेनी या डेक कैडर ही बना कर रखा जाता है। समुद्री परिस्थिति और परिवार से दूर रहने की आदत डालनी होती है। आपातकालीन जोखिमों का साहस से झेलने का जज्बा भी उनमें भरा जाता है। आमतौर से विज्ञान विषयों सहित 10+2 पास युवा ही जेईई (आईआईटी प्रवेश परीक्षा) के माध्यम से इस प्रकार के कोर्स में प्रवेश प्राप्त करते हैं।

ट्रेनिंग कोर्स में दाखिला पाने की अधिकतम आयुसीमा 20 वर्ष सामान्य वर्ग के युवाओं के लिए और 25 वर्ष अनुजाति, जनजाति के युवाओं के लिए रखी जाती है। इसके अलावा इस क्षेत्रे में प्रवेश पाने का दूसरा रास्ता शिपिंग कंपनियों द्वारा समय-समय पर नियुक्त किए जाने वाले डेक कैडेट्स के रूप में भी है।

स्पेशियलाइजेशन के लिए एप्टीच्यूड एवं दिलचस्पी के अनुसार उन्हें अलग-अलग ट्रेड में वर्गीकृत किया जाता है। सफलतापूर्वक ट्रेनिंग की समाप्ति के बाद ही इन युवाओं को पहले प्रोवेशन और बाद में रेग्यूलर कर्मियों का दर्जा दिया जाता है। इन्हें आकर्षित पे-पैकेज (जो विदेशी शिपिंग कंपनियों के मामले में विदेशी मुद्रा में भी हो सकता है) के अलावा मुफ्त खाना-पीना, शुल्क रहित विदेशी सामान तथा वर्ष में पूरे वेतन के साथ चार माह की छुट्टियाँ भी मिलती हैं।
जहाँ तक ट्रेनिंग का सवाल है तो ट्रेनिंगशिप चाणक्य (नवी मुंबई) और मरीन इंजीनियरिंग इंस्ट्टियूट (कोलकाता) का नाम खासतौर से इस बाबत लिया जा सकता है। 'चाणक्य' पर तीन वर्षीय बीएससी नॉटिकल साइंस और कोलकाता स्थित संस्थान में चार वर्षीय मरीन इंजीनियरिंग का कोर्स संचालित किया जाता है। इसके बाद एमई (मरीन इंजीनियरिंग) का कोर्स भी किया जा सकता है। शिपिंग क्षेत्र में कार्य के अनुसार विशेषज्ञता के विकल्प होते हैं।

एक नजर इन विभागों पर -
डेक, नेवीगेशन ऑफिसरः इनका काम शिप के नेवीगेशन पर आधारित होता है। कैप्टन या मास्टर के ही आदेश के तहत समूचा शिपिंग स्टाफ काम करता है। इसके बाद चीफ मेट और फर्स्ट मेट का स्थान होता है। इनका दायित्व कार्गो प्लानिंग और डेक के कामकाज पर आधारित होता है।

सेकेंड मेट का काम शिप के उपकरणों के समुचित रखरखाव और थर्ड मेट का काम लाइफ बोट्स और फायर फाइटिंग उपकरणों की देखभाल से संबंधित होता है।

इंजीनियरिंग ऑफिसरः शिप इंजन, बॉयलर, पंप, फ्यूल सिस्टम, जेनरेटर सिस्टम, एयर कंडिशनिंग प्लांट इत्यादि का जिम्मा इसी विभाग के विभिन्न श्रेणी के इंजीनियरों और कर्मियों पर होता है। इस विभाग में चीफ इंजीनियर सेकेंड इंजीनियर, थर्ड इंजीनियर, फोर्थ इंजीनियर आदि पद होते हैं। इसमें मैकेनिकल तथा इलेक्ट्रिकल इंजीनियर भी शामिल होते हैं।

एक विश्वयुद्ध : तंबाकू के विरुद्ध


किसी की युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए पहली आवश्यकता होती है शत्रु की साफ-साफ पहचान, उसकी ताकत एवं उसकी कमजोरियों का अंदाज, उसके मित्रों, हितैषियों एवं उससे सहानुभूति रखने वालों का लेखा-जोखा, शत्रु के प्रभाव क्षेत्र की भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं भावनात्मक परिस्थितियों का पर्याप्त ज्ञान होना भी युद्ध की रणनीतियों के निर्धारण के लिए जरूरी होता है।

तंबाकू-प्रयोग के विरुद्ध विश्वभर में युद्ध छिड़ा हुआ है। इस तंबाकू-युद्ध को सैकड़ों मोर्चों पर हजारों सैन्य टुकड़ियों द्वारा लड़ा जा रहा है, जिसकी संयुक्त कमान विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के हाथों में है। विश्व के सभी देश विशेषतः (उनके स्वास्थ्य मंत्रालय) इसके क्षेत्रीय कमांडर हैं।

तंबाकू-उपयोग के विरुद्ध छुटपुट कार्रवाइयाँ तो एक शताब्दी पूर्व से जारी हैं। 1857 में इंग्लैंड के ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने अपने सैकड़ों सदस्य चिकित्सकों की धूम्रपान से होने वाली हानियों के विषय पर राय एकत्रित की थी। इसे ब्रिटिश डॉक्टर्स स्टडी कहा जाता है।

इस अध्ययन में डॉक्टर्स से पूछा गया था कि उनकी राय में उनके क्लिनिकल ऑब्जर्वेशंस के अनुसार धूम्रपान करने से कौन-कौन-से रोग होते हैं (या हो सकते हैं)? स्मरण रहे 1857 तक धूम्रपान से होने वाले दुष्प्रभावों के संबंध में किसी वैज्ञानिक खोज या अध्ययन के अते-पते नहीं थे। अधिकांश चिकित्सकों ने धूम्रपान को विभिन्न कैंसर, दिल, मानसिक तथा व्यवहारजनित बीमारियों, नपुसंकता आदि का संभावित कारण बताया।
150 वर्षों से तंबाकूरूपी दैत्य चुपचाप धीरे-धीरे मनुष्य जाति का आराम से भक्षण करता रहा है। इस दैत्य की साफ-साफ पहचान 1964 में हुई, जब अमेरिका के सर्जन जनरल टेरीलूथर ने अपनी ऐतिहासिक रिपोर्ट में यह सिद्ध कर दिया कि धूम्रपान निश्चित रूप से कैंसर, हार्ट अटैक, लकवा सहित कई गंभीर एवं जानलेवा बीमारियों का मूल कारण है।
ब्रिटिश फिजिशियंस-स्टडी के समय से उठाई गई शंकाओं, सिगरेट कंपनियों द्वारा किए गए उनके खंडनों के दौर इन 150 वर्षों में निरंतर चलते रहे। तंबाकू कंपनियों की सोची-समझी साजिश एवं चिकित्सा संगठनों की उदासीनता से एक धुँध बनी रही कि तंबाकू के विरुद्ध विभिन्न चिकित्सकों, उनके संगठनों द्वारा उठाई गई आवाजों में सच्चाई है भी कि नहीं! यदि है तो कहाँ तक!
टेरी लूथर की रिपोर्ट ने इस अनिश्चय की धुँध को पूरी तरह छाँट दिया। विश्व ने पहली बार तंबाकू के इच्छाधारी राक्षस को अपने संपूर्ण नग्न एवं भयावह रूप में देखा-पहचाना। इस सर्जन जनरल की रिपोर्ट में दुनिया के हर कोने में धूम्रपान के संबंध में हुए अध्ययनों एवं उनके निष्कर्षों व दुष्प्रभाव को संकलित व संपादित किया गया था। तंबाकू-उपयोग के विरुद्ध औपचारिक विश्वयुद्ध की शुरुआत टेरी लूथर की रिपोर्ट से कही जा सकती है।
सर्जन जनरल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद स्वास्थ्य जगत में हलचल मच गई तथा तंबाकू के विकराल दैत्य को काबू करने के लिए सभी देशों के बीच जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों में आम सहमति बनी कि इस समस्या से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी वैश्विक संस्था को ही नेतृत्व करना होगा। इस प्रकार आपसी सहमति के अनुसार तंबाकू-नियंत्रण की दिशा में अंतरराष्ट्रीय प्रयास सुसंगठित रूप में शुरू हुए।
इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण पड़ाव रहा 1999 की "विश्व स्वास्थ्य संसद" जिसमें सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया था कि तंबाकू नियंत्रण के उद्देश्य से एक अंतरराष्ट्रीय कानून बनाया जाए, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य राष्ट्रों पर बंधनकारी हो तथा उनका पालन करना अनिवार्य हो।

किसी भी अंतरराष्ट्रीय संधि को प्रभाव में लाने के लिए निश्चित कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। इसमें सबसे पहली थी अंतरराष्ट्रीय कानून का मसौदा क्या हो, इसके क्षेत्र क्या हो। इन बिंदुओं पर आम सहमति बनाने के उद्देश्य से 192 देशों के प्रतिनिधियों एवं अशासकीय सामाजिक संगठनों (एनजीओ) की (डब्ल्यूएचओ) मुख्यालय जेनेवा में 1999 से 2004 के बीच कई बैठकें हुईं।

मसौदे के एक-एक बिंदु पर घंटों बहस के बाद जो सर्वसम्मत दस्तावेज तैयार हुआ उसे एफसीटीसी (फेडरल कन्वेशन ऑन टोबैको कंट्रोल) कहा गया। इस (एफसीटीसी) संधिपत्र पर जब 40 देशों के अधिकृत प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर कर दिए, तब इसे औपचारिक संधि का रूप देने के लिए हरी झंडी मिल गई। जिस दिन 140वें देश की निर्वाचित संसदों ने इस (एफसीटीसी) की रेटीफाई कर दी तो उसी दिन से संधि लागू मानी गई जिसका विश्व के देशों को पालन करना अनिवार्य है।

यह भारत के लिए अत्यंत गर्व का विषय है कि कोई भी प्रधानमंत्री रहा हो, किसी भी पार्टी की सरकार केंद्र में राज्य कर रही हो अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर तंबाकू नियंत्रण की नीति गत दो दशकों में स्पष्ट एवं सुदृढ़ रही है। यही कारण है कि भारत में सरकार या एनजीओ द्वारा लिए गए हर कदम को बाकी विश्व अत्यंत आशाभरी निगाहों से देखता है तथा अपने देश की तंबाकू-समस्याओं का हल उनमें खोजने की चेष्टा करता है।

तंबाकू-नियंत्रण के वैश्विक परिदृश्य में 3-4 वर्ष में नया मोड़ आ गया, जब न्यूयॉर्कClick here to see more news from this city के मेयर (महापौर) श्री ब्लूमबर्ग ने कई करोड़ डॉलर तंबाकू नियंत्रण के उद्देश्य के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन को दान किए। इस उदाहरण को आदर्श मानते हुए 2008 में मेलिंडा बिल गेट्स फाउंडेशन ने भी कई लाख डॉलर तंबाकू नियंत्रण के लिए डब्ल्यूएचओ को दान देने का संकल्प लिया।

2008 में डब्ल्यूएचओ द्वारा विश्व तंबाकू निषेध पर दी गई थीम भी चित्रमय चेतावनी के महत्व पर आधारित है। 31 मई को अनेक बाधाएँ पार करते हुए भारत में चित्रमय चेतावनी लागू हो गई।

तंबाकू-नियंत्रण प्रयासों के परिणाम दिखाई पड़ना शुरू हो गए हैं। आमतौर पर समृद्ध एवं उन्नत देशों, जहाँ शिक्षा का प्रतिशत कहीं अधिक है तथा लोग स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरूक हैं, में ये परिणाम अधिक शीघ्रता एवं स्पष्टता से दिखाई पड़े हैं।

विकासशील देशों की निचली पायदानों के देश या तंबाकू उत्पादन में अग्रणी देशों में तंबाकू नियंत्रण की राह अधिक कठिनाइयों से भरी है। फिर भी तंबाकू नियंत्रण का कारवाँ आगे बढ़ता ही जाता है।

कभी तेजी से कभी धीरे से बाधाओं को निरंतर पार करते हुए। तंबाकू उपयोग के इच्छाधारी दैत्य की मौत शुरू हो गई है। आवश्यकता इस बात की है कि किस प्रकार वह जल्दी पूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो तथा हाथ-पैर पटकना बंद करे।

शुक्रवार, 28 मई 2010

यहाँ थी बुद्ध की कपिलवस्तु


राजा शुद्धोधन की राजधानी कपिलवस्तु, अपने समय की बड़ी वैभवशाली नगरी थी। इसी कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ और देवदत्त के बीच घायल हंस को लेकर उठे विवाद का निर्णय सुनाया था - "मारने वाले से, बचाने वाला बड़ा होता है।" राजकुमार सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु में रहते हुए इस संसार की नश्वरता और दुःखों को देखकर संन्यास ले लिया था। उन्होंने अपनी तप-साधना पूर्ण होने पर बोध ज्ञान प्राप्त किया और भगवान बुद्ध कहलाए। बुद्ध बनने के बाद वे एक बार वापस कपिलवस्तु लौटे। महाराज शुद्धोधन बीमार थे। बुद्ध ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। फिर अपने पुत्र राहुल को सबसे पहले दीक्षा दी।

भगवान बुद्ध की इस धरती पर अस्तित्व के ढाई हजार वर्ष से भी अधिक समय बीत गए हैं। कपिलवस्तु नगरी लुप्त हो गई और उसकी चर्चा केवल इतिहास में बंद हो गई। वर्ष १८९८ में अंग्रेज जमींदार डब्ल्यू.सी. पेप्पे ने कुछ खुदाई कराई तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही, जब पता चला कि वहां तो एक स्तूप है। स्तूप की खुदाई करने पर एक सेलखड़ी (चौक स्टोन) का बना कलश मिला, जिस पर अशोककालीन ब्राह्मी लिपी में लिखा था - "सुकिती भतिनाम भगिनीका नाम-सा-पुत- दात्नानाम इयम सलीला-निधाने-बुद्धस भगवते साक्यिानाम।" इसका इतिहासकारों ने इस तरह अनुवाद किया है - "बुद्ध भगवान के अस्थि अवशेषों का यह पात्र शाक्य सुकिती भ्रातृ, उनकी बहनों, पुत्रों और पत्नियों द्वारा दान किया गया है।" यह पात्र आज भी कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में रखा है।
भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि अवशेष आठ भागों में विभाजित किए गए थे जिनमें से एक भाग भगवान बुद्ध के शाक्य वंश को भी प्राप्त हुआ था। पेप्पे को ये अवशेष आठ फुट की गहराई पर मिले थे। उस समय कुछ विद्वानों ने इस स्थान के कपिलवस्तु होने की संभावना की ओर संकेत किया था किंतु निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन था।

वर्ष १९७१ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पुरातत्ववेत्ता एवं निदेशक के.एम. श्रीवास्तव (१९२७-२००९) ने उस स्थान पर और खोज तथा खुदाई का काम कराया। वर्ष १९७२ में उसी स्तूप में लगभग दस फुट और गहराई पर, चौकोर पत्थर के एक बक्से में दो सेलखड़ी कलश मिले, जिनमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष रखे थे। ये दोनों पात्र और अस्थियां नेशनल म्यूजियम, जनपथ, नई दिल्लीClick here to see more news from this city में रखे हैं। इतनी वस्तुएं मिलने के बाद भी यह कहना संभव न था कि यहीं कपिलवस्तु की नगरी थी।

के.एम. श्रीवास्तव द्वारा कराए जा रहे उत्खनन कार्य के फलस्वरूप १९७३ में पूर्वी बिहार से पकी मिट्टी की मुद्राएँ पहली बार मिलीं, जिन पर लिखा था -"ओम देवपुत्र विहारे, कपिलवस्तु भिक्खु संघस" एवं "महाकपिलवस्तु, भिक्सु संघस"। दो मुद्राओं पर भिक्खुओं (भिक्षुओं) के नाम भी लिखे थे। इस अभिलेख ने उत्खनन कार्य को एक निर्णायक मोड़ प्रदान किया। फिर तो आसपास के क्षेत्र में खुदाई कराते ही पूरे कपिलवस्तु का प्राचीन अवशेष उभरकर सामने आ गया। बाद में के.एम. श्रीवास्तव ने बोधगया में वह स्थान भी खोजा जहाँ सुजाता ने भगवान बुद्ध को खीर खिलाई थी। कपिलवस्तु की खोज के.एम. श्रीवास्तव की महान गौरवशाली खोज थी क्योंकि आज वह स्थान विश्वभर में बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए पवित्र तीर्थ बन गया है।
वर्तमान कपिलवस्तु उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले में, नेपाल की तराई क्षेत्र में स्थित है। यह उत्तर पूर्व रेलवे के गोरखपुर-गोंडा लूप लाइन पर स्थित नौगढ़ नामक तहसील मुख्यालय और रेलवे स्टेशन से २२ किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में है। यहां प्राप्त अस्थि अवशेषों को नेशनल म्यूजियम और इंडियन म्यूजियम में देखा जा सकता है। बुद्ध पूर्णिमा पर महाबोधि सोसाइटी इन अस्थि अवशेषों की विशेष पूजा आयोजित करती है। विश्व के अन्य देशों के पर्यटक भी कपिलवस्तु और अस्थि अवशेषों के दर्शनों के लिए आते हैं।

शेख चिल्ली ‍की चिट्‍ठी

-अरुण कुमार बंछोर

बच्चो, तुमने मियाँ ‍शेख चिल्ली का नाम सुना होगा। वही शेख चिल्ली जो अकल के पीछे लाठी लिए घूमते थे। उन्हीं का एक और कारनामा तुम्हें सुनाएँ।
मियाँ शेख चिल्ली के भाई दूर किसी शहर में बसते थे। किसी ने शेख चिल्ली को बीमार होने की खबर दी तो उनकी खैरियत जानने के लिए शेख ने उन्हें खत लिखा। उस जमाने में डाकघर तो थे नहीं, लोग चिट्‍ठियाँ गाँव के नाई के जरिये भिजवाया करते थे या कोई और नौकर चिट्‍ठी लेकर जाता था।
लेकिन उ‍न दिनों नाई उन्हें बीमार मिला। फसल कटाई का मौसम होने से कोई नौकर या मजदूर भी खाली नहीं था अत: मियाँ जी ने तय किया कि वह खुद ही चिट्‍ठी पहुँचाने जाएँगे। अगले दिन वह सुबह-सुबह चिट्‍ठी लेकर घर से निकल पड़े। दोपहर तक वह अपने भाई के घर पहुँचे और उन्हें चिट्‍ठी पकड़ाकर लौटने लगे।
उनके भाई ने हैरानी से पूछा - अरे! चिल्ली भाई! यह खत कैसा है? और तुम वापिस क्यों जा रहे हो? क्या मुझसे कोई नाराजगी है?
भाई ने यह कहते हुए चिल्ली को गले से लगाना चाहा। पीछे हटते हुए चिल्ली बोले - भाई जान, ऐसा है कि मैंने आपको चिट्‍ठी लिखी थी। चिट्‍ठी ले जाने को नाई नहीं मिला तो उसकी बजाय मुझे ही चिट्‍ठी देने आना पड़ा।
भाई ने कहा - जब तुम आ ही गए हो तो दो-चार दिन ठहरो। शेख चिल्ली ने मुँह बनाते हुए कहा - आप भी अजीब इंसान हैं। समझते नहीं। यह समझिए कि मैं तो सिर्फ नाई का फर्ज निभा रहा हूँ। मुझे आना होता तो मैं चिट्‍ठी क्यों लिखता?

गुरुवार, 27 मई 2010

बच्‍चे को बचाएँ मोटापे से


बदलती जीवनशैली से बच्चे भी मोटापे का शिकार हो रहे हैं। अनियंत्रित खान पान, जंक फूड, वीडियो गेम्स व टेलीविजन से चिपके रहने की बच्चों की आदत इसके लिए जिम्मेदार है।
बच्चों में मोटापा (चाइल्डहुड ओबेसिटी) बाद में उच्च रक्तचाप का सबसे बड़ा कारण बनकर उभरता है। बच्‍चे में बढ़ते मोटापे को उनके खाने और खेलने की आदतों पर ध्‍यान देकर नि‍यंत्रि‍त कि‍या जा सकता है।
एसोसिएशन ऑफ फिजीशियन ऑफ इंडिया के मेडिकल अपडेट वाल्यूमः 2010 में प्रकाशित रिपोर्ट में बच्चों में बढ़ती ओबेसिटी पर गहरी चिंता जताई गई है। इसमें प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली व अन्य महानगरों के पब्लिक व कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले कुल बच्चों में 22 फीसदी बच्चे मोटापे से ग्रस्त हैं।
जबकि सरकारी स्कूलों में प़ढ़ने वाले बच्चों में मोटापे का प्रतिशत करीब 5 है। पुणे में पब्लिक व कॉन्वेंट स्कूलों में मोटापे के शिकार बच्चों का प्रतिशत 24 से ज्यादा है। 'प्रिविलेंस ऑफ ओबेसिटी अमंग मेल एंड फिमेल चिल्ड्रन' अध्ययन में यह बात उजागर हुई है। इस रिपोर्ट से राजधानी के विशेषज्ञ भी चिंतित हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि राजधानी में भी दिल्ली और पुणे से कम खतरनाक हालात नहीं है।
ये हैं उपाय :
1. बच्‍चे को हरी सब्जियाँ और फल खि‍लाएँ और शाकाहारी भोजन को प्रमुखता दें।
2. बच्‍चे को पनीर व फास्ट फूड से बचाएँ। खाने में नमक की मात्रा कम करें।
3. बच्‍चे को तीन विभाजित हिस्सों में खाना खि‍लाएँ।
4. खाने में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम करें।
5. बच्‍चे को खाने या ब्रेकफास्‍ट में रेडीमेड सॉस देने से बचें।
6. बच्चे को कंप्यूटर व टीवी पर ज्यादा समय न बिताने दें। इसके बजाए उसे आउटडोर गेम्‍स खेलने दें।

चम्बा: गुलाबी ठंड का मजा



हुस्न पहाड़ों का क्या कहना कि बारहों महीने यहाँ मौसम जाड़ों का...। जी हाँ कुछ यही बोल होते हैं उन लोगों के मुँह पर जो इस चिलचिलाती गर्मी में उत्तराखंड के सबसे मखमली अनछुई हरियाली वाले शहर चम्बा जाते हैं।

मसूरी से 3 घंटे की दूरी पर बसा चम्बा पूरे टिहरी जिले की शान है। मन को शांति प्रदान करने वाला सीढ़ीनुमा सड़कों से बना यह शहर सैलानियों को एक ही क्षण में अपनी ओर आर्कषित कर लेता है। यहाँ पर बने छोटे छोटे घर जिनको ऊँचे-ऊँचे पेड़ अपनी छाया से ढके रहते हैं। जलवायु वर्ष भर खुशनुमा रहती है और वातावरण तो ऐसा कि एक बार कोई चला जाए तो आसानी से वापस आने का मन न हो।

राजधानी से 305 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह पहाड़ी क्षेत्र सबसे सस्ता और अनूठा है। इसकी खास बात यह है कि यह टिहरी, मसूरी, उत्तरकाशी जाने वाले रास्तों के बीच में पड़ता है। और यहाँ पर ठहरने का खर्च अन्य शहरों की अपेक्षा बहुत कम है, जिससे पर्यटक यहाँ पर ठहरना पसंद करते हैं। इस समय जब राजधानी में बच्चों की छुट्टियाँ हो रही है तो जाहिर सी बात है कि आप सभी घूमने जाने के लिए नए नए स्थलों का चुनाव कर रहे होंगे। ऐसे में आप चम्बा जाकर अपनी छुट्टियाँ का मजा ले सकते हैं।
यह शहर कई छोटे-छोटे गाँवों से बना हुआ है। जिससे अभी भी वहाँ पर सभ्यता और संस्कृति की झलक साफ साफ दिखाई पड़ती है। अगर आप दिल्ली की भीड़-भाड़ से दूर एकांत की तलाश में गए हैं तो आप चम्बा की सबसे ऊँची पहाड़ी पर बने क्लासिक रेजीडेंसी में रुक सकते हैं।
यहाँ आपके लिए हेयर स्पा, बॅाडी मसाज, मड बाथ सभी के लिए उचित है और थकान को मिटाने के लिए भी वहां पर बना क्लासिक हिल टॉप पार्क में बैठकर पहाड़ी नजारों का आनंद ले सकते हैं और यहां बने कई छोटे छोटे मंदिरों के दर्शन कर सकते हैं। चम्बा जाकर आप ग्रामीण रहन सहन का भी आनंद ले सकते हैं।
यदि आप चम्बा जाते हैं तो आप यहाँ से 67 किलोमीटर आगे उत्तरकाशी भी जा सकते हैं। नदी के आर पार बने इस शहर में आप मशहूर मंदिर विश्वनाथ भगवान के दर्शन कर सकते हैं, और यहाँ लगे मेलों का आनंद लें सकते हैं। बीच में आप कई पर्यटन स्थलों का आनंद ले सकते हैं इसके लिए आपको अलग से कोई खर्चा भी नहीं करना पड़ेगा।
अगर रास्ते में आप कहीं आराम करना चाहते हैं तो आपके लिए गढ़वाल मंडल विकास का रेस्ट हाउस उचित रहेगा। वह आपके लिए अच्छा स्थान है।

मिर्च-मसाला

बिपाशा बसु की उर्दू
जुलाई में राहुल ढोलकिया द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लम्हा’ रिलीज होने जा रही है जो कश्मीर की वर्तमान समस्याओं के बारे में है। इसमें बिपाशा बसु ने प्रमुख भूमिका निभाई है।

अपनी इमेज से हटकर या बिना चमक-दमक वाली भूमिका निभाने की जिद ए-स्टार एक्ट्रेसेस में देखी जाती है। जैसे कैटरीना ने ‘राजनीति’ में लीक से हटकर रोल किया है कुछ इसी तरह बिपाशा ने भी ‘लम्हा’ में किया है।
ये भूमिकाएँ ग्लैमरस और हॉट कही जाने वाली एक्ट्रेस इसलिए चुनती है ता‍कि उन्हें पुरस्कार मिल जाए। उन्हें इस बात पर अटूट विश्वास है कि बिना मैकअप वाले रोल निभाने पर ही प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलते हैं।
पैसा और प्रसिद्धी बिपाशा पा चुकी हैं और उनकी नजर अब पुरस्कारों पर है। राष्ट्रीय पुरस्कार की दौड़ में कलाकार तभी शामिल हो सकता है जब उसने अपने संवादों को खुद ही डब किया हो।
‘लम्हा’ में बिपाशा कश्मीरी गर्ल बनी हैं और उर्दू का ज्यादा उपयोग किया गया है। हिंदी ठीक से नहीं बोल पाने वाली बिपाशा को उर्दू शब्दों के उच्चारण में कितनी तकलीफ होगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। लेकिन बिपाशा ने भी ठान ली है और इन दिनों वे उच्चारण पर मेहनत कर ‘लम्हा’ की डबिंग कर रही है।
गौरतलब है कि बिपाशा की मातृभाषा बंगाली है और इसके बावजूद निर्देशक रितुपर्णा सेन ने बिपाशा द्वारा अभिनीत बांग्ला फिल्म ‘सॉब चारित्रो काल्पोनिक’ की डबिंग किसी और से कराने का निर्णय लिया था। बिपाशा की नजर राष्ट्रीय पुरस्कार पर थी और उन्होंने रितुपर्णा से इस बात को लेकर गुस्सा भी जाहिर किया था।
कश्मीरी मुस्लिम गर्ल बनी बिपाशा ने कितनी सही तरह से उर्दू बोली है इसका पता तो ‘लम्हा’ देखकर ही पता चलेगा। बिपाशा से ज्यादा तनाव में तो राहुल होंगे।

60 वर्ष की प्रियंका चोपड़ा
प्रियंका चोपड़ा ने अपनी एक्टिंग के बलबूते पर वो स्थान हासिल कर लिया है ‍कि उन्हें चुनौतीपूर्ण भूमिकाएँ निर्देशक सौंपने लगे हैं। ऐसा ही एक रोल प्रियंका ‘सात खून माफ’ में निभा रही हैं और प्रियंका का कहना है कि ऐसे मौके एक एक्टर की लाइफ में य‍दाकदा ही मिलते हैं।

‘कमीने’ में प्रियंका ने विशाल भारद्वाज की आशा से बेहतर अभिनय किया और बदले में विशाल ने उन्हें ‘सात खून माफ’ में कठिन रोल दे दिया। इसमें प्रियंका अपने सात पतियों की हत्या कर देती है। इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह भी उनके पति बने हैं और उनका बेटा भी प्रियंका के पति के रूप में नजर आएगा।
फिल्म में प्रियंका 20 वर्षीय लड़की से लेकर 60 वर्ष की तक की बुढ़िया बनेंगी। उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर वे शादी कर अपने पतियों का खून करती हैं। प्रियंका के लिए सबसे कठिन चैलेंज है 60 वर्ष की महिला का पात्र निभाना।
प्रियंका का मानना है कि केवल बाल सफेद करने या झुर्रियों वाले मेकअप से ही बात नहीं बनती है। वे बॉडी लैंग्वेज, आवाज और एक्सप्रेशन के जरिये इस पात्र को प्रभावशाली बनाना चाहती हैं। प्रियंका की विशाल यथासंभव मदद कर रहे हैं।

बुधवार, 26 मई 2010

शीतल पेय का प्रयोग कम करें



गर्मी के मौसम में कोल्ड ड्रिंक सभी को अच्छा लगता है। लेकिन याद रखिए, ज्यादा ठंडा पेय पीना सेहत के लिए नुकसानदायक होता है। गले, दाँत व पाचन क्रिया को अत्यधिक ठंडे पेय बुरी तरह प्रभावित करते है। इनका प्रयोग अवश्य करें, लेकिन कुछ सावधानी के साथ-
* यदि आप कोल्ड ड्रिंक का अत्यधिक सेवन करते हैं तो पहले यह जाँच लें कि आपकी हेल्थ इससे कितनी प्रभावित होती है।
* शक्करयुक्त कोल्ड ड्रिंक को भोजन के दौरान पिएँ। भोजन की उपस्थिति से सोडा का कैविटी बनाने वाला असर मंद पड़ जाता है और दाँत स्वस्थ रहते हैं।

* सोडा वाले पेय को चुस्की ले-लेकर धीरे-धीरे न पिएँ। चुस्कियाँ लेने से दाँत मीठे अम्लीय शर्बत में पूरी तरह नहा जाते हैं और यह अम्ल दाँतों के एनामेल को नुकसान पहुँचाता है, इसलिए शीतल पेय को जल्दी-जल्दी पिएँ।
* सुनिश्चित करें कि आप पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम लेते हैं। शीतल पेय न सिर्फ आपके भोजन में मौजूद कैल्शियम को बर्बाद करते हैं, बल्कि आपके शरीर में पहले से मौजूद कैल्शियम को भी सोख लेते हैं। कैल्शियम के सप्लीमेंट लेने से ही इस नुकसान की भरपाई होती है।

नहीं, यह प्यार नहीं कुछ और है....



हेलो दोस्तो! हम आए दिन एक न एक विचित्र घटना सुनते हैं और चकित होते रहते हैं। किसी हैरतअंगेज घटना के बाद ऐसा लगता है मानो अब इससे ज्यादा हैरानी वाली खबर हमें नहीं मिलेगी पर फिर किसी अजूबी खबर से हम ठगे से रह जाते हैं। आखिरकार हार मानकर हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि इस दुनिया में कुछ भी संभव है।
कौन जाने कल ऐसी कोई साउंड मशीन बन जाए जिसमें वर्ष, महीना, दिन, समय नियत कर देने पर उस समय की बातचीत वह रिकॉर्ड करके हमें सुना दे। तब हम सुन पाएँगे कि शाहजहाँ और मुमताज महल ने आपस में क्या बातें की थीं। शायद एक दिन हम बिंदु के आकार में तब्दील हो जाएँ और सूर्य की किरणें हमें एक देश से दूसरे में पलक झपकते पहुँचा दे। सच तो यह है कि चमत्कार को सलाम कर हम सोचना ही छोड़ देते हैं।
इसी प्रकार भावनाओं के कितने ही रूप हमारे सामने इस तरह उजागर होते हैं कि हमें उस पर यकीन नहीं होता है। हम हैरान-परेशान यही सोचते रह जाते हैं कि आखिर इसे अब किस श्रेणी में रखा जाए। ऐसी ही एक विचित्र भावना का उत्तर खोज रहे हैं सिद्धांत (बदला हुआ नाम)।


सिद्धांत के अनुसार वह एक लड़की से बेहद प्यार करते हैं। दोनों ही एक-दूसरे को तकरीबन 10 वर्षों से प्यार करते हैं। उस लड़की की शादी कहीं और हो गई है। उसके बावजूद वह उसे रोजाना फोन करती है। उसके पति को भी इस बात का पता है। अब सिद्धांत को लगता है कि वह इस प्रेम प्रसंग को हमेशा बनाए रखने के लिए एक ठोस रूप दे दें। उनका मतलब है दोनों व्यक्तियों को वह लड़की समान रूप से प्यार करे।
सिद्धांत जी, यह समझ में नहीं आया कि जब दस सालों से आप लोगों का प्यार था तब आप लोगों ने शादी क्यों नहीं की? क्या इस दिन का इंतजार था कि कब आपकी दोस्त की शादी हो और फिर आप दोनों एक-दूसरे के लिए तड़पें और फिर शादी करें? शादी के बाद किसी से किसी की दोस्ती या प्रेम हो जाए यह बात तो समझ में आती है पर शादी से पहले से जो लोग प्रेम में हैं वह किसी और से शादी कर फिर पुराने प्रेम को अपनाने की सोचें यह विचित्र है। आप दोनों पहले भी एक थे फिर एक हो जाएँगे पर उस तीसरे व्यक्ति को बीच में क्यों घसीटा गया, इसका आपके पास जवाब नहीं है।
आप इसे दोस्ती भर सीमित रखें तो बेहतर होगा। पारिवारिक संबंध रखने में भी कोई हर्ज नहीं है पर उससे ज्यादा सोचना आप तीनों के लिए अन्यायपूर्ण है। इसका खुशनुमा नतीजा नहीं निकलेगा। इतनी लंबी दोस्ती और इतनी समझदारी भरे प्रेम संबंध के बाद भी अगर आपकी दोस्त ने कहीं और शादी कर ली है तो आप आगे उस पर कितना भरोसा कर सकते हैं। यह आपको विचार करना पड़ेगा। वह आपको एक बार फिर कभी भी छोड़ सकती है। इस रिश्ते में आप उसके रहमोकरम पर होंगे। आपकी सामाजिक और कानूनी हैसियत कुछ भी नहीं होगी।
उसका मन टटोलने के लिए भी आपको कुछ दिनों के लिए इस रिश्ते से दूर हो जाना चाहिए। उसके बाद ही आप अंदाजा लगा पाएँगे कि वह अपनी घर गृहस्थी में लीन हो जाती है या आपके प्रति कोई जिम्मेदारी महसूस करती है। बेहतर तो यही है कि आप भी शादी कर लें ताकि आपकी भी अपनी जिंदगी हो।
यूँ तो हर व्यक्ति को हक है कि वह अपने मन के भीतर किसी की भी छवि बिठाए रखे। विचित्र मोड़ या विचित्र पेंच में ही किसी व्यक्ति को संतुष्टि मिले पर सुकून के लिए एक न एक दिन आपको एक फैसला लेना ही पड़ता है।
इसी प्रकार की मिलती-जुलती समस्या है जसपाल शेट्टी की। वह एक चैनल में काम करते हैं। उनकी एक दोस्त है जो उसे तो फोन करने से मना करती है पर खुद फोन करती रहती है। उसकी खोज-खबर लेती है पर कोई दूसरा इससे संबंधित बात करता है तो रोक देती है। मजे की बात यह है कि जसपाल जी के प्रेम की भावना की जानकारी भी उसे है।
जसपाल जी, आप इस बात का इंतजार क्यों कर रहे हैं कि वह आपके प्यार को पूरी तरह मना कर दे या स्वीकार करे। उसके पूरे रवैए को देखकर आप भी तो कोई निर्णय ले सकते हैं। आपकी दोस्त इस बात का इंतजार कर रही है कि कोई अन्य मनचाहा रिश्ता मिले तो वह आपको दोस्ती के खाते में ही महफूज रहने दे और यदि कोई और नहीं मिला तो आप हैं ही। बेहतर है आप दूरी बना लें ताकि वह किसी फैसले पर पहुँच सके। आप उसमें अपनी रुचि न दिखाएँ और अपने कॅरियर पर ध्यान दें।

नन्ही ज्योत्सना ने रचा इतिहास

कठोर परंपरा का भीना समापन

भारत के सर्वाधिक शिक्षित राज्य का दर्जा पा चुके केरल का नाम जब कहीं सुनने में आता है, तो नारियल के बड़े-बड़े पेड़, विभिन्न मसालों की सुगंध से महकते बागान, दहलीजों पर सजी पवित्र रंगोली, घर की स्त्रियों के लंबे खूबसूरत बालों पर खिलती श्वेत वेणी, हर माथे पर सजा भस्म, और मंदिरों में गूँजते सस्वर मंत्रोच्चार एक साथ थिरक उठते हैं।
केरल को हमेशा से देवभूमि कहा जाता है। कहते है भगवान खुद इस धरती पर विराजते हैं। हिन्दू धार्मिक अनुष्ठानों का जैसा पुरातन स्वरूप यहाँ देखने को मिलता है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। दक्षिण भारत के हिन्दू कर्म-कांड बहुत से लोगों की दृष्टि में कट्टर माने जाते हैं। यहाँ के मंदिरों की नक्काशीदार भव्यता प्राचीन वैभव का आभास कराती है। यहाँ की पूजन विधि अपनी विशिष्टता के कारण अकसर कौतुहूल का विषय होती है।
रीति-रिवाजों और पूजा-अनुष्ठानों को लेकर भी केरल की अपनी विशिष्ट पहचान है। इसी केरल के त्रिशुर में सदियों पुरानी परिपाटी को ज्योत्सना नामक मात्र 12 वर्षीय कन्या ने गरिमामयी ढंग से तोड़ दिया। ज्योत्सना ने त्रिशुर के बरसों पुराने पेनकिन्नीकव्वु भद्रकाली मंदिर में देवी प्रतिमा की पूरे विधि-विधान से प्राण-प्रतिष्ठा की। यूँ तो किसी बच्ची का इस तरह मूर्ति स्थापना का कार्य कोई चमत्कार नहीं लेकिन ज्योत्सना के मामले में यह किसी चमत्कार से कम भी नहीं।

दरअसल, त्रिशुर के इस पुराने पेनकिन्नीकव्वु भद्रकाली मंदिर में प्राचीन नियमानुसार कुछ नंबुदिरी(एक विशेष जाति) समाज के पुरुष ही देव-प्रतिमा की प्रतिस्थापना कर सकते हैं। यहाँ तक कि इसी परंपरा के चलते मंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा तो दूर महिलाओं के प्रवेश तक की अनुमति नहीं है। इस कट्टर परंपरा के पीछे महिलाओं से संबंधित कई प्रकार की नकारात्मक अवधारणाएँ हैं। लेकिन तमाम प्रश्नों और रिवाजों के बीच जब नन्ही-सी ज्योत्सना ने धाराप्रवाह मंत्रोच्चार के साथ देवी पूजन, दीप आराधना और 'प्रतिष्ठा कर्मम' संपन्न किया तब समूचे समाज ने उसका करतल ध्वनि से अभिनंदन किया।

मुद्दा यह नहीं है कि एक नन्ही बालिका पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों की मानी जानी वाली विरासत को कैसे चुनौती देती है, सवाल यह भी नहीं है कि बच्ची परिवार और समाज के सहयोग से इस कार्य को कैसे बखूबी निभा लेती है, सवाल यह है कि आने वाली नारियाँ बहुत कम उम्र में इस तरह की सोच को अंजाम दे पा रही है। खेलने और खाने की अल्हड़ अवस्था में वह स्वयं के निर्णय ले पा रही है। निर्भरता की आयु में आत्मनिर्भरता की गाथाएँ रच रही है।

इस नन्ही-सी कन्या ने कीर्तिमान को रचने से पहले लगातार दो वर्ष तक सारे पारंपरिक अनुष्ठान और संस्कारों को विधिपूर्वक अपने पिता से सीखा। त्रिशुर के नंबू‍दिरी ब्राह्मण थैक्किन्यदात पद्मनाभन और अर्चना अंतरजनम की इस लाड़ली का बचपन से ही पूजा-पाठ की ओर गहरा रूझान दिखाई देने लगा था।

जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, मंत्र, श्लोक आरती,स्तोत्र, ऋचाएँ उसे कंठस्थ होती गई। ज्योत्सना, केरल के मान्यता प्राप्त पांडित्य परंपरा थारानाल्लुर से ताल्लुक रखती है। केरल में थारानाल्लुर और थाजामोन दो ऐसी ब्राह्मण धाराएँ हैं जो पूजन, विधि-विधान, अनुष्ठान और संस्कारों के विशेषज्ञ माने जाते हैं। यहाँ तक कि इन दो समाज के अतिरिक्त किसी और समाज का कोई व्यक्ति पुजारी नहीं हो सकता। माना जाता है कि भगवान परशुराम जी द्वारा ये दोनों कुल केरल लाए गए हैं।

कट्टर जातिवाद के इस माहौल में भी जब परंपरा की बात आती है तो सिर्फ दो जातियाँ शेष रह जाती है। वह दो जातियाँ जो समूची सृष्टि में व्याप्त है। एक महिला और दूसरी पुरुष। यही कारण है सदियों के चले आ रहे इसी भेदभाव की प्रतिछाया बना केरल का मंदिर, जहाँ देवी के मंदिर में स्त्रियों का प्रवेश निषेध है। देवी जो स्वयं स्त्री शक्ति का प्रतीक है और एक स्त्री जो स्वयं देवीस्वरूपा है, एक दूजे के लिए अस्पृश्य कैसे हो सकती है? प्रकृति ने जिसे जन्म देने जैसे पवित्र कर्म और विलक्षण गुण से नवाजा है, उसी की निरंतर प्रक्रिया उसके लिए अछूत होने का सबब कैसे बन जाती है?

बहरहाल, भद्रकाली पेनकिन्नीकव्वु की ज्योत्सना द्वारा स्थापित प्रतिमा मंदिर की दूसरी दैवीय प्रतिमा है। मंदिर के प्रमुख देवता भगवान विष्णु हैं। जब बीते रविवार को ज्योत्सना ने एक भी शब्द, मात्रा और ध्वनि की त्रुटि किए बिना निर्विघ्न पूजन संपन्न किया तो भक्तजनों के साथ उसके उन नन्हे सहपाठियों के चेहरे भी चमक उठें जो उस वक्त मंदिर में अपनी सखी का उत्साह बढ़ाने के लिए मौजूद थे।

ज्योत्सना ने किसी पारंपरिक पंडित-पुजारी की तरह ही मंदिर के गर्भगृह का द्वार बंद किया और दीप आराधना में प्रशस्ति वाचन किया,शक्ति का आह्वान किया तो श्रद्धालुओं के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। ज्योत्सना पूरे आत्मविश्वास के साथ आनुष्ठानिक रीतियों को एक के बाद एक संपन्न करती रही। उसने मुस्कुराते हुए 'प्रसादम' का वितरण भी ऐसे किया जैसे वह सालों से यही कार्य करती आ रही हो।

इस विधान के पश्चात यकीनन माँ दुर्गा भी अपनी आराधना पर सच्चे दिल से मुस्कुरा उठीं होंगी। अपना ही दिव्य प्रतिबिंब ज्योत्सना में निहार धन्य हो उठीं होंगी। धूप और गुगल के सुगंधित वातावरण में यह पवित्र भाव भी महक उठा होगा कि देवी की पूजा 'देवी' को अधिकार देने से सफल होगी, देवी को वंचित करने से नहीं।

ज्योत्सना के पिता टी. पद्मनाभन ने सहज भाव से बताया कि जब ज्योत्सना ने इस तरह मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का निर्णय लिया तो किसी भी प्रकार का विरोध का सवाल ही खड़ा नहीं हुआ, क्योंकि ऐसा किसी शास्त्र में नहीं लिखा है कि मात्र पुरुष ही प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा कर सकते हैं महिलाएँ नहीं।'

पवित्र कुल की यह विदुषी कारंचिरा के सेंट जेवियर स्कूल की छात्रा है। ज्योत्सना के शिक्षक कहते हैं, वह पढ़ाई में भी अव्वल है। खुद ज्योत्सना कहती है, यह सच है कि मेरा अपनी प्राचीन धार्मिक परंपराओं को आगे बढ़ाने का सपना है लेकिन इसके लिए मैंने पढ़ाई से समझौता नहीं किया है ना ही करूँगी। पढ़ाई के साथ-साथ शास्त्रों को पढ़ने, मंत्रों और विधानों को सीखने में मेरी व्यक्तिगत रूचि है।

इस अनूठे क्रांतिकारी कदम से केरल के कट्टरपंथियों में यह बहस शुरू हो गई है कि कहीं इस घटनाक्रम के साथ ही शबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा ना सिर उठा लें, या फिर पिछड़े वर्ग से पुजारियों की नियुक्ति का ही सवाल ना उठ खड़ा हो। इस तरह की सोच को सदियों से नहीं रोका जा सका है लेकिन ज्योत्सना जैसे उदाहरण इस सोच के समक्ष छोटा किन्तु ठोस जवाब बनकर उभरते हैं। इन उदाहरणों से परिवर्तन का बादल तो नहीं उमड़ेगा लेकिन सार्थकता की कहीं ना कहीं, कोई ना कोई छोटी-सी बूँद तो अवश्य ही पड़ जाएगी।

फिलहाल, इस नाजुक सी थांथरी (पुजारिन) का ईश्वर के प्रति समर्पण स्वागत योग्य है।

मिर्च-मसाला

कैटरीना कैफ : मोबाइल पर सबसे ज्यादा सर्च

इंटरनेट पर सबसे ज्यादा सर्च की जाने वाली सैलिब्रिटी के बाद कैटरीना कैफ ने मोबाइल पर भी अपना दबदबा कायम रखा है। मोबाइल फोन पर जिस सैलिब्रिटी को सबसे ज्यादा सर्च किया जाता है, वो हैं कैटरीना कैफ।
एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है। खास बात यह है कि कैटरीना ने शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान, ऐश्वर्या राय और एंजेलिना जोली जैसी सेलिब्रिटीज को भी पीछे छोड़ दिया। लोकप्रियता के मामले में कैटरीना देश और विदेश दोनों जगह आगे हैं।
यह सर्वेक्षण एक लाख बीस हजार मोबाइल यूजर्स के बीच किया गया और कैटरीना ने सर्वोच्च स्थान हासिल किया। वे हर उम्र और वर्ग के बीच लोकप्रिय हैं।
बॉलीवुड के एक प्रसिद्ध निर्माता का कहना है कि कैटरीना कैफ एकमात्र ऐसी नायिका हैं जो अपने दम पर सिनेमाघर में भीड़ खींच लेती हैं।

शर्लिन की फिटनेस डीवीडी : दोहरे फायदे

शर्लिन चोपड़ा की फिटनेस डीवीडी देखने के दो फायदे हैं। एक तो हॉट शर्लिन आँखों के सामने रहेंगी और फिट रहने के कुछ नुस्खे भी हाथ लग जाएँगे।
इस डीवीडी में शर्लिन अपने पर्सनल फिटनेस रूटीन के बारे में बताएँगी जिनमें वेट ट्रेनिंग, हॉट योगा, जिमिंग, फंक्शनल ट्रेनिंग और मार्शल आर्ट भी शामिल हैं।
आखिर यह सब करने की शर्लिन को कहाँ से प्रेरणा मिली? पूछने पर वे कहती हैं ‘जेन फोंडा इसकी वजह हैं।' अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वे बताती हैं 'मैंने पाया कि ज्यादातर एक्सरसाइज डीवीडी देखने में बड़ी बोरिंग लगती हैं। इसलिए मैंने विज्युअल अपील पर ज्यादा ध्यान दिया। मेरी बॉडी देख मेरे प्रशंसकों को अच्छा लगेगा। साथ ही मैंने फिटनेस के बारे में सभी महत्वपूर्ण बातों का भी ध्यान इस डीवीडी में रखा है।‘
उम्मीद की जानी चाहिए कि शर्लिन के प्रशंसक डीवीडी देखते समय उन्हें निहारने के अलावा फिट रहने के उपायों पर भी ध्यान देंगे।

राजनीति’ मनोरंजक फिल्म

कैटरीना कैफ का कहना है कि उनकी 4 जून को रिलीज होने वाली ‘राजनीति’ एक मनोरंजक फिल्म है। इस फिल्म में गंभीर बातें की गई हैं, लेकिन मनोरंजन का खयाल भी रखा गया है ताकि फिल्म रूखी ना लगे।
कैटरीना बेसब्री से इस फिल्म का इंतजार कर रही हैं क्योंकि पहली बार उन्होंने ऐसा रोल किया है जिसमें ग्लैमर बहुत कम है। कैटरीना के मुताबिक उन्होंने यह रोल कुछ साबित करने के लिए नहीं स्वीकारा बल्कि उन्हें ‘राजनीति’ की कहानी ने यह फिल्म करने के लिए मजबूर किया।
कैटरीना लीक से हटकर फिल्में करना चाहती हैं, लेकिन आर्ट फिल्मों में उनकी रूचि नहीं है। कैटरीना के मुताबिक ऐसी फिल्मों को करने से क्या फायदा जिन्हें देखने के लिए दर्शक नहीं आते हैं।

दीपिका को नम्बर गेम में रूचि नहीं!

बॉलीवुड की टॉप एक्ट्रेस लिस्ट में प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर और कैटरीना कैफ के साथ दीपिका पादुकोण का नाम भी शामिल किया जाता है। हालाँकि इसे जल्दबाजी कहना उचित होगा, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि दीपिका में नंबर वन एक्ट्रेस बनने की संभावना है।
खूबसूरत होने के साथ-साथ दीपिका प्रतिभाशाली अभिनेत्री भी हैं। बॉलीवुड के तमाब बड़े बैनर्स, बड़े डायरेक्टर्स और बड़े हीरो उनके साथ काम करना चाहते हैं।
नंबर वन की दौड़ में शामिल दीपिका का कहना है कि उन्हें इस रेस में कतई रूचि नहीं है। उनके मुताबिक हर शुक्रवार स्थितियाँ बदल जाती हैं और लोग अपने हिसाब से समीकरण बना लेते हैं। एक फिल्म हिट होते ही आपको पलकों पर बैठा लिया जाता है और यदि फिल्म फ्लॉप हो गई तो धड़ाम से नीचे गिरा दिया जाता है।
दीपिका भले ही इस तरह की बातें कर रही हैं, लेकिन हर अभिनेत्री का ख्वाब होता है कि वह नंबर वन कहलाए। उन्हें बॉक्स ऑफिस क्वीन कहा जाए। दूसरी अभिनेत्रियों के लिए वह ईर्ष्या का कारण बने।
इस समय दीपिका के आगे कुछ हीरोइंस हैं, लेकिन दीपिका कभी भी आगे निकल सकती हैं। खेलें हम जी जान से, लफंगे परिंद और ब्रेक के बाद नामक कुछ ऐसी फिल्में हैं, जो दीपिका को नंबर वन के नजदीक ले जा सकती हैं।

सोमवार, 24 मई 2010

आर्किटेक्ट का प्रतिभाशाली बेटा


शाम को घर में घुसते ही गोखले साहब ने गुस्से में भरकर पूछा। गुस्से में आने के बाद वे चिल्लाते नहीं थे। शांतनु को जब वे बंडू कहते तो सबको समझ में आ जाता कि वे नाराज हैं।
आजकल उनकी नाराजी का कारण रहता कि यह लड़का पूरे समय रसोईघर में क्यों घुसा रहता है। उसकी उम्र के बच्चों को या तो खेल के मैदान पर होना चाहिए, या फिर पढ़ाई करते हुए या कम्प्यूटर के सामने नजर आना चाहिए।

बेटा आईआईटी जाए, आईटी प्रोफेशनल बने और खेलकूद कर तंदुरुस्त रहे। सभी पिताओं की तरह गोखले साहब भी यही चाहते थे। वे खुद आर्किटेक्ट थे और कॉलेज की टीम में खो-खो के कप्तान भी रहे।
शांतनु की माँ ने उन्हें पानी का फुलपात्र देते हुए उनको शांत करने का प्रयत्न किया- बंडू खाना बनाने में मेरी मदद कर रहा है। यही बात गोखलेजी को सख्त नापसंद थी कि लड़का-लड़कियों के काम करे। फिर वे अपनी नाराजी उर्मिला पर उतारते कि घर में कोई लड़की नहीं है इसका अर्थ यह नहीं कि तुम इकलौते लड़के को भी गृहकार्य में दक्ष बनाओ।
बंडू के पिता अधिक गुस्सा होते तो पत्नी को उसके नाम से पुकारते। उनका हमेशा यही तर्क रहता कि रसोई बनाना पुरुषों का काम नहीं। सिर्फ अनपढ़ पुरुष ही बावर्चीगिरी करते हैं और वह भी पुराने जमाने में हुआ करता था। खाना केवल महिलाओं का काम है और उनकी अपनी माँ सर्वश्रेष्ठ खाना पकाने वाली थी।
यों उर्मिला काकू के हाथ में भी स्वाद था। उनकी शिकायत रहती कि गोखलेजी को खाने में कोई रुचि ही नहीं। लेकिन वे नाराज होने बाद भी पति को प्रभाकर नाम से नहीं पुकारती थी। वह सिर्फ इतना जता देती थी कि उनकी सास गणित की प्रोफेसर थीं और ससुरजी के खाने के शौक के कारण अच्छा खाना बनाने लगी थी। बहरहाल, गोखले साहब पत्नी के साथ बहस में पड़ना नहीं चाहते थे क्योंकि उर्मिला काकू अपने कॉलेज के दिनों की सर्वश्रेष्ठ वक्ता मानी जाती थी।
आए दिन घर में होने वाले इन विवादों का इतिहास दो वर्ष पुराना था। शांतनु को खाने का शौक था- चटोरेपन की हद तक। स्कूल से आने के बाद, पढ़ाई के बाद, खेलकर आने बाद, भोजन से पहले उसे कुछ न कुछ पेट में डालने के लिए चाहिए होता। उर्मिला काकू उसके लिए शकर पारे, चकली वगैरह बनाकर रखती। बंडू के आगे भरे डिब्बे चार दिन में खाली हो जाते। जब माँ देर तक कॉलेज से न लौटती, बंडू के पेट में चूहे उछलने लगते। एक दिन बंडू ने खुद ही सैंडविच बनाकर खाए। दूसरे दिन उसने पत्ता गोभी और शिमला मिर्च का सैंडविच बनाया। यह सिलसिला चल निकला। एक के बाद एक, बंडू सलाद, सब्जियाँ, आमटी जैसे पदार्थ बनाने लगा। उर्मिला काकू को भी ताज्जुब था कि दिवाली के दिनों में जो अनारसे उनसे नहीं बनते थे, बंडू बहुत अच्छे से बना लेता था।
गोखलेजी इसी बात से दुःखी हो उठते। वे कहते मत गाड़ो खेल के मैदान पर झंडे, मत बनो वैज्ञानिक। परंतु भगवान के लिए बावर्ची मत बनो।
कुछ दिनों से शाम को खाने की टेबल पर अक्सर थॉमसन साहब की चर्चा होती। वे गोखलेजी के नए क्लाइंट थे। शहर के इलेक्ट्रॉनिक पार्क में थॉमसन कम्युनिकेशंस के कारण बड़ी सनसनी फैली थी। ये अमेरिका की बड़ी कंपनी थी। अपना दफ्तर बनाने के लिए उन्होंने गोखले एंड कंपनी को अनुबंधित किया था। हमउम्र, पढ़ाकू और संगीत के शौकीन होने के कारण थामसन और गोखले अच्छे मित्र बन गए थे।
थॉमसन साहब चाहते थे कि उनके कार्यालय का सारा कामकाज सोलर और विंड एनर्जी से चले। हरा-भरा अहाता हो और फल-सब्जियों की खेती हो। उन्हें सब्जियाँ खूब भाती थीं।
एक शनिवार की दोपहर गोखले साहब का फोन आया कि शाम को थॉमसन साहब डिनर के लिए घर आ रहे हैं। उन्हें पता था कि उनका घरेलू नौकर राम्या कल शाम ही अपने गाँव गया है, क्योंकि उसके घर की गाय ने एक काली केड़ी को जन्म दिया है जिसके माथे पर सफेद तिलक है। यह बहुत शुभ लक्षण है।
गोखलेजी ने उर्मिला काकू को जताया कि वह फिक्र न करे। वे लौटते समय होटल से कुछ मंचूरियन कुछ बेक्ड वेजीटेबल पैक करवाकर ले आएँगे। और यही सब करने में उन्हें घर लौटने में देर हो गई।
थॉमसन साहब को आए काफी देर हो गई थी। उर्मिलाजी को दिया उनका गुलदस्ता गुलदान में सज चुका था। बैठक में बंडू उनसे गपिया रहा था। गोखलेजी का विश्वास था कि बंडू गपियाने से बेहतर तरीके से कोई बात नहीं कर सकता। परंतु थॉमसन साहब खूब कहकहे भी लगा रहे थे। गोखले साहब के आते ही वे बोले कि गोखले, टुमारा सन इज ए वंडरफुल फेलो। गोखलेजी ने देखा कि उर्मिला उनकी ओर निगाहें गड़ाकर देख रही थी।
खाने की मेज पर तो गजब ही हुआ। गोखलेजी की लाई पनीर, मंचूरियन को तो थॉमसन ने चखकर छोड़ दिया। वे तो मूली की आमटी और कोशिंबीर पर टूट पड़े और उन्हें खत्म करके ही माने।
उनकी राय में उन्होंने दुनियाभर में चखे सूप और सलाद में ये सर्वश्रेष्ठ थे। फिर उर्मिलाजी को बधाई देते हुए उन्होंने उन दोनों पदार्थों को बनाने के नुस्खे माँगे। तब बात जाहिर हुई कि ये दोनों चीजें बंडू की बनाई हुई थी। इन्हें बनाने में जिस हल्के हाथ का स्पर्श जरूरी है वह किसी पहुँचे हुए शेफ की ही विशेषता हो सकती है ऐसा थॉमसन साहब ने कह डाला।
अचानक गोखलेजी बोलने लगे, ...दरअसल मैं शुरू से ही जोर देता आया हूँ कि बच्चे अपने अंदर के गुणों का विकास करें। महिलाएँ कंपनियाँ संभाल सकती हैं तो पुरुष किचन क्यों नहीं? अब उर्मिला काकू और बंडू ने गोखलेजी को घूरा लेकिन वे तो उनसे नजरें मिलाने को भी तैयार नहीं थे।

चूहों की चतुराई
नंदनवन में रहा करते थे हजारों चूहे। मोटे-मोटे मस्त। मोटे और मस्त इसलिए थे क्योंकि वे बाकी जानवरों के साथ मिलजुल कर रहते थे। वे चूहे बहुत ही अच्छे थे और तभी तो सभी उन्हें प्यार करते थे।
कुछ बिल्लियाँ भी वहाँ थीं जो उनकी जान के पीछे पड़ी रहती थीं। पर चूहे उनको हमेशा चकमा देकर तारा..तारा..तरा..करके अपनी जान बचा लेते थे।

उनमें भी टूटू चूहा भी था। उसकी मकू खरगोश से बड़ी गहरी दोस्ती थी। मकू के साथ मिलकर टूटू हमेशा चूहों को बचा लेता था।
बस इसी कारण से बिल्लियाँ मुँह लटकाए बैठी हुई थीं। तभी शहर से मीठी बिल्ली लौटकर आई। सभी बिल्लियों ने उसको अपनी परेशानी बताई।
असल में मीठी अपने आप को बहुत स्मार्ट समझती थी। वह बोली -'परेशान होने की जरूरत नहीं। मैंने शहर में बड़ी-बड़ी करामातें की हैं। इन चूहों को पकड़ना तो बड़ा आसान है। बस तुम मुझ पर भरोसा करो।' मीठी ने बिलौटी का हौसला बढ़ाया।
'चिंता की कोई बात नहीं। मैं शहर से एक किताब लाई हूँ, 'चूहे पकड़ने के हजार उपाय', बस हमें उसमें से एक अच्छा-सा आइडिया चुनना है।' मीठी ने कहा।
अगले ही दिन वह किताब उठा कर जैसे ही वह वहाँ पहुँची, बाकी बिल्लियाँ उसे घेर कर खड़ी हो गईं।
'मीठी, जल्दी से उपाय बताओ,' बिलौटी ने उतावली होकर कहा।

'सुनो, हम राजा गब्बरसिंह के पास जाकर विनती करेंगे कि वह हमें पुलिस में भर्ती कर लें। फिर तो हमारा काम आसान हो जाएगा। चूहे को कानून तोड़ने के जुर्म में पकड़-पकड़कर अंदर करेंगे और फिर...दावत!' मीठी ने आँखें मटकाकर कहा।
मीठी की बात सुनकर बिल्लियाँ बेहद खुश हो गईं और उसे कंधे पर बैठा कर नाचने लगीं।
गब्बरसिंह मीठी की योजना को भाँप नहीं सके थे इसलिए उन्होंने सबको पुलिस में भर्ती कर लिया। मीठी तेजतर्रार थी, इसलिए उसे थानेदार बना दिया।
थाने में मीठी शान से पैर पर पैर रखकर बैठ गई। फिर उसने बिलौटी को बुलाकर योजना बनाई। उसने कहा, 'बिलौटी, तुम कहीं छिप जाओ। मैं ऐसी खबर फैलाऊँगी कि चूहों ने तुम्हें मार डाला। मैं उनको गिरफ्तार करके थाने में बंद कर दूँगी। फिर रात में वे हमारी दावत का सामान बनेंगे।'
योजना जोरदार थी। बिलौटी जल्दी से मान गई और अपने घर में जाकर छिप गई।
इधर मीठी ने खबर फैला दी कि चूहों ने बिलौटी का कत्ल कर दिया है और वह उन्हें पकड़ने के लिए निकल पड़ी।
सारे चूहे डर गए सोचने लगे अब पता नहीं क्या होगा? जो चूहे मीठी के हाथ आ गए उन्हें वह पकड़कर ले गई। जो छिप गए थे वे बच गए।
उसके जाने के बाद टूटू चूहा घर से बाहर निकला और सभी को लेकर सुरक्षित जगह की ओर जाने लगा।
चूहों को इस भागता देखकर भालू ने पूछा, 'क्यों टूटू, क्या हुआ? तुम लोग ऐसे भागे कहाँ जा रहे हो।'
'अरे क्या बताएँ, हम पर मुसीबत टूट पड़ी है। एक बिल्ली मर गई है और पुलिस का कहना है कि हमने उसे मारा है, इसलिए हम सब छिपने जा रहे हैं,' कह कर टूटू और बाकी चूहे फिर भागने लगे।
उसकी बात सुनकर भालूको तो चक्कर ही आ गया। वह बड़बड़ाया, 'कितनी अजीब बात है। चूहों ने बिल्ली को मार दिया?''
जब यह बात मकू को पता चली तो वह टूटू को ढूँढने निकल पड़ा। मिलने पर टूटू ने उसे सारी बातें बताई।
मकू उसे सांत्वना देते हुए बोला, 'टूटू, तुम परेशान न हो, मैं ऐसी चाल चलूँगा कि बिल्लियों की छुट्टी हो जाएगी।'
इसके बाद मकू ने एक दिन थाने से बिलौटी को निकलते देखा। उसने सोचा, 'अरे, यह तो मर गई थी। यह फिर से जिंदा कैसे हो गई। लगता है, दुष्ट मीठी ने चूहों की दावत उड़ाने के लिए यह षड़यंत्र रचा है। अब मैं इन सबको ऐसा मजा चखाऊँगा कि ये जीवन भर याद रखेंगी।'
वापस लौट कर मकू खरगोश ने एक नकली वसीयत तैयार करवाकर यह खबर फैला दी कि दूर के जंगल में रहने वाली बिलौटी की दादी बहुत सारी धन संपत्ति छोड़कर मर गई है। चूँकि बिलौटी जिंदा नहीं है, इसलिए वसीयत के अनुसार सारी संपत्ति टूटू चूहे को मिल जाएगी।
अपनी दादी के मरने की खबर सुनकर बिलौटी को बुरा लगा लेकिन वह बुरी तरह ललचा भी गई। आव देखा न ताव वह घर से बाहर निकल आई।
'किसने कहा कि मैं मरी हूँ, मैं तो जिंदा हूँ और सारी दौलत भी मेरी है।'' वह चिल्लाने लगी।
बाहर तो सारे जानवर यह सुन रहे थे। उन्होंने बिलौटी को पकड़ा और राजा गब्बर सिंह के पास ले गए।
सारी बातों का पता चलने पर मीठी बिल्ली को भी पकड़ा गया। डर के मारे उसने सच उगल दिया। 'मुझे माफ कर दो। मैंने मुफ्त में चूहों की दावत उड़ाने के लिए यह साजिश रची थी। मुझे छोड़ दो और शहर जाने दो,' मीठी बिल्ली रोते हुए बोली।
पर गब्बर सिंह ने उन्हें माफ नहीं किया और जेल भेज दिया। बाकी की सभी बिल्लियाँ भी दुम दबाकर भाग गईं।
मकू खरगोश और टूटू चूहे की दोस्ती और गहरी हो गई।

ई-मेल एड्रेस
एक बेरोजगार युवक ने किसी सॉफ्टवेयर कंपनी में ऑफिस में काम करने वाले लड़के की जगह के लिए एप्लीकेशन भेजी। लड़के को बुलाया गया। मैनेजर ने उसका इंटरव्यू लिया। इसके बाद उससे फर्श की सफाई करवाकर देखी और संतुष्ट होने के बाद कहा कि अपना ई-मेल एड्रेस दे जाओ, हम तुम्हें नौकरी के लिए बुलवा लेंगे।

लड़के ने जवाब दिया- पर मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है और इसलिए मेरा कोई ई-मेल अकाउंट भी नहीं है। मैनेजर ने कहा कि जब तुम्हारा कोई ई-मेल एड्रेस ही नहीं है तो यह नौकरी तुम्हें नहीं मिल सकती है। यह सुनकर वह लड़का उस ऑफिस से लौट आया। ऑफिस से बाहर निकलने के बाद उस लड़के ने अपनी जेब में पड़े 50 के नोट से एक टोकरी सेब खरीदे और उन्हें बेचने लगा। कुछ ही देर में उसके पैसे डबल हो गए। लड़के को काम जम गया और इस तरह उसने 50 से 100, 100 से 200, 200 से 300 रु. करके धीरे-धीरे बड़ा कारोबार कर लिया। उसने कई ट्रक खरीद लिए और उनके जरिए सप्लाय करने लगा। अब वह लड़का अपने क्षेत्र का एक करोड़पति व्यापारी हो गया था। एक दिन उसने सोचा क्यों न अपना इंश्योरेंस करवा लिया जाए।
मैनेजर ने उसका इंटरव्यू लिया। इसके बाद उससे फर्श की सफाई करवाकर देखी और संतुष्ट होने के बाद कहा कि अपना ई-मेल एड्रेस दे जाओ, हम तुम्हें नौकरी के लिए बुलवा लेंगे।
यह सोचकर उसने इंश्योरेंस एजेंट को बुलाया और उसे अपनी इच्छा बताई। एजेंट ने पूछा आप मुझे अपना ई-मेल एड्रेस दे दीजिए। मैं सारी जानकारी आपको भेज दूँगा। व्यापारी युवक ने कहा कि मेरा कोई ई-मेल एड्रेस नहीं है। इस पर एजेंट ने कहा कि बिना ई-मेल एड्रेस के आपने अपना कारोबार इतना फैला लिया।
अगर आप कोई-मेल एड्रेस होता तो आप जानते हैं कि आप कहाँ होते। व्यापारी युवक ने जवाब दिया- मुझे पता है कि अगर मेरा ई-मेल एड्रेस होता तो मैं कहाँ होता। तो बच्चों, अगर आपके पास कोई चीज नहीं है तो उसका अफसोस मत करो। आप यह देखो कि आपके पास वह चीज क्या है, जो दूसरों के पास नहीं है।

रविवार, 23 मई 2010

फूलों की दुनिया

रंग-बिरंगे फूलों की दुनिया समेटे है कौएकेनहोफ

ट्युलिप के फूलों के साथ यूरोप में वसंत का आगमन होता है। फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा ने फिल्म सिलसिला में अमिताभ बच्चन और रेखा पर फिल्माए गए गाने के साथ हॉलैंड के ट्युलिप बागों का परिचय कराया था।
हॉलैंड में कौएकेनहोफ का ट्युलिप बाग इस साल के लिए रविवार को दर्शकों के लिए बंद हो गया। एम्स्टर्डम के पास कौएकेनहोफ हॉलैंड की पहचान बन गया है। हर साल 8 लाख से अधिक दर्शक फूलों की मनमोहक वादियों का आनंद लेने जाते हैं। फूलों का बाग पर्यटकों का आकर्षण है तो फूलों की खेती हॉलैंड के लिए कमाई का महत्वपूर्ण जरिया।
कौएकेनहोफ का बाग दुनिया की सबसे बड़ी फूलों की प्रदर्शनी है। अप्रैल से 32 हेक्टएर के क्षेत्र में 40 लाख ट्युलिप के पौधों के अलावा 35 लाख डेफोडिल्स, हायसिंथ और क्रोकुस के पीले नीले रंगीन पौधों को वहाँ देखा जा सकता है।

1949 से कौएकेनहोफ प्याज वाले फूलों के उद्योग का केंद्र बन गया है। एम्स्टर्डम से द हेग के बीच 3500 हेक्टर जमीन पर ग्लासघरों में ट्युलिप उगाए जाते हैं और मौसम कितना भी ठंडा हो, बर्फ गिर रही हो या धुंध हो, सही तापमान वाले हवाई जहाजों से उन्हें पूरी दुनिया में पहुँचाया जाता है, वसंत का अहसास कराने।

ट्युलिप से हॉलैंड का सदियों का नाता है। चार सदी पहले ट्युलिप सट्टेबाजी का लक्ष्य हो गया था। लोग फूलों के निकलने से पहले उसके रंगों पर बाजी लगाने लगे थे। हालत यहाँ तक पहुँची कि 1634 से 1637 के बीच विशेष प्रकार के ट्युलिप बीजों की कीमत एम्स्टर्डम में नहरों पर बने घरों की कीमत के बराबर हो गई थी। शेयर बाजार क्रैश हो गया, लेकिन हॉलैंड उससे उबर गया और ट्युलिप उपजाने में नंबर एक बना रहा।

साल दर साल सर्दियों से पहले ही प्याज जैसे दिखने वाले ट्युलिप के लाखों बीजों को जमीन के अंदर दबा दिया जाता है। मध्य मार्च तक उनके हरे हरे पौधे पूरे इलाके को हरी भरी वादियों में बदल डालते हैं। अप्रैल के शुरू होते होते कलियाँ फूटने लगती हैं और फिर रंग-बिरंगे पौधे का समुद्र दिखने लगता है। सरसों के खेतों की तरह ट्युलिप की चादर बिछी दिखती हैं। 30 किलोमीटर के इलाके में 5500 अलग-अलग प्रकार और रंगों के ट्युलिप बिछे नजर आते हैं।

बहार के इस सीजन की पराकाष्ठा होती है अप्रैल के अंत में आयोजित होने वाली फूलों की झाँकी। ट्रकों पर फूलों से बनाई गई इस झाँकी को देखने दसियों हजार लोग हर साल उमर पड़ते हैं कौएकेनहोफ की ओर। फूलों से गढ़ी आकृतियाँ बनाने में तीन-तीन दिन लगते हैं। ट्रक का खर्च किसान उठाते हैं, वही फूल देते हैं। आयोजन कमिटी की विल्मा फान फेल्त्सेन बताती हैं, 'हर ट्रक को सजाने में 20 हजार यूरो खर्च होते हैं।'

हर साल कौएकेनहोफ ट्युलिप बाग़ का एक साथी देश होता है। 2010 में यह सम्मान रूस को मिला। 2011 में साथी देश जर्मनी होगा। फूलों की प्रदर्शनी 24 मार्च से 20 मई तक चलेगी। जर्मनी न सिर्फ हॉलैंड का पड़ोसी है, वहाँ हर साल जाने वाले 8 लाख पर्यटकों में सबसे बड़ी संख्या जर्मन पर्यटकों की होती है। हॉलैंड के लोगों को जर्मनी के पहाड़ अच्छे लगते हैं तो जर्मनों को हॉलैंड के समुद्र और वहाँ की रंग-बिरंगी फूलों भरी वादियाँ।

कार चलेगी आँख के इशारे से


कार चलाना कोई हँसी-ठठ्ठा नहीं है, जल्द ही हो जाएगा। यहाँ तक कि कार को घुमाने-फिराने तक के लिए हाथ नहीं लगाना पड़ेगा। बोलना भी नहीं पड़ेगा। कार चलेगी आँख के इशारे से।

कार चलाना आसान बनाने के लिए इस समय हर जगह होड़ चल रही है। उपग्रह आधारित नेविगेशन प्रणालियों ने सड़कों के नक्शे साथ रखना तो बेकार बना ही दिया है, अब कोशिश है कंप्यूटर नियंत्रित ऐसी ड्राइविंग प्रणालियाँ बनाने की कि कार को घुमाने-फिराने के लिए हाथ की भी जरूरत न पड़े।

जर्मनी में बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी की एक टीम ने ऐसी ही भावी कार के कंप्यूटर के लिए एक ऐसा सॉफ्टवेर तैयार किया है, जो आँख की पुतलियों को देखते हुए कार को उसी दिशा में मोड़ता-चलाता है, जहाँ आप देख रहे होते हैं।

गत 23 अप्रैल को बर्लिन के एक पुराने हवाई अड्डे पर पत्रकारों के सामने आइड्राइविंग (EyeDriving) नाम की इस प्रणाली का प्रदर्शन किया गया। परियोजना प्रमुख प्रोफेसर राउल रोखासः 'कार में एक वीडियो कैमरा है जो कार चालक की आँखों को देख रहा होता है। चालक दाहिने देख रहा है या बाएँ, आँख की पुतलियों की हरकतों को पढ़ रहा कंप्यूटर इसे जान जाता है।'

कैमरे और कंप्यूटर चलाएँगे कार :
प्रो. डॉ. रोखास मूल रूप से मेक्सिको के हैं, पर अब बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। वे कहते हैं, 'कंप्यूटर, कार की इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली से जुड़ा होता है और उसी के माध्यम से कार की स्टीयरिंग को आँखों की हरकतों के अनुसार नियंत्रित करता है। यदि आप सड़क पर हैं और सीधे सामने की ओर जाना चाहते हैं, तो सीधे सामने की ओर देखिए, कार चल पड़ेगी। यदि आप दाहिने मुड़ना चाहते हैं, तो दहिनी ओर देखें, कार दाहिनी ओर मुड़ जाएगी। तो, इस तरह सड़क पर अपनी नजर की दिशा के द्वारा आप कार को पूरी तरह नियंत्रित कर सकते हैं।'

दो तरीके :
यदि आप को डर है कि आपकी आँखें बहुत चंचल हैं, बहुत चकर-मकर करती हैं, तो कोई बात नहीं, प्रो. कहते हैं, 'चलाने के दो तरीके हैं- एक तरीका तो यह है कि कार पूरी तरह चालक के नियंत्रण में है, यानी वह कार को पूरी तरह अपनी आँख के इशारों से चला रहा है। दूसरा है सेमी-ऑटोमैटिक तरीका। यानी कार में लगे सेंसर और कंप्यूटर जानते हैं कि कार ठीक इस समय कहाँ है। कार में सैटेलाइट वाला जीपएस नेविगेशन सिस्टम है, लेजर स्कैनर हैं और कई दूसरे वीडियो कैमरे भी हैं। उनकी मदद से कार जानती है कि वह कहाँ है, किस जगह है। कार जब सीधी सड़क पर चल रही हो तो आपको कुछ नहीं करना होता। केवल नुक्कड़ या चौराहे पर आप को अपनी आँख से सामने लगे वीडियो कैमरे को इशारा करना होगा कि आप कहाँ जाना चाहते हैं।'

नजर फिसली, तो कोई बात नहीं :
लेकिन, यह भी तो हो सकता है कि किसी बात से आप का ध्यान बँट गया, आप किसी और दिशा में देखने लगें, तब?
प्रो. रोखास कहते हैं, 'कोई दुर्घटना नहीं होगी। कुछ लोगों ने कहा, आपकी नजरें यदि किसी सुंदरी की तरफ फिसल गईं, तब? तब भी नहीं। कार यदि सेमी ऑटोमैटिक दशा में है तो वह यह भी जानती है कि सड़क यातायात के नियम-कानून क्या हैं, सड़क की सीमा कहाँ है। वह आपको सड़क की सीमा पार नहीं करने देगी, नियम भंग नहीं करने देगी, इसलिए कोई दुर्घटना भी नहीं होगी। बर्लिन के प्रदर्शन के समय हमने दिखाया कि यदि कोई आदमी कार के सामने आ जाए, तो उसके सेंसर तुरंत जान जाते हैं कि रास्ते में कोई बाधा आ गई है और वे कार को तुरंत रोक देते हैं।'

चौतरफा नजर :
आँखों के इशारों पर कार चलाने वाला यह सॉफ्टवेयर फिलहाल अधिकतम 50 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति के लिए बना है। जर्मनी के शहरों और बस्तियों में यही गति सीमा है। पर, बाद में उसे एक्सप्रेस हाईवे के लायक भी बनाया जाएगा। सॉफ्टवेयर बनाने का काम 2007 में शुरू हुआ था। उसे कई बार आजमाया जा चुका है।

प्रो. रोखास ने बताया कि अभी तक कोई दुर्घटना नहीं हुई है, 'दुर्घटना रोकने लिए कार में लेजर किरण वाले ऐसे स्कैनर लगे हैं, जो लेजर किरणें छोड़ते रहते हैं। यदि वे किसी चीज से टकराती हैं, तो उनके लौटकर वापस आने में लगे समय के आधार पर हम जान सकते हैं कि वह चीज कार से कितनी दूर है। इस तरह कार चालने के दौरान 70 मीटर के दायरे में हर चीज का पता रहता है, चाहे वह कोई आदमी हो, कोई पेड़ हो या कोई मकान हो। आदमी तो केवल सामने ही देखता है, लेकिन हमारी प्रणाली हर समय 360 डिग्री यानी चारो तरफ देख रही होती है।'

कार के वीडियो कैमरे सड़क पर बने निशानों, लेन दिखाने वाली पट्टियों, आगे-पीछे और बगल में चल रहे वाहनों तथा ट्रैफिक सिग्नल की बत्तियों पर भी सारा समय नजर रखे रहते हैं। चालक यदि थका-माँदा और सुस्त हो, दुर्घटना का डर हो, तो जरूरत पड़ने पर वे कार रोकने के ब्रेक को भी सक्रिय कर देते हैं।

गुदगुदी

रमन की प्रार्थना

रमन मंदिर में जाकर भगवान के सामने हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहा था, हे भगवान, पंजाब की राजधानी दिल्ली को बना दो। तभी वहाँ एक पुजारी आया।
पुजारी- भाई तुम्हें पंजाब की राजधानी से क्या कष्ट है। तुम ऐसा भगवान से क्यों माँग रहे हो?
रमन- क्योंकि मैंने एक्जाम में पंजाब की राजधानी दिल्ली लिख दी है।

जो डूबे किनारे पर

-अरुण कुमार बंछोर

लडका आज बहुत खुश था। लडकी भी। मौसम भी खुश था उन्हें खुश देखकर। वे दोनों नदी में पांव डाले बैठे थे। लडकी कंकड मारकर नदी की धार में व्यवधान डाल रही थी। मुस्कुरा रही थी। देखो वो मैं हूं। उसने शरारत से मुस्कुराकर लडके से कहा।

कहां? लडके ने पूछा।

वहां नदी के उस धार में।

देखना वहां.. ऐ.. ऐ.. [छप्पाक] वहां.. देखो, देखो! वो खिलखिला उठी।

हवाओं में संगीत घुल गया। लडका खुश था। उसने नदी की तरफ नहीं देखा। लडकी की ओर देखा। उसने कहा, मैं तो कबसे कहता था, तुम नदी हो। तुम मानती ही नहीं थी। लडके की आंखों में अभिसार घुल रहा था। लडकी नाराज हो गयी। उसने अपने हाथों से लडके का चेहरा घुमाया नदी की ओर। उंगली से इशारा किया, वहां देखो। वहां.. वहां.. उसने लडके की आंख को इस बार कंकडी में लपेटकर नदी में फेंका। छप्पाक्.. कंकडी डूब गई नदी में। नदी का प्रवाह रुका। जरा देर, फिर धीरे-धीरे सामान्य होने लगा। नदी फिर एक धार में बहने लगी। लडकी हंसने लगी- देखा, मैं नदी हो गयी। कैसी बही जा रही हूं.. है ना?, लडकी का बचपन उसकी हंसी में खिल उठा था। आओ चलें..। लडकी ने लडके से कहा। कहां? लडके ने आश्चर्य से पूछा। वहां। उसने नदी के बीचोबीच इशारा किया। अरे नहीं, भीग जायेंगे।

नहीं भीगेंगे। पागल हो क्या। नदी में उतरेंगे और भीगेंगे नहीं। कोई जादू है क्या?

है ना मेरे पास जादू। तुम चलो तो सही।

मैं तैरना नहीं जानता। डूबना तो जानते हो ना? डूबने में आना क्या होता है। तैरना न जानो तो डूबना ही है।

हा.. हा.. हा.. लडकी जोर से खिलखिला पडी। नदी के किनारे न जाने कौन से पेड थे, जिन पर नन्हें-नन्हें गुलाबी फूल लदे हुए थे। फूल धीरे-धीरे धरती पर गिर रहे थे। महक रहे थे। लडकी पर भी कुछ फूल गिरे थे। लडके पर भी। लेकिन लडकी जब जोर से खिलखिलाई तो उसकी खिलखिलाहट फूलों पर भारी पडने लगी। एक संगीत सा घुलने लगा फिजाओं में।

पगले हो तुम। लडकी ने लडके के गालों पर मीठी सी चपत लगाई। तैरना तो आसान होता है, डूबना मुश्किल होता है।

कितने प्यार से, कितनी खामोशी से, कितने स्नेह से, कितने अरमानों से कितनी मोहब्बत से डूबना है, यह जान पाना आसान नहीं। जो डूबना हो तो इतने सुकून से डूबो कि आसपास की लहरों को भी पता न चले.. लडकी गुनगुनाने लगी। उसने नदी में डूबे हुए पैरों से पानी को उछालना शुरू किया।

देखो, ये फालतू बातें किताबों में अच्छी लगती हैं। सच यही है कि अगर हम इस नदी में गये तो डूब जायेंगे.. किसी को बताने के लिए बचेंगे भी नहीं कि कितनी मोहब्बत से डूबे थे, कितने सुकून से। तुम जरा किताबें कम पढा करो। कवितायें तो बिल्कुल मत पढा करो। लडका भन्ना उठा था। वो लडकी को गंभीरता से ताकीद कर रहा था, लेकिन लडकी सुन नहीं रही थी।

अरे, सुनो। देखो नदी का पानी गुनगुना हो रहा है क्या? लडकी ने बात पलट दी। पानी.. गुनगुना? अब ये क्या नाटक है? लडके ने मन ही मन सोचा। लेकिन प्रत्यक्ष में उसने मुस्कुराकर कहा, हां कुछ हुआ तो है। क्या हुआ है? लडकी भांप गई लडके की चालाकी। पानी..! गुनगुना..। लडके ने शांति से जवाब दिया। काहे का पानी? लडकी ने बच्चों की तरह एक हाथ कमर पर रखकर दूसरे हाथ को हवा में लहराकर पूछा? अरे बॉटल का पानी। सुबह से रो-रो कर गर्म हो गया है। प्यास लगी है ना तुम्हें? लडके ने सफाई दी।

हो.. हो.. हो!!! लडकी फिर हंस पडी जोर से। मुझे प्यास लगी है?

मैं नदी हूं बुद्धू। न.. दी.. नदियां प्यास बुझाती हैं। उसकी प्यास कोई नहीं बुझाता। कोई नहीं? लडकी का स्वर मद्धिम पड गया। तो कौन सा पानी गर्म होने की बात कर रही थीं तुम? लडका उसे वर्तमान में लौटा लाया। नदी का।

गर्म नहीं, गुनगुना। लडकी वापस लौट आई। उधर देखो बुद्धू.. उधर। लडकी ने लडके को नदी के दूसरे छोर पर दूर निशाना बनाते हुए देखने को कहा। सूरज धीरे-धीरे नदी में उतर रहा था। इस समय गहरे सिंदूरी रंग के सूरज का थोडा सा हिस्सा नदी में डूबा था, बाकी बाहर था। लडका मुग्ध होकर देखने लगा। गजब! बहुत सुंदर है ये तो!

है ना? लडकी कुछ इस तरह खुश हुई मानो सूरज उसका ही हो। ये जलता हुआ सूरज जब नदी में उतर रहा है तो नदी का पानी भी तो थोडा सा गुनगुना होगा ना? क्या है.. तुम ये अपनी फालतू की कविताई बंद करोगी? अच्छा हुआ तुम साइंटिस्ट न हुई वरना ग्लोबल वार्मिग की दशा, दिशा और उसके कारण सब बदल जाते। हूं.. और? लडकी गंभीर होने लगी। और क्या? लडने ने पूछा। और क्या-क्या अच्छा हुआ, जो मैं न हुई? मतलब? मतलब अगर मैं पॉलीटिशियन होती तो? तो.. तो क्या संसद में कविताएं पढी जातीं। काम-धाम ठप्प। लडके ने उपहास करते हुए कहा। खेत, खलिहान, पगडंडी, अलाव, चूल्हा, रोटी, चिडिया, धान, मुस्कुराहटें, उगता हुआ सूरज, चमकीली रातें यह सब होता ना उन कविताओं में?

लडकी ने पांव पानी में से निकाल लिये। हां.. आं..। लडके को और कुछ कहते ना बना। अगर संसद में पढी जातीं ऐसी कविताएं जिनमें सुंदर जीवन की कामना होती तो बुरा क्या होता। कम से कम फेंकी तो न जातीं कुर्सियां। दी तो न जातीं गालियां। लडकी फिर मुस्कुरा दी। और..? लडकी ने पूछा।

और क्या? और क्या ना हुई तो अच्छा हुआ? तुम तो पीछे ही पड गई। फिलहाल तो यही सोच रहा हूं कि तुम लडकी न होतीं तो.. तो? तो मैं यहां तुम्हारी फिलॉसफी न झेल रहा होता। लडका जोर से हंस पडा।

हूं.. तो तुम मुझे इसलिए झेलते हो क्योंकि मैं लडकी हूं। ये लो इसमें क्या शक है। तुम लडकी ना होतीं तो मैं तुम्हें प्यार थोडी ना करता। मैं नॉर्मल लडका हूं यार। लडका शरारत से मुस्कुराया।

जानती हूं एक लडके का लडकी से प्यार करना तो नॉर्मल है। है ना? हां, और लडकी का लडके से प्यार भी। लडके ने कहा। लडके को अब तक लडकी के इजहारे मोहब्बत का इंतजार था। लडकी के सर पर फूल गिर पडा था, जिसे लडके ने जानबूझकर नहीं हटाया। -जो लडके नदी में डूबना नहीं चाहते। जो डूबना नहीं जानते, भला नदी कैसे उन्हें प्यार करेगी। बोलो तो? लडके ने चौंककर देखा लडकी की ओर। बोला कुछ नहीं।

नहीं समझे? नहीं? तो मत समझो! लडकी फिर खिलखिला पडी। उसने पर्स उठाया। वो चल पडी। लडका भी उसके पीछे-पीछे चल पडा। सूरज इत्मीनान से नदी में डूबता रहा।

बाबुल को चाहिए सरकारी जमाई

-अरुण कुमार बंछोर
'दहेज दे के किनले बानी तोहरा के सजनवा' जैसे गीतों से अब राजधानी की गलियां गुलजार होने लगी है। वैवाहिक मौसम में यह कोई नई बात नहीं है। कुछ नया है तो यह कि मंदी के बाद विवाह बाजार में 'लेन-देन' का गणित ही बदल गया है। दुनिया भर के वित्तीय बाजारों को झकझोर देने वाली मंदी भले चली गई हो, लेकिन इसके असर से दूल्हा बाजार का चेहरा बदल गया है।

यह मंदी का ही असर है कि निजी क्षेत्र के पेशेवरों का 'भाव' घटकर आधा हो गया है। वहीं, सरकारी नौकरी करने वाले कुवांरों के कद्रदान बढ़ गए है। एक बदलाव यह भी कि 'सेम प्रोफेशन' में कार्यरत लड़की मिल जाने पर बिना दहेज भी खूब शादियां हो रही है।

मंदी का असर कई क्षेत्र पर पड़ा। इनमें से एक दूल्हा बाजार भी है। मंदी से पूर्व निजी क्षेत्र में कार्यरत पेशेवरों का भाव परवान पर था। मोटी पगार पाने वाले प्रतिष्ठित कंपनियों के पेशेवरों की कीमत 10 लाख रुपये तक पहुंच चुकी थी, लेकिन अब इस तरह के पेशेवरों की कीमत घटकर आधी या इससे भी कम हो गई है।

एक मैरिज ब्यूरो के मुताबिक मंदी से पूर्व एक ब्राह्मण फैमिली का लड़का मुंबई की एक कंपनी में 70 हजार मासिक पगार पर नौकरी करता था। डिमांड थी 15 लाख। देनेवाले दे भी रहे थे, लेकिन वे लोग कई लड़की देख छोड़ दिए थे। 'सौंदर्य' की तलाश जारी ही थी कि मंदी के कारण लड़के की छंटनी हो गई। मंदी के बाद दूसरी नौकरी मिली, लेकिन मात्र पांच लाख रुपये में ही शादी तय हुई। हालत यहां तक बदल गई है कि कन्या पक्ष शादी के लिए निजी के बजाय सरकारी नौकरी करने वालों को और अधिक तरजीह देने लगे हैं।

हालांकि, जमाई के रूप में सरकारी नौकरी करने वाले हमेशा से प्राथमिकता में रहे है, लेकिन मंदी के बाद इनके कद्रदानों की संख्या में 25 फीसदी का ग्रोथ आ गया है। पटना स्थित एक मैरिज ब्यूरो के संचालक के मुताबिक मंदी से पूर्व 50-50 का रेशियो था। 50 फीसदी लोग निजी क्षेत्र को तो इतने ही सरकारी क्षेत्र को प्राथमिकता देते थे, लेकिन अब यह आंकड़ा 25-75 में बदल गया है। 25 फीसदी लोग निजी क्षेत्र के दूल्हों को तो 75 फीसदी लोग अपनी पुत्री के लिए सरकारी वर को प्राथमिकता देने लगे है।

मैरिज ब्यूरो के साथ ही विवाह कराने वाले पंडितों की राय भी इससे अलग नहीं है। अशोक नगर स्थित पंडित ओंकार नाथ पांडेय के मुताबिक मंदी के कारण कन्या पक्ष की सोच ही बदल गई है। निजी क्षेत्र को अब वे ही लोग प्राथमिकता दे रहे है जो खुद भी प्राइवेट कंपनियों से जुड़े है। हालांकि मंदी से पूर्व निजी क्षेत्र के जिस दूल्हे का रेट 10 लाख था अब पांच लाख पर सिमट गया है।

मैरिज ब्यूरो के मुताबिक अगड़ी जातियों में दहेजप्रथा कुछ अधिक ही है। इनमें भी भूमिहार वर्ग सबसे आगे है। भूमिहार वर्ग में तृतीय श्रेणी में कार्यरत सरकारी दूल्हे का रेट पांच लाख से नीचे तो है ही नही। ब्राह्मण, राजपूत और कायस्थ परिवार में ऐसे ही दूल्हों का रेट तीन लाख रुपये चल रहा है।

मैरिज ब्यूरो के मुताबिक बिना दहेज शादियों का चलन भी बढ़ा है। बिना दहेज शादी करने वालों की संख्या में करीब 25 फीसदी की वृद्धि आई है। हालांकि उनकी एक शर्त भी होती है-लड़की सेम प्रोफेशन में होनी चाहिए। मसलन, जिनका बेटा डाक्टर है अगर उन्हे डाक्टर बहू मिल जाती है तो वे बिना दहेज शादी करने को तैयार हो जाते है।

वैसे मध्यमवर्गीय परिवार जिनके घरों में शिक्षा की ज्योति जल चुकी है, वे भी इस श्रेणी में तेजी से शामिल हो रहे है। बरूणा के सियाराम चौबे केंद्रीय विद्यालय से सेवानिवृत्त है। उनकी पत्नी भी शिक्षिका है। पटना के कंकड़बाग में अपना मकान भी है, लेकिन फिर भी वे अपने बेटे की शादी जहानाबाद के अखिलेश्वर द्विवेदी की पुत्री से बगैर दहेज तय किए है। उनका कहना है कि दुल्हन ही दहेज है। दहेज न लेकर ही इस कुरीति का विरोध किया जा सकता है।

दुर्लभ फल है जीवन




ईश्वर ने हर जीव की रचना उन्हीं अवयवों से की है। उनकी दृष्टि में न कोई छोटा है न बडा। उन्होंने प्रत्येक को जन्म से जहान पैदा किया है। वही इस जीव जगत में मनुष्य बन पाता है जो संपूर्ण जीव योनियों में श्रेष्ठतम् हो। किंतु भौतिक संलिप्तताके बाद इस श्रेष्ठतम् व महानतम् के संरक्षण के कर्म को गुप्त रूप से उसके उत्तरदायित्वोंमें सम्मिलित कर दिया है। इसके पश्चात ईश्वर के महानतम् व श्रेष्ठतम् रूपी कवच का आदर व संरक्षण कर अस्तित्व बनाए रखना मनुष्य के हाथ में है। सामान्य शब्दों में समझा जा सकता है कि एक समृद्ध पिता ने अपने पुत्र को बडी जागीर सौंप दी, जो किसी रजवाडे से कम नहीं है। पिता यह सब सौंप संसार से विदा कह गए। अब यह पुत्र के बुद्धि कौशल पर निर्भर करेगा कि वह उस संपदा का सदुपयोग करता है या दुरुपयोग। कुसंगति के चलते वही पुत्र कंगाली के कगार पर भी पहुंच सकता है। जबकि दूसरी ओर एक कंगाल पिता का पुत्र अपनी श्रमशीलता,निष्ठा, ईमानदारी व पौरुष से एक नए साम्राज्य का निर्माण कर सकता है। पूत सपूत सो का धन संचै,पूत कपूत सो क्या धन संचै?अत:व्यक्ति की योग्यता व अयोग्यता ही ईश्वर द्वारा प्रदत्तउस श्रेष्ठतम् को बचाए रखने अथवा मिटाने के लिए सक्षम है।

प्रभु ने मनुष्यों को जीने, रहने, खाने-पीने, सोचने-विचारने हेतु रात-दिन के रूप में 24घंटे का समय दिया है। अब उसमें जिधर तन व मन का रुझान होगा व्यक्तित्व के निर्माण का भवन आकार लेता जाएगा। इन 24घंटों में जो तप व त्याग करेगा जगत में प्रसिद्धि पाएगा। जो भोग व सांसारिकता के योग में चिंतन व देह की ऊर्जा का अपव्यय करेगा ईश कृपा के चार्ट में उसके चरित्र व व्यक्तित्व का ग्राफ नीचे होता जाएगा। ईश्वर प्रदत्त इस मानव जन्म के दुर्लभ फल का उपयोग जो जिस निष्ठा व लगन से करेगा वह उसी के अनुरूप फल पाने का हकदार होगा। यदि इसका सदुपयोग होगा तो वह आदर्श, मूल्य, मर्यादा के ऐसे हरियाले वन महकाएगा। यदि उसका कोई उपयोग नहीं होगा तो वह दुर्लभ फल सड जाएगा। उसके निकट से गुजरने वाला समूह उसके जीवन को कोसता रहेगा। अब यह निश्चित करें कि ईश की छत्रछाया में हम उस फल का उपयोग कैसे करें?

शनिवार, 22 मई 2010

प्रसन्नता के पीले झूमर


अप्रैल और मई की गर्मी हमें घर से बाहर निकलने से रोकती है, पर इन्हीं महीनों में प्रकृति में खिले रंग हमसे मनुहार करते हैं कि आओ और आकर देखो कि यह गर्मी कितनी रंगीन है। सड़क के किनारे खड़े गुलमोहर और अमलतास पर इन दिनों जो रंगत छाई है वह देखते ही बनती है। अमलतास को देखकर तो यह लगता है मानो इस पर प्रसन्नता के झूमर खिले हों।

अमलतास दक्षिण-एशियाई मूल का पेड़ है। पाकिस्तान से लेकर भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड होते हुए नक्शे में नीचे श्रीलंका तक यह पेड़ खूब पनपता और खिलता है।

इन देशों में खिले फूलों की खूबसूरती पर आने वाले सैलानी भी मोहित होते हैं और इन पीले झुमकों की वजह से ही विदेशियों ने इसे 'गोल्डन शॉवर' नाम दिया है। थाईलैंड में इसे राष्ट्रीय वृक्ष का दर्जा मिला है। भारत के केरल राज्य में अमलतास के फूल राजकीय पुष्प हैं। गर्मियों में दिल्लीClick here to see more news from this city घूमने वाले पर्यटकों को हम किसी भी घर आँगन में खिली इस पीली बहार के फोटो उतारते देख सकते हैं। आखिर अमलतास की बहार में बात ही कुछ ऐसी है जो भी देखता वह कुछ देर तो देखता ही रह जाता है।

मई में जब खूब गर्मी पड़ती है तब इस पेड़ पर अंगूर के गुच्छों के जैसे फूल खिलते हैं। गर्मियों में जब ज्यादातर पेड़ों के पत्ते सूख जाते हैं तब अमलतास पर भी कम ही पत्ते बचते हैं पर इस पर आई फूलों की बहार तो जैसे पत्तों की कमी को पूरी कर देती है।

अमलतास पर कुछ लंबी बेंतनुमा फलियाँ भी लगती हैं, जो फल हैं। इस फल के अंदर गूदा और बीज होता है। फल के गूदे को बंदर बड़े चाव से खाते हैं और बीजों को इधर-उधर बिखरा देते हैं। इन्हीं बीजों से नए-नए वृक्ष पनपते हैं। इसलिए गौर कीजिएगा कि अमलतास के पेड़ समूह में होते हैं। इसका फल बड़े औषधीय महत्व का है।

अमलतास दिखने में एक नाजुक वृक्ष लगता है, पर इसकी लकड़ी बहुत सख्त होती है और इसकी लकड़ी से नाव, पुल और खेती-उपयोगी चीजें बनाई जाती हैं। तो अब अगली बार ध्यान से देखना, कोई पीले झूमर वाला अमलतास आपके घर के आसपास भी इठला रहा होगा।

कोंकणा सेन शर्मा

कोंकणा सेन का बचपन

सभी दोस्तों को मेरा प्यार भरा नमस्कार। तो आज आपसे कुछ बचपन की बातें हो जाएँ। दोस्तो, जिस तरह से आप अपनी स्कूल की छुट्टियों में खूब मजे कर रहे होंगे उसी तरह मुझे भी बचपन में अपनी छुट्टियाँ बहुत अच्छी लगती थीं। इन दिनों में ही तो तरह-तरह के नए काम करने के आइडिया दिमाग में आते हैं और हमारे अंदर क्रिएटिविटी भी इन्हीं दिनों में आती है। आप सभी इन छुट्टियों में तरह-तरह की चीजें पढ़ना। मुझे कहानियाँ पढ़ने का बहुत शौक था और मैं गर्मी की छुट्टियों में नॉवेल और मजेदार कहानियाँ पढ़ती थी।
दोस्तो, मेरा जन्म दिल्ली में हुआ, पर मैं पली-बढ़ी कोलकाता में। हम भाई-बहनों की एक बड़ी गैंग हुआ करती थी जिनमें से कुछ तो बहुत शैतानी करते थे। मेरा नाम शैतानी करने वालों की लिस्ट में ही रहता था। दोपहर में हम अपने परिसर और अपार्टमेंट में खूब खेलते थे और जब भी मौका मिलता था तो चौराहे पर जाकर पुचका और भेलपुरी खाते थे। हमें चौराहे की चीजें खाने से मना किया जाता था, पर चटपटी चीजें खाने का हमारा खूब मन करता था तो हम चोरी-चुपके खाते थे।
मेरी स्कूल की पढ़ाई मॉडर्न हाईस्कूल कोलकाता से हुई। मेरी बहन जो मुझसे १० साल बड़ी थी उसकी पढ़ाई भी इसी स्कूल से हुई थी। यहाँ मैंने आठवीं तक की पढ़ाई की और इसके बाद की
दोस्तो, मेरा जन्म दिल्ली में हुआ, पर मैं पली-बढ़ी कोलकाता में। हम भाई-बहनों की एक बड़ी गैंग हुआ करती थी जिनमें से कुछ तो बहुत शैतानी करते थे। मेरा नाम शैतानी करने वालों की लिस्ट में ही रहता था। दोपहर में हम अपने परिसर और अपार्टमेंट में खूब खेलते थे और जब भी मौका मिलता था तो चौराहे पर जाकर पुचका और भेलपुरी खाते थे। हमें चौराहे की चीजें खाने से मना किया जाता था, पर चटपटी चीजें खाने का हमारा खूब मन करता था तो हम चोरी-चुपके खाते थे।
मेरी स्कूल की पढ़ाई मॉडर्न हाईस्कूल कोलकाता से हुई। मेरी बहन जो मुझसे १० साल बड़ी थी उसकी पढ़ाई भी इसी स्कूल से हुई थी। यहाँ मैंने आठवीं तक की पढ़ाई की और इसके बाद की पढ़ाई कलकत्ता इंटरनेशनल स्कूल से पूरी की। स्कूल में मेरे खूब दोस्त हुआ करते थे। इन दोस्तों के साथ स्कूल में पढ़ाई, खेलकूद और मस्ती की बहुत सारी घटनाएँ आज भी याद आती हैं। मुझे छुट्टियाँ खत्म होने के बाद फिर से स्कूल जाना बहुत अखरता था। मैं हमेशा यह सोचती थी कि ये छुट्टियाँ जल्दी क्यों खत्म हो जाती हैं। आपकी छुट्टियाँ भी खत्म हो रही होंगी तो जल्दी-जल्दी आराम या कोई नया काम कर लो। वरना एक बार छुट्टियाँ खत्म तो समझो कि पढ़ाई और स्कूल शुरू।

वैसे दोस्तो, मेरे दूसरे स्कूल कलकत्ता इंटरनेशनल में पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियाँ बहुत होती थीं। वहीं मैंने ब्रिटिश काउंसिल ड्रामा कॉम्पीटिशन में भाग लिया था। यहाँ एक्ंिटग की वर्कशॉप भी होती थी जिनमें मैं भाग लेती थी। एक खास बात जो मैं आपसे कहना चाहती हूँ वह यह कि मुझे बहुत-सी चीजें सिखाने में मम्मी बहुत रुचि लेती थीं। मम्मी ने मुझे नाटक और कविता के बारे में बताया। उनसे बातें करके मुझे बहुत-सी नई जानकारियाँ मिलती थीं। वे मुझे कथक और रवीन्द्र संगीत सीखने के लिए अलग से क्लासेस में भी भेजती थी। मैं मम्मी को स्टेज पर अभिनय करते हुए देखती थी और उनसे सीखती भी थी। एक बार मैं उनके साथ मॉस्को फिल्म फेस्टिवल भी गई थी। इस समय मेरी उम्र सिर्फ १० साल की थी।
दोस्तो, मुझे बाबा से भी बहुत प्यार है। मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो देखती थी कि बाबा को जानवरों से बहुत लगाव हैं। उन्हें जानवर पालने का बहुत शौक था। उन्होंने एक कछुआ भी पाला था जिसका नाम हमने कालिदास रखा था।
जब भी कभी घर में लाइट चली जाती थी तो कालिदास के ऊपर हम एक मोमबत्ती लगा देते थे। जब वह चलता तो मोमबत्ती भी इधर से उधर चलती थी। यह देखकर हमें खूब मजा आता था। वैसे हम इस बात का पूरा ध्यान भी रखते थे कि हमारी वजह से किसी भी जानवर को कोई तकलीफ न उठानी पड़े। बाबा ने हमें यह बात सिखाई थी ‍कि जानवरों का ख्याल रखोगे तो वे भी तुम्हें प्यार करेंगे।
प्यारे दोस्तो, मुझे पता नहीं था कि पढ़ाई के अलावा सीखी गईं ये दूसरी चीजें आगे चलकर कितना काम आएँगी। अभिनेत्री बनने के बाद मैं पाती हूँ कि बचपन के दिनों में हम जो कुछ भी सीखते हैं उससे हमें पूरे जीवन में बहुत मदद मिलती है। इसलिए इन दिनों आपकी रुचि जिस किसी भी विषय में है उस पर जरूर मेहनत करना। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।

आपकी दोस्त
कोंकणा सेन शर्मा

दुनिया का सबसे योग्य वर

-अरुण कुमार बंछोर

एक शहर में एक छोटा-सा परिवार रहता था। इस परिवार में एक छोटी चुहिया भी थी। दिन बीतते गए और देखते ही देखते यह छोटी चुहिया सयानी हो गई। इतनी बड़ी कि उसके माता-पिता को उसके ब्याह की चिंता हुई।
चुहिया का कहना था कि वह अनपढ़ नहीं पढ़ी-लिखी है और इसलिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वर से ब्याह रचाएगी। माता-पिता के सिर पर अच्छा वर ढूँढने की जिम्मेदारी आन पड़ी। वे दोनों दिनभर सोचने लगे। सर्वश्रेष्ठ वर की तलाश में अखबारों और कम्प्यूटर पर मेट्रीमोनियल विज्ञापन देखने लगे। उन्होंने अखबार में- रंग गोरा, कद ५ फुट ७ इंच, सॉफ्टवेअर इंजीनियर के सैकड़ों विज्ञापन देखे, पर उन्हें कोई भी जँचा नहीं।
फिर एक दिन उन्हें खयाल आया कि सूरज पूरी दुनिया में रोशनी करता है तो उससे अच्छा वर कहाँ मिलेगा। माँ चुहिया ने पिता चूहे से कहा कि और सूरज तो प्रकाश बाँटते हुए जात-पाँत के चक्कर में भी नहीं पड़ता है इसलिए उससे योग्य वर और कोई हो ही नहीं सकता।
चुहिया के माता-पिता सूरज के पास जा पहुँचे। उन्होंने सूरज से कहा कि हमारी बेटी सयानी हो गई है और हम उसके लिए दुनिया का सबसे योग्य वर आपको ही मानते हैं। सूरज ने कहा- यह आपका बड़प्पन है पर मैं दुनिया का सबसे योग्य वर नहीं हूँ, क्योंकि मुझसे ज्यादा योग्य तो बादल हैं। वैसे भी जब बादल मुझ पर छा जाते हैं तो मैं उजाला तक नहीं कर पाता हूँ। बेहतर होगा आप अपनी बेटी के लिए बादल से बात करें।

चुहिया के माता-पिता यह सुनकर बादल के पास गए। बादल ने उन दोनों का स्वागत किया। चुहिया की माँ बोली- हमने सूरज से सुना है कि आप सर्वयोग्य वर हैं। हम अपनी बेटी के लिए ऐसे ही वर की तलाश कर रहे हैं। कृपा करके हमारी बेटी को अपनी अर्द्धांगिनी बना लीजिए। यह सुनकर बादल बोला - माफ कीजिए पर मुझसे श्रेष्ठ तो पवन है, जो मुझे उड़ाकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है।

चुहिया के परेशान माता-पिता पवन के पास पहुँचे। पवन - आप मुझे अपनी बेटी के योग्य समझते हैं यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है, पर मुझसे भी श्रेष्ठ कोई है। चुहिया के माता-पिता-कौन? पहाड़। जब मैं एक जगह से दूसरी जगह जाता हूँ तो पहाड़ मुझे रोक लेते हैं। इसलिए सबसे योग्य तो पहाड़ है। आप चाहें पहाड़ से अपनी बेटी का रिश्ता कर सकते हैं।

चुहिया के माता-पिता पहाड़ के पास पहुँचे। उन्होंने पहाड़ से कहा - आप हमारी बिटिया के लिए सबसे योग्य वर हैं। आप हमारी बेटी को अपना जीवनसाथी बना लीजिए। पहाड़ ने बड़े ही धैर्य से जवाब दिया - माननीय आप दोनों के सम्मान का मैं आभारी हूँ, पर मैं सबसे योग्य वर नहीं हूँ। मेरे लंबे-चौड़े शरीर में छोटे-से चूहे छेद कर सकते हैं इसलिए मुझसे योग्य वर तो चूहों में ही आपको मिल सकेगा।

इसके बाद चुहिया के माता-पिता खुश होकर लौट आए। रास्ते में वे एक-दूसरे से बात करते रहे कि हमें पता ही नहीं था कि सबसे योग्य वर इतनी आसानी से अपने आसपास ही मिल जाएगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने एक योग्य चूहा तलाश किया और उससे अपनी बेटी का ब्याह कर दिया। ब्याह में पूरे शहर के चूहों को बुलाया गया और सबने खूब छककर भोजन किया। माता-पिता बहुत खुश थे कि उनकी बेटी का विवाह सबसे योग्य वर के साथ हो रहा है।
(यह एक जापानी लोककथा है।)

यादगार बनाएँ गर्मी की छुट्टियाँ

गर्मियों में कहाँ जाए

अगर रोमांच से आपकी दोस्ती है और घूमना आपका शौक है तो यकीनन गर्मी के इस मौसम में आप किसी ऐसी जगह की तलाश में होंगे, जहाँ आपका शौक भी पूरा हो और गर्मियों की तपिश भी आपको छू न सके। हैंग ग्लाइडिंग, पैरा ग्लाइडिंग और गर्म गुब्बारे की सैर, अगर आपको कुछ इस तरह के खेलों में दिलचस्पी है तो कांगड़ा, धर्मशाला, दसौली, शिमला, शिलांग आदि कुछ स्थान आपको जरूर आकर्षित करेंगे।
अगर आप इन खेलों में वास्तविक रोमांच का अनुभव चाहते हैं तो कश्मीर और तमिलनाडु की नीलगिरि पर्वतश्रेणी आपको जरूर भाएगी। गर्मी की छुट्टियाँ दरवाजे पर खड़ी हैं। स्कूल बंद होने के बाद बच्चों की सिर्फ एक ही रट होती है कि इन छुट्टियों में हम कहाँ जा रहे हैं? दूसरी ओर, आर्थिक मंदी में न इस साल तनख्वाह बढ़ी और न ही प्रमोशन हुआ। आप जरूर परेशान होंगे कि इन छुट्टियों में परिवार को लेकर कहाँ जाएँ?
बदलाव की जरूरत तो आपको भी है। आखिर परिवार के बहाने ही सही, हफ्तेभर के लिए भी कहीं बाहर गए तो आप खुद को तरोताजा महसूस करेंगे। तो चलिए, हम आपकी मुश्किल आसान किए देते हैं। हम आपको कुछ ऐसी मनमोहक जगहों की जानकारी देते हैं जहाँ की खूबसूरती आपको तरोताजा कर देगी और आपकी जेब भी ज्यादा ढीली नहीं होगी। वक्त इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि परिवार भीड़-भाड़ में परेशानी न उठाए बल्कि एक यादगार और खुशनुमा अनुभव लेकर लौटे।
इस बारे में ट्रेवल एजेंसी यात्रा डॉट कॉम की मुख्य परिचालन अधिकारी और सह-संस्थापक सबीना चोपड़ा बताती हैं, "प्रचलित पर्यटन स्थलों की अपेक्षा चैल, कसौली, भीमताल, लद्दाख, कानाताल, कुर्ग आदि स्थानों पर घूमने जाना समझदारीभरा निर्णय है।"
वहीं दूसरी ओर मेकमायट्रिप के बिजनेस डेवलपमेंट विभाग के उपाध्यक्ष अमित सब्बरवाल का मानना है, "गर्मियों में अक्सर लोग एक साथ कई शहरों के टूरिस्ट पैकेज का चुनाव करते हैं परंतु इस आर्थिक संकट के दौर में पर्यटक एक या दो शहर के पैकेज की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं।"
ऐसे में उत्तर में कौसानी, अल्मोड़ा, चैल, चौकोरी, रानीखेत, औली, लेह, श्रीनगर, चंबा, कनताल, पूर्वोत्तर में गंगटोक, दार्जीलिंग, डलहौजी व दक्षिण में कुर्ग, ऊटी, मुन्नार, कोडाइकनाल, महाबलेश्वर आदि कुछ स्थान अच्छे विकल्प साबित हो सकते हैं।
उत्तराखंड स्थित कौसानी नामक हिल स्टेशन की प्राकृतिक छटा गर्मियों की छुट्टियों में ताजगी भरने के लिए अपने आप में पर्याप्त है। बागेश्वर जिले में बसा यह छोटा-सा हिल स्टेशन अल्मोड़ा से करीब 53 किलोमीटर उत्तर दिशा में स्थित है। हिमालय की 1890 मीटर ऊँची चोटी पर स्थित इस स्थान से करीब 350 किलोमीटर तक के हिमालय क्षेत्र (त्रिशूल, नंदादेवी और पंचकुली) के दर्शन होते हैं।
यहाँ देवदार के सघन वन हैं जिनके एक ओर सोमेश्वर घाटी और दूसरी ओर गरुड़ व बैजनाथ घाटी स्थित है। कसौनी से ही थोड़ा दक्षिण में स्थित अल्मोड़ा भी गर्मियों के हिसाब से उपयुक्त स्थान है। 1638 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह स्थान प्राकृतिक छटा से भरा हुआ है। अप्रैल से जून तक का समय यहाँ आने के लिए सबसे उपयुक्त है।
अल्मोड़ा 125 मंदिरों का समूह है। न सिर्फ मंदिर बल्कि कई पिकनिक स्पॉट भी अल्मोड़ा के आसपास हैं जहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त देखने अक्सर लोग जाते हैं। इसी क्रम में उत्तराखंड का औली नामक हिल स्टेशन भी पर्यटन का सुंदर विकल्प है। हालाँकि यहाँ जाने का सही समय नवंबर से लेकर मार्च तक का महीना होता है जब यहाँ हिमपात होता है और बर्फ पर विविध प्रकार के खेलों के लिए पर्यटक आते हैं, पर गर्मियों में भी इस स्थान की प्राकृतिक सुंदरता मन मोह लेती है।

यदि आप हिमाचल प्रदेश की वास्तविक खूबसूरती का अनुभव लेना चाहते हैं और गर्मियों में शिमला की भीड़-भाड़ से बचना भी चाहते हैं तो शिमला के पास स्थित 'चैल' नामक हिल स्टेशन भी एक बेहतर विकल्प है। धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर और श्रीनगर की खूबसूरती तो भला किसका मन नहीं मोहती है।
कश्मीर की वास्तविक सुंदरता देखनी है तो गुलमर्ग से सुंदर विकल्प और क्या हो सकता है। गुलमर्ग जितना गर्मियों में लोकप्रिय है, उतनी ही यहाँ की सर्दियाँ भी लोगों को भाती हैं। न सिर्फ खूबसूरती बल्कि गोल्फ खेल भी यहाँ का प्रमुख आकर्षण है। इसके अतिरिक्त चंबा, डलहौजी, धर्मशाला, भीमताल आदि स्थानों के साथ-साथ कई धार्मिक स्थल भी गर्मियों में खुल जाते हैं।
उत्तर भारत के अलावा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र भी पर्यटन के लिहाज से इस समय उपयुक्त होते हैं। विशेष रूप से दार्जीलिंग, कलिम्पोंग, सिक्किम आदि पर्यटन स्थल हैं। सिक्किम का मुख्य आकर्षण है गंगटोक, जहाँ पहाड़ों पर ट्रेकिंग के साथ-साथ कई प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाया जा सकता है।

इस स्थान की एक विशेषता है यहाँ की पारंपरिक तिब्बती संस्कृति जो कि महायान बौद्ध धर्मानुयायियों के रूप में नजर आती है। इस स्थान पर चार से पाँच दिन के एक टूर पर करीब तीन से चार हजार तक का खर्च पड़ेगा जबकि दार्जीलिंग, गंगटोक और कलिम्पोंग के पूरे छः या सात दिनों के टूर पर दस से ग्यारह हजार तक का खर्च हो सकता है।
दक्षिण भारत में भी ऐसे कई स्थान हैं जहाँ आप गर्मियों में जा सकते हैं। आपके लिए कुछ नया अनुभव भी होगा और यहाँ का यातायात सुविधाजनक होने के कारण यहाँ पहुँचने में आपको परेशानी भी अधिक नहीं होगी। दक्षिण भारत के हिल स्टेशनों में तमिलनाडु के कोडाइकनाल को हिल स्टेशनों की राजकुमारी भी कहा जाता है।
यह स्थान 2195 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है। हरे-भरे जंगल और वन्य जीवन यहाँ का विशेष आकर्षण है। इसके अलावा कुर्ग (दूसरा नाम कोड़ागु) भी गर्मियों में जाने के लिए अच्छा स्थान है। इस बार गर्मियों की छुट्टियों में कहीं घूमने जाने से पहले इन सब विकल्पों पर जरूर गौर फरमाएँ। क्या पता कौन सा विकल्प आपके लिए यादगार अनुभव बन जाए।

शुक्रवार, 21 मई 2010

डॉक्टर और वकील


दावत में गए डॉक्टर साहब किसी वकील से बातचीत कर रहे थे। आते-जाते लोग डॉक्टर साहब को देखकर रुकते और उनसे स्वास्थ्य निदान के बारे में पूछते। परेशान डॉक्टर ने मुफ्त में इलाज चाहने वाले लोगों पर नाराज होते हुए वकील से पूछा- कार्यालय के बाहर सलाह लेने से वे लोगों को कैसे रोकते हैं?
वकील बोले- सलाह दे देता हूँ। हाँ बाद में बिल जरूर भेज देता हूँ।
सोच में डूबे डॉक्टर को यह तरीका कम अच्छा लगा लेकिन उस पर अमल करते हुए उन्होंने लिस्ट बनाई और चपरासी को देने के लिए आवाज दी।
इतने में हाथ में लिफाफा लिए चपरासी अंदर आया और बोला- इसमें वकील साहब ने कल की सलाह के लिए बिल भेजा है।

रमन और किसान

NDगाँव घूमने गए रमन ने इधर-उधर घूमते हुए खेत में काम कर रहे किसान से बात शुरू की।
रमन- कैसी बढ़िया गाय है? लेकिन इसके सींग क्यों नहीं है?
किसान- भाई साहब, कुछ गाय पैदा ही बिना सींग के होती हैं! कुछ गायों के सींग हम लोग काट देते हैं! वैसे इस गाय के सींग न होने की एक ही वजह है और वह यह कि यह गाय नहीं गधी है।

नई चीजों का शौक

रमेश- धन्यवाद! मुझे हमेशा नई चीजों का शौक रहा है, आप क्या लाए हैं?
पड़ोसी- भाई साहब मैं आपके लिए गिफ्ट लाया हूँ।
रमेश- अरे वाह‌। वैसे आप क्या लाए हो?
पड़ोसी- दो पत्थर और एक गज रस्सी! मालूम ही होगा की नदी यहाँ से कुछ ही दूरी पर है।
मामला दहेज का

लड़की का पिता बोला- क्या समय आ गया है, कि.... लड़की भी दो और दहेज भी साथ में दो।
लड़के का पिता बोला- आप सिर्फ दहेज दे दीजिए। लड़की को चाहे तो अपने पास ही रखिए।
जनरल नॉलेज

एक बार जनरल नॉलेज की परीक्षा में अध्यापक ने छात्रों से पूछा- बिंदू और रेखाGet Fabulous Photos of Rekha का अंतर तो बताओ।
छात्र- सर, बिंदू खलनायिका तो रेखा नायिका है। क्या आपको नहीं पता।