शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

अजब-गजब

उत्साही सेल्समैन
एक इलेक्ट्रॉनिक्स शोरूम पर एक ग्राहक टेलीविजन खरीदने पहुँचा। मौजूद उत्साही सेल्समैन ने ग्राहक से बातचीत शुरू की। सेल्समैन ने ग्राहक को एक प्लाज्मा टीवी दिखाई।

टीवी की बहुत-सी खूबियाँ बताने के बाद सेल्समैन ने कहा कि आपको प्लाज्मा टीवी ही खरीदना चाहिए क्योंकि इसकी स्क्रीन बहुत मजबूत होती है और किसी से टकराने पर भी स्क्रीन के टूटने का डर नहीं रहता। यह कहते हुए सेल्समैन ने अपने हाथ से टीवी पर चोट करके उदाहरण देना चाहा। एक... दो और तीसरी बार में जब सेल्समैन ने टीवी की स्क्रीन पर चोट मारी तो स्क्रीन टूट गई।

एक तो नुकसान हुआ, ऊपर से ग्राहक के सामने सारा इंप्रेशन खराब। अब ऐसी स्थिति में क्या किया जाए। बेचारा सेल्समैन। अपनी तरफ से कुछ ज्यादा ही कोशिश कर बैठा। कभी-कभी उत्साह में ऐसे नुकसान उठाने ही पड़ते हैं।

आदमी की परिभाषा


 (अरुण कुमार बंछोर)
ढाई हजार वर्ष से भी अधिक पहले यूनान के एथेंस नगर में प्लेटो नाम के एक महान तर्कशास्त्री हुए। उनकी अपनी एकेडमी थी। जिसमें सैकड़ों विद्यार्थी तर्कशास्त्र की शिक्षा पाते थे। हमारे देश में प्लेटो के लिए अफलातून नाम प्रचलित है। यदि कोई व्यक्ति बहुत तर्क-वितर्क करके बहस करने लगता है तो लोग कहते हैं - 'अरे! तुम तो बड़े अफलातून हो गए हो जी।'
प्लेटो के समकालीन ही यूनान में डायोजनीज नाम के एक प्रसिद्ध संत भी थे। वे स्वभाव से बहुत ही मस्तमौला थे। एक दिन वे घूमते हुए प्लेटो की एकेडमी जा पहुँचे। कक्षा चल रही थी, प्लेटो अपने छात्रों को पढ़ा रहे थे। वे चुपचाप विद्यार्थियों के पीछे जाकर खड़े हो गए।

उसी समय एक विद्यार्थी ने खड़े होकर प्रश्न किया -
'श्रीमान आप आदमी की परिभाषा कैसे करेंगे?'
प्लेटो ने कुछ क्षण सोचा, फिर उत्तर दिया -
'आदमी बिना पंखों का दो पैरों वाला जानवर है।'
आदमी की यह परिभाषा सुनकर डायोजनीज खि‍लखिलाकर हँस पड़े। प्लेटो ने जब उनसे हँसने का कारण पूछा तो वे इतना ही बोले - 'अभी बताता हूँ।'
और तुरंत वहाँ से चले गए।
लेकिन डायोजनीज थोड़ी देर बाद ही लौट आए। अब उनके हाथों में एक मुर्गा था, जिसके पंख नोच लिए गए थे। उसे उन्होंने शिक्षक (प्लेटो) और विद्यार्थियों के बीच में खड़ा कर दिया। गंभीर स्वर से बोले - यही की है न आपने आदमी की परिभाषा। दो पैर का जानवर, बिना पंखों का।'

कक्षा में सन्नाटा छा गया। प्लेटो स्तब्ध से हो गए। कुछ विद्यार्थी धीरे-धीरे मुस्कुरा रहे थे। प्लेटो ने इस परिभाषा के लिए क्षमा माँगते हुए विनम्रतापूर्वक कहा - 'मैं दूसरी परिभाषा बनाऊँगा। मुझे थोड़ा समय चाहिए।'
बहुत अच्‍छा, जब दूसरी परिभाषा बना लो तो मुझे सूचित कर देना।' काफी दिनों तक प्लेटो दूसरी परिभाषा बनाने की कोशिश करते रहे परंतु वे ऐसी कोई परिभाषा नहीं बना सके, जो मनुष्य के सभी बाह्य और आंतरिक स्वरूप की सही-सही व्याख्‍या करती हो।

अंतत: परेशान होकर वे डायोजनीज के पास जा पहुँचे। क्षमा याचना करते हुए बोले - 'मैं आदमी की परिभाषा नहीं बना सका।'
यह सुनते ही डायोजनीज ने प्रसन्न होकर उन्हें गले से लगाते हुए कहा - बस, बस, मैं यही सुनना चाहता था। आदमी की परिभाषा बन भी नहीं सकती। क्योंकि परिभाषा के नियम तो होते हैं स्थिर, कठोर और मनुष्य का जीवन होता है तरल, बहते हुए पानी जैसा - क्षण-क्षण परिवर्तनशील। एक लहर दूसरी में बदलती रहती है।

इसलिए उसकी परिभाषा नहीं की जा सकती। वह अव्याख्‍य है।' कहते हैं, प्लेटो ने फिर दूसरी परिभाषा नहीं बनाई।

अस्मा अब आसमान छूती है!

 (अरुण कुमार बंछोर)

वाकई बड़ी तबीयत की जरूरत पड़ती है अगर सुराख आसमान में करना हो तो। महज उन्नीस साल की अस्मा परवीन से पूछिए कि उसने ये पत्थर कितनी तबीयत से उछाला था, जो यूनाइटेड नेशन पॉपुलेशन फंड (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष) ने अपने कैलेंडर पर उसकी तस्वीर को छापा है।

अब तक घर के भीतर बंद रहने वाली छोटी-सी अस्मा आज सारी दुनिया में अपने नाम का डंका पीट रही है। अब उसे स्कूल जाने के लिए डरने के जरूरत नहीं और न ही घर में बंद रहने की बल्कि अब तो उसे घर में रहने की ताकीद देने वाले उसके पापा और भाई भी उसे स्कूल जाने और कराते सीखने को मना नहीं करते। आखिर अस्मा की जिंदगी में ऐसा कौन-सा चमत्कार हुआ, जो वह रातों-रात अपने कस्बे की ही नहीं पूरी दुनिया की प्रेरणास्रोत और नायिका बन गई? चलिए विस्तार से जानते हैं।

बिहार के उस छोटे-से गाँव के एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार में उन छः भाई-बहनों में अस्मा कुछ अलग थी। उसे स्कूल जाना और पढ़ाई करना अच्छा नहीं, बहुत अच्छा लगता था लेकिन परिवार में इसकी सख्त मनाही थी। ज्यादा से ज्यादा वह मदरसे तक जा सकती थी।

यहाँ तक कि अस्मा और उसकी बड़ी बहन कोघर से बाहर निकलने की भी इजाजत केवल तब थी जब वे मदरसे जा रही हों। उसके बाद फिर वही घर की दीवारों की कैद और केवल घर के कामकामज सीखने की हिदायतें। लेकिन क्या बुलंद हौसले ऐसी छोटी-मोटी बातों से टूटते हैं? हरगिज़ नहीं।

तभी तो अस्मा जल्दी-जल्दी घर का सारा काम निपटाती और फिर चुपचाप बिना किसी को बताए गाँव में ही चलने वाले 'महिला समाख्या' के लड़कियों के लिए चलाए जा रहे शिक्षा केंद्र में पढ़ने जा पहुँचती। फिर भाइयों और पिता के घर वापस आने से पहले ही लौट आती।

उसके अंदर पढ़ने की इतनी ललक थी कि घर के कामों का बोझ बढ़ने के बावजूद वह किसी भी तरह रोज शिक्षा केंद्र पहुँच ही जाती। उसकी इस ललक को शिक्षा केंद्र की एक शिक्षिका ने भाँप लिया। उन्होंने उसे उत्साहित किया और गाँव से लगभग 23 किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर में स्थित केंद्र के लिए उसका चयन कर लिया।
यह चयन मुख्यतः बालिकाओं की क्षमता तथा प्रतिभा के आधार पर किया जाता था। अस्मा जानती थी कि उसके परिजन कभी इस बात के लिए तैयार नहीं होंगे और यही हुआ भी। फिर खुद इस केंद्र की जिला कार्यक्रम समन्वयक ने अस्मा के परिजनों से बात की और उन्हें अपने केंद्र की व्यवस्था देखने के लिए आमंत्रित किया।

व्यवस्थाएँ देखने के बाद तथा यह पुख्ता करने के बाद कि अस्मा वहाँ सुरक्षित रहेगी, घर वालों ने हाँ कर दी। अस्मा के लिए यह पहली सीढ़ी थी। इस केंद्र में आकर अस्मा ने पढ़ाई के अलावा कराते सीखना भी प्रारंभ किया। उसके लिए अब आसमान खुला था।

पढ़ाई के अलावा पेंटिंग, कैंडल मैकिंग आदि सीखने के अलावा कराते ने उसे खास आकर्षित किया और केंद्र से बारहवीं पास करने के बाद भी वह यहाँ कराते सीखती रही। उल्लेखनीय है कि कराते में ब्लैक बेल्ट पाने के लिए आपको 8 स्तरों तक प्रशिक्षण पूरा करना होता है। अस्मा इनमें से 6 स्तर पूरे कर चुकी है और उसके पास ब्राउन बेल्ट है।
अब वह ब्लैक बेल्ट से केवल दो स्तर दूर है। यही नहीं, कराते के प्रति उसका समर्पण देखते हुए महिला समाख्या केंद्र ने उसे एक विद्यालय में लड़कियों को कराते सिखाने के लिए नियुक्त किया है। इससे अस्मा को आर्थिक आधार भी मिल गया। उसे प्रत्येक सेशन के हजार रुपए मिलते हैं तथा वह कुल पाँच सेशन लेती है। इसके अतिरिक्त शासन द्वारा बालिकाओं के लिए संचालित एक अन्य योजना के विद्यालय से भी उसे प्रत्येक सेशन के लिए पारिश्रमिक मिलता है।

अस्मा बहुत खुश है, क्योंकि अब उसे अपने भाइयों या पिता से पैसे नहीं माँगने पड़ते। उलटे वह घर पर कुछ पैसे भेज सकती है। हाल ही में उसने अपनी माँ के बीमार पड़ने पर उनके सारे मेडिकल बिल अदा किए। वह बैंक में पैसे रख बचत भी कर रही है। अस्मा की यह खुशी और भी बढ़ गई, जब वह इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा पटनाClick here to see more news from this city के एक कन्या महाविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में बोलने के लिए चुनी गई। बकौल अस्मा- 'पहली बार मैं इतने लोगों के सामने बोल रही थी लेकिन मुझे जरा भी डर नहीं लग रहा था।'

लड़कियों ने जब मुझसे पूछा कि 'क्या घरवालों के पढ़ाई हेतु मना करने के बाद मैंने उम्मीदें खो दी थीं? तो मैंने कहा कि मैं पढ़ाई करने को लेकर दृढ़संकल्पित थी और इस बात ने मेरा आत्मविश्वास और बढ़ा दिया तथा मैं हर परिस्थिति से लड़ सकी। अगर आपके मन में इच्छाशक्ति हो तो चुनौतियों पर विजय पाना कठिन नहीं है।' शायद यही वह जज्बा था जिसने अस्मा की तस्वीर को उस कैलेंडर तक पहुँचाया।

अस्मा फिलहाल हिस्ट्री (ऑनर्स) के द्वितीय वर्ष की छात्रा है और अपनी रोल मॉडल किरण बेदी की तरह पुलिस सेवा में जाना चाहती है। पढ़ाई छोड़ चुके उसके भाई-बहन भी अब वापस स्कूल जाने लगे हैं और अस्मा को विश्वास है कि उसकी बहन की तस्वीर भी एक दिन इस कैलेंडर में होगी। अस्मा ने आज अपनी राह तो बनाई ही है वह दूसरी लड़कियों को भी आगे बढ़ने का हौसला देती रहती है।


मधुमालती के झूले में
दूर गगन में
जिस दिन सूरज थोडा भी न पिघले
और सड़कों पर बिखरा हो सूनापन
ऐसी किसी जलती दोपहर में तुम आना
सूखे पत्तों को समेटकर हम
आँगन का एक कोना चुनेंगे
नीम की ठंडी छाँव तले बैठ हम
हरियाली का सपना बुनेंगे
तुम आँखे मूँद लेना
मोगरे की महकती कलियों की
होगी एक सुंदर पतवार
मधुमालती के झूले को
हम उस पतवार से चलाएँगे
और दूर गगन में उड़ जाएँगे
उन हिम शिखरों तक, जहाँ से
बहती होगी गंगा-सी धवल धार
फिर तुम आँखे खोलना और देखना
कि तीखी धूप वाली दोपहरी
बदल गई है सिंदूरी शाम में
और चाँदनी के दीये जल उठें हैं
देवदार की कतार में।
दुःख के हिरन चौकड़ी भर कर
अँधेरे में विलीन हो गए है।
एक-दूजे का हाथ थाम हम
किसी पहाड़ी राग में खो गए हैं।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

पूरे आत्मविश्वास से जमे रहना


देखा जाए तो इन छुट्टियों में करने को बहुत से काम हैं। देखना यह है कि आप क्या-क्या कर पाते हैं? पर इन दिनों जो भी करना उसे पूरे आत्मविश्वास के साथ करना। हो सकता है कोई नई चीज सीखने में शुरुआती मुश्किलें आए, पर उनसे घबराना नहीं।

याद है ना कि जो मैदान में डटा रहता है सफलता उसे ही मिलती है। सीखने के लिए यह बात याद रखना कि धीरे-धीरे ही आगे बढ़ा जाता है। मतलब यह कि एक ही दिन में कोई कलाकार नहीं बन जाता बल्कि उसके लिए रोजाना प्रयास करने पड़ते हैं। तो अगर इन छुट्टियों में मन लगाकर, धैर्य के साथ किसी भी मैदान में जमे रहोगे तो रन तो अपने-आप बन जाएँगे। और फिर छुट्टियाँ भी खूब मनोरंजक बीतेंगी।

हमारा विश्वास है कि जब ये छुट्टियाँ खर्च हो जाएँगी, तब आप आपके भीतर कुछ ना कुछ बदलाव जरूर पाओगे। इस बार की सुहानी की कहानी भी यही कहती है। उसे पढ़ना भी और उससे बहुत कुछ समझना भी।

याद रखना, छुट्टियाँ अभी खूब है। छुट्टियों में क्या कुछ किया जाए इसकी याद दिलाने के लिए नन्ही दुनिया के माध्यम से हम आपसे जुड़े रहेंगे। छुट्टियों को रंग-बिरंगा करने की काफी चीजें आपको यहाँ मिल जाएँगी बाकी आपकी ये छुट्टियाँ हमें भी बहुत कुछ मजेदार करने के लिए कहती हैं।

एक चिट्‍ठी माँ के नाम
सोचो एक दिन के लिए अगर मम्मी घर के कामों से छुट्टी ले ले तो क्या होगा? जब इसका जवाब सोचोगे तो पता चलेगा कि आपकी छोटी-सी दुनिया में मम्मी की उपस्थिति कितनी महत्वपूर्ण है। आप सभी कई बार किसी बात पर मम्मी से रुठ जाते हैं। मम्मी आपको मनाती है, पर क्या कभी आपने अपनी मम्मी को बताया कि आप उनसे कितना प्यार करते हो?

हम जिनसे प्रेम करते हैं, उनसे कहने की जरूरत तो नहीं होती है, पर अगर हम उन्हें कहें तो वे सुनकर प्रसन्न ही होंगे। हमें यह बात उन्हें बताना भी चाहिए। आपको मम्मी के नाम एक चिट्ठी लिखकर हमें भेजना है। 'मदर्स डे' पर यह चिट्‍ठी आप अपनी माँ को ले जाकर दें। अपनी लिखी इन चिट्‍ठियों को आप और अन्य यूजर्स ऑनलाइन भी पढ़ सकेंगे।

रेल टिकट

 (अरुण कुमार बंछोर)
राम और श्याम दो मित्र थे। किसी समय दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। मगर दोनों की आर्थिक स्थिति में जमीन-आसमान का फर्क था। राम के पिता एक बड़े व्यापारी थे और उनकी बदौलत राम बिना कुछ किए ही मालामाल हो गया।
कहावत है कि पैसा ही पैसे को खींचता है। राम ने भी जब पिता का व्यवसाय सँभाला तो उसकी संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। वहीं दूसरी ओर श्याम के पिता अत्यंत गरीब थे। स्कूल से मिले वजीफे के सहारे श्याम ने जैसे-तैसे स्कूल की पढ़ाई पूरी की। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए श्याम को आकाश-पाताल एक करना पड़ा। मदद माँगने पर सभी रिश्ते नातेदारों ने उसे अँगूठा दिखा दिया।

अंत में उसने ट्‍यूशन ‍लेने तथा अखबार बाँटने जैसा पार्टटाइम काम किया एवं इस तरह लोहे के चने चबाते हुए कॉलेज की फीस की व्यवस्था की एवं पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त कर अपनी धाक जमा दी।

राम भी पास होकर स्नातक हो गया और उसके घर में घी के दिये जलाए गए। मगर श्याम के घर ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर तेल भी नहीं था। अत: उसने तेते पाँव पसारिये, जेती लांबी सौर वाली लोकोक्ति पर अमल करते हुए फिल्मी गीत पर डांस ही कर लिया। स्नातक होने के बाद श्याम ने नौकरी पाने के लिए दस जगह की खाक छानी। मगर कहीं भी उसकी दाल नहीं गली। अंतत: उसने बैंक से लोन लेकर एक पावरलूम मशीन डाल ली।

शुरू में इतनी कठिनाइयाँ आई मानो सिर मुँडाते ही ओले पड़ गए हों। मगर धीरे-धीरे उसका काम चल निकला जो लोग गरीबी के कारण उसकी नाक में दम किए रहते थे, उसे नीचा दिखाते रहते थे। उन्होंने भी उसकी काबिलियत का लोहा मान लिया।

राम का एक बेटा अमित था जो उसकी आँखों का तारा था। श्याम का भी एक बेटा सुमित था जो कि उसके कलेजे का टुकड़ा था। संयोग से दोनों मित्रों के ये पुत्र एक ही स्कूल में पढ़ते थे। उनकी मित्रता देखकर लोग दंग रह जाते थे कि कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। मगर मित्रता अमीरी-गरीबी नहीं देखती।

एक दिन अमित के मामा का फोन आया। उन्होंने उसे घूमने के लिए शहर बुलाया था। अमित ने सुमित को भी अपने साथ चलने के लिए तैयार कर लिया। नियत दिन अमित के पिता राम अमित व सुमित को रेलवे स्टेशन छोड़ने आए। जिसके पास बिना मेहनत का ज्यादा पैसा होता है उसकी धन कमाने और बचाने की लालसा बढ़ती ही जाती है। अमित के पिता ने भी दोनों मित्रों को बिना टिकट रेल में बैठाकर समझाया कि किस तरह शहर पहुँचकर उन्हें स्टेशन के एक छोर ‍पर स्थित टूटी हुई ग्रिल के रास्ते से बाहर निकलना है कि कट चेकर से बचा जा सके। अमित के पिता के जाते ही उसने अमित को खूब खरी-खोटी सुनाई।

उसे उसके पिता के दिए संस्कारों ने बिना टिकट यात्रा करने की अनुमति नहीं दी। दोनों मित्रों ने अगला कदम तय किया और भागकर टिकट खिड़की पहुँच गए। वहाँ यात्रियों की इतनी लंबी कतार लगी थी मानो कि एक अनार सौ बीमार जैसे-तैसे टिकट लेकर वे रेल में सवार हुए। थोड़ी ही देर बाद एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि बेटा मिठाई खाओगे। मिठाई देखकर सुमित के मुँह में पानी आ गया। उसने हाथ आगे बढ़ाया था कि अमित ने उसका हाथ खींच लिया। फिर धीरे से कानाफूसी करते हुए समझाया कि यात्रा में किसी भी अजनबी से लेकर कोई चीज खाना-पीना नहीं चाहिए।
ऐसे लोग बदमाश हो सकते हैं जो अपना जाल बिछाकर सहय‍ात्रियों को बेहोश करके लूट लेते हैं। ऐसे लोगों के मुँह में राम तथा बगल में छुरी होती है।
शहर पहुँचने के बाद दोनों मित्र स्टेशन के बाहर सिर उठाकर पूरी निडरता के साथ आए क्योंकि जेब में टिकट जो रखा था। बाद में इस घटना का पता चलने पर अमित के पिता शर्म से पानी-पानी हो गए। वहीं सुमित के पिता को उस पर बहुत गर्व हुआ। किसी ने ठीक ही कहा है कि साँच को आँच नहीं। अर्थात सच्चे मनुष्य को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।
विशेष : दोस्तो, क्या आप बता सकते हैं कि इस कहानी में कितने मुहावरों का प्रयोग हुआ है, चलिए गिनती शुरू ‍कीजिए, फिलहाल हम आपको बताते हैं कि इस कहानी में 28 मुहावरे छुपे हुए हैं।

टाटा परिवार की अमूल्य कलाकृतियाँ


कारोबार के साथ ही टाटा परिवार को शुरुआत से ही कला के प्रति लगाव रहा। यही वजह थी कि वह जहाँ भी जाते अमूल्य कलाकृतियाँ लेकर आते थे। टाटा परिवार ने अपनी अमूल्य कलाकृतियाँ मुंबई के छत्रपति शिवाजी म्यूजियम को दे दी थी। उन्हीं कलाकृतियों के साथ कुछ नई कलाकृतियों को मिलाकर इस्ट मीट्‍स वेस्ट नाम से प्रदर्शनी शुरू की गई है। यह प्रदर्शनी 6 जून तक चलेगी।

मुंबई में आने वाले सैलानियों के लिए शुरू से ही म्यूजियम एक आकर्षण रहा है। मुंबई के छत्रप‍‍ति शिवाजी म्यूजियम (पहला नाम प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम) में प्रतिदिन सैलानियों और मुंबई वासियों की भीड़ रहती है।
म्यूजियम के वरिष्ठ संग्रहलयाध्यक्ष दिलीप रानाडे ने बताया, 'ईस्ट मीट्‍स वेस्ट' की शुरुआत हमने टाटा परिवार की कलाकृतियों पर आधारित सूचीपत्र के आधार पर की है। सूचीपत्र में कई ऐसी कलाकृतियाँ थीं जो अब तक लोगों के सामने नहीं आई हैं। सूचीपत्र की वजह से ही हमने 'ईस्ट मीट्‍स वेस्ट' गैलरी की योजना बनाई। म्यूजियम की पहली मंजिल पर अंतरराष्ट्रीय दर्जे की प्रेमचंद रायचंद गैलरी है। इसी गैलरी में हमने टाटा परिवार द्वारा दी गई चीजों में से 151 चीजें चुनकर उनकी प्रदर्शनी लगाई है। रतन टाटा और दोरबजी टाटा द्वारा म्यूजियम को दी गई चीजें हमने यहाँ पर रखी हैं।
रतन टाटा की 1918 में मृत्यु हुई लेकिन उसके पहले ही उन्होंने अपने मृत्युपत्र में लिखा था कि उनकी सभी कलाकृतियाँ म्यूजियम को दी जाएँ।
रतन टाटा की तरह दोराबजी टाटा ने भी 1933 में अपनी अमूल्य 1407 चीजें म्यूजियम को भेंट के रूप में दी थीं। टाटा परिवार के पास हर कला की कलाकृतियाँ इकट्‍ठा करने का बेहद शौक था। वर्ष 1912-13 में लंदन में आयोजित एक नीलामी में रतन टाटा ने कई यूरोपियन पेंटिंग खरीदी थीं। यह सभी पेंटिंग म्यूजियम में हैं। इन पेंटिंग से ही म्यूजियम का एक हॉल सजा है। यह सभी पेंटिंग बेशकीमती हैं और इससे यूरोपियन पेंटिंग शैली की जानकारी प्राप्त होती है। इस संग्रह में लंदन, इटालियन, डॉइश और फ्रेंच चित्रकारों की कृतियाँ शामिल हैं।
रतन टाटा ने 1906 में टिवेंकेनहैम में एक पैलेस खरीदकर उसमें अपनी सभी कलाकृतियाँ रखी थीं। उन्होंने इसे म्यूजियम का रूप दिया था। इसी पैलेस में इंग्लैंड की रानी ऑना का जन्म हुआ था। म्यूजियम की दूसरी मंजिल पर लगभग सभी चीजें टाटा परिवार द्वारा दी गई हैं। टाटा के पास चायनीज और जापानी बर्तनों का अभूतपूर्व संग्रहथा। उस पर की गई कारीगरी अचंभित करने वाली है। रतन टाटा की मृत्यु के बाद उनके नाम पर एक ट्रस्ट बनाया गया और रतन टाटा की पत्नी नवाजवाई ने रतन टाटा की यह अमूल्य कलाकृतियाँ म्यूजियम को भेंट तो की ही साथ ही पंद्रह हजार रुपए भी म्यू‍जियम को दिए ताकि इन्हें अच्छी तरह सँभाल कर रखा जाए।
'इस्ट मीट्‍स वेस्ट' प्रदर्शनी में प्रवेश करते ही सबसे पहले टाटा समूह के कारोबार, कला के प्रति उनका लगाव जैसी बातें दिखाई गई हैं। फिल्म देखने के बाद टाटा समूह के प्रति सम्मान जगता है और उनका संग्रह देखने के बाद और बढ़ जाता है।
इस प्रदर्शनी में टाटा परिवार की जो 151 चीजें रखी हैं उनमें चाँदी और हाथी दाँत से बनी कलाकृतियाँ भी हैं। चाँदी से बनी कलाकृतियों में गुजरात के एक मंदिर की छत और मंदिर की प्रतिकृति भी यहाँ रखी हैं। दिल्लीClick here to see more news from this city में 1903 में हुए एक प्रदर्शनी के लिए चंदन की लकड़ी का एक भव्य बक्सा बनाया गया था। बक्से पर की गई कारीगरी को देखने के बाद उस कलाकार की मेहनत को दाद दिए बगैर आगे नहीं बढ़ सकते। खूबसूरत नक्काशी से सजे इस बक्से को प्रदर्शनी में स्वर्ण पदक दिया गया था।

यह बक्सा भी यहाँ रखा गया है। इसके साथ ही यहाँ पश्मिना शॉल, कच्छ, पंजाब के डिजाइनर कपड़े देखने को मिलेंगे। कारीगरों द्वारा इन कपड़ों पर की गई नक्काशी कमाल की है। ब्रह्मदेश, हिमाचल की कलाकृतियाँ भी यहाँ पर हैं। हिमालयन कला को संजोने का काम टाटा ने ही सबसे पहले किया था। हाथी दाँत से बनाई बैलगाड़ी कमाल की है।

इन सबके अलावा इस प्रदर्शनी की खासियत हैं मुगल सम्राट अकबल द्वारा खुद के लिए बनवाया गया कवच और हेलमेट तथा शाहजहाँ और औरंगजेब की तलवारें। इनके बारे में दिलीप रानाडे ने बताया, इन राजाओं के बारे में हमने सिर्फ किताबों में ही पढ़ा है। जब पता चलता है कि यह सम्राट अकबर का कवच है तो दर्शकों को ताज्जुब होता है। इसी तरह जब वह औरंगजेब और शाहजहाँ द्वारा इस्तेमाल की गई तलवारें देखते हैं तो चकित हो जाते हैं। इसके साथ ही यहाँ तोतमुठी (दस्ते पर तोते का मुँह बनाई) तलवार है जो अपने आप में कला का एक अलग नमूना है।

इस तलवार का दस्ता स्फटिक से बनाया गया है। दस्ते पर तोते का मुँह बनाया गया है और उसकी आँख में माणिक लगाए गए हैं और मुँह पर मीनाकारी की गई है। रतन टाटा और दोराबजी टाटा के पिता जमशेद टाटा के बचपन में पहना गया एक ड्रेस भी यहाँ रखा गया है। इस प्रदर्शनी के माध्यम से पहली बार यह ड्रेस लोगों के सामने लाई गई है।

प्यार किया नहीं जाता...


प्यार क्या होता है, इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मालूम था। स्कूल में सहेलियों की स्लैम बुक भरते समय अक्सर यह कॉलम खाली छोड़ दिया करती थी कि प्यार क्या होता है? काश, किसी किताब में प्यार की परिभाषा दी होती, तो मैं उसे रटकर याद कर लेती। फिर बड़ी आसानी से बताती कि प्यार क्या होता है। वैसे जब छोटी थी तो लगता था कि सोलह साल की उम्र में प्यार होता है। मैं भी सोलह साल की हुई पर मुझे तो नहीं हुआ।
जब सोलह साल की हुई तो बर्थ-डे विश करते समय कुछ लोगों ने कहा कि अहा, अब तो स्वीट सिक्‍स्‍टीन में आ गई हो। मुझे भी लगा कि स्‍वीट सिक्‍स्‍टीन यानी अब हमेशा से कुछ अलग होगा। ये क्‍या, अब भी कुछ अलग नहीं हुआ। सबकुछ वैसा ही चलता रहा जैसा था।

मस्ती तो हम क्लास में पहले भी करते थे। सोलह साल के होने के बाद भी करते रहे। बारहवीं की पढ़ाई करते-करते सोलहवाँ साल आधा बीत गया। सोलहवें साल में मैं स्कूल पास कर कॉलेज पहुँच गई। फिल्मों में देखा था कि कॉलेज में जाकर लड़कियों को प्यार हो जाता है। मुझे तो नहीं हुआ।

वैसे हमारी क्लास में प्‍यार करने वाले बहुत थे। सब उन्हें लव-बर्ड्स कहकर चिढ़ाया करते थे। यह सब देखने के बाद मैंने फैसला किया कि मैं कभी प्यार नहीं करूँगी और किया भी नहीं। सच कहूँ तो हुआ ही नहीं। फिर कभी प्यार के बारे में सोचा भी नहीं। कॉलेज खत्म होने तक स्लैम बुक के लव कॉलम भरने के लिए मेरे पास शानदार शब्द थे। लव मतलब बकवास, प्‍यार का मतलब होता है, टाइम वेस्‍ट।

समय बीतता गया और लव की फैन्टेसी दूर जाती रही। एक दिन ऑफिस में सीनियर ने विषय दे दिया कि प्‍यार पर लेख लिखो। जिसके लिए प्‍यार शब्द बकवास था, वो भला क्या लिखती? पर फिर भी काम टाला नहीं जा सकता था, इसलिए प्र के बारे में सोचना शुरू किया।

याद आया कि एक कपल के इंटरव्यू के दौरान देखा था कि साठ वर्ष की उम्र वाले सज्‍जन कैंसर से लड़कर ठीक होने वाली अपनी पचपन साल की पत्नी को जीने का रास्ता दिखा रहे थे। वे अपनी पत्नी से बार-बार यही कहते कि तुम ठीक हो जाओ, फिर मुझे अपना एक वादा पूरा करना है। कौन-सा वादा बाकी है आपका? उनकी पत्‍नी ने पूछा, अरे भई तुम्हें योरप घुमाना है।
अब मुझे नहीं घूमना।
क्यों नहीं घूमना? मुझे पता है तुम्हें घूमना है, लेकिन तुम इस बीमारी से डर रही हो। इस बीमारी में इतनी ताकत नहीं है कि तुम्हें घूमने न दे।

जो लाड़ उस व्यक्ति की बातों में था, शायद उसे ही प्यार कहते हैं। याद आया, ऐसा प्यार तो मैंने सब्जी मंडी में भी देखा था।
सब्जी मंडी में एक डॉक्टर साहब अक्‍सर मिल जाते हैं। वो शहर के नामी डॉक्टर हैं। घर पर नौकर-चाकर जरूर होंगे। फिर हर दो-चार दिनों में जब मैं सब्जी खरीदने जाती हूँ, वो अपनी बीवी के साथ सब्जियाँ खरीदते हुए मिल जाते हैं। सब्जी का भरा हुआ झोला उनके कंधों पर टँगा रहता है। उनकी पत्‍नी केवल सब्जियाँ खरीदने में ही मगन रहती हैं। हमेशा से उन दोनों को यूँ साथ-साथ देखने की मेरी आदत हो गई थी। एक बार काम के सिलसिले में उनके क्लिनिक में मुलाकात हुई और जान-पहचान बढ़ गई।

इस परिचय के कुछ समय बाद एक दिन डॉक्टर साहब मंडी में अकेले ही सब्जियाँ खरीदते हुए नजर आए। उनका अभिवादन करते हुए मैंने सहज ही पूछ लिया कि आज आप अकेले कैसे? उन्होंने बताया कि उनकी पत्‍नी की तबीयत ठीक नहीं है।

वे बोले, सब्जियाँ छाँटने में मेरी मदद करो, मुझे सब्जी खरीदना नहीं आता है।

मैंने कहा, रोज सब्जी खरीदने के बाद भी आप कह रहे हैं कि आपको सब्जी खरीदना नहीं आता। 'मैं कहाँ खरीदता हूँ, वो खरीदती है।' '
पर, साथ तो आप भी रहते हैं न!
अपनी पत्नी की खुशी के लिए मैं कंधे पर झोला लटकाए आ जाता हूँ।
आपको झोला लटकाए देख वो खुश हो जाती है?
नहीं, मुझे झोला लटकाए देख वो खुश नहीं होती है। उसे सब्जियाँ खरीदने का शौक है। वो सब्जी खरीदकर खुश होती है, उसे खुश देखने के लिए मैं झोला टाँग लेता हूँ।
दरअसल, विनीता को पैरों में तकलीफ है। उसे अकेले सब्जी मंडी तक भेजने में मुझे डर लगता है। उसका एक ही शौक है। अब इस उम्र में वो कोई नया शौक तो पालने से रही। उसकी खुशी के लिए मैंने ही अपना टाइम मैनेज कर रखा है।
आपको अपनी पत्‍नी की इतनी फिक्र है। क्या आपकी लव मैरिज हुई थी?
अरे नहीं, हमारे समय में लव मैरिज नहीं होती थी।
फिर भी आप दोनों के बीच इतनी अच्छी अंडरस्‍टैंडिंग कैसे है?
किसने कहा, अच्छी अंडरस्‍टैंडिंग है। अक्सर वो मुझसे कहती है कि तुमने मेरे लिए क्या किया है? मैं धीरे से मुस्कुरा देता हूँ। उसे क्या पता, मैंने उसके लिए क्या किया है?
अब प्यार शब्द के मायने मुझे समझ आ रहे थे। जो समझ पाई, वो इतना ही कि प्यार को लिखा नहीं जा सकता, समझाया नहीं जा सकता, प्यार किया नहीं जा सकता, वह तो बस होता है या हो जाता है।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

हँसगुल्ले

मरा डॉक्टर अधमरा मरीज
दक्षिणी अफ्रीकी टेस्ट खिलाड़ी हाशिम आमला जैसी घनी-घनघोर दाढ़ी और सपाट चंदिया वाले मेरे दोस्त मिर्जा विवादास्पद बीटी बैंगन की तरह लुढ़कते चले आ रहे थे। रिटायर्ड थे पर तोंद यों फूली थी जैसे पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा द्वारा समेटा गया काफी माल अंदर पैक हो। आत्मा तक गहरी एक ठंडी साँस खींची और बोले - 'क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?' मैंने धीरे से चुटकी ली- 'तुम्हारे जाने के लिए अब एक ही जगह बची है। तुम तैयारी करो, दो गज जमीन का इंतजाम मैं कराए देता हूँ!'

मिर्जा ने गुस्से में तोंद को कई बाउंस दिए और बोले - 'सीरियस बातों में छुछलइयाँ मत खेला करो! मैं बीमार हूँ! पिछले दो महीनों से यूँ लगता है जैसे मेरे कान में कोई हारमोनियम बजा रहा हो।' मैंने दिलासा देते हुए कहा - 'मेरे साथ चलो। ईएनटी डॉक्टर को दिखाते हैं। खुदा ने चाहा तो हारमोनियम बजना बंद हो जाएगा... या फिर साथ में तबला भी बजने लगेगा। मिर्जा ने कान में उँगली घुमाई और बोले - 'मियाँ, दाल उबलेगी तो अपने ही चूल्हे में गिरेगी...। मेरा डॉक्टरों पर यकीन वैसे ही उठ गया है जैसे अमरसिंह का मुलायम सिंह पर से। खुदा न करे वह कहीं मुर्दा डॉक्टर न हो!'

मैं चौंका! मुर्दा डॉक्टर? शायद मिर्जा के दिमाग की बालकमानी पलट गई है! पागलखाने फोन करना होगा! मिर्जा मेरी खामोशी भाँप गया! बोला - 'लाला भाई, तुम मुझे पागल समझ रहे हो? अखबार में धोनी और सलोनी के क्रिकेट स्कोर के अलावा कभी न्यूजें भी पढ़ लिया करो! बेगम मेरेकान का हारमोनियम बंद कराने डॉक्टर के यहाँ ले जा रही थीं। मगर न्यूज पढ़ते ही मैंने इरादा मुलतवी किया।

न्यूज में साफ छपा है कि भारत में 7.63 लाख डॉक्टर हैं (झोला छाप डॉक्टरों को छोड़कर) यानी पाँच हजार लोगों पर एक डॉक्टर। इस गिनती में वे डॉक्टर भी शामिल हैं जो या तो मर चुके हैं या विदेश चले गए या उम्र के कारण डॉक्टरी करने लायक नहीं रहे। अब मान लो कि खुदानखास्ता मेरे हिस्से में वह डॉक्टर आ गया जो मर चुका है। मेरे कानों में हारमोनियम की जगह कब्र की सायं-सायं बजने लगेगी।

बाज आए ऐसी मोहब्बत से, हटाओ पानदान अपना! नमाज बख्शवाने जाऊँ और रोजा गले पड़ जाएँ। तुम खामख्वाह पानी पर कील ठोंकने की कोशिश न करो। मैं यूँ ही ठीक हूँ। बजने दो कान में हारमोनियम या तानपूरा। मुझे डॉक्टर को दिखाना ही है तो पहले खुद जाकर ठोंक-बजाकर यकीन कर लो कि वह जिंदा डॉक्टर है या मरे हुए डॉक्टरों में से एक है। फिलहाल मैं कान में सुदर्शन की पत्ती का अर्क गर्म करके टपकाता हूँ। शायद हारमोनियम का बजना बंद हो जाए। तुम्हें भी बुढ़ापे में खाँसी-खुर्रा लगा रहता है।

डॉक्टर के वहाँ जाओ तो पूछताछ कर कन्फर्म कर लेना कि कहीं वह स्वर्गीय डॉक्टरों में से एक तो नहीं है। चलता हूँ। हारमोनियम अब भी बज रहा है। आवाज बाहर आती होती तो तुम्हें भी सुनवाता। खुदा हाफिज।

काम न करने के उपाय
काम न करना भी एक बहुत बड़ा काम है। काम न करके आप चैन से नहीं बैठ सकते। सच तो यह है कि काम न करने वाला बड़ा ही बेचैन रहता है। पेश हैं कुछ ऐसे ठोस उपाय जिन्हें अपनाकर आप काम न करते हुए चैन की बंसी बजा सकते हैं। सर्वप्रथम काम न करने का दर्शन समझिए। एक बार दार्शनिक स्तर पर मानसिक मजबूती आ गई तो काम न करते हुए झिझक नहीं होगी।

कहते हैं, "लेस वर्क लेस मिस्टेक, मोर वर्क मोर मिस्टेक, नो वर्क नो मिस्टेक" अर्थात जितना अधिक काम करेंगे गलतियाँ उतनी अधिक होंगी। ऐसे में कम काम करेंगे तो कम गलती होगी और काम नहीं करेंगे तो गलती होगी ही नहीं। अतः काम न करना ही श्रेयस्कर है।

काम न करने के संदर्भ में एक और थ्योरी मुझे मिली। यह चौपाई रूप में है - "रघुपति राघव राजा राम, जितना पैसा उतना काम।"

हम सभी जानते हैं काम के मुकाबले वेतन कम ही मिलता है सो कम काम करके वेतन के प्रति पनप रहे आत्मिक असंतोष से छुटकारा पाया जा सकता है। मुझे विश्वास है अब तक आप काम न करने के प्रति मानसिक रूप से मजबूत हो चुके होंगे। इसके बाद का कदम काम न करने के लिए व्यावहारिक उपाय अपनाना है।

काम न करने के लिए पहला व्यावहारिक उपाय यह है कि काम समझते हुए भी उसे न समझ पाने का अभिनय करना। वह भी उस सीमा तक कि काम बताने वाला यह सोचने लगे कि इस शख्स से काम कराने से बेहतर है खुद काम कर लेना है।

काम न करने का दूसरा सफल उपाय दिए हुए काम की जलेबी बनाना है अर्थात काम करने के बजाय इतना उलझा देना है कि काम बताने वाला अपनी ही बात का ओर-छोर न ढूँढ़ पाए।

ऐसे ही काम न करने का तीसरा उपाय है - "ना करनी नहीं और फली तोड़नी नहीं।" इस उपाय में काम करने के लिए मना नहीं किया जाता और काम भी नहीं किया जाता। बस हर समय काम में लगे रहने का नाटक किया जाता है।

अंत में काम देने वाले को यह भ्रम पैदा हो जाता है कि बेचारा काम करने वाला बड़े परिश्रम और लगन से काम में लगा तो है पर यह काम इसकी क्षमता से बाहर है। ऐसे में वह या तो स्वयं साथ लग कर काम पूरा करवा देता है या फिर उसे कोई सहयोगी दे देता है जो मिल-जुलकर काम निपटवा देता है। इस उपाय में काम कोई और करता है और नाम उसका होता है। सच पूछिए तो काम न करने का यह एक बड़ा ही लाभकारी उपाय है।

कुछ लोग काम न करने के लिए बीमारी का बहाना बनाते हैं लेकिन काम से बचने का यह एक बेहद लचर और घटिया उपाय है। यह अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहता और कई बार इसमें लेने के देने पड़ जाते हैं। काम न करने का "नौ मन तेल और राधा" उपाय भी एक श्रेष्ठ उपाय है। इसमें काम करने से पहले ऐसी-ऐसी शर्तें रखना है कि काम बताने वाला पानी माँग जाए।

इस उपाय को अपनाने के लिए आपको बाल की खाल निकालनी आनी चाहिए। ऐसे में नियमों की उलटी-सीधी व्याख्या करने में पारंगत होना बड़ा काम आता है। वैसे कहते हैं जो इस कला में निपुण हो जाते हैं उनसे काम खुद घबराता है।

ऐसे लोगों से काम को डर लगा रहता है कि उनके हाथ में पहुँचते ही अर्थ का अर्थ होकर रहेगा। यहाँ तक कि वह काम देने वाले से कहता है कि हे प्रभु मुझे ऐसे आदमी से बचाओ। ऐसे लोग हैंडपंप को कुआँ और चौपहिया वाहन को बैलगाड़ी बना देते हैं। ये कलियुग के अनुकरणीय चरित्र हैं इन पर कामचोर होने का ठप्पा भी नहीं लगता और इनसे काम दूर भी रहता है। मुझे विश्वास है अब तक आप अपने देश में काम की गति कम होने का कारण समझ गए होंगे।

बच्चे सीख रहे हैं सेविंग


शेष नारायण बंछोर
पैसा कमाना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है उसे सही तरीके से खर्च करना। उसमें बचत करना तो और भी मुश्किल माना जाता है। तो बच्चों को कैसे बताएँ कि बचत क्या होती है। यदि छोटी छोटी बातों से बचत की आदत बचपन में डालें तो वे बड़े होने तक अच्छे सेवर बन जाएँगे।
पिगी बैंक से शुरुआत
पिगी बैंक के द्वारा बच्चों को सेविंग के बारे में बताया जा सकता है। रोज बच्चों को कुछ रुपए देकर उन्हें पिगी बैंक में डालने के लिए कहें। जब एक महीना पूरा हो जाए तब बच्चे के साथ बैठकर गिनें और यदि राउंड फिगर न बन रहा हो तो उसमें कुछ रुपए मिला कर उस रकम को पूरी कर दें। इससे बच्चे का उत्साह बढ़ेगा
खेल के जरिए सीख
आजकल मार्केट में मोनोपॉली, लाइफ गेम, बिजनेस जैसे कई गेम्स आ गए हैं, जो बच्चों को सेविंग, इंश्योरेंस पालिसी के फायदे बताते हैं। गेम ऑफ लाइफ में दो से ज्यादा बच्चे होने पर सैलेरी कम हो जाती है। इस तरह के गेम्स से बच्चों को लाइफ के अप्स एंड डाउन की भी जानकारी मिलती है।
सेविंग की आदत डाल रखी है
प्रिया जैन कहती हैं कि अपने दोनों बच्चों आशी और युग को अभी से सेविंग की आदत डाल रखी है। घर वाले या मेहमान इन्हें रुपए देते हैं तो ये अपने पिगी बैंक में डाल देते हैं। फिर इनसे अपनी पसंद की चीज ले लेते हैं। मेरा मानना है कि इन्हें इसकी आदत अभी से लग जाए तो बचत के फायदे समझ में आने लगेंगे।
माता-पिता की सीख बच्चों को
रितु जोशी कहती हैं कि माता-पिता ने सेविंग की जो आदत डाली थी, वही मैंने अपने दोनों बच्चों में डाल रखी है। इन्हें जो पॉकेट मनी मिलती है वह उसमें अपना पेट्रोल और अन्य खर्चों का बजट बनाते हैं। बचे हुए रुपए जमा करते रहते हैं। इस दौरान यदि उन्हें किसी भी चीज की आवश्यकता होती है तो वे सेविंग किए रुपए से अपनी जरूरत पूरी कर लेते हैं।
मम्मी ने सिखाया सेविंग करना
अनीशा जोशी ने बताया कि मम्मी और पापा जो पॉकेट मनी देते हैं, उसमें से कुछ रुपए बचाकर पिगी बैंक में डालते हैं। यह हमें मम्मी ने सिखाया है। इसी से हम पैसों का महत्व भी जान पाए।
गाड़ी लेने के लिए बचत
खुशी खण्डेलवाल कहती हैं कि पहले मुझे जितने भी पैसे मिलते थे सब खर्च कर डालती थी। तब एक बार मम्मी ने बहुत डाँटा कि तुम पैसे इतनी जल्दी खर्च क्यों कर देती हो। तब से मैंने सोच लिया था कि अतिरिक्त खर्चे कम कर दूँगी। मुझे गाड़ी लेना है इसके लिए मैं सेविंग कर रही हँ।
जल्दी आ जाएगी बाइक
दिपेश सोमानी ने बताया कि मुझे बड़ा होकर अच्छी मोटर बाइक लेना है इसलिए मैं अभी से सेविंग कर रहा हँ। मम्मी-पापा ने कहा था कि सेविंग करोगे तो तुम्हारी बाइक जल्दी आ जाएगी।

गुल्लू और एक सतरंगी


ओमप्रकाश बंछोर
गुल्लू कर्णपुर गाँव के किसान विजयपाल का बेटा है। उसका असली नाम गुलशन है, पर सब उसे प्यार से 'गुल्लू' ही कहते हैं। उसकी उम्र है लगभग बारह साल। उसकी एक छोटी बहन है - राधा। उसकी उम्र आठ साल है। परंतु वह स्कूल नहीं जाती। कारण, उनके गाँव में कोई स्कूल नहीं है। उनकी माँ को मरे आठ साल हो गए। राधा को जन्म देने के बाद माँ चल बसी थी।

गुल्लू की माँ की मृत्यु के बाद उनके पिता ने पास के गाँव की सविता नामक एक महिला से पुन: विवाह कर लिया। सौतेली माँ घर आई तो गुल्लू खुश था। उसे भरोसा था कि उसे और उसकी छोटी बहन को माँ का प्यार मिल जाएगा।

पर सौतेली माँ बहुत कठोर स्वभाव की थी। शुरू में कुछ दिन तो ठीक रहा, पर बाद में उसने बच्चों को पीटना शुरू कर दिया। बात-बात में भला-बुरा कहती। यद्यपि किसान के सामने वह लाड़-प्यार का नाटक करती, पर उसके खेत में जाते ही वह बच्चों को डाँटना शुरू कर देती।

गुल्लू जब सौतेली माँ की कलह से परेशान हो जाता तो सोचता, पिताजी ने दूसरा विवाह क्यों किया? हम अकेले ही भले थे।' फिर स्वयं ही तर्क करता, 'पिताजी घर सँभालें या खेतों में काम करें! खेतों में काम नहीं करेंगे तो परिवार भूखों मर जाएगा। फिर राधा को कौन सँभालता?'

शाम को किसान खेतों से लौटता तो सबसे पहले बच्चों के पास आता। उनसे दिनभर की बातें पूछता। बच्चों को उदास देख कई बार किसान का मन भर आता। लेकिन वह कुछ कर नहीं सकता था। एक-दो बार उसने सविता को प्यार से समझाया। कहा, 'बच्चे भगवान का रूप होते हैं। इन बेचारों की माँ नहीं है। तुम इन्हें माँ का प्यार दो।'

उन दिनों राधा तो इतनी छोटी थी कि उसने अपनी असली माँ की शक्ल भी ज्ञात नहीं। वह तो सौतेली माँ को ही असली माँ समझती थी। जैसे-जैसे वह थोड़ी बड़ी हुई, उसे इस बात पर हैरानी होती कि अन्य बच्चों की तरह उसकी माँ उसे गोद में लेकर लाड़-प्यार क्यों नहीं करती?

उधर गुल्लू की आँखों से माँ की तस्वीर हटती ही नहीं थी। यद्यपि चार साल की आयु बड़ी नहीं होती। माँ की मृत्यु के समय वह इतना ही बड़ा था। पर माँ तो माँ होती है, उसका चित्र भला कोई कैसे भुला सकता है?

दिन बीतते गए, पर सविता के स्वभाव में परिवर्तन नहीं आया। किसान के प्यार या डाँट-फटकार का उस पर कोई असर नहीं हुआ। वह अपने लिए बढ़िया पकवान बना लेती, पर किसान और उसके बच्चों को रुखा-सूखा खाने को देती थी।

राधा रोती तो गुल्लू को बहुत दुख होता, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता था। अपनी बहन को गोद में लेने की कोशिश करता, पर उसके बाजू इतने बड़े नहीं थे कि वह राधा का भार उठा पाते।

थोड़ा बड़ा हुआ तो गुल्लू किसान के साथ खेतों में जाने लगा। किसान गुल्लू को पढ़ाना चाहता था। वह नहीं चाहता था कि गुलशन भी उसी की तरह गरीबी में दिन गुजारे। उसकी इच्छा थी, गुल्लू पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने।

गाँव में तो स्कूल था नहीं। किसान ने उसे पास के कस्बे के स्कूल में भर्ती करा दिया। गाँव के और बच्चे भी इसी स्कूल में जाते थे। गुल्लू सुबह जल्दी उठकर उनके साथ पैदा स्कूल जाता।

उनके खेत रास्ते में थे। स्कूल से छुट्‍टी होने के बाद वापसी में वह खेतों में पिताजी के पास चला जाता। वहीं होमवर्क निबटा लेता और कुछ देर पिता के काम में हाथ भी बँटा देता।

एक दिन स्कूल की छुट्‍टी देर से हुई। उस दिन गुल्लू स्कूल से सीधा घर चला गया। घर पहुँचा तो राधा को रोते पाया। पूछा, 'क्यों रो रही हो?'
राधा बोली, 'मौसी ने मारा।'
'क्यों?' गुल्लू ने पूछा।

राधा ने कहा, 'मौसी ने पानी माँगा था। मैं देने लगी तो हाथ से गिलास छूट गया और पानी फर्श पर बिखर गया। इस पर मौसी बहुत नाराज हुई और मुझे मारा।'

'पर तुम छोटी भी तो हो। तुम्हारे हाथ इतने बड़े कहाँ कि हर चीज को अच्छी तरह सँभाल सकें?'

राधा रोए जा रही थी। गुल्लू उदास हो गया। उसे अपनी माँ की बहुत याद आई। बहन के साथ-साथ उसकी आँखें नम हो गई थीं।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

इमली का भूत


अबे जा बे। तूने भूत देखा और भूत ने तुझे छोड़ दिया। चंद्रशेखर उर्फ चंदू ने गुल्लू से कहा। हमीद ने भी चंदू की तरफदारी की। हाँ सही तो है। इमली वाले भूत को देखने के बाद तो अच्छे अच्छों की हवा निकल जाती है। हमीद बोला महीने भर पहले अम्मी ने अब्बा को घनश्याम का किस्सा बताया था। गुल्लू ने बीच में टोका- कौन घनश्याम? अरे वही जिसकी पान की दुकान है। वह रात को कहीं से आ रहा था। वह भी भूत-वूत में विश्वास नहीं करता था। और जब वह इमली के पास से गुजर रहा था तो किसी ने उससे माचिस माँगी। घनश्याम ने जेब से माचिस निकालकर देनी चाही तो माचिस माँगने वाला आदमी बहुत ही लंबा था इतना लंबा कि इमली के पेड़ से भी लंबा।

हाँ और उसी दिन से घनश्याम बीमार पड़ा है। उसे डर लग रहा है। भैया यह भूत बड़ा खतरनाक होता है। जो उसको देख ले फिर उसे नींद नहीं आती। चंदू गुल्लू की तरफ इशारा करके बोला- और ये कह रहा है कि इसने भूत को देखा। और इसे कुछ नहीं हुआ। अब इमली वाला भूत इसका चचा लगता है जो इसे ऐसे ही छोड़ दिया। गुल्लू बोला- अरे मैं सच कह रहा हूँ।

भगवान की कसम हमीद मैंने इमली वाले भूत को देखा। हमीद-अबे झूठ मत बोल यार, तेरे कसम खाने से भगवान कहाँ मरने वाले हैं। वो तो अमर है। चंदू ने बीच में बात पकड़ी- अच्छा तो यह बता कि भूत कैसा दिख रहा था। अरे वही सफेद कपड़े पहने हुए था और क्या। तूने भूत कितनी बजे देखा? रात के १२ बज रहे होंगे और क्या। तो तूने भूत कहाँ से देखा हमीद ने पूछा। गुल्लू ने कहा- अपनी घर की छत से। पर तेरी छत से तो इमली दूर है। गुल्लू- इसलिए तो मैंने भूत को देखा पर भूत मुझे नहीं देख सका। चंदू बोला- यार मेरी बड़ी इच्छा है कि एक बार तेरी छत से इस भूत को देखूँ। मैंने आज तक भूत नहीं देखा।

और फिर तेरी छत से भूत देखने में तो डर की भी कोई बात नहीं है। हम भूत को देख लेंगे और वह हमें नहीं देख पाएगा। तो ठीक है यह बहुत अच्छा रहेगा। तो फिर कल हम तेरे घर की छत पर ही सोएँगे। गुल्लू- ठीक है मैं मम्मी से पूछ लूँगा। अगर उन्होंने हाँ कर दी तो फिर हम जल्दी ही मेरी छत से भूत को देखेंगे। तो ठीक है चंदू और हमीद ने एक साथ कहा।

दूसरे दिन सुबह तीनों मिले। तीनों की भूत के बारे में बातचीत शुरू हो गई। गुल्लू ने कहा- भूत से मुलाकात से पहले उसके बारे में और बातें जान लें तो कैसा रहेगा? मोहल्ले में एक जमना चाचा ही थे जिनके पास इमली वाले भूत के बहुत सारे किस्से थे। जमना चाचा के पास तो भूतों के किस्सों का खजाना था। तीनों जमना चाचा के पास पहुँचे। चंदू ने पूछा क्यों चाचा, आपने देखा है क्या इमली वाला भूत? अरे हाँ, क्यों नहीं देखा। भई और सब डरते होंगे उससे, अपन बिलकुल नहीं डरते। और वह अपना क्या बिगाड़ेगा। अपन को हनुमान चालीसा पूरी याद है। जैसे ही भूत आए बस हनुमान चालीसा बोलना शुरू कर दो। सुनते ही भूत की हवा निकल जाती है। हमसे तो उलटा भूत डरता है।

चाचा भूत दूसरों को परेशान क्यों करता है? गुल्लू ने पूछा। जमना चाचा ने कहा- तुमसे किसने कहा कि भूत दूसरों को परेशान करता है। भूत सिर्फ उन्हीं को परेशान करता है जो देर रात तक इधर-उधर भटकते रहते हैं। अब दिन में भला किसी को भूत दिखा है क्या? हमीद बोला आप ठीक कह रहे हैं। अम्मी भी कहती है कि रात को जल्दी घर आ जाना चाहिए। इधर-उधर नहीं भटकना चाहिए। शायद वे इसीलिए कहती हैं। अब से उनकी बात का ज्यादा ध्यान रखना पड़ेगा। चलो अब मुझे बहुत काम है और इमली वाले भूत की बाकी बातें फिर कभी बताऊँगा, यह कहकर जमना चाचा अपने काम में लग गए। बच्चों को इस बातचीत में यह मंत्र मिला कि हनुमान चालीसा याद कर लेने से भूत की भी हवा निकाली जा सकती है।

भूत से मिलने का तीनों का इरादा अभी बदला नहीं था बल्कि अब तो उनके पास भूत से बचने के लिए हनुमान चालीसा जैसा रक्षा कवच भी था। चंदू ने हनुमान चालीसा याद कर लिया। वह रटने में वैसे भी माहिर था। गुल्लू और हमीद सिर्फ गणित के सवाल ही रट पाते और ऐन मौके पर रटे हुए में गड़बड़ की आशंका रहती थी। तो हनुमान चालीसा रटने का काम चंदू ने किया। दो दिन इस तरह निकल गए और भूत के बारे में और तरह-तरह की जानकारियाँ तीनों ने इकट्ठा कर ली। जैसे भूत को आगरे का पेठा बहुत पसंद है। इसके पीछे एक पूरी घटना थी।

एक बार मिश्रीलाल हलवाई आगरा से एक टोकनी पेठा लेकर आ रहा था। रात को आने में देर हो गई और वह इमली के यहाँ से गुजरा। घर पहुँचा तो टोकनी खाली थी। मिश्रीलाल हलवाई का कहना था कि हो न हो इमली वाले भूत ने ही पेठे निकाल लिए। तभी तो उन्हें खबर तक नहीं हुई। तीनों को यह बात सुनकर खूब हँसी भी आई कि भूत को भी आगरे का पेठा पसंद है।

दो दिनों बाद गुल्लू ने बताया कि आज रात को वे तीनों छत पर इकट्ठा सो सकते हैं। मम्मी से मैंने पूछ लिया है। तीनों खुश हो गए। भूत से मिलने का मौका आ गया था। भूत देखने की उत्सुकता लिए तीनों उस रात छत पर इकट्ठा हुए। पहले कुछ देर इधर-उधर की बातें की। भूत दिखते ही चुपचाप हो जाना है। भूत की तरफ अँगुली नहीं दिखाना है वरना हमारा चेहरा उसकी आँखों में छप जाएगा। इस तरह की सतर्कता बरतने वाली बातों को ध्यान में रखा गया।

रात को गाँव की जेल में पहरेदार ने १२ बजे के घंटे बजाए तो तीनों सावधान हो गए। चुपके से एक चादर ओढ़कर तीनों छत की मुंडेर के करीब आए और इमली की तरफ देखने लगे। इमली के पेड़ पर कुछ कुछ सफेद रंग का कपड़ा दिख रहा है। गुल्लू ने चंदू का हाथ दबाते हुए कहा देखो वो रहा भूत। चंदू और हमीद के हाथ-पैर काँपने लगे। चंदू ने धीमे स्वर में हनुमान चालीसा का पाठ शुरू कर दिया।

गुल्लू ने धीरे से कहा देखा मैं न कहता था कि छत से इमली वाला भूत दिखता है। हमीद ने कहा धीरे बोलो कहीं उसने सुन लिया तो हम तीनों की खैर नहीं। सन्नाटा छा गया। भूत तो जहाँ था वहीं था सरकने का नाम नहीं ले रहा था। तीनों चाह रहे थे कि भूत का चेहरा या उसका कोई करतब भी दिखे पर ऐसा कुछ भी नहीं हो पा रहा था। तीनों चाह रहे थे कि भूत का चेहरा या उसका कोई करतब भी दिखे पर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था।

आधे घंटे तक भूत और ये तीनों एक ही जगह जमे रहे। भूत देखकर तीनों की नींद तो उड़ ही चुकी थी और अब नींद आना भी नहीं थी। तीनों ने एक-दूसरे के हाथ कसकर थाम लिए। तभी पीछे से आवाज आई क्या देख रहे हो? तीनों को जैसे करंट लगा हो। तीनों ने पीछे मुड़कर देखा तो गुल्लू के पापा खड़े थे। गुल्लू ने कहा - पापा इमली पर भूत है। पापा ने कहा - क्या कह रहे हो? कैसा भूत? गुल्लू के पापा के आने से तीनों में थोड़ी हिम्मत आ गई थी। अब तीनों ने इमली की तरफ इशारा करते हुए कहा वह देखिए वह रहा।

गुल्लू के पापा ने इमली की तरफ देखा। इमली थोड़ी दूर थी और इसलिए साफ नजर नहीं आ रहा था। कुछ-कुछ सफेद जरूर नजर आ रहा था। गुल्लू के पापा ने गुल्लू से कहा कि नीचे से टार्च तो ले आओ। गुल्लू जाकर टार्च ले आया। गुल्लू के पापा ने इमली पर टार्चस से रोशनी की तो देखा कि एक बड़ी से सफेद पन्नी इमली की टहनियों में अटकी है और उससे ऐसा लग रहा है मानो इमली पर सफेद कुर्ता पहने कोई बैठा हो। पापा ने तीनों बच्चों से कहा देखो यह तो सिर्फ एक पॉलिथीन है।

फिर उन्होंने तीनों बच्चों से कहा कि असल में भूत होता ही नहीं है।

चंदू ने कहा पर अंकल घनश्याम पान वाले ने तो भूत देखा। गुल्लू के पापा ने कहा कि जिस तरह तुमने पॉलिथीन को भूत समझ लिया उसने भी ऐसे ही बनने वाली किसी आकृति से डरकर वहम पाल लिया होगा। आज तक किसी ने भी भूत नहीं देखा। सब इधर-उधर की बातें करते रहते हैं। वैसे भी भूत सिर्फ बुरा काम करने वालों को दिखता है, अच्छे बच्चों को भूत कभी नहीं डराता। इन सारी बातों में डेढ़ बज गया और फिर गुल्लू के पापा ने कहा कि अब तीनों सो जाओ। और छत पर भूत से डर तो नहीं लगेगा? तीनों ने एक साथ कहा - जब भूत ही नहीं है तो डर कैसा। उसके बाद तीनों ने जबभी किसी से भूत की बातें सुनी तो मन ही मन खूब हँसे।

बैलून मानव
उस दिन गरमी बहुत थी। रात के ग्यारह बजे थे। लाइट नहीं थी। सन्नी और हनी अपने कमरे में खिड़की के पास बैठे बातें कर रहे थे।
'धड़ाम,' तभी खिड़की के सामने जोरदार धमाका हुआ। दोनों चौंक गए। धमाके की रोशनी से दोनों की आँखें चौंधिया गईं। जब धुंध हटा तो दोनों ने देखा खिड़की के सामने ही बैलून जैसा कोई यान खड़ा था। धीरे-धीरे बैलून का आकार बढ़ता ही जा रहा था।
यह क्या चीज है, कहते हुए हनी खिड़की के पास आ गया। पीछे-पीछे हैप्पी भी था।
मुझे तो यह किसी एलियंस का यान लगता है।
तभी उस बैलून से घर्रघर्र की आवाज आने लगी। उस बैलून का दरवाजा खुला और करीब 4-5 अजीब से जंतु बाहर निकलकर हवा में तैरने लगे। सबकी नावें बैलून जैसी थीं। सिर और हाथ पैर भी बैलून जैसे ही थे। वे अजीबअजीब सी आवाजें निकाल रहे थे।
यह क्या कह रहे हैं। सन्नी फुसफुसाया।
पता नहीं पर इनके इरादे ठीक नहीं लग रहे।' हनी बोला।
अभी सन्नी और हनी बैलून के अंदर पहुँचे। अंदर एक पूरी प्रयोगशाला बनी थी। 2-3 कंप्यूटर लगे थे। कई रंग की बत्तियाँ जल-बुझ रही थीं।
दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। तभी हनी को कंप्यूटर के पास कुछ ईयरफोन्स नजर आए।
इससे गाने सुनने में बहुत मजा आएगा।'
कहकर हनी ने एक ईयरफोन अपने कान से लगा लिया। ईयरफोन से कुछ आवाजें आ रही थीं।
तो अब हमें क्या करना चाहिए।' एक आवाज आई।
दूसरी आवाज थी, हमें सबसे पहले यहाँ की हवा को कम करना है, ताकि यहाँ कोई भी ठीक से साँस न ले सके।'
'लेकिन इससे तो यहाँ के जीवजंतु मर जाएँगे। यहाँ की जिंदगी ही खाक हो जाएगी।' पहली आवाज थी।
दूसरे ने कहा, 'हम यही तो चाहते हैं। जब तक यहाँ के सभी प्राणी खत्म नहीं हो जाएँगे। हम यहाँ अपनी प्रयोगशाला नहीं बना सकते।'
फिर एक सरसराहट के साथ आवाज आनी बंद हो गई।
इसका मतलब यह लोग हमारे शहर में कुछ गड़बड़ी करना चाहते हैं।' ईयरफोन से सुनी हुई सारी बात बताकर हनी ने सनी से कहा, हमें इसका पता लगाना होगा।'
फिर दोनों अपने बेड पर आ गए। हनी ने अभी भी ईयरफोन अपने कान से लगा रखा था। थोड़ी देर में उन्हें नींद आ गई। दोनों सो गए।
सुबह जब नींद खुली तो दोनों हैरान थे, क्योंकि खिड़की के सामने बैलून यान की जगह कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। हालाँकि ईयरफोन अभी भी हनी के कान से लगा था। दोनों यान वाली जगह पर आ गए। पर वहाँ कुछ भी नहीं था। दोनों एक दूसरे को देखने लगे।
कल रात बेशक वे चले गए हों लेकिन वे आएँगे जरूर।' सन्नी बोला।
अच्छा ऐसा क्यों, हनी ने उत्सुकता जाहिर की।
क्योंकि वे लोग जिस मकसद से यहाँ आए थे वह एक रात में पूरा होने वाला नहीं है।
सन्नी मुस्कुराते हुए बोला, 'और फिर तुमने तो उनका ईयरफोन भी चुरा लिया है। इसलिए आज रात तो इंतजार करना ही पड़ेगा।'
रात होते ही दोनों कमरे की बत्ती बंद कर दोनों खिड़की के पास आकर बैठ गए। जैसे ही 11 बजा जोरों का धमाका हुआ। बैलून यान उतरा और बैलून मानव बाहर निकलकर हवा में तैरते हुए गायब हो गए।
हनी और सन्नी भागते हुए बाहर आए और उनकी प्रयोगशाला में घुस गए। प्रयोगशाला में कई तरह के सूट्‍स पड़े थे। दोनों ने एक सूट पहना और एक कंप्यूटर के सामने बैठ गए। एक बटन दबाया तो स्क्रीन पर कई बैलून मानव दिखाई देने लगे।
हैलो, उधर से आवाज आई, अपना कोड नंबर बताओ।
कोड नंबर? सन्नी घबरा गया।
लेकिन मेरा कोड नंबर लेकर तुम क्या करोगे? हनी ने पूछा।
अचानक उधर से आवाज आनी बंद हो गई। अभी सन्नी और हनी कुछ समझ पाते तभी बैलून मानव वापस आ गए। प्रयोगशाला के अंदर आते ही वे लैपटॉप पर कुछ करने लगे।
'अब क्या होगा।' हनी फुसफुसाया।

'कुछ नहीं होगा क्योंकि हमने जो सूट पहन रखा है, वे अदृश्य कर देने वाले हैं।' सन्नी बोला, लेकिन उनके लैपटॉप पर देखो उन्होंने अपने ग्रह से एक मिसाइल पृथ्वी की ओर मोड़ रखा है।'
तभी उनके ईयरफोन में एक बैलून की आवाज आई, 'एक्स, मुझे लगता है हमारे इर्दगिर्द कोई है। लेकिन
मैंने मिसाइल में टारगेट फिट कर दिया है। एक बटन दबाते ही पृथ्वी की सारी हवा हमारे मिसाल में सिमट जाएगी और पृथ्‍वी के सारे जीवजंतु मारे जाएँगे। हा.. हा.. हा
तुमने कुछ सुना सन्नी, हनी फुसफुसाया, 'अब हमें कुछ करना पड़ेगा।
तभी सन्नी की नजर एक लाल बटन पर पड़ी। उसने हनी को कुछ इशारा किया। हनी ने वह लाल बटन दबा दिया। मैसेज आया, क्या इस प्रयोगशाला को खत्म करना है।
सन्नी ने 'यस' का बटन दबा दिया।
कितने समय के बाद, दोबारा मैसेज आया।
दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और 10 मिनट सेट करके ओके कर दिया। फिर दोनों बाहर निकल आए।
दोनों अभी अपने कमरे में पहुँचे थे कि बैलून यान में जोरदार धमाका हुआ। प्रयोगशाला के परखच्चे उड़ गए थे।
सारे बैलून मानव इधरउधर छिटके पड़े थे।
धीरे-धीरे वे मोम की तरह पिघल रहे थे। सन्नी और हनी भागकर एक बैलून मानव के पास गए।
सन्नी ने पूछा, तुम लोग कौन हो? कहाँ से आए हो?'
एक बैलून मानव ने बताया, हम दूसरे ग्रह के प्राणी हैं। हम पूरी पृथ्वी की हवा को समाप्त कर पृथ्वी के प्राणियों को मार डालना चाहते थे, ताकि यहाँ अपने ग्रह के प्राणियों को ला सकें। इसके लिए हम लोगों ने सबसे पहले तुम्हारे शहर को चुना। यहीं अपने यान से संचालित करके एक मिसाइल भी तुम्हारी पृथ्वी पर छोड़ने वाला था। लेकिन तुम दोनों ने कहते-कहते उस बैलून मानव का शरीर भी मोम की तरह पिघल गया।
'हा..हा.. हमने पूरी पृथ्वी को तबाह होने से बचा लिया,' हनी जोर से ठहाका लगाकर हँसने लगा।
तभी मम्मी-पापा कमरे में आए।
मम्मी ने हनी को हिलाते हुए कहा, अरे हनी बेटा, नींद में ठहाके क्यों लगा रहे हो। उठो, सुबह हो गई। तुम तो हर समय सपना ही देखते रहते हो।'
हनी आँखें मलता हुआ खिड़की के पास गया। पर सामने कुछ भी नहीं था।
इसका मतलब मैंने फिर से कोई सपना देखा है।' बड़बड़ाता हुआ हनी बाथरूम में घुस गया।

पप्पूप्रकाश के नए दोस्त
पप्पू का नए शहर के नए स्कूल में आज पहला दिन था। वह थोड़ा उदास था। बाकी बच्चे तो खुशी-खुशी स्कूल जा रहे थे क्योंकि उन्हें अपने दोस्त मिलने वाले थे पर पप्पू को खुशी नहीं थी। पप्पू के पापा ने उसकी आगे की पढ़ाई के लिए अपना ट्रांसफर शहर में करवा लिया था।

उसके पापा चाहते थे कि पप्पू शहर के अच्छे स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी करके डॉक्टर बने। ट्रांसफर से पप्पू खुश नहीं था क्यों‍कि गाँव से शहर आने में उसके सारे दोस्त गाँव में ही छूट गए। गाँव में पप्पू और उसके दोस्तों की पूरी टीम हुआ करती थी। गाँव में जुलाई की बारिश में जब स्कूल शुरू होता तो पप्पू बहुत खुश होता था। स्कूल में पप्पू अपने दोस्तों के साथ पढ़ता और फिर शाम को सभी इकट्‍ठा स्कूल के मैदान पर फुटबॉल खेलते। क्या खूब मजे के दिन थे पर ये मजे के दिन अब हवा हो गए थे।

शहर का सेंट पॉल स्कूल तो एकदम ही नई जगह थी। यहाँ वो मजा कहाँ था। इसी बात से पप्पूप्रकाश पटेल उर्फ पप्पू उदास था। पहले दिन स्कूल की बस आई। पप्पू ने बैग उठाया और बस में चढ़ गया। स्कूल गया तो पूरा दिन अकेला बैठा रहा। क्लास में दूसरे स्टूडेंट आपस में बातचीत कर रहे थे और पप्पू अकेला बैठा उनकी बातों को सुन रहा था। वह किससे बात करे? गाँव के स्कूल का यह होनहार स्टूडेंट यहाँ आकर गुमसुम हो गया था।

एक सप्ताह बीतने तक उसकी स्कूल में किसी से दोस्ती नहीं हुई। पप्पू ने भी किसी से दोस्ती करने की कोई पहल नहीं की। क्लास के दूसरे स्टूडेंट आपस में बातचीत कर रहे थे और पप्पू अकेला बैठा उनकी बातों को सुन रहा था। वह किससे बात करे? गाँव के स्कूल का यह होनहार स्टूडेंट यहाँ आकर गुमसुम हो गया था। एक सप्ताह बीतने तक उसकी स्कूल में किसी से दोस्ती नहीं हुई।

पप्पू ने भी किसी से दोस्ती करने की कोई पहल नहीं की। क्लास के दूसरे स्टूडेंट अपने पुराने दोस्तों के साथ बातचीत में व्यस्त रहे तो नए स्टूडेंट की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। पप्पू की तरह नए स्टूडेंट तो क्लास में और भी थे पर उन्होंने दोस्त बना लिए थे।

पप्पू की समझ में नहीं आता था कि दोस्ती किससे करे। मन नहीं लगने से पढ़ाई में भी वह पिछड़ता जा रहा था। फिर गाँव के हिन्दी मीडियम स्कूल से शहर के अँगरेजी मीडियम स्कूल में आने पर कोर्स भी बढ़ गया था। भट्‍ट सर ने क्लास में पहला टेस्ट लिया और रिजल्ट आया तो पप्पूप्रकाश को 10 में से 1 ही नंबर मिला। यह क्लास में सबसे कम था। बस फिर क्या था भट्‍ट सर ने पप्पूप्रकाश को खूब डाँट पिलाई।

उस दिन घर जाते-जाते पप्पू रूआँसा हो गया। कहाँ तो पप्पू गाँव के स्कूल में सबसे होनहार छात्र के तौर पर देखा जाता था। टीचर्स का चहेता और कहाँ आज क्लास के सामने इस तरह टीचर की डाँट।

पप्पू घर आया तो पापा ने पप्पू को अपने पास बुलाया और पूछा - क्या बात है पप्पू, तुम इन दिनों पढ़ाई में ज्यादा ध्यान नहीं लगा रहे हो। आज भट्‍ट सर ने फोन करके बताया कि टेस्ट में तुम्हें बहुत ही कम नंबर आए हैं। क्या बात है बेटा? तुम कुछ परेशान भी लग रहे हो? पापा के पूछते ही पप्पू ने बताया कि नए स्कूल में उसका बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा है। उसे तो गाँव के स्कूल वापस जाना है।

पापा ने कहा - बेटा, मैं जानता हूँ कि तुम्हें अपने दोस्तों की याद आती होगी पर तुम्हें डॉक्टर भी तो बनना है। इसलिए तो तुम्हारा एडमिशन यहाँ करवाया है। पप्पू ने कहा - पर नया स्कूल मुझे अच्छा नहीं लगता। पापा ने कहा - बेटा कुछ दिन और देखो फिर धीरे-धीरे यहाँ भी दोस्त बन जाएँगे।

अगले दिन पप्पू स्कूल पहुँचा। इस दिन क्लास में कोई लिस्ट तैयार की जा रही थी। पप्पू ने सुना कि इंटरस्कूल फुटबॉल कॉम्पीटिशन हो रही है और उसके लिए टीम में नाम लिखे जा रहे हैं। तुम भी अपना नाम लिखवा दो आशुतोष ने पप्पू से कहा पर पप्पू ने कोई उत्साह नहीं दिखाया।

स्कूल की टीम तो बन गई बस एकस्ट्रा खिलाड़ी की कमी थी तो आशुतोष ने कहा कि पप्पूप्रकाश का नाम लिख लो। इस तरह न चाहते हुए भी पप्पूप्रकाश टीम में अतिरिक्त खिलाड़ी हो गए। इसी बीच भट्‍ट सर क्लास में आए और उन्होंने दो सप्ताह बाद अगले टेस्ट की तारीख बता दी थी और पप्पू दोबारा उनकी डाँट नहीं सुनना चाहता था तो उसने पढ़ाई को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया।

वह दिन भी आ पहुँचा जब इंटरस्कूल फुटबॉल काम्पीटिशन शुरू होनी थी। स्कूल का मैदान बड़ा था इसलिए मेजबानी सेंटपॉल स्कूल को मिली थी। सेंट पॉल स्कूल का पहला मैच स्टार पब्लिक स्कूल की टीम से था। पप्पूप्रकाश टीम के एक्स्ट्रा खिलाड़ी के तौर पर सामान संभाले बैठे थे। पप्पू की इस काम्पीटिशन में कोई दिलचस्पी नहीं थी।पर चूँकि आशुतोष ने ना‍म लिखवा दिया था तो उसने नाम कटवाना ठीक नहीं समझा। सोमवार के दिन हो रहे इस उद्‍घाटन मैच में दोनों ही टीमों का हौसला बढ़ाने के‍ लिए समर्थक मैदान के बाहर जमा थे। पहले मैच में विजयन के 2 गोल की मदद से मेजबान टीम ने स्टार विजयन पब्लिक स्कूल को आसानी से हरा दिया।

विजयन मैच का हीरो बन गया था। क्लास के सारे स्टूडेंट विजयन विजयन के नारे लगा रहे थे। विजयन को देखकर पप्पू को लगा कि अगर वह भी टीम में खेलता तो विजयन से बढ़िया प्रदर्शन कर सकता था। स्पर्धा आगे बढ़ी। सेंट पॉल स्कूल को अपना अगला मैच शुक्रवार को सेंट्रल स्कूल की टीम से खेलना था। सेंट्रल स्कूल की टीम मजबूत थी। इसलिए रणनीति बनने लगी। पप्पू प्रकाश चुपचाप सुनता रहा।

इसके बाद शुक्रवार भी आ पहुँचा जिसका सभी को इंतजार था। सेंट्रल स्कूल की टीम में अच्छे खिलाड़ी थे जो स्टेट लेवल तक फुटबॉल खेल चुके थे और यह मुकाबला जीतना सेंट पॉल स्कूल के‍ लिए सुई में धागा पिरोने जैसा था। मुकाबला शुरू हुआ। पहले हॉफ के 11 वें मिनट में सेंट्रल स्कूल के डेनियल ने शानदार गोल करके अपनी टीम को बढ़त दिलाई। इसके बाद सेंट पॉल स्कूल के खिलाड़ियों ने बहुत कोशिश की पर वे यह गोल उतार नहीं सके। रैफरी ने पहला हॉफ पूरा होते ही सीटी बजाई। सेंट्रल स्कूल के समर्थक अपनी टीम के प्रदर्शन से बहुत खुश थे और सेंट पॉल स्कूल के खेमे में चुप्पी थी। समर्थक भी निराश थे।

थोड़ी देर बाद दूसरा हॉफ शुरू हुआ। दूसरे हॉफ में विजयन पर ज्यादा जिम्मेदारी थी। लिहाजा शुरुआत में ही गोल करने की कोशिश में दूसरी टीम के खिलाड़ी से टककर हुई और विजयन गिर पड़ा। उसके पैर में चोट लग गई। सेंट पॉल स्कूल के कैंप में खामोशी छा गई।

स्टार खिलाड़ी चोटिल हो गया, अब तो मैच जीतना असंभव हो गया। विजयन की जगह लेने के लिए पप्पू को मैदान में उतरना पड़ा। पप्पू को भी इसकी उम्मीद नहीं थी। पर अब तो टीम को उसकी जरूरत थी। पप्पू ने तुरंत मैदान संभाल लिया। सेंट पॉल स्कूल के खिलाड़ियों में कुछ चर्चा हुई और पप्पू को फारवर्ड पोजीशन पर खेलने को कहा गया। थोड़ी देर में पप्पू ने गजब के फुटवर्क से सभी को हैरान कर दिया।

स्कूल में किसी को यह नहीं मालूम था कि पप्पू गाँव में फुटबॉल टीम में शानदार खिलाड़ी था। दूसरे हॉफ के 15वें मिनट में पप्पूप्रकाश ने आशुतोष के पास को बहुत तेजी के साथ गोल में दे मारा और यह हुआ गोल। पप्पू..पप्पू टीम समर्थकों ने नारे लगाए। इस चिअरअप ने पप्पू में अचानक बदलाव ला दिया। सेंट पॉल स्कूल के खेमे में खुशी की लहर दौड़ गई। अब गेम बराबरी पर आ गया था। पूरी टीम पप्पूप्रकाश के इस तरह के खेल से चमत्कृत थी। पप्पू को विपक्षी टीम ने भी कम आँका था। पप्पू ने ताली बजाकर सभी खिलाड़ियों को इकट्‍ठा किया और गेम प्लान बनाया।

पप्पू को लगा कि उसे गाँव वाले दोस्तों की तरह दोस्त मिल गए हैं। खेल फिर शुरू हुआ और इस बार रणनीति के तहत पप्पू ने आशुतोष को पास दिया और खुद दौड़कर डेविड को कवर किया। इसके बाद बॉल जब डेविड के पास आई तो पप्पू ने उसे छकाते हुए बॉल को निकाल लिया और गोल की तरफ लेकर चला।

विपक्षी टीम के गोल के नजदीक जोसेफ ने बॉल को ऊँचा उछाल दिया। इस पर पप्पू ने हैडर मारा और यह हुआ गोल। इस बार तो टीम के सभी खिलाड़ियों ने पप्पू को घेर लिया। क्लास में अकेला रहने वाला पप्पू हीरो बन गया। अब पूरी क्लास पप्पू को पहचानने लग गई थी। हर तरफ से आवाज आ रही थी पप्पू... पप्पू..। पप्पू भी अपने प्रदर्शन से खुश था। अचानक टीम में और स्कूल में पप्पू के कई दोस्त हो गए। और इसके बाद सेंट पॉल स्कूल ने यह मैच 2-1 से जीत लिया। पप्पू को टीम के साथी कंधे पर बिठाकर मैदान से लाए। पप्पूप्रकाश हीरो बन गए। स्पर्धा में पप्पूप्रकाश के जादुई प्रदर्शन के दम पर सेंट पॉल स्कूल चैंपियन बना और मैन ऑफ द सीरिज पप्पूप्रकाश घोषित किए गए।

पप्पूप्रकाश इसके बाद क्लास तो क्या स्कूल में ही जाना-पहचाना नाम हो गए। अब हर तरफ उनके दोस्त ही दोस्त थे। क्लास में तो पप्पूप्रकाश ने 10 में 7 नंबर पाए, जो क्लास में दूसरे सबसे ज्यादा थे। अब पप्पूप्रकाश को नए दोस्त मिल गए थे और उसका मन भी स्कूल में लग गया था।

मोहन प्रेम बिना नहीं मिलते
मोहन प्रेम बिना नहीं मिलते,
चाहे कर लो कोटि उपाय।
मिले न यमुना, सरस्वती में,
मिले न गंग नहाय।।
प्रेम-नगर में मोहन ढूँढ़ो,
अपनी झलक दिखाय।
मोहन प्रेम ...

गुरुजी ने भजन समाप्त किया और आवाज लगाई बेटा भोला - 'मैं पंडिताई करने चार-पाँच दिन के लिए पास के गाँव में जा रहा हूँ, तब तक तुम अपने 'बाल-गोपाल' का ध्यान रखना, अपने साथ उन्हें भी नहला देना और जो कुछ अपने लिए बनाओ, उसका भोग उन्हें भी लगा देना।'

भोला ने कहा - 'जी गुरुजी! भोला को ऐसा समझाकर गुरुजी दूसरे गाँव में पंडिताई करने चले गए। दूसरे दिन सुबह जब भोला, गुरुजी की गायों को चराने के लिए जंगल ले जाने लगा तो उसे याद आया कि गुरुजी ने कहा था - 'बाल-गोपाल को भी नहलाना और भोग लगाना।' उसने सोचा गायों को जंगल में छोड़कर गोपाल को नहलाने और भोजन कराना इतनी दूर फिर से कौन आएगा? फिर बाल-गोपाल भी यहाँ अकेले रह जाएँगे, चलो उन्हें भी साथ‍ लिए चलते हैं।

ऐसा सोचकर भोला ने एक पोटली में चार गक्कड़ (मोटी रोटी) का आटा स्वयं के लिए तथा दो गक्कड़ का आटा बाल-गोपाल के लिए लिया, साथ में थोड़ा सा गुड़ रखकर फिर उसी पोटली में बाल-गोपाल की मनोहर छवि वाली पीतल की मूर्ति भी रख ली और गौएं लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा।

भोला दस-बारह वर्ष का, नाम के अनुरूप भोला-भाला ग्रामीण बालक था। पंडितजी गाँव के मंदिर में पूजन करते और भोला उनकी गौएं चराता, मस्त रहता, यही उसका काम था। जंगल में पहुँचकर भोला ने पास ही बहने वाली नदी के किनारे गायों को चरने के लिए छोड़ दिया।

फिर पोटली से 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को निकालकर बोला - जब तक मैं गौएं चराता हूँ तब तक तुम अच्छी तरह नदी में स्नान कर लो। जब मैं भोजन तैयार कर लूँगा, तब तुम्हें भी आवाज लगा दूँगा, आकर भोजन कर लेना।'

ऐसा कहकर भोला ने 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को नदी के किनारे रख दिया और गौएं चराने में मस्त हो गया। दोपहर होने पर भोला ने जल्दी से नदी में दो-तीन डुबकी लगाई और अंगीठी जलाकर गक्कड़ बनाने में जुट गया। भोजन तैयार कर उसने एक पत्तल पर दो गक्कड़ तथा थोड़ा सा गुड़, 'बाल-गोपाल' के खाने के लिए रख दिया तथा चार गक्कड़ और थोड़ा सा गुड़ अपने लिए एक पत्तल पर रख लिया और फिर आवाज लगाई - 'बाल-गोपाल जल्दी आओ, बहुत नहा लिया, भोजन तैयार है।' मगर बाल-गोपाल नहीं आए, भोला ने फिर आवाज लगाई - 'भैया गोपाल... जल्दी आओ... मुझे बहुत जोर की भूख लग रही है।'

कई बार बुलाने पर भी जब बाल-गोपाल भोजन करने नहीं आए, तब भोला को गुस्सा आ गया, उसे जोर की भूख लगी थी और बाल-गोपाल आवाज लगाने पर भी भोजन करने के लिए नहीं आ रहे थे। इस बार भोला ने थोड़े गुस्से में आवाज लगाई - 'गोपाल आते हो या मैं डंडा लेकर आऊँ।' मगर गोपाल तब भी नहीं आए। अब तो भोला का भोला-सा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।

वह डंडा लेकर जैसे ही नदी किनारे की ओर बढ़ा, बाल-गोपाल झट नदी से बाहर निकलते हुए बोले - भैया भोला, मारना नहीं, मैं आ गया, दरअसल मैं तैरते-तैरते नदी में काफी दूर तक निकल गया था। वापस लौटने में देर हो गई।' भोला का गुस्सा शांत हो गया,उसने कहा - 'ठीक है, अब कल से नदी में दूर तक नहीं जाना, बीच में पानी काफी गहरा है।'

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

मैं समग्र जगत का हूँ - विवेकानंद

कुछ पुरातनपंथी हिन्दुओं द्वारा यह आरोप लगाए जाने पर कि वे विधर्मियों के साथ एक ही मेज पर बैठकर निषिद्ध भोजन ग्रहण करते हैं, स्वामी जी ने मुँहतोड़ उत्तर देते ‍हुए लिखा -

क्या तुम यह कहना चाहते हो कि मैं इन, केवल शिक्षित हिन्दुओं में ही पाए जाने वाले जातिभेद-जर्जरित, अंधविश्वासी, दयाहीन, कपटी और नास्तिक कायरों में से एक बनकर जीने-मरने के लिए पैदा हुआ हूँ?

मुझे कायरता से घृणा है। मैं कायरों के साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहता। मैं जैसे भारत का हूँ वैसे ही समग्र जगत का भी हूँ। इस विषय को लेकर मनमानी बातें बनाना निरर्थक है। ऐसा कौन सा देश है, जो मुझ पर विशेष अधिकार का दावा करता है? क्या मैं किसी राष्ट्र का क्रीतदास हूँ?... मुझे अपने पीछे एक ऐसी शक्ति दिखाई दे रही है, जो‍कि मनुष्य, देवता या शैतान की शक्तियों से कहीं अधिक सामर्थ्यशाली है। मुझे किसी की सहायता नहीं चाहिए, जीवन भर मैं ही दूसरों की सहायता करता रहा हूँ।

इसी शैली में उन्होंने एक-दूसरे भारतीय शिष्य को लिखा -
मुझे आश्चर्य है कि तुम लोग मिशनरियों की मूर्खतापूर्ण बातों को इतना महत्व दे रहे हो। यदि भारतवासी मेरे नियमानुसार हिन्दू-भोजन के सेवन पर बल देते हैं तो उनसे एक रसोइया एवं उसके रखने के लिए पर्याप्त रुपयों का प्रबंध करने के लिए कह देना। फिर मिशनरी लोग यदि कहते हों कि मैंने कामिनी-कांचन त्याग रूपी संन्यास के दोनों व्रत तोड़े हैं, तो उनसे कहना कि वे झूठ बोलते हैं। मेरे बारे में इतना ही जान लेना कि मैं किसी के भी कथनानुसार नहीं चलूँगा, किसी भी रा्ष्ट्र के प्रति मेरी अंधभक्ति नहीं है। मैं कायरता को घृणा की दृष्टि से देखता हूँ। कायर तथा मूर्खतापूर्ण बकवासों के साथ मैं अपना संबंध नहीं रखना नहीं चाहता। किसी प्रकार की राजनीति में मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही इस जगत में एकमात्र राजनीति है, बाकी सब कूड़ा-कचरा है।

शि‍शु को बचाएँ डायरिया से
स्वच्छ पानी एवं ताजा खाना खिलाएँ।
आजकल रोटा वायरस डायरिया की रोकथाम का टीका आ गया है। इसकी दो खुराक चार महीने की उम्र के पहले ही बच्चों को दिलवाएँ इसकी जानकारी शिशुरोग विशेषज्ञ से लें।

नीबू पानी, मठा, नारियल पानी, दाल का पानी एवं खाना देते रहें।
दस्त होने पर ओआरएस का घोल एवं साधारण पानी बीच-बीच में देते रहें।

अतिथि सत्कार का प्रभाव
महाभारत काल की बात है। कुरुक्षेत्र में मुद्‍गल नाम के एक श्रेष्ठ ऋषि रहते थे। वे सत्यनिष्ठ, धर्मात्मा और जितेंद्रिय थे। क्रोध व अहंकार उनमें बिल्कुल नहीं था। जब खेत से किसान अनाज काट लेते और खेत में गिरा अन्न भी चुन लेते, तब उन खेतों में बचे-खुचे दाने मुद्‍गल ऋषि अपने लिए एकत्र कर लेते थे।
कबूतर की भाँति वे थोड़ा सा अन्न एकत्र करते और उसी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। पधारे हुए अतिथि का सत्कार भी उसी अन्न से करते, यहाँ तक कि पूर्णमासी तथा अमावस्या के श्राद्ध तथा आवश्यक हवन भी वे संपन्न करते थे। महात्मा मुद्‍गल एक पक्ष (पंद्रह दिन) में एक दोने भर अन्न एकत्र कर लाते थे। उतने से ही देवता, पितर और अतिथि आदि की पूजा-सेवा करने के बाद जो कुछ बचता था, उससे परिवार का काम चलाते थे।

महर्षि मुद्‍गल के दान की महिमा सुनकर महामुनि दुर्वासाजी ने उनकी परीक्षा करने का निश्चय किया। उन्होंने पहले सिर घुटाया, फिर फटे वस्त्रों के साथ पागलों-जैसा वेश बनाए हुए, कठोर वचन बोलते मुद्‍गल जी के आश्रम में पहुँचकर भोजन माँगने लगे। महर्षि मुद्‍गल ने अत्यंत श्रद्धा के साथ दुर्वासाजी का स्वागत किया। उनके चरण धोए, पूजन किया और फिर उन्हें भोजन कराया। दुर्वासाजी ने मुद्‍गल के पास जितना अन्न था, वह सब खा लिया तथा बचा हुआ जूठा अन्न अपने शरीर में पोत लिया। फिर वहाँ से उठकर चले आए।

इधर महर्षि मुद्‍गल के पास भोजन को अन्न नहीं रहा। वे पूरे एक पक्ष में दोने भर अन्न एकत्र करने को जुट गए। जब भोजन के समय देवता और पितरों का भाग देकर जैसे ही वे निवृत्त हुए, महामुनि दुर्वासा पूर्व की तरह कुटी में आ पहुँचे और फिर भोजन करके चले गए। मुद्‍गल जी पुन: परिवार सहित भूखे रह गए।

एक-दो बार नहीं पूरे छह माह तक इसी प्रकार दुर्वासा जी आते रहे। प्रत्येक बार वे मुनि मुद्‍गलजी का सारा अन्न खाते रहे। मुद्‍गल जी भी उन्हें भोजन कराकर फिर अन्न के दाने चुनने में लग जाते थे। उनके मन में क्रोध, खीज, घबराहट आदि का स्पर्श भी नहीं हुआ। दुर्वासा जी के प्रति भी उनका आदर भाव पहले की भाँ‍ति ही बना रहा।

महामुनि दुर्वासा आखिर में प्रसन्न होकर कहने लगे- महर्षि! विश्व में तुम्हारे समान ईर्ष्या व अहंकार रहित अतिथि सेवा कोई नहीं है। क्षुधा इतनी बुरी होती है कि वह मनुष्य के धर्म-ज्ञान व धैर्य को नष्ट कर देती है, लेकिन वह तुम पर अपना प्रभाव तनिक भी नहीं दिखा सकी। तुम वैसे ही सदाचारी और धार्मिक बने रहे। विप्रश्रेष्ठ! तुम अपने इसी शुद्ध शरीर से देवलोक में जाओ।'

महामुनि दुर्वासाजी के इतना कहते ही देवदूत स्वर्ग से विमान लेकर वहाँ आए और उन्होंने मुद्‍गलजी से उसमें बैठने की प्रार्थना की। महर्षि मुद्‍गल ने देवदूतों से स्वर्ग के गुण-दोष पूछे और उनकी बातें सुनकर बोले - 'जहाँ परस्पर स्पर्धा है, जहाँ पूर्ण तृप्ति नहीं और जहाँ असुरों के आक्रमण तथा पुण्य क्षीण होने से पतन का भय सदैव लगा रहता है, वह देवलोक स्वर्ग में मैं नहीं जाना चाहता।'

आखिर में देवदूतों को विमान लेकर लौट जाना पड़ा। महर्षि मुद्‍गलजी ने कुछ ही दिनों में अपने त्यागमय जीवन तथा भगवद्‍ भजन के प्रभाव से प्रभु धाम को प्राप्त किया।
सौजन्य से - देवपुत्र

शिष्य की लगन
यह कहानी है एक साधारण से व्यक्ति के झेनमेन की जो कि इतना सीधा था कि कोई भी उसे मारे तो वह पलटकर उन्हें कोई जवाब नहीं देता था। उसके इसी स्वभाव से सभी उसे मारते रहते, इस वजह से वह बेहद परेशान था। वह एक सुप्रसिद्ध कराटे गुरु के पास गया और कहा - क्या आप मुझे कराटे सिखाएँगे। उन्होंने कहा - मैं किसी भी ऐसे-वैसे व्यक्ति को कराटे नहीं सिखाता। वैसे भी झेनमेन बहुत ही गरीब परिवार से था। उन्होंने झेनमेन को कहा कि - मैं तुम्हें कराटे नहीं सिखा सकता। परंतु झेनमेन ने बहुत प्रार्थना की कि मुझे सीखना है। उसके बहुत कहने पर उन्होंने उसे अपने घर में पानी लाने का काम सौंपा और कहा कि इस काम को लगन से करना। वह काम लगन से करता था।

एक दिन वह पानी लेकर आ रहा था, कि पीछे गुरुजी ने उसे जोर का धक्का दिया और चले गए। उसने फिर से पानी भरा और पानी रखकर गुरुजी के पास गया और बोला कि गुरुजी मुझसे क्या गलती हो गई? जो आपने मुझे धक्का दिया। गुरुजी ने कहा - आगे से सावधान रहना। एक बार जब वह कपड़े सुखा रहा था तभी गुरुजी आए और उसको एक बाँस मार दिया। वह नीचे गिर गया फिर जल्दी-जल्दी अपना सारा काम किया। वह यह सब काम मन लगाकर करता था। फिर गुरुजी ने उसे रसोई घर का काम सौंप दिया।

वह रसोई घर में भोजन बनाने का काम करता था। उस समय भी जब वह भात बना रहा था। तभी गुरुजी आए और झेनमेन को उन्होंने जोर से धक्का दिया। तभी झेनमेन ने खुद को बचा लिया लेकिन उसके हाथों से भात का पात्र नीचे गिर गया। गुरुजी तो चले गए पर उसका एक और काम बढ़ गया। उसके बात वह सोता भी तो इतना सतर्क कि कोई मारे तो वह बच जाए।

एक बार जब वह रसोई घर की ओर जा रहा था तभी गुरुजी ने उसे एक जोरदार थप्पड़ मारना चाहा परंतु नहीं मार पाए क्योंकि झेनमेन ने हवा की सरसराहट से यह जान लिया कि कोई है और नीचे बैठ गया। अब वह हमेशा सतर्क रहता व अब सारे शिष्य कराटे सीखते तब वह सिर्फ बचने का तरीका सीखता था ताकि गुरुजी से बच सके। ऐसे ही एक साल पूरे हो गए। जब सभी शिष्यों को प्रमाण पत्र देने का समय आया तो सभी को प्रमाण पत्र मिले। उसके बाद देखा गया कि सबसे बड़ा योद्धा कौन है?

तो गुरुजी ने वहाँ झेनमेन को लाकर खड़ा कर दिया कि यह है सबसे बड़ा योद्धा। सब देखकर आश्चर्यचकित हो गए। सारे शिष्यों ने कहा - कि यह कैसे महान योद्धा है यह तो हमारे रसोई घर का नौकर है। तब गुरुजी ने दावा किया कि मेरे प्रिय शिष्यों इसको तुम आजमा सकते हो जिसने भी इसके शरीर को या किसी के भी शस्त्र ने अगर, इसको छू लिया तो समझो वही महान योद्धा है। सबने आजमाया पर सब हार गए।
सौजन्य से - देवपुत्र

साधो और माधो
एक छोटे से शहर में एक लालची नाई साधो रहता था। उसके पास किसी चीज की कमी नहीं थी। परंतु एक ही सपना देखता था कि वह किसी भी तरह अमीर बन जाए। उसी शहर में माधो नाम का एक गरीब व्यक्ति भी रहता था। वह प्रतिदिन नियम से भगवान शिव की पूजा करता था। माधो सिर्फ पूजा-पाठ ही नहीं करता था बल्कि वह अच्छा आदमी था। दूसरों की मदद के लिए वह हमेशा तैयार रहता था। एक बार उसे पैसों की बहुत सख्त जरूरत पड़ी। कहीं से भी पैसों का इंतजाम नहीं हो सका। माधो बड़ा परेशान रहने लगा। परेशानी वाले दिनों में ही एक रात सपने में माधो को भगवान शिव दिखाई दिए।

भगवान ने कहा कि माधो हम तेरे जैसे सच्चे भक्त से बड़े खुश हैं, कहो क्या चाहिए? माधो बोला- प्रभु मैं आनंद मैं हूँ, बस इन दिनों धन की ही थोड़ी जरूरत है। भगवान ने कहा- बस इतनी सी बात। कल सुबह तुम स्नान करके किसी नाई से अपना मुंडन करवाकर अपने घर के पास की झाड़ियों के पीछे छिप जाना। उस समय एक मोटा डंडा अपने हाथ में जरूर रखना। तुम्हारे पास से जो भी पहला व्यक्ति निकले उसे डंडा मार देना और वह सोने के ढेर में बदल जाएगा। सोने को पाकर तुम धनवान हो जाओगे और तुम्हारी तकलीफें दूर हो जाएँगी।

अगले दिन सुबह जागकर माधो ने वैसा ही किया। वह नहाकर पड़ोस में रहने वाले साधो नाई के पास गया और उससे मुंडन करवाकर अपने घर के पीछे झाड़ियों में छिप गया। लेकिन उसे पता नहीं था कि साधो नाई एक पेड़ के पीछे छुपकर उसे देख रहा है। दरअसल माधो को इतनी सुबह-सुबह मुंडन कराने आया देखकर साधो को आश्चर्य हुआ था। इसी का पता लगाने के लिए वह पेड़ के पीछे छुपकर माधो को देख रहा था। इधर जैसे ही पहला व्यक्ति वहाँ से गुजरा, माधो ने उसे डंडा मारा और वह व्यक्ति सोने के ढेर में बदल गया। यह सारी घटना लालची साधो ने देख ली।

डंडे की चोट से पहलवान के सिर में टेमला पड़ गया। पहलवान ने साधो के हाथ में डंडा देखा और उसकी हड्‍डी-पसली एक कर दी। पिटाई ऐसी उड़ी कि अगले महीने भर तक साधो बिस्तर पर पड़ा रहा। अगले दिन साधो नाई ने खुद ही अपना सिर मूँड लिया और अपने घर के पास ही एक मोटा डंडा लेकर खड़ा हो गया और उधर से गुजरने वाले किसी व्यक्ति का इंतजार करने लगा। अचानक किसी के आने की आवाज सुनाई दी और साधो तैयार हो गया। ठीक समय पर उसने निकलने वाले आदमी को जोर से डंडा मारा। डंडे की चोट जिसे लगी वह गाँव का पहलवान रामलाल था। डंडे की चोट से पहलवान के सिर में टेमला पड़ गया। पहलवान ने साधो के हाथ में डंडा देखा और उसकी हड्‍डी-पसली एक कर दी। पिटाई ऐसी उड़ी कि अगले महीने भर तक साधो बिस्तर पर पड़ा रहा। इस तरह लालची साधो को उसकी लालच का फल मल गया।

बच्चो, अच्छे बनो!

हर काम के लिए व्यक्ति के अंदर शक्ति का होना आवश्यक है। शक्ति दो प्रकार की होती है। शारीरिक तथा मानसिक। जो व्यक्ति जीवन में सफल होना चाहता है उसके शरीर और मन दोनों में शक्ति होना आवश्यक है। शरीर की शक्ति आती है शरीर को स्वस्थ रखने से और शरीर को स्वस्थ रखने से और मन की शक्ति आती है सत्य के आचरण से। शरीर और मन दोनों की शक्तियाँ जब तक व्यक्ति में हों तभी तक वह सच्चे अर्थों में शक्तिशाली कहलाने का दावा कर सकता है। दोनों में से केवल एक ही शक्ति रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में सफल नहीं हो सकता।

कालू नाम का एक लड़का था। वह रोज नियमपूर्वक कसरत करता था, अच्छी तरह खाता-पीता था। अपने स्वास्थ्‍य का बहुत ही ध्यान रखता था, किंतु न तो वह पढ़ता-लिखता था, न ही ज्ञान-चर्चा करता था। बड़ा होने पर वह शरीर से हट्‍टा-कट्‍टा तो हुआ, परंतु मानसिक बल उसके पास कुछ नहीं था। लोगों को मारपीट की धमकी देकर ही उनसे रुपया-पैंसा ऐंठ लेता था और उसी से अपना काम चलाता था।

ऐसा करते-करते एक दिन वह डाकुओं के दल में जा मिला। पुलिस के डर से भयभीत वह हमेशा अपने आप को छिपाए-छिपाए रहता था। शरीर में इतना बल रखते हुए भी उसे एक दिन पुलिस की गोली का शिकार होना पड़ा। क्या कालू को हम शक्तिशाली कह सकते हैं? नहीं, मानसिक बल न रहने के कारण उसका शारीरिक बल व्यर्थ ही नहीं गया, उसकी मृत्यु का कारण भी बना।

इसके विपरीत रामानुजम नाम का लड़का था। वह गणित में बहुत ही अधिक कुशल था। उसे केवल अपनी किताबों से ही प्रेम था। हिसाब बनाते-बनाते न उसे खाने-पीने की सुध रहती न अपने शरीर के आराम की। छोटी-सी उम्र में ही उसने बहुत कुछ जान लिया। यहाँ तक कि उसके एक अँगरेज प्रोफेसर उसे विश्वविख्यात कैंब्रिज विश्वविद्यालय में ले गए ताकि उसे गणित के अध्ययन में सुविधा हो। लेकिन निरंतर अवहेलना के कारण उसके शरीर का सारा बल जाता रहा था। उसे टीबी हो गई और 25 साल की आयु में उसकी मृत्यु हो गई। वह संसार को बहुत कुछ दे सकता था, किंतु शरीर के बल के अभाव के कारण उसका जीवन एक प्रकार से व्यर्थ हो गया।

इन दो उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है‍ कि शारीरिक और मानसिक बल एक-दूसरे के बिना निरर्थक हैं। शरीर में बल प्राप्त करने के लिए उसकी देखभाल बहुत आवश्यक है। जब तक बच्चा छोटा रहता है, उसका स्वास्थ्य की जिम्मेदारी उसके माता-पिता पर रहती है। बड़े होने पर अपने शरीर की देखभाल स्वयं करना बहुत आवश्यक है। आरंभ से ही ठीक आदतें डालनी चाहिए। समय से खानापीना, सोना, खेलना शरीर के स्वास्‍थ्‍य के लिए अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त भोजन को रुचि तथा प्रेम से करना भी बहुत आवश्यक है।

स्वाद वस्तु में नहीं जीभ में होता है। स्वस्थ आदमी जब क्ष‍ुधा के साथ भोजन पर बैठेगा तो परोसी हुई हर अच्छी वस्तु खाने की आदत डालना बहुत अच्छा रहता है। खाने-पीने की कुछ चीजें अवश्य ही हानिकारक हैं - जैसे सड़े-गले फल, सड़क पर बिकने वाली खुली भोजन सामग्री, बिना धुली गंदी चीजें, तंबाकू शराब इत्यादि। इन चीजों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है। इसके अतिरिक्त नियमित रूप से कसरत करना, टहलना भी स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। शरीर भगवान की एक अनमोल देन है। उसे भगवान का वरदान मानकर हमेशा स्वस्थ, साफ-सुथरा और सुंदर रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, तभी शरीर में बल रहता है और तभी व्यक्ति अपने जीवन के उद्‍देश्य की प्राप्ति के लिए पूरी तरह चेष्टा कर सकता है।

जो व्यक्ति शरीर की देखभाल नहीं करते, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। शरीर की देखभाल का स्थान प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति की दिनचर्या में होना नितांत आवश्यक है।

स्वस्थ शरीर के बिना सफल जीवन की कामना करना व्यर्थ है। शरीर की शक्ति ही मन की विविध शक्तियों को कार्य रूप देने में सफल हो सकती है। स्वस्थ जीवन बल यही शरीर की एकमात्र शक्ति है, किंतु इसके विपरीत मन की शक्तियाँ ही कई प्रकार की होती हैं। उनके नाम हैं बुद्धि, दृढ़ता और कल्पना। ये शक्तियाँ सब व्यक्तियों में समान रूप से निहित नहीं होतीं, लेकिन न्यूनाधिक मात्रा में हर एक के पास विद्यमान रहती हैं। स्वस्थ मन वाला व्यक्ति यदि चाहे तो इनका और अधिक विकास भी सहज ही कर सकता है।

यह सच है कि मन के स्वास्थ्य के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है और साथ ही शरीर के स्वास्थ्य के लिए मन का स्वस्थ होना भी आवश्यक है। दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। मन सूक्ष्म है, उसकी देखभाल करना शरीर की देखभाल करने की अपेक्षा अधिक कठिन है। इसलिए पहले शरीर को स्वस्थ बनाकर ही मन के स्वास्थ्‍य पर ध्यान देना उचित है। स्वस्थ मन वह है जिसकी बुद्धि हमेशा अच्छी बातों की प्रेरणा देती है तथा निरंतर ज्ञान के पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करती है। स्वस्थ मन की दृढ़ता व्यक्ति को उत्साहित रखती है और उसे अपने हर काम को पूरा करने में मदद देती है। स्वस्थ मन की कल्पना व्यक्ति को ऊँचा उठाने और अधिक अच्‍छा बनने में सतत सहायता करती है।

अस्वस्थ मन को बुद्धि बुरी दिशा की तरफ ले जाती है। अस्वस्थ मन में दृढ़ता होती ही नहीं और अस्वस्थ मन की कल्पना सदा भयावह होती है। बुद्धि दूसरों की बुराई सोचती है। दृढ़ता न रहने के कारण अस्वस्थ मन वाला व्यक्ति कोई भी काम नहीं कर पाता। उसकी कल्पना उसे असफलता तथा पतन की तस्वीरें ही उसके आगे प्रस्तुत करती है।

अब प्रश्न उठता है कि मन को स्वस्थ कैसे रखा जाए? मन को स्वस्थ रखने के लिए दो बातें बिल्कुल ही आवश्यक हैं। भगवान में दृढ़ विश्वास और सत्य का आचरण। भगवान में विश्वास न रहने पर व्यक्ति का जीवन अव्यवस्थित हो उठता है। उसे पता नहीं चलता कि वह जीवित ही क्यों है? ऐसे प्रश्न मन में उठकर उसे अशांत बना देते हैं और उसकी बुद्धि उद्‍भ्रांत-सी रहती है।

भगवान में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह जानता है कि भगवान ने उसे बनाया है, उसकी आत्मा भगवान का ही एक अंश है। भगवान ने उसे संसार में एक खास उद्‍देश्य से भेजा है - वह सुखी रहे, ज्ञान प्राप्त करे और अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को संसार को अच्छा करने में काम में लाए। ऐसा सोचने वाले व्यक्ति का मन सदा प्रसन्न, सदा शांत रहता है और अपने आप में वह शक्ति का अनुभव करता है। जो व्यक्ति यह जान लेता है कि वह एक उद्‍देश्य से संसार में आया है वह कभी भी बुरा आचरण नहीं करता है। सत्य को अपने जीवन की धुरी बनाकर वह हमेशा कठिन काम करता है।

अपना कर्तव्य भली-भाँति निभाता है और उसका मन सशक्त और प्रफुल्ल रहता है। मन में शक्ति रहने के कारण वह व्यक्ति समाज में सदा प्रतिष्ठित रहता है। दूसरे लोगों का श्रद्धा-पात्र रहता है।

मन को स्वस्थ रखने के लिए मन पर नियंत्रण रखना भी बहुत आवश्यक है। आज के संसार में बहुत सारे व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जो यह कहते हैं कि यदि भगवान ने हमें इच्छा, अभिलाषा, भावनाएँ, अनुभूतियाँ दी हैं तो हम उन्हें ‍छिपाकर क्यों रखें? मन जो कहे वही करना उचित है। ऐसा करने वाले लोग मन और प्रवृत्तियों के अंतर को स्पष्ट नहीं समझ सकते हैं। हम किसी के घर जाते हैं, वहाँ कोई बड़ी लुभावनी वस्तु यदि हमारे सामने आए तो क्या उसे हम उठा लेंगे? नहीं, प्रवृत्ति कहती है, 'वह हमारी हो जाए' लेकिन मन कहता है, नहीं, वह किसी और की है, हम उसे नहीं ले सकते। बीमार रहने पर कई बार हमारी जीभ, हमारा स्वाद चाहता है कि अमुक वस्तु खाएँ, लेकिन मन समझाता है, 'नहीं, यह ठीक नहीं। इसे खा लेने पर हम और अधिक बीमार हो जाएँगे।

पुस्तक 'बच्चो अच्छे बनो' से।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

संत का अनमोल ज्ञान


बोधकथा
एक बार इटली से संत फ्रांसिस के पास एक सत्संगी युवक आया। संत ने उससे हाल-चाल पूछा, तो उसने स्वयं को अत्यंत सुखी बताया! वह बोला, 'मुझे अपने परिवार के सभी सदस्यों पर बड़ा गर्व है। उनके व्यवहार से मैं संतुष्ट हूँ।'

संत बोले, 'तुम्हें अपने परिवार के प्रति ऐसी धारणा नहीं बनानी चाहिए। इस दुनिया में अपना कोई नहीं होता। जहां तक मां-बाप की सेवा और पत्नी-बच्चों के पालन-पोषण का संबंध है, उसे तो कर्तव्य समझकर ही करना चाहिए। उनके प्रति मोह या आसक्ति रखना उचित नहीं।'

युवक को बात जँची नहीं, बोला, 'आपको विश्वास नहीं कि मेरे परिवार के लोग मुझ पर अत्यधिक स्नेह करते हैं। यदि एक दिन घर न जाऊँ, तो उनकी भूख-प्यास उड़ जाती है और नींद हराम हो जाती है और पत्नी तो मेरे बिना जीवित ही नहीं रह सकती।'

संत बोले, 'तुम्हें प्राणायाम तो आता ही है। कल सुबह उठने के बजाय प्राणवायु मस्तक में खींचकर निश्चेष्ट पड़े रहना। मैं आकर सब सम्हाल लूँगा।'

दूसरे दिन युवक ने वैसा ही किया। उसे निर्जीव जान कर घर के सब लोग विलाप करने लगे। इतने में फ्रांसिस वहाँ पहुँचे। सब लोग उनके चरणों पर गिर पड़े। वे उनसे बोले, 'आप लोग शोक मत करें। मैं मंत्र के बल पर इसे जिलाने का प्रयत्न करूँगा, मगर इसके लिए कटोरी भर पानी किसी को पीना पड़ेगा। उस पानी में ऐसी शक्ति होगी कि पीनेवाला तो मर जाएगा, मगर उसके बदले यह युवक जी उठेगा।'

यह सुनते ही सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। पानी पीने के लिए किसी को आगे न आते देख संत बोले, 'तब मैं ही पीता हूँ।' इस पर सब उठे, 'महाराज! आप धन्य हैं! सचमुच संत महात्मा परोपकार के लिए ही जन्म लेते हैं। आपके लिए जीवन-मृत्यु एक समान हैं। यदि आप जिला सकें, तो बड़ी कृपा होगी।'

युवक को संत के कथन की प्रतीति हो गई थी। प्राणायाम समाप्त कर वह उठ बैठा और बोला, 'महाराज, आप पानी पीने का कष्ट न करें। सांसारिक संबंध क्षणिक और मिथ्या होते हैं, वह मैं जान गया हूँ। आपने सचमुच मुझे नया जीवन दिया है-प्रबुद्ध जीवन, जिससे एक नई बात मुझे मालूम हो गई है।'

प्रकृति और संस्कृति का मेल


मेट्रो शहरों की भागती-दौडती जिंदगी में जब दिल और दिमाग दोनों सुकून के पलों की तलाश में हो तो ऐसे में केंद्र शासित राज्य दादरा व नगर हवेली का नाम ध्यान में आता है। यह ऐसा ही नाम है जिसे हमनें सामान्य ज्ञान की किताबों से ही जाना-समझा। सिलवासा यहां का मुख्यालय है। दोनों तरफ से पेडों से घिरी हुई सडकें, क्षितिज तक फैली छोटी-छोटी पहाडियां, खिलखिलाती नदियां, सफेद चादर के समान जल-प्रपात, मखमली घास के मैदान.. छोटे से सिलवासा में पर्यटकों और प्रकृतिप्रेमियों के लिए बहुत कुछ समाया हुआ है। हर कदम पर कुछ नया, कुछ रोमांचक और थोडी ताजगी। सिलवासा पर प्रकृति किस तरह से मेहरबान हुई है, इस बात का अंदाजा यहीं से लगाया जा सकता है कि यहां के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का चालीस फीसदी आरक्षित वनक्षेत्र है। ये जंगल जबर्दस्त जैव विविधता से भरपूर हैं और कई किस्म के पक्षियों व जानवरों का बसेरा हैं। जंगलों में ट्रैकिंग पर जाइए, कठफोडवे की ठक-ठक के बीच दुर्लभ वनस्पतियों व औषधियों की सुंगध से मन को ताजा कीजिए और तितलियों के साथ रेस लगाइए.. यकीन मानिए कि प्रकृति की गोद से उतरने का मन नहीं करेगा। आप सतमलिया वन्यजीव अभयारण्य में जाएंगे तो सांभर, नीलगाय व चीतल मानो फैशन परेड करते मिलेंगे। अगर आपका मन जंगल के राजा शेर (एशियाटिक लॉयन) के दीदार का हो तो वसोना में सफारी का आनंद भी लिया जा सकता है। सुरक्षित वाहनों में बैठकर आप 20 हेक्टेयर में फैले इस क्षेत्र में शेर से आंख मिलाने की जुर्रत भी कर पाएंगे। देश में शेरों की कम होती तादाद को देखते हुए यहां जूनागढ से शेर लाए गए थे।

संस्कृति के दस्तावेज

सिलवासा आए भी, लेकिन यहां के लोकनृत्यों और रीति-रिवाजों से अनजान रहे तो सिलावासा भ्रमण को पूरा नहीं माना जा सकता। यहां ग्रामीण इलाकों में जाकर वहां के मूल निवासियों के रंगारंग लोकनृत्य, अनूठे रीति-रिवाज और अनूठे खान-पान का अनुभव लेना भी अपने आप में एक अनूठा अहसास है। यह अनुभव आपको सैकडों साल पहले के दौर में ले जाएगा। सिलवासा का ही जनजातीय संग्रहालय अपने अतीत की बढिया कहानी कहता है। कई स्मारकों की लकडियां व पत्थर दरअसल वहां के सांस्कृतिक इतिहास के दस्तावेज हैं। सिलवासा को वार्ली संस्कृति का घर भी माना जाता है। वार्ली भाषा दरअसल मराठी व गुजराती भाषाओं का एक मिश्रण है जिसे स्थानीय शैली में बोला जाता है।

एक समय था जब सिलवासा कई सदियों तक गोवा, दमन व दीव के साथ मिलकर पुर्तगालियों का उपनिवेश था। इसीलिए यहां भारतीय-पुर्तगाली संस्कृति की एक खास छाप देखने को मिलती है। इसी वजह से यहां बडी संख्या में रोमन कैथोलिक ईसाई भी हैं।

वॉटर स्पो‌र्ट्स का आकर्षण

द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक त्रयंबकेश्वर यहां से 90 किलोमीटर दूर है। इसके अलावा श्री राम के वनवास से जुडे कुछ स्थानों को 140 किलोमीटर दूर नासिक में देखा जा सकता है। आप चाहें तो दिनभर में शिरडी (90 किलोमीटर) जाकर साई बाबा के दर्शन करके शाम को वापस सिलवासा लौट सकते हैं। सैर-सपाटे के शौकीन हैं तो नासिक के कई वाइनयार्ड और वाइनरीज आपको बेहद आकर्षक लगेंगे। वे भी सिलवासा से बेहद नजदीक हैं।

सिलवासा से पांच किलोमीटर दूर दादरा पार्क और 35 किलोमीटर दूर दुधनी झील है। दादरा पार्क दरअसल वनगंगा कहलाता है। साढे सात हेक्टेयर से भी बडे इलाके में फैले इस पार्क में एक द्वीप है जो जापानी शैली के पुलों से जुडा है। पेड, झरने, नावें, रेस्तरां व जॉगिंग ट्रैक पार्क को इतना खूबसूरत बना देती हैं कि हर साल चार लाख से ज्यादा सैलानी इसे देखने आते हैं। इसकी लोकप्रियता का यह आलम है कि बीसियों फिल्मी गाने यहां शूट किए जा चुके हैं।

दुधनी झील में कई तरह के वाटर स्पो‌र्ट्स का इंतजाम है। सिलवासा जाने वाले वहां जाने से कभी नहीं चूकते। दुधनी के रास्ते में ही बिंद्राबिन नाम से ऐतिहासिक शिव मंदिर भी है। यहां भी पर्यटकों की सुविधा को देखते हुए टूरिस्ट कॉम्प्लेक्स तैयार कर दिया गया है। सिलवासा में प्रवेश से ठीक पहले ही पिपरिया में हिरवावन गार्डन है। यह बगीचा आदिवासियों की हरियाली की देवी हिरवा के नाम पर है। वाकई बगीचा उसी अनुरूप है भी। सिलवासा शहर में चर्च ऑफ ऑवर लेडी ऑफ पाइटी पुर्तगाली शिल्प का बढिया नमूना है। सिलवासा को लैंड ऑफ ऑल सीजंस भी कहा जाता है। जून से मानसून शुरू हो जाता है। वहां की हरियाली में मानसून का भी अलग मजा है, लेकिन आप चाहें तो गरमियां तेज होने से पहले भी वहां की सैर कर सकते हैं।

कब जाएं

सिलवासा जाने के लिए सभी मौसम बढिया हैं। पर खासतौर पर मानूसन में प्राकृतिक खूबसूरती को देखने के लिए जून महीने में भी जाया जा सकता है।

कैसे पहुंचें

सिलवासा पहुंचने के लिए पहले गुजरात के वापी पहुंचना होगा। वापी वडोदरा-मुंबई के मुख्य ट्रेन मार्ग पर स्थित है। मुंबई जाते हुए वापी वडोदरा से 200 और सूरत से 90 किलोमीटर दूर है। जबकि मुंबई से उत्तर की ओर आते हुए वापी 170 किलोमीटर दूर है। वापी से सिलवासा महज 10 किलोमीटर दूर है और वहां टैक्सी या बस आदि किसी भी साधन से पहुंचा जा सकता है।

कहां ठहरें

सिलवासा में कई रेंज के होटल मिल जाएंगे। बस स्टैंड के आसपास कई बजट होटल हैं। जो लोग गहरी जेब वाले हैं, उनके लिए दमनगंगा के किनारे व दादरा पार्क इलाके में कई आरामदेह रिजॉर्ट भी हैं। दरअसल दमनगंगा नदी ही दमन व सिलवासा को अलग करती है। दुधनी में कौंछा गांव में बेहद शानदार हिमईवन हेल्थ रिजॉर्ट भी है। पश्चिमी घाट के ठीक कदमों में स्थित यह जगह ट्रैकर्स की भी खास पसंद है।

अमन का दमन

दमन को देश के पश्चिमी तट पर सबसे आसानी से देखा जा सकता है। दमनगंगा नदी के अरब सागर से मिलन के ठीक मुहाने पर बसा हुआ है, दमन शहर। देश के विभिन्न लोकप्रिय पर्यटन स्थलों के सामने दमन का नाम कभी-कभार ही कानों को सुनाई पडता है। पर अपनी खूबसूरती के चलते पर्यटकों के लिए यह जगह आकर्षण का केंद्र दिखाई देती है। दमन को अपनी ऐतिहासिक विरासत के कारण कई संस्कृतियों का मिलन-बिंदु भी माना जाता है, शहरी व आदिवासी, भारतीय व पुर्तगाली।

लहरों से धुलते किनारे

दमन में दो समुद्रतट हैं- देवका बीच और जामपोरे बीच। देवका बीच जहां चट्टानों से भरा है, वहीं जामपोरे तट एक आदर्श, सुंदर समुद्रतट है। यह समुद्र में तैरने के शौकीन लोगों के लिए भी बहुत बढिया जगह है। यहां एक एम्यूजमेंट पार्क तट पर बना हुआ है।

जुडवां किलों का शहर

दमन का बोम जीसस चर्च सन् 1500 के लगभग बनवाया गया था। 1603 में इसका पुनर्निर्माण हुआ। तब से यह लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। यह चर्च शिशु जीसस को समर्पित है। यहां छह संतों की प्रतिमाएं हैं। चर्च का शिल्प भी बेहद आकर्षक है।

पारगोला गार्डन उन पुर्तगाली सैनिकों की याद में बना हुआ है जिन्होंने दादरा व नगर हवेली की आजादी की लडाई में अपनी जान की बाजी लगा दी थी। इस स्मारक का ढांचा ग्रीक शिल्प को समर्पित है। ग्रीस की राजधानी एथेंस में पेंथेओन से यह काफी मिलता-जुलता है।

दमन के दो हिस्सों- मोटी दमन और नानी दमन में एक-एक किला भी है। इसीलिए दमन को जुडवां किलों का शहर भी कहा जाता है। मोटी दमन का यह किला किसी भी सैलानी को सहज ही आकर्षित कर लेता है। सन् 1559 में बना यह किला तीस हजार वर्ग फुट इलाके में फैला है। आपको यह जानकर अचंभा होगा कि आज भी कई पुर्तगाली परिवार चर्च में ही रह रहे हैं। यहां का लाइटहाउस, शानदार बगीचे, ऐतिहासिक स्मारक व प्राचीन गोथिक शैली के चर्च बरबस ध्यान खींच लेते हैं। नानी दमन में भी एक किला जो मोटी दमन की तरह काफी बडा तो नहीं है, लेकिन इसी के साथ यहां एक प्राचीन चर्च भी है। नानी दमन में नानी दमन जेट्टी भी है जहां मछुआरों की नौकाएं खडी होती हैं। यहां जेट्टी से काफी करीब गांधी पार्क भी है।

कब जाएं

दमन समुद्रतट पर है, लिहाजा यहां सर्दियों में सर्दी उतनी नहीं पडती जितनी उत्तर भारत के बाकी इलाकों में पडती है। उत्तर की ठंड और गोवा की भीड से बचना हो तो दमन बेहद आकर्षक विकल्प हो सकता है। यूं यहां पूरे साल में कभी भी जाया जा सकता है।

कैसे पहुंचें

दमन पहुंचने के लिए पहले गुजरात में वापी आना होगा। वडोदरा-मुंबई के मुख्य ट्रेन मार्ग पर वापी स्थित है। वापी मुंबई जाते हुए वडोदरा से 200 और सूरज से 90 किलोमीटर दूर है। जबकि मुंबई से उत्तर की ओर आते हुए वापी 170 किलोमीटर दूर है। वापी से दमन महज 10 किलोमीटर दूर है और वहां टैक्सी या बस इत्यादि किसी भी साधन से पहुंचा जा सकता है। हवाई मार्ग से मुंबई यहां सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है।

फीचर

तैयारी का बूस्टर डोज
एआईपीएमटी प्रारंभिक परीक्षा का रिजल्ट आ चुका है। इसमें जो स्टूडेंट्स उत्तीर्ण हो चुके हैं, उन्हें तैयारी के लिए अभी से जुट जाना बेहतर होगा। मुख्य परीक्षा 16 मई को होगी। अब तैयारी के लिए समय बहुत कम है। यदि इन बचे हुए समय का सही उपयोग करते हैं, तो आप बन सकते हैं एमबीबीएस डॉक्टर।
एग्जामिनेशन पैटर्न
मुख्य परीक्षा में उन्हीं अभ्यर्थियों को बैठने की अनुमति मिलेगी, जो प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके हैं। इस बार से सीबीएसई की मुख्य परीक्षा ऑब्जेक्टिव टाइप की होगी, जिसमें 120 प्रश्न पूछे जाएंगे। कुल प्रश्नों में 60 प्रश्न बायोलॉजी से और 30-30 फिजिक्स और केमिस्ट्री से पूछे जाएंगे। इसमें निगेटिव मार्किग का प्रावधान है। परीक्षा के लिए कुल 3 घंटे निर्धारित होंगे। तीन घंटे में सभी प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य होगा। इसमें सफल होने वाले स्टूडेंट्स का ऑल इंडिया बेसिस पर रैंक बनाई जाएगी। रैंक के आधार पर देश भर के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में से किसी एक मेडिकल कॉलेज में पढने के योग्य हो जाएंगे।

कैसे करें तैयारी

प्रारंभिक परीक्षा का उद्देश्य भीड को छांटना होता है। इस कारण इसमें निर्धारित सीट से अधिक स्टूडेंट्स का चयन किया जाता है। मुख्य परीक्षा में निर्धारित सीट के अनुसार ही स्टूडेंट्स का चयन किया जाता है। मुख्य परीक्षा प्रारंभिक परीक्षा के मुकाबले काफी कठिन होती है। पहले मुख्य परीक्षा डिस्क्रिप्टिव होती थी, लेकिन इस बार से प्रारंभिक परीक्षा की तरह मुख्य परीक्षा भी ऑब्जेक्टिव टाइप होगी। इस कारण इस परीक्षा में एक-एक नंबर रैंक निर्धारित करने में अहम होंगे।

गलतियों से लें सबक

यदि आप मुख्य परीक्षा के लिए सफल हो चुके हैं, तो आप सबसे पहले यह सुनिश्चित करें कि आपने जो गलतियां प्रारंभिक परीक्षा में की हैं, उन्हें किसी भी हालत में नहीं दोहराएंगे। इसके अलावा आप जिस क्षेत्र में कमजोर हैं, उन्हें दूर करने की कोशिश करें। मुख्य परीक्षा में सफल होने के लिए आपको तीनों विषयों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा। बायोलॉजी के साथ आप फिजिक्स और केमिस्ट्री में बेहतर प्रदर्शन करते हैं, तो सफलता के चांसेज नि:संदेह बढ जाएंगे।

बनाएं विषयों पर पकड

इस समय बेहतर स्ट्रेटेजी यह होगी कि आप सभी विषयों के प्रमुख अध्याय सेलेक्ट कर लें और उसी को दोहराएं। बायोलॉजी की तैयारी के लिए एनसीईआरटी पुस्तकों के प्रमुख अध्याय को पढें। इसी तरह की रणनीति फिजिक्स और केमिस्ट्री विषयों के लिए भी बनाएं, तो बेहतर होगा। फिजिक्स में थ्योरी की अपेक्षा न्यूमेरिकल्स पर फोकस करें, तो बेहतर होगा। इसके लिए आप ज्यादा से ज्यादा फॉर्मूले तैयार करें। जो न्यूमेरिकल्स प्रारंभिक परीक्षा में नहीं कर पाए हैं, उन्हें करने का अभ्यास करें। इसके अलावा फिजिक्स के महत्वपूर्ण सूत्रों को याद रखने की कोशिश करें। यदि आप फिजिक्स के न्यूमेरिकल्स में बेहतर करेंगे, तो केमिस्ट्री के न्यूमेरिकल्स भी अच्छी तरह से कर पाएंगे। फिजिकल केमिस्ट्री में न्यूमेरिकल, ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में केमिकल रिएक्शन और इनऑर्गेनिक में थ्योरी से संबंधित प्रश्नों पर अधिक फोकस करें। यदि आप इस तरह की रणनीति बनाकर मुख्य परीक्षा की तैयारी करेंगे, तो कोई कारण नहीं कि आप इस परीक्षा में सफल न हो सकें।

लतीफ़े

पुलिस हाई अलर्ट के टाइम शर्मा जी के घर तलाशी लेने गयी।
पुलिस- खबर है कि आपके घर में विस्फोटक सामग्री है।
शर्मा जी- सर वो मायके गयी हुई है।

पति भागा-भागा होटल मैनेजर के पास गया, जल्दी चलो! मेरी बीवी खिड़की से कूदकर जान देना चाहती है।
होटल मैनेजर- तो इसमें मैं क्या करूं?
पति- खिड़की नही खुल रही है।

पति (पत्नी से)- विद्वानों ने कहा है कि मूर्खो की बीवी बहुत सुंदर होती है।
पत्नी (पति से)- आपके पास तो हमारी तारीफ करने के सिवा कोई काम ही नही है।

पत्नी (पति से)- ये क्या हरकत है, मैं तुमसे इतनी देर से बात कर रही हूं और तुम बार-बार जम्हाई ले रहे हो।
पति (पत्नी से)- मैं जम्हाई नहीं ले रहा हूं बल्कि तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा हूं।

बहू की विदाई के बाद घर आने पर सास ने कहा- बेटी आज से मुझे मां और अपने ससुर को पापा कहना...
शाम को पति के आने पर पत्नी बोली, मां भैया आ ये...

मां- बेटा तुम अपने बाल क्यों नही कटवाते?
बेटा- क्यों मां?
मां- बेटा लोग रिश्ते के लिए तुम्हारी बहन को देखने आते हैं और पसंद तुम्हें कर जाते हैं।

अध्यापक (चिंटू से)- 3 जमा 5?
चिंटू- 8
अध्यापक- 7 जमा 3?
चिंटू- 10
अध्यापक- 8 जमा 8?
चिंटू- पता नही सर मेरे पास सिर्फ 10 ही उंगली है।

चिंटू- पापा आप प्रेस क्यों कर रहे हो।
पापा- प्रेस करने से सलवटें निकल जाती हैं।
चिंटू- फिर तो अच्छा है पापा मैं दादाजी के गाल की भी सलवटें निकाल दूंगा।

राजू अपनी मां से स्कूल ना जाने की जिद कर रहा था। मां उसे समझाते हुए बोली, बेटे स्कूल जाओगे तो बड़ा आदमी बनोगे। तुम्हारे पास बहुत पैसे होंगे, कार होगा। राजू मां की बात मान कर स्कूल चला गया।

क्लास में टीचर ने पूछा- बच्चों बताओ, किताबें कहां मिलती हैं?
एक बच्चा- बुक स्टोर में।
टीचर- कार कहां मिलती है?
राजू- स्कूल में।


अध्यापक (राजू से)- आज का पेपर आसान था या मुश्किल...
राजू (अध्यापक से) पढ़ने में तो आसान था, पर करने में मुश्किल।

*** तीन स्टार

चमकते शहर का अंधेरा सिटी आफ गोल्ड
 मुख्य कलाकार : शशांक शेंडे, अंकुश चौधरी, सीमा विश्वास, विनीत कुमार, करण पटेल, सतीश कौशिक, कश्मीरा शाह, गणेश यादव

निर्देशक : महेश मांजरेकर

तकनीकी टीम : निर्माता - ओम राउत, विवेक रंगाचारी, निखिल डिरोजैरियो, कथा-पटकथा - जयंत पवार, महेश मांजरेकर, गीत - श्रीरंग गोडबोले, संगीत - अजीत परब

फीलगुड और चमक-दमक से भरी फिल्मों के इस दौर में धूसर पोस्टर पर भेडि़यों सी चमकती आंखों के कुछ चेहरे चौंकाते हैं। हिंदी फिल्मों के पोस्टर पर तो अमूमन किसी स्टार का रोशन चेहरा होता है। सिटी आफ गोल्ड हिंदी की प्रचलित फिल्म नहीं है। महेश मांजरेकर ने आज की मुंबई की कुछ परतों के नीचे जाकर झांका है। उन्होंने नौवें दशक के आरंभिक सालों में मुंबई के एक कराहते इलाके को पकड़ा है। यहां भूख, गरीबी, बीमारी और फटेहाली के बीच रिश्ते जिंदा हैं और जीवन पलता है। समाज की इन निचली गहराइयों पर विकास की होड़ में हम नजर नहीं डालते।

महेश मांजरेकर ने मुंबई के मिलों की तालाबंदी के असर को दिखाने के लिए एक चाल चुना है। इस चाल के दड़बेनुमा कमरों में मिल मजदूरों का परिवार रहता है। सिटी आफ गोल्ड की कहानी धुरी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है। इस परिवार का एक बेटा बाबा ही कहानी सुनाता है। बाबा के साथ अतीत के पन्ने पलटने पर हम धुरी परिवार की जद्दोजहद से परिचित होते हैं। लेखक जयंत पवार और निर्देशक महेश मांजरेकर ने सोच-समझ कर सभी चरित्रों को गढ़ा है। उनका उद्देश्य मुख्य रूप से मिलों की हड़ताल के बाद इन परिवारों की दुर्दशा, भटकाव और बिखरते सपनों को चित्रित करना रहा है।

मिल मालिकों के प्रतिनिधि के तौर पर महेन्द्र हैं। सिटी आफ गोल्ड टकराव से अधिक बिखराव, भटकाव और टूटन पर फोकस करती है। धुरी परिवार की चार संतानों (तीन बेटे और एक बेटी) के चुने भिन्न राहों के जरिए हम उस समय के माहौल को अच्छी तरह समझ पाते हैं।

वास्तव की जोरदार दस्तक से आए निर्देशक महेश मांजरेकर हिंदी फिल्मों की चकाचौंध में अपनी वास्तविकता खो बैठे थे। एक अंतराल के बाद वे अपनी विशेषताओं के साथ इस फिल्म में नजर आते हैं। हालांकि सिटी आफ गोल्ड में वास्तव की शैली का प्रभाव है, लेकिन यही महेश मांजरेकर का स्वाभाविक सिग्नेचर है। महेश मांजरेकर ने इस फिल्म में सच्चाई की सतह को अधिक खुरचने की कोशिश नहीं की है। वे मिलों की हड़ताल और मिल मजदूरों के उजड़ने के पीछे की राजनीति में नहीं जाते। फिर भी यह संकेत देने से नहीं चूकते कि मिल मालिकों की लिप्सा और पालिटिशियन के स्वार्थ ने ही मुंबई के उन इलाकों को पहले वीरान किया, जहां आज ऊंची इमारतें, शापिंग माल और मल्टीपलेक्स खड़े हैं। आज की चमकती मुंबई की नींव में गहरा अंधेरा है। इस गहरे अंधेरे के ही धूसर चरित्र सिटी आफ गोल्ड में नजर आते हैं।

शशांक शेंडे, सीमा विश्वास, सचिन खेडेकर जैसे धुरंधरों के साथ विनीत कुमार, करण पटेल, सिद्धार्थ जाधव और वीणा जामकर जैसे अपेक्षाकृत नए कलाकारों का सहज अभिनय फिल्म का आकर्षण है। इन चारों ने अपने किरदारों को जीवंत और प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है। खास कर विनीत और करण उम्मीद जगाते हैं। सिटी आफ गोल्ड ने हिंदी फिल्मों को कुछ नए भरोसेमंद चेहरे दिए हैं।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

लतीफ़े

संता (बंता से)- मेरी बकरी ने अंडा दिया है।
बंता (संता से)- बकरी कैसे अंडा दे सकती है।
संता- अबे गधे मैंने अपनी मुर्गी का नाम बकरी रखा है।


पुलिस हाई अलर्ट के टाइम शर्मा जी के घर तलाशी लेने गयी।
पुलिस- खबर है कि आपके घर में विस्फोटक सामग्री है।
शर्मा जी- सर वो मायके गयी हुई है।


मां- बेटा तुम अपने बाल क्यों नही कटवाते?
बेटा- क्यों मां?
मां- बेटा लोग रिश्ते के लिए तुम्हारी बहन को देखने आते हैं और पसंद तुम्हें कर जाते हैं।


एक भिखारी की लॉटरी लगी तो वो एक मंदिर बनवाता है।
दूसरा भिखारी- यार तू मंदिर क्यों बनवा रहा है।
भिखारी- क्योंकि इसके सामने मैं अकेला भीख मांगूंगा।


डॉक्टर (मरीज से)- कमजोरी है फल खाया करो छिलके सहित।
एक घंटे बाद..
मरीज- डॉक्टर साहब मेरा पेट दर्द हो रहा है।
डॉक्टर- क्या खाया था?
मरीज- नारियल छिलके सहित।

लतीफ़े

संता (बंता से)- मेरी बकरी ने अंडा दिया है।
बंता (संता से)- बकरी कैसे अंडा दे सकती है।
संता- अबे गधे मैंने अपनी मुर्गी का नाम बकरी रखा है।


पुलिस हाई अलर्ट के टाइम शर्मा जी के घर तलाशी लेने गयी।
पुलिस- खबर है कि आपके घर में विस्फोटक सामग्री है।
शर्मा जी- सर वो मायके गयी हुई है।


मां- बेटा तुम अपने बाल क्यों नही कटवाते?
बेटा- क्यों मां?
मां- बेटा लोग रिश्ते के लिए तुम्हारी बहन को देखने आते हैं और पसंद तुम्हें कर जाते हैं।


एक भिखारी की लॉटरी लगी तो वो एक मंदिर बनवाता है।
दूसरा भिखारी- यार तू मंदिर क्यों बनवा रहा है।
भिखारी- क्योंकि इसके सामने मैं अकेला भीख मांगूंगा।


डॉक्टर (मरीज से)- कमजोरी है फल खाया करो छिलके सहित।
एक घंटे बाद..
मरीज- डॉक्टर साहब मेरा पेट दर्द हो रहा है।
डॉक्टर- क्या खाया था?
मरीज- नारियल छिलके सहित।

गुलजार से श्रोताओं का सीधा संवाद


गुलजार की शायरी और उनके लेखन में संवेदनाओं का एक व्यापक संसार उपस्थित है। प्रेम, सौंदर्य, अवसाद, मिलन, बिछोह, रुसवाई और बेवफाई के गहरे अहसासों से भरी हुई उनकी रचनाओं से जब कोई एक तस्वीर बनायी जाए, जिंदगी की मुश्किलों और दुश्वारियों से रू-ब-रू गुलजार उसमें एक नया रंग भरते दिखाई देने लगते हैं। उन्हें मालूम है कि जिंदगी के रंग हजार हैं, इसलिए साहित्य का भी रंग एक नहीं हो सकता। गुलजार की शायरी को, उनके साहित्य को, जिंदगी के इन्हीं हजार-हजार रंगों को, उनके खूबसूरत और दर्द भरे लम्हों में पकड लेने की कलात्मक कोशिशों के रूप में देखा जा सकता है। ऐसी कोशिशों के रूप में, जिनमें जिंदगी को बांध लेने का गहरा फलसफा शामिल है। यह गुलजार की अदबी शख्सियत की वह खास ताकत है जो उन्हें भीड से अलग ही नहीं करती, बल्कि एक नये प्रतिमान के रूप में प्रस्तुत भी करती है। आस्कर जैसा विश्वस्तरीय पुरस्कार भी उनके नाम के साथ जुड चुका है। जबकि भारतीय फिल्म जगत को अपने विशिष्ट योगदान के लिए वह बीस बार फिल्मफेयर और सात बार नेशनल अवार्ड से पहले ही नवाजे जा चुके हैं। एक रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार और अजीम शख्सियत के तौर पर पद्मभूषण सम्मान से भी गुलजार विभूषित हैं।

विमला देवी फाउंडेशन न्यास की दसवीं वर्षगांठ पर अयोध्या के राजसदन में आयोजित समारोह में भाग लेने आये गुलजार शनिवार की रात श्रोताओं से संवाद कार्यक्रम में सीधे मुखातिब हुए। न्यास के सचिव एवं कवि-आलोचक यतीन्द्र मिश्र ने इस टिप्पणी के साथ श्रोताओं को संवाद के लिए आमंत्रित किया कि गुलजार ने अभिव्यक्ति के लिए ढेरों रचनात्मक माध्यमों को चुना है। एक फिल्म बनाते हुए वे आसानी से किसी गजल की मनोभूमि में टहलते हुए पाये जा सकते हैं या फिर एक कहानी लिखते वक्त उनके जेहन में आसानी से किसी नयी फिल्म की पटकथा आकार ले रही होती है। इस तरह परस्पर एक दूसरे को समृद्ध करने वाली परिस्थितियों में रहते हुए गुलजार के अपने विचारों, सरोकारों और चिन्ताओं का दायरा इतना व्यापक हो जाता है कि फिर उनके लिए अभिव्यक्ति का कोई एक माध्यम काफी नहीं रह जाता। प्रस्तुत है संवाद के प्रमुख अंश-

संस्कृति को बचाने की पहल का समर्थन

वक्त की इस आंधी में साहित्य, संगीत और संस्कृति की जडों को बचाये रखने के लिए होने वाली हर पहल में मैं साथ हूं। पश्चिमी संगीत को कोसने और उसके प्रभाव को लेकर हाय-तौबा मचाने से कुछ नहीं होगा। पश्चिमी संगीत को भी समझना होगा। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के संगीत (रवीन्द्र संगीत) में दोनों का अद्भुत सामंजस्य दिखता है। हमारी संगीत परम्परा बहुत समृद्ध है। जरूरत है इसकी जडों को सींचते रहने की। यह काम आज ए आर रहमान जैसे संगीतकार बेहतर ढंग से कर रहे हैं।

[आस्कर का श्रेय रहमान को?]

स्लमडाग मिलेनियर फिल्म के गीत जय हो को आस्कर पुरस्कार मिलने का सारा श्रेय ए आर रहमान को जाता है। मेरा अपना मानना है कि यह गीत, शानदार संगीत संयोजन की वजह से इतना लोकप्रिय हुआ। रहमान का संगीत वाकई जादुई है। उन्होंने विश्व मानचित्र पर भारतीय संगीत की धाक जमा दी है।

[हिंदी में क्यों नहीं है समृद्ध बाल साहित्य?]

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी व उर्दू में समृद्ध बाल साहित्य नहीं है। इन दोनों जुबानों में बच्चों के लिए नियमित रूप से लिखने वाले रचनाकार नहीं हैं। हिन्दी में उपलब्ध ज्यादातर बाल साहित्य पश्चिम का है। भारतीय भाषाओं में बांग्ला, मराठी व मलयालम में प्रचुर व उपयोगी बाल साहित्य उपलब्ध है। बांग्ला बाल साहित्य को प्रख्यात फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे के पिता सुकुमार रे ने भी काफी समृद्ध किया है।

[अब नाना बन गया हूं.]

अभी कुछ ही हफ्ते पहले मैं नाना बन गया हूं। इस कारण बच्चों के लिए लिखने के प्रति अब पहले से ज्यादा संजीदा हो गया हूं। मेरा मानना है कि बच्चों के लिए लिखना ज्यादा चुनौतीपूर्ण और जवाबदेही भरा है, क्योंकि बच्चे जस का तस स्वीकार करते हैं। प्रतिकार नहीं कर पाते। फिर उनके लिए उनकी जुबान में लिखना होता है, ताकि आसानी से संप्रेषणीय हो। वैसे मैं बोसकी का पंचतंत्र और बच्चों के लिए गीत लिखने के अलावा चकमक में लिखता रहता हूं। फिर भी मेरा मानना है कि बच्चों के लिए और लिखने की जरूरत है।

[टैगोर पर फिल्म न बना पाने का अफसोस?]

मैने मुंशी प्रेमचंद पर 15 घंटे की फिल्म बनायी थी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर पर भी ऐसी ही फिल्म बनाने का प्रस्ताव दूरदर्शन को दिया था, लेकिन अफसोस है कि दूरदर्शन ने प्रस्ताव को अब तक मंजूरी नहीं दी। दरअसल गुरुदेव की काव्यात्मक कहानियों पर अब तक कोई काम नहीं हुआ है। धर्मवीर भारती पर भी वृत्तचित्र बनाने का इरादा था लेकिन दूरदर्शन के टालू रवैये के कारण ही संभव नहीं हो पाया।

[शीघ्र प्रकाशित होने वाले गीतों का संग्रह]

शायरी व नज्मों के संग्रह यार जुलाहे के बाद मेरे गीतों का संग्रह मीलों के दिन भी शीघ्र प्रकाशित होने वाला है। इसका सम्पादन भी यतीन्द्र मिश्र ही कर रहे है। इसमे मेरे 1200 गीतों में से चुने हुए 100 गीतों को शामिल किया गया है।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

दुनिया को हँसाने वाला चार्ली चैप्लिन

जन्मदिन : 16 अप्रैल पर विशेष
चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन दुनिया के महानतम अभिनेता थे। न सिर्फ अच्छे अभिनेता बल्कि एक अच्छे इंसान भी। 16 अप्रैल को उनका जन्मदिन है। ब्रिटेन में पैदा हुए और अमेरिका में जाकर दुनियाभर में मशहूर हुए चार्ल्स ने घोर गरीबी देखी। माँ-पिता को अलग होते देखा। भूख और बदलते रिश्तेदारों को देखा। घर के लगातार बदलते पते देखे। और फिर आखिरकार अपनी माँ को इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद यह महान कलाकार दुखी लोगों के होंठों पर हँसी खिलाने के लिए अभिनय करता रहा। चार्ली ने अपने दुखों की बात करते हुए भी कहा था - 'कि मुझे बारिश में भीगना अच्‍छा लगता है क्योंकि तब कोई भी मेरे आँसू नहीं देख सकता है।'
मैं स्टेज पर कैसे पहुँचा...
मेरी माँ गायिका थी। लगातार गाने से मेरी माँ की आवाज अक्सर खराब हो जाया करती थी। फिर भी उन्हें थिएटर में काम करना पड़ता था। कभी तो उनकी आवाज बीच में ही अटक जाती। सिर्फ फुसफुसाहट ही बचती थी। इसी कारण उनका नाटक कैरियर समाप्त हो गया। माँ की आवाज बिगड़ने के कारण मुझे पाँच वर्ष की आयु मैं उनके साथ थिएटर जाना पड़ा। उन दिनों वे एक ऐसे नाटक में काम कर रही थीं जो रंगरूटों के मनोरंजन के लिए ही रखा गया था।
एक दिन मैं स्टेज के गलियारे में खड़ा था कि अचानक मेरे कानों में माँ की थरथराती काँपती और फिर खो जाती आवाजें आई। लोग हँसने लगे। फब्तियाँ कसने लगे। दर्शकों में ज्यादातर फौजी थे। स्टेज से उतरकर मेरी माँ उदासी और अवसाद लिए आई। तभी थिएटर के मैनेजर ने घबराहट में मुझे उसकी जगह स्टेज पर जाने की सलाह दी। बस तभी स्टेज पर मेरा आना हुआ।
फ्लड लाइट की चमक और सामने अनेक आँखों के मैंने गाना शुरू किया। इसी दौरान एक मजेदार वाकया हुआ। स्टेज पर सिक्के फेंके जाने लगे। मैंने प्रेक्षकों को सुनाते हुए हुए कहा कि मैं पैसे पहले उठाऊँगा, बाद में नाचूँगा, गाऊँगा। इस बात पर दर्शक खूब हँसे। तभी मैंने देखा कि मैनेजर एक रुमाल लेकर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने लगा।
मुझे लगा कि ये पैसे वह अपने पास रख लेगा। इस आशंका के कारण मैं उसके पीछे-पीछे गया। जब उसने पैसे माँ को दे दिए, तभी मैं स्टेज पर आकर गाने-नाचने लगा। दर्शकों से बातें भी करने लगा। मेरी इस अदा पर दर्शक खूब ठहाके लगाते रहे। मैंने माँ की नकल करते हुए उनके गीत गाना शुरू किए। जब मेरी माँ स्टेज पर मुझे लेने आई, तो उनके आगमन पर प्रेक्षकों ने जोरों से तालियाँ बजाई। मेरी माँ का स्टेज पर यह आखिरी कार्यक्रम था और मेरा पहला कदम।
मेरे दोस्त और हमसफर
सन १९१८ में चार्ली ने अपने नवनिर्मित स्टूडियो में पहली फिल्म बनाई- एक कुत्ते की जिंदगी। इस फिल्म में उन्होंने यह बताने की कोशिश की थी कि एक बेकार युवक की जिंदगी कुत्ते से भी बदतर होती है। फिल्म में एक कुत्ता था-मॅट। मॅट चार्ली से बहुत प्यार करता था। फिल्म पूरी करने के बाद चार्ली युद्ध कोष के लिए धन जुटाने "बॉण्ड-टूर" पर निकल गए। मॅट चार्ली को बहुत चाहता था तो उनके विरह में उसने खाना-पीना छोड़ दिया और प्राण त्याग दिए। उसे स्टूडियो में दफनाया गया। लौटने पर चार्ली ने उसकी छोटी सी समाधि बनवाई। मृत्यु-लेख की शिला पर लिखा गया- दिल टूटने से मौत।

चार्ली की फिल्म में यह कुत्ता अमर है। चार्ली को कुत्तों से बहुत प्यार था। एक बार चार्ली सड़क के एक कुत्ते की आँखों में कातरता देखकर द्रवित हो गए और उसे होटल में ले जाकर भरपेट भोजन कराया। शायद यही वजह थी कि चार्ली कुत्ते के मूक अभिनय में कमाल की दक्षता रखते थे, जिसकी झलकियाँ उनकी फिल्मों में दिखाई देती है।

मेरा अंदाज
अपनी खास घसीटवाँ चाल के बारे में चार्ली ने एक बार बताया था कि उन्होंने रुमी बिंक्स नाम आदमी को देखकर इसे अपनाया था। रुमी उनके चाचा के पब के बाहर कोचवानों के घोड़े संभालकर रखने का काम करता था, जिससे उसे टिप में एकाध पेनी मिल जाती थी। वह नाटा-सा आदमी था, लेकिन किसी विशालकाय आदमी की पतलून पहनता था। उसके पाँव फूले हुए थे, जिन्हें वह घसीटकर चलता था।
चार्ली को उसकी चाल देखकर बड़ा आनंद आया। जब उसने अपनी माँ को उसकी चाल की नकल करके दिखाई तो माँ ने कहा कि शरीर से लाचार लोगों की नकल नहीं करना चाहिए। लेकिन खुद चार्ली को उसकी नकल करते देखकर देर रात तक माँ हँसती रही। अभ्यास के साथ चार्ली ने यह चाल सीख ली जो उनकी पहचान बन गई।

गाँधीजी और चार्ली की ‍मुलाकात
२३ सितम्बर १९३१ को जब गाँधीजी और चार्ली चैप्लिन संयोग से लंदन में थे तो दोनों की मुलाकात हुई। इस मुलाकात के वक्त गाँधीजी और चार्ली दोनों के प्रशंसकों का हुजूम रास्ते पर जमा हो गया था। बहुत भीड़ हो गई। ऐसा कहा जाता है कि इस संक्षिप्त मुलाकात में गाँधीजी ने चार्ली से कहा था कि असली आजादी तो तभी मिल सकती है जब हम गैर जरूरी चीजों से छूट सके। कहा जाता है कि इस मुलाकात के बाद ही चार्ली ने गाँधी जी के विचारों को जाना और समझा कि वे बढ़ते मशीनीकरण हैं। इस विषय पर बाद के वर्षों में चार्ली ने "मॉडर्न टाइम्स" मर्मस्पर्शी फिल्म बनाई थी जो उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में है।

मैं और मेरे काम
अपनी आत्मकथा में चार्ली ने अपने कामों के बारे में लिखा है - 'अब मैं बहुधंधी हो चला था, झाड़-फानूस की दुकान का नौकर होने से लेकर बिस्कुट, साबुन और मोमबत्ती तक बेचता था। एक डॉक्टर के यहाँ भी मैंने काम किया, जहाँ मुझे मरीजों के पेशाब के बर्तन धोने पड़ते थे। दस-दस फुट ऊँची खिड़कियाँ भी धोना होता था। एक दिन यह कहकर कि अभी मैं इस काम के लिए बहुत छोटा हूँ, मुझे हटा दिया गया।

मेरा स्कूल
मैं हैनवेस नामक स्कूल में दाखिल हुआ और लगभग एक वर्ष तक रहा। वहीं मैंने अपना नाम "चैप्लिन" लिखना सीखा और मुझे मेरे नाम से प्यार हो गया। स्कूल मेरे लिए ज्ञान का द्वार था। मुझे इतिहास, कविता और विज्ञान मुझे अच्छा लगता था मगर अंकगणित और उसका घटाना-जोड़ना बड़ा ही उबाऊ। इतिहास मुझे राजाओं की दास्तान, हत्या और युद्वों से भरी हुई लगी। भूगोल मुझे केवल नक्शों का अंबार और कविता यादों की पाठन विद्या ही लगे। कुल मिलाकर शिक्षा मुझे ज्ञान और तथ्यों की एक कतार लगी, जिससे मैं अचकचा गया।