बुधवार, 31 मार्च 2010

खुशी बाहर नहीं, हमारे मन में होती है


जो खुशी हम बाहरी साधनों में ढूँढ़ते हैं वह हम में ही छुपी होती है। हम हमारी खुशी या दुख का कारण दूसरों को बताते हैं, लेकिन वास्तविक कारण हमारा दिमाग होता है, जो तमाम कार्यों को संचालित करता है।
यह बात ब्रह्माकुमारी शिवानी बहन ने जाल सभागृह में कही। यहाँ नेशनल मैनेजमेंट डे के मौके पर इंदौर मैनेजमेंट एसोसिएशन (आईएमए) द्वारा कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इसमें ब्रह्माकुमारी शिवानी बहन ने "कॉपिंग द चैलेंजेस ऑफ अनसर्टेनिटी" विषय पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि हमें दिमाग को नियंत्रित करना आना चाहिए, जो मेडिटेशन से ही संभव है। व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के कारण हम जीवनभर मेडिटेशन को समय नहीं देते और जब बुढ़ापे में करते हैं तो महसूस होता है कि यही काम पहले किया होता तो जीवन की यात्रा और भी सुखद होती। मेडिटेशन हमें हमारे दिमाग को नियंत्रित कर सुखद और खुशहाल जीवन जीने का तरीका सिखाता है।
माँग, अपेक्षा और नाराजी के कारण हम खुद हमारे दुखों का कारण बन जाते हैं और दुखी होने लगते हैं। लेकिन हमें सोचना चाहिए कि जैसे मैं सही हूँ वैसे ही सामने वाला भी सही हो सकता है और हमें उससे माफी की अपेक्षा नहीं होना चाहिए। अगर हम दूसरों को बदलने की भावना के साथ थोड़ा खुद को भी बदलें तो अपने आप दुख और चिंता कम हो जाएगी।
सवालों के जरिए बेहतर जीवन का पाठ
ब्रह्माकुमारी शिवानी बहन ने कार्यक्रम के दौरान श्रोताओं से कई तरह के सवाल पूछे और खुश रहने के तरीके बताए। व्यवसाय और रिश्तों में अंतर बताते हुए उन्होंने बताया कि आप खुद से पूछें कि मेरे मन या दिमाग पर किसका नियंत्रण है? मेरा मूड दूसरों के कारण खराब क्यों हो जाता है? मेरा मन मेरा नहीं है तो किसका है? इसी तरह के कई सवालों से उन्होंने बताया कि खुश होना हमारे सकारात्मक विचारों पर निर्भर करता है। हम किसी और से खुद की तुलना कर दुखी होते हैं, लिहाजा खुश होना हमारे हाथों में होता है।

खुशी बाहर नहीं, हमारे मन में होती है


अब तक रिजल्ट आ चुके हैं। जिन्होंने परीक्षा में अच्छा किया था उनका रिजल्ट भी अच्छा आया होगा। जिन्होंने अच्छे पर्सेंटाइल पाए उन्हें खूब बधाई और जिन्हें नहीं मिले वह भी निराश न हों, एक बार फिर नए सिरे से प्रयास में लग जाएँ क्योंकि किसी ने ठीक ही कहा है 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत'।
नया सेशन अब शुरू हो रहा है। अच्छे रिजल्ट पर जो खुश हैं उन्हें अगली परीक्षा में भी इसी तरह के रिजल्ट के लिए सालभर मेहनत करना होगी। स्पेक्ट्रम के कुछ पाठक अभी से इंजीनियरिंग और मेडिकल इंट्रेंस की तैयारी में लग गए होंगे। यह जरूरी है कि जल्दी लक्ष्य तय करो और फिर उसे पाने के लिए अपनी तरफ से खूब मेहनत करो। जो लगातार मेहनत करता है सफलता उसे ही मिलती है।
छुट्‍टी खत्म होते ही हम तुम्हें डरा नहीं रहे हैं बल्कि बता रहे हैं कि एक दिन में कोई अच्‍छा काम नहीं होता। उसके लिए गातार कोशिश करना होती है। तो तुम भी अभी से लक्ष्य तय करके चलना। बीच-बीच में स्पेक्ट्रम आपके लिए नए-नए विषय लेकर आती रहेगी। हम आपको आपके लक्ष्य की याद दिलाते रहेंगे और साथ ही आसपास क्या नया हो रहा है उस बारे में भी बातें होती रहेंगी। तो स्पेक्ट्रम के साथ मजे में रहो।

जैसी संगत वैसी रंगत

 (अरुण कुमार बंछोर)

आपने यह कहावत तो सुनी होगी कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। इस कहावत का अर्थ यह है कि संगत का असर हर किसी पर कम या अधिक होता ही है। इस कहावत से मिलती-जुलती राय समाजविज्ञानियों और वैज्ञानिकों की भी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चों की आदतों पर उनके भाई-बहनों और मित्रों के व्यवहार और तौरतरीकों का बहुत ज्यादा असर होता है। बच्चे ज्यादातर बातें अपने भाई-बहनों को देखकर ही सीखते हैं।
अमेरिका के इलिनोइस विश्वविद्यालय में बच्चों के विकास का अध्ययन करने वाली प्रोफेसर लॉरी क्रेमर का कहना है कि बच्चों पर सिर्फ माता-पिता की आदतों का ही प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि भाई-बहनों और दोस्तों की आदतों का भी गहरा प्रभाव पड़ता है।
एकसाथ बड़े हो रहे चार भाइयों में से किसी एक में भी अगर बुरी आदत है तो दूसरों में वह आदत लग जाएगी जबकि अगर कोई एक भी पढ़ने और संगीत जैसी चीजों में रुचि रखता होगा तो दूसरों का ध्यान भी इस तरफ जाएगा।
चार में से एक भाई में भी गलत आदत है तो दूसरे भाई-बहनों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। बहुत छोटी उम्र में बच्चे ज्यादातर चीजें अपने आसपास के बड़ों को देखकर ही सीखते हैं इसलिए अच्छी संगत जरूरी है। यह पते की बात है कि अगर आप घर में बड़े हैं और अपने छोटे भाई-बहनों को अच्छा व्यवहार करने की सीख देते हैं तो छोटों को समझने में देर नहीं लगेगी।
इसके अलावा अगर आप बड़े होकर कोई गलत आदत रखते हैं तो छोटे भाई-बहन बिना सिखाए भी वह सीख जाते हैं। कोई बात किसी को सिखाना जानकर किया जाने वाला काम है जबकि सीखना तो अनजाने भी होता रहता है। यह ठीक है कि छोटे भाई-बहन बड़ों से प्रेरणा लें, पर बड़ों की तरह अच्छे प्रदर्शन का दबाव छोटे बच्चों पर नहीं पड़ना चाहिए। छोटे बच्चों को बड़ों से सीख लेकर अपनी तरह से काम करना चाहिए। उन्हें किसी की नकल नहीं करना चाहिए पर अच्छी आदतों को अपने जीवन में उतारना भी नहीं छोड़ना चाहिए।
वैज्ञानिकों का कहना है कि हर बच्चे की अपनी क्षमता और विशेषता अलग है और वह उसी के अनुसार प्रदर्शन करता है, पर अगर भाई-बहनों और दोस्तों से अच्छी बातें सीखने को मिलें तो उसका प्रदर्शन निखर भी सकता है। ऐसा हो तो कितना अच्छा! इसलिए आपको चाहिए कि भाई-बहनों और दोस्तों की अच्छी आदतों को अपनाएँ और बुरी आदतों से खुद को जितना बचाएँ उतना ही ठीक। अच्छी बातें कौन सी हैं और बुरी कौन सी यह तो आप भलीभाँति जानते ही हैं। और यदि नहीं जानते तो अपने माता-पिता से भी पूछ सकते हैं।

राजस्थान का घना अभयारण्य


मैं बचपन से ही जंगलों, वन्यजीवों और पक्षियों को देखने का शौकीन रहा हूँ। जब भी मौका मिलता है तब मैं उनके बीच समय गुजारने के लिए चल पड़ता हूँ। यूँ तो इन दिनों आप जिस भी जंगल में जाएँगे वहाँ पक्षियों से रूबरू होने का मौका मिलेगा। लेकिन अगर आपको सिर्फ पक्षी देखने हैं, बहुतायत में देखने हैं, हजारों-लाखों की संख्या में देखने हैं तो इसके लिए राजस्थान के भरतपुर स्थित केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान से अच्छी जगह कोई नहीं। इस उद्यान को "घना" पक्षी अभयारण्य भी कहते हैं। वैसे मैं अपने पिता के साथ बचपन में एक बार इस अभयारण्य को देख चुका हूँ लेकिन तब की बातें मेरे जेहन में कुछ धुँधली पड़ गई थीं।
मैंने नए सिरे से इस खूबसूरत अभयारण्य को देखने की ठानी। मैं अभयारण्य पर अखबार के लिए एक लेख भी लिखना चाहता था इसलिए मैंने अपने इस टूर के लिए तैयारी की और चल पड़ा। घना आगरा से केवल ५६ किमी दूर है। आगरा से जयपुर पहुँचाने वाली मुख्य सड़क पर ही यह अभयारण स्थित है। दिल्ली-आगरा-जयपुर पर्यटन त्रिकोण में आने के कारण यहाँ देशी-विदेशी सैलानियों का ताँता लगा रहता है। यहाँ जाने का सबसे अच्छा मौसम बारिश के बाद शुरू होता है और पूरी सर्दियों तक चलता है। वजह यह है कि बारिश में पूरे उद्यान में फैले तालाब और मैदान पानी से भर जाते हैं और वहाँ प्रवासी और अप्रवासी पक्षियों के झुंड जमा हो जाते हैं। ये झुंड आसमान में, पेड़ों पर, यहाँ तक कि वहाँ की सड़कों पर चलते हुए भी नजर आते हैं।
सब जगह सिर्फ पक्षी ही पक्षी दिखते हैं। इस २९ वर्ग किमी क्षेत्र में फैले अभयारण्य में पक्षियों की २३० से भी ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं और इसी विशेषता के कारण १९८५ में इसे यूनेस्को द्वारा प्राकृतिक विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया था।
वापस यात्रा पर आते हैं। जब मैं घना पहुँचने वाला था तो बहुत दूर से ही पक्षियों की चहचहाट सुनाई पड़ने लगी थी। चारों तरफ हरियाली की चादर और पानी में किल्लोल करते हुए विभिन्न प्रजाति के पक्षी। उद्यान के अंदर स्थित नहर में नाव में बैठकर लंबी सवारी भी की जा सकती है। यहाँ कई जलाशय हैं। उन जलाशयों की ओर देखते ही मन प्रसन्नता से भर उठा। घने वृक्ष (जैसा कि नाम है घना), घास के मैदान और भोजन की पर्याप्त व्यवस्था ही पक्षियों को यहाँ खींच लाती है। जिधर नजर जाती हजारों-लाखों पक्षी एक साथ दिखाई पड़ रहे थे।
पेड़ पक्षियों के भार से झुके पड़ रहे थे। हर पेड़ पर अलग तरह के पक्षी। घना मूलतः साइबेरियाई सारस के प्रवास के लिए प्रसिद्ध है, जो हजारों किलोमीटर की यात्रा करके यहाँ सर्दियाँ गुजारने आते हैं। लेकिन पिछले लगभग एक दशक से ये नहीं आ रहे हैं। वैज्ञानिक इसके पीछे कई कारण बता रहे हैं। लेकिन इन सारसों को छोड़कर बारिश के बाद कई प्रकार के पक्षी यहाँ का रुख करते हैं। भारतीय सारस भी यहाँ बहुतायत में मिलते हैं।
घना को घूमने का सबसे अच्छा तरीका तो पैदल घूमना ही है। लेकिन अगर आपके पास समय कम है तो इसे रिक्शा या फिर बैटरी चलित गाड़ी से भी घूमा जा सकता है। मैंने इस उद्यान को दोनों वाहनों से घूमा। पेट्रोल या डीजल चलित वाहनों का यहाँ प्रवेश वर्जित है क्योंकि उनके शोर से पक्षियों को परेशानी हो सकती है।
घना में आपको कई जगह रुककर पक्षियों को देखने का मौका मिलेगा। इसके लिए बस एक शानदार दूरबीन की जरूरत होती है, जो दूर बैठे पक्षियों को भी आपके बिल्कुल पास ला दे। पक्षी हमें अपने ज्यादा पास नहीं आने देते ना, इसलिए। पक्षियों के अलावा भी घना उद्यान में बहुत कुछ है। वहाँ चीतल, सांभर, जंगली सूअर, सियार, लाल मुँह के बंदर आदि पाए जाते हैं। इसके अलावा वहाँ 'पाइथन लैंड' नामक एक जगह भी है।
जहाँ आपको पेड़ों पर झूलते-लटकते अजगर दिख जाएँगे। कुछ साल पहले तो घना में एक बाघिन भी आ गई थी जो वहाँ कई साल रहने के बाद दुनिया को गुडबाई कह गई थी। उसने कभी किसी मनुष्य को परेशान नहीं किया। मैंने घना का चप्पा-चप्पा घूमा है। वहाँ के गाइडों के साथ तो मेरी दोस्ती हो गई थी। उन्होंने मुझे पक्षियों के बारे में कई अनोखी जा‍नकारियाँ दीं। घना के कुओं के शीतल जल का स्वाद आज भी मुझे महसूस होता है। उस दौर के बाद भी मैं घना कई बार गया और उस उद्यान के ऊपर खूब लिखा। यह मेरा वादा है कि एक बार घूमने के बाद घना के अनुभव को आप जिंदगी भर याद रखेंगे।

सोमवार, 29 मार्च 2010

मस्त चुटकुले

लल्लू (प्रेमिका से) : मैं आज तुमसे हर चीज शेयर करना चाहता हूँ।
प्रेमिका : चलो बैंक अकाउंट से शुरू करते हैं।

पुत्र (लल्लू से) : पिताजी नेताओं के कपड़ों का रंग सफेद क्यों होता है?
लल्लू : बेटा, ताकि दल बदलने पर भी कपड़े न बदलने पड़ें।

लल्लू डॉक्टर (कल्लू से) : देखो वो रही मेरी प्रेमिका।
कल्लू : तुम उससे शादी क्यों नहीं कर लेते?
लल्लू डॉक्टर : कर तो लूँ, पर मेरा बड़ा नुकसान हो जाएगा। वह करोड़पति बाप की इकलौती बेटी है और सिर्फ मुझसे ही इलाज करवाती है।

संता (बंता बॉस से) : बॉस मुझे छुट्‍टी चाहिए।
बंता : क्यों?
संता : मेरी फैमिली पेड़ से गिर गई है।
बंता : पूरी फैमिली पेड़ पर क्या कर रही थी?
संता : सर, हमारे यहाँ घरवाली को ही फैमिली कहते हैं।

नौकरानी (मालकिन से) : मेमसाब, जल्दी आइए। पड़ोस की तीन औरतें बाहर बाहर आपकी सास की पिटाई कर रही हैं। मालकिन गैलरी में आकर देखने लगी।
नौकरानी : आप उनकी मदद करने नहीं जाएँगी?
मालकिन : नहीं! तीन ही काफी हैं।

सीसीटीवी : इलेक्ट्रॉनिक चौकीदार

हाइस्ट्रीट, शॉपिंग सेंटर्स, पब्स, कार पार्किंग से लेकर जिंदगी के हर मुकाम तक ताँकझाँक करने के बाद अब क्लोज सर्किट टीवी ने घरों में अपनी दस्तक देना आरंभ कर दिया है। हालात यहाँ तक पहुँचे हैं कि आधुनिक घरों में डोर बेल और मेजिक आई की तरह सीसीटीवी भी जरूरी हो गए हैं।
अब के. पॉवेल का घर ही लीजिए। बार-बार उसके घर का शीशा तोड़ दिया जाता था। अपने दरवाजे के सामने बिखेरे जाने वाले कचरे से भी वह बेहद परेशान थी। आखिरकार उसने 1000 पौंड खर्च कर तकनीकी विशेषज्ञ की मदद से ऐसी सीसीटीवी प्रणाली लगाई जिसका कैमरा न केवल प्रॉपर्टी पर निगरानी रखता था, बल्कि सीधे हार्ड ड्राइव पर रिकॉर्डिंग भी करता था। उसकी मदद से उसने न केवल शरारती तत्वों को पकड़वा दिया बल्कि अच्छा-खासा मुआवजा भी वसूल किया।
अभी तक लोग घर की सुरक्षा के लिए घरों में स्पाई कैमरा, बर्गलर अलार्म, आउटडोर लाइट्स और पेनिक बटनों का उपयोग करते आ रहे थे। लेकिन सीसीटीवी ने घटना को देखने के अलावा उसे रिकॉर्ड कर साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल करने की सुविधा भी प्रदान कर दी है।
सीसीटीवी की घरों में बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए घरेलू सामान बेचने वाले स्टोरों में परंपरागत सामानों के साथ सीसीटीवी प्रणालियों के बक्से भी सजे दिखाई देने लगे हैं। इनकी कीमतें 30 पौंड वाले ब्लैक एंड व्हाइट उपकरण से आरंभ होती हैं। अब अपने दरवाजों पर कैमरा लगाने के लिए किसी को सेलेब्रिटी, करोड़पति व्यापारी या नेता होने की आवश्यकता नहीं है। 10 प्र.श. तक खरीददार घरेलू प्रकृति के होते हैं।

माधव राष्ट्रीय उद्यान की सैर

पहाड़ियों के बीच झील के किनारे-किनारे
दोस्तो, हममें से ज्यादातर लोग उन जंगलों में जाते हैं जो प्रसिद्ध होते हैं और जहाँ सैलानियों का ताँता लगा रहता है। लेकिन उन जगहों पर भी देखने को बहुत कुछ होता है जहाँ पर्यटकों की भीड़ अपेक्षाकृत कम होती है। वहाँ आप प्रकृति के साथ ज्यादा नजदीक और शांति से वार्तालाप कर सकते हैं। कुछ ऐसे ही जंगलों में शुमार है शिवपुरी का माधव राष्ट्रीय उद्यान। यह जंगल अपनी झील साख्या सागर की वजह से बहुत खूबसूरत लगता है। झील के किनारे धूप सेंकते और रेंगते मगरमच्छ आपको रोमांचित भी करते हैं। मैं जब ग्वालियर में रहता था, उन दिनों मैंने शिवपुरी जाने की योजना बनाई थी।
शिवपुरी पहुँचना बहुत आसान है क्योंकि यह आगरा-बॉम्बे राष्ट्रीय राजमार्ग-3 पर स्थित है और ग्वालियर से सिर्फ 100 किमी दूर है। यह जगह ग्वालियर के सिंधिया राजघराने की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। मैं बहुत आसानी से सड़क मार्ग द्वारा शिवपुरी पहुँच गया और इस खूबसूरत जंगल में प्रवेश किया। दृश्य अद्‍भुत था। इस खूबसूरत जंगल में छोटी-छोटी पहाड़ियाँ हैं और उनके आसपास घास के मैदान (ग्रासलैंड)। इन सबके बीच में यहाँ खूबसूरत झील साख्या सागर है। 354 वर्ग किमी में फैले इस राष्ट्रीय उद्यान में कई प्रकार के पेड़, पशु और पक्षी पाए जाते हैं। जंगल खैर, धावड़ा, तेंदु और पलाश के पेड़ों से आच्छादित है।
मैंने जंगल को एक चौपहिया वाहन से घूमा। कई जगह पैदल भी चला। सबसे अधिक मजा तो झील के किनारे-किनारे चलने में आया क्योंकि वहाँ मुझे धरती के सबसे पुराने सरीसृपों में शामिल मगरमच्छों से रूबरू होने का मौका मिला। मैं हिम्मत जुटाकर उनके काफी नजदीक तक गया, हालाँकि ऐसा करना खतरनाक है।
मगरमच्छ वहाँ बिना हिले-डुले धूप सेंक रहे थे। साख्या सागर के आसपास मगरमच्छों के अलावा अजगर और मोनीटर लिजार्ड भी विहार करते हुए आसानी से मिल जाते हैं। इनको देखने के लिए झील का किनारा छोड़कर जंगल के थोड़ा-सा अंदर जाना पड़ता है। जंगल के बीचों-बीच कुछ खंडहर थे और मंदिरों के अवशेष भी थे जो बहुत ही खूबसूरत लग रहे थे। आगे जाने पर मुझे कई हिरण इधर-उधर भागते हुए मिले। हिरणों की यहाँ काफी अच्छी संख्‍या है।
यहाँ चिंकारा, चीतल, नीलगाय, सांभर, चौसिंगा, काला हिरण रहते हैं। इनका शिकार करने वाले तेंदुओं की संख्‍या भी यहाँ अच्‍छी है। यहाँ भालुओं और लंगूरों का भी बसेरा है। लंगूरों की हू-हू से पूरा जंगल गुंजायमान हो रहा था। एक समय यहाँ बाघों की भी अच्छी संख्‍या थी लेकिन अब ये यहाँ नहीं हैं। हालाँ‍कि जब मैं जंगल में गया था तब वहाँ एक बाघ को बड़े से 'एनक्लोजर' में रखा गया था लेकिन बाघ को देखने का असली मजा जो खुले जंगल में है, वह बंद बाड़े में नहीं।
उद्यान के बीच से बहने वाली साख्‍या सागर झील की वजह से यहाँ कई प्रजातियों के पक्षी देखने को मिलते हैं। इनमें माइग्रेटरी गीज, पोचार्ड, पिनटेल, टील, मलार्ड आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा यहाँ रेड-वाटल्ड लेपविंग, लार्ज पाइड वैगटेल, इंडियन पॉन्ड हिरोन, वाइड ब्रेस्टेड किंगफिशर, कॉरमोरेंट, पेंटेड स्टोर्क, वाइट इबिस, फॉल्कन, परपल सनबर्ड, एशियन पैराडाइज फ्लाईकैचर भी मिलते हैं।
साख्‍या के किनारों पर उद्यान का बोट क्लब भी चलता है जिसका नाम 'सेलिंग क्लब' है।
राष्ट्रीय उद्यान के ही अंदर बना 'जार्ज कैसल' भी देखने लायक जगह है। ये महल 1911 में सिंधिया शासकों द्वारा बनवाया गया था। यह उद्यान के सबसे ऊँचे स्थान पर स्थित है। इस महल के बारे में कहा जाता है कि सिंधिया द्वारा इसे सिर्फ इसलिए बनवाया गया था क्योंकि ब्रिटेन के तत्कालीन राजा जॉर्ज पंचम वहाँ शिकार के लिए एक रात ठहरने वाले थे। हालाँकि वे यहाँ किसी कारणवश रुक नहीं पाए थे। मैंने इस महल की छत पर चढ़कर राष्ट्रीय उद्यान के उस खूबसूरत 'लैंडस्केप' को निहारा। ढलती शाम का वह खूबसूरत नजारा आज भी मेरी आँखों के सामने रहता है।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

लिओनार्डो दा विंसी


सीख वाली कहानी
इटली में बहुमुखी प्रतिभा के धनी लिओनार्डो दा विंसी का जन्म १४५२ में हुआ था। बचपन से ही उन्हें दूसरी शिक्षाओं के साथ पेंटिंग सीखने के लिए एंड्रिया डेल वेरोकियों के पास भेजा जाने लगा था।
लिओनार्डो की शिक्षा में खास परेशानी यह थी कि वे डिस्लेक्सिया से पीड़ित थे। (डिस्लेक्सिया वही बीमारी है, जो आमिर खान !! की फिल्म ''तारे जमीं पर" में ईशान को होती है।) शब्द दा विंसी को नचाते थे और उन्हें पढ़ने तथा लिखने दोनों में परेशानी होती थी। दा विंसी के बचपन की जो चीजें मिली हैं उनसे भी यह बात पता चलती है कि शब्दों की बनावट उन्हें समझ नहीं आती थी।
लिआनार्डो ने अपनी इस परेशानी का हल इस तरह निकाला कि वे चीजों और बातों को चित्र बनाकर समझने लगे। उन्हें जो कुछ भी समझना होता उसे वे चित्रों में व्यक्त कर देते। इस तरह चित्रों से दोस्ती हुई और फिर धीरे-धीरे वे एक बेहतर चित्रकार बन गए। (क्या पता लिओनार्डो के जीवन की प्रेरणा से ही "तारे जमीं पर" फिल्म बनी हो?)
लिओनार्डो दा विंसी सिर्फ चित्रकार ही नहीं थे बल्कि वे वैज्ञानिक, इंजीनियर, मूर्तिकार, संगीतकार, गणितज्ञ, खगोलविद्, जीव विज्ञानी और दार्शनिक के तौर पर प्रख्यात हुए। परेशानी अगर आती है तो नए रास्ते भी खुलते हैं। यह बात लिओनार्डो के जीवन से साफ होती है।

स्मृति ईरानी का बचपन

जन्मदिन : २३ मार्च
मित्रो, अपने स्कूल के दिनों में मैं चुपचाप एक कोने में बैठने वाली लड़की हुआ करती थी। मेरे ज्यादा दोस्त नहीं थे, क्योंकि मैं ज्यादा बातचीत नहीं करती थी। चूँकि मैं स्कूल में कम बोलती थी इसलिए दूसरे मुझसे दोस्ती करना पसंद नहीं करते थे। मैं अपना लंच भी अकेले बैठकर ही करती थी। स्कूल के दिनों में मेरी हल्की-फुल्की रैगिंग भी हुई।
मैं चुप रहती थी तो क्लास में यह ऐलान हो गया था कि स्मृति जब तक सभी से बातचीत नहीं करेगी तब तक उसके साथ कोई नहीं बैठेगा। पर यह ऐलान कोई नियम तो था नहीं, और बाद में पता नहीं कब टूट गया। स्कूल में ज्यादातर स्टूडेंट्स के ग्रुप बने थे, पर मैं अकेली भी खुश रहती थी। मुझे अपनी किताबों की दुनिया अच्छी लगती थी। वैसे स्कूल के दिनों में मैं शांत और आज्ञाकारी स्टूडेंट थी। मैंने कभी क्लास बंक नहीं की और हर विषय पर पूरा ध्यान दिया। वैसे ज्यादातर बच्चों को गणित और इतिहास जैसे विषय अच्छे नहीं लगते हैं, पर आपको बताती हूँ कि इतिहास स्कूल के दिनों में और आगे भी मेरा पसंदीदा विषय रहा।
दोस्तो, अपने नानाजी निर्मल चंद्र जी के साथ मेरी बहुत खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हैं। बचपन में नानाजी मेरे सबसे अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उन्होंने मुझे बहुत-सी अच्छी बातें अच्छी तरह से सिखाईं। वैसे तो बच्चों को उनके नानाजी कहानियाँ सुनाते हैं, पर मेरे साथ उल्टा था। नानाजी मुझे कहानियाँ पढ़ने को देते और फिर मुझे उन कहानियों को ध्यान में रखकर संक्षेप में नानाजी को सुनाना पड़ता था। इस तरह मेरी याददाश्त पक्की होती गई।
नानाजी और मैं मिलकर तरह-तरह के खेल खेलते थे। जैसे नानाजी मुझे कहते थे कि अगर तुम एक डाक टिकट होती तो तुम्हारी दिनचर्या क्या होती बताओ। बताओ, अगर तुम एक डाकिया होती तो तुम्हारी दिनचर्या क्या होती। फिर मैं सोचती और उन्हें अपनी दिनचर्या बताती। नानाजी ने ही मुझे तरह-तरह की कल्पना करना सिखाया।
नानाजी मेरे सबसे अच्छे मित्र यूँ भी थे कि वे मुझे बेटे की तरह प्यार करते थे। मुझे याद है कि मैंने जीवन में जो सबसे पहली फिल्म 'साउंड ऑफ म्यूजिक' देखी वह मुझे नानाजी ही दिखाने ले गए थे। यह और बात है कि यह फिल्म देखने के लिए हम दिल्ली के आरतीपुरम से चाणक्यपुरी तक करीब १५ किलोमीटर पैदल चलकर गए थे। पैदल चलते हुए खूब बातें हुईं और रास्ते का पता ही नहीं चला।
दोस्तो, नानाजी ने मुझे रोज का यह काम सौंपा था कि मैं अखबार से पाँच बड़ी खबरें उनके लिए चुनकर रखूँ। अखबार पढ़ना और अपनी समझ बढ़ाने का काम भी इस तरह आसानी से आ गया। तो इस तरह मेरी पूरी ट्रेनिंग नानाजी के साथ रहकर ही हुई। आप सभी स्पेक्ट्रम के पाठकों को भी अपने दादा-दादी और नाना-नानी से बहुत कुछ सीखना चाहिए। उनके पास कहानियों, बातों और जानकारियों का खजाना होता है। प्यार से यह खजाना जैसा मेरा हो गया वैसा आपका भी हो सकता है।
दोस्तो, बचपन में मैंने खूब कहानियाँ पढ़ी, स्पोर्ट्स में भी दिलचस्पी ली। जूडो में मैं नेशनल लेवल तक पहुँची। बास्केटबॉल, लॉन्ग जंप सभी में रुचि ली। इतने काम करने के बाद भी मैं पढ़ाई में कभी नहीं पिछड़ी और हर साल फर्स्ट आती रही। तो मेरा आप सभी से यही कहना है कि सारे कामों के बीच पढ़ाई की चिंता थोड़ी-बहुत करो और प्लानिंग के साथ करो। वैसे अब आगे गर्मी की छुट्टियाँ आ रही हैं तो उसकी प्लानिंग करो। गर्मी की छुट्टियों के लिए आप सभी को खूब सारी बधाई।

आपकी
स्मृति ईरानी

बुधवार, 24 मार्च 2010

लतीफ़े

संता पहली बार हवाई जहाज में बैठा। हवाई जहाज रन वे पर दौड़ रहा था।
संता ने पायलट को थप्पड़ मारा और गुस्से से बोला- एक तो पहले ही देर हो रही है और तू है कि सड़क से ही जा रहा है।


शिक्षक (छात्र से)-इतनी पिटाई के बाद तुम हंस रहे हो।
छात्र (शिक्षक से)-गांधी जी ने कहा है मुसीबत का समय हंस-हंस कर गुजारना चाहिए।


रैगिंग के वक्त लड़कों ने 1 लड़की से कहा, एक सवाल का जवाब दो- पटना कहां पर है?
लड़की- बिहार में।
लड़का- यहीं पट जाओ इतनी दूर जाने की क्या जरुरत है।

पत्नी (पति से)- ये क्या हरकत है, मैं तुमसे इतनी देर से बात कर रही हूं और तुम बार-बार जम्हाई ले रहे हो।
पति (पत्नी से)- मैं जम्हाई नहीं ले रहा हूं बल्कि तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा हूं।

डॉक्टर मरीज के पीछे भाग रहा था।
एक आदमी ने पूछा क्या हुआ?
डॉक्टर- 4 बार ऐसा ही हुआ है ये आदमी ब्रेन का ऑपरेशन करवाने आता है और बाल कटवाकर भाग जाता है।

साहित्यिक कृतियां

मिलावट
मिसेज शर्मा ने झल्लाते हुए दूधवाले से कहा बार-बार कहने के बाद भी तुमने पानी मिलाना कम नहीं किया, अब तुम्हें तय करना है कि या तो मिलावट बन्द करो वरना मेरे यहां दूध देना ही बन्द कर दो।
दूधवाले ने कहा- मैडम आप दूध बारह रुपए लीटर ले रही हैं, और पानी पन्द्रह रुपए लीटर दुकानों पर बिक रहा है, अब आप ही बताओ दूध में पानी मिलाने से मेरा क्या लाभ होगा। पानी मिलाकर आपकी झिडकी सुनने से तो बेहतर है कि मैं बोतलबन्द पानी बेंच कर गुजारा कर लूंगा, कम से कम रोज-रोज झिडकी तो नहीं सुननी पडेगी।

चुभती बात
जूही, अमन आया है क्या? एक सवाल पूछना था उससे।
यहां तो नहीं आया। मैंने तो उसे एक सप्ताह से कालेज में भी नहीं देखा।
पर तेरे घर शाम को तो वह अक्सर आता था। गणित के सवाल तू उसी से तो समझती थी?
हां, पर अब वो नहीं आता। शायद एक महीना हो रहा है। हां, याद आया.. रक्षाबंधन के एक दिन पहले वो आया था।
अब क्यों नहीं आता? झगडा कर डाला क्या उससे?
मैं क्यों झगडूंगी उससे?
तू झगडालू जो है। सहेली मुस्कराकर बोली- हर बात में सबसे उलझती ही तो रहती है।

अच्छा, तू बडी शरीफ है।
जूही हंसी। फिर कुछ सोचकर बोली- अमन से मैं कभी नहीं झगडी। अपने सीनियर से कैसा झगडा यार? झगडा तो बराबर वालों में होता है। जैसे तेरा और मेरा।
कोई चुभती बात ही कह दी होगी।
उस दिन तो हमारे बीच कोई खास बात ही नहीं हुई थी। सहसा जूही याद करके बोली- मैंने एक सवाल पूछा था और फिर सिर्फ इतना कहा था कि कल रक्षाबंधन है भैया, जरूर आना।

सुन्दरता
स्कूल से कालेज तक और अब तो वह प्रोफेसर बन गई है, नेहा के गहरे सांवले रंग, चौडी नाक, मोटे होंठ और साधारण से कम अच्छे चेहरे के कारण कोई भी उससे निकटता बढाना नहीं चाहता था।
अब उसे कालेज के नये प्रिंसिपल साहेब के व्यवहार पर बहुत आश्चर्य हो रहा है, केवल उससे बातें ही नहीं करते हैं, उसको ऑफिस में चाय पिलाते हैं। नेहा की समझ काम नहीं कर रही है कि ये सब कुछ क्यों हो रहा है उससे तो दो प्यार के बोल भी घर वालों के अलावा कोई नहीं बोला है। वह दिन और रात इसके बारे में सोचती रहती, डरती रहती कि कहीं ये प्रिंसिपल उसका शोषण तो नहीं करेंगे।
एक दिन रविवार को जब प्रिंसिपल साहेब ने उसे घर पर शाम की चाय के लिये बुलाया तब नेहा ने मना कर दिया, लेकिन प्रिंसिपल साहेब ने कहा आपको मेरी माता जी ने चाय के लिये बुलाया है, फिर उसने धीमे से हां कर दी। उस दिन बहुत चिंतित और घबडाई हुई नेहा जब प्रिंसिपल साहेब के घर गई, दरवाजा खुला एक बूढी औरत और साथ में एक बदसूरत महिला ने उसका स्वागत किया, तब उसने अचंभित होकर पूछा- आंटी जी, आपने मुझे क्यों बुलाया है- चाय तो सर के साथ मैं कॉलेज में पी ही लेती हूं।
बूढी औरत ने नेहा का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा- बेटी केवल चाय पिलाने के लिये नहीं बल्कि ये पूछने के लिये बुलाया है कि क्या तुम मेरे बेटे के साथ शादी करना पसंद करोगी?
नेहा के कानों को विश्वास ही नहीं हुआ। इधर-उधर देखा फिर घबडाकर बोली- इतने स्मार्ट सर मुझ जैसी साधारण से भी बद्तर लडकी के साथ शादी क्यों करना चाहते हैं? बेटी इसमें बहुत गहरा राज है जानना चाहती हो, तो जानो ये जो मेरी बदसूरत बेटी बैठी हुई है, इसको कई लडकों ने देखने के बाद अस्वीकृत कर दिया और इस बात से मेरा बेटा बहुत अपमानित हुआ फिर उसने कसम खाली कि मैं भी शादी तन की सुंदर नहीं मन की सुंदर लडकी के साथ करूंगा। इसी कारण बेटे ने सुंदर लडकियों के रिश्ते ठुकरा दिये। मेरे बेटे को तुम्हारे मन की सुंदरता ने बहुत प्रभावित किया है। उत्तर सुनकर नेहा को लगा पहली बार जीवन में किसी ने उसके मन की सुंदरता को परखा है, पसंद किया है। लेकिन क्या यह सच है? हां जी कहकर नेहा ने आंटी के पांव छू लिये।

हमदर्दी
वर्मा जी अपनी पत्नी के साथ मोटर साइकिल पर जा रहे थे। जैसे ही वे कॉलोनी में घुसे कि सामने से एक कुत्ते ने भागकर सडक पार करनी चाही। वह मोटर साइकिल के आगे आ गया। उसको बचाने के चक्कर में वर्मा जी मोटर साइकिल को संभाल नहीं पाए और पत्नी समेत सडक पर गिर पडे। कुत्ता बच गया, लेकिन मोटर साइकिल से टकरा जाने के कारण वह चिल्लाने लगा। आस-पास के लोग घरों से बाहर निकल आए। भीड लग गई। उनमें से किसी ने वर्मा जी और उनकी पत्नी को उठाना-संभालना तो दूर, यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि उन्हें कहीं कोई चोट तो नहीं आई। दूसरी ओर कुत्ते अपने साथी की हमदर्दी में लगातार भौंके जा रहे थे।

सुकरात के तीन छोटे प्रश्न

प्राचीन यूनान में सुकरात नाम के विद्वान हुए हैं। वे ज्ञानवान और विनम्र थे। एक बार वे बाजार से गुजर रहे थे तो रास्ते में उनकी मुलाकात एक परिचित व्यक्ति से हुई। उन सज्जन ने सुकरात को रोककर कुछ बताना शुरू किया। वह कहने लगा कि 'क्या आप जानते हैं कि कल आपका मित्र आपके बारे में क्या कह रहा था?'
सुकरात ने उस व्यक्ति की बात को वहीं रोकते हुए कहा - सुनो, भले व्यक्ति। मेरे मित्र ने मेरे बारे में क्या कहा यह बताने से पहले तुम मेरे तीन छोटे प्रश्नों का उत्तर दो। उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा - 'तीन छोटे प्रश्न'।
सुकरात ने कहा - हाँ, तीन छोटे प्रश्न।
पहला प्रश्न तो यह कि क्या तुम मुझे जो कुछ भी बताने जा रहे हो वह पूरी तरह सही है?
उस आदमी ने जवाब दिया - 'नहीं, मैंने अभी-अभी यह बात सुनी और ...।'
सुकरात ने कहा- कोई बात नहीं, इसका मतलब यह कि तुम्हें नहीं पता कि तुम जो कहने जा रहे हो वह सच है या नहीं।'
अब मेरे दूसरे प्रश्न का जवाब दो कि 'क्या जो कुछ तुम मुझे बताने जा रहे हो वह मेरे लिए अच्छा है?' आदमी ने तुरंत कहा - नहीं, बल्कि इसका ठीक उल्टा है। सुकरात बोले - ठीक है। अब मेरे आखिरी प्रश्न का और जवाब दो कि जो कुछ तुम मुझे बताने जा रहे हो वह मेरे किसी काम का है भी या नहीं।
व्यक्ति बोला - नहीं, उस बात में आपके काम आने जैसा तो कुछ भी नहीं है। तीनों प्रश्न पूछने के बाद सुकरात बोले - 'ऐसी बात जो सच नहीं है, जिसमें मेरे बारे में कुछ भी अच्छा नहीं है और जिसकी मेरे लिए कोई उपयोगिता नहीं है, उसे सुनने से क्या फायदा। और सुनो, ऐसी बातें करने से भी क्या फायदा।

रविवार, 21 मार्च 2010

मटरगश्ती का रोजगार


पुराना साल खत्म होने को था। सालभर चमकते सूरज के रुख में भी नरमी आ गई थी। दोपहर की हल्की गुनगुनी धूप मटर के खेत में बिखरी थी। लोमड़-लोमड़ी धूप के गुलाबी स्वाद के चटखारे लेती लग रही थी। असल में उसके मुँह में पानी आने की वजह कुछ और ही थी। किसी दूसरे के खेत में घुसकर मटर खाने के चक्कर में पिछले वर्ष उसकी जो पिटाई हुई थी, उसके चलते लोमड़ी ने तय कर लिया था कि अब यदि वह मटर की फलियों को कभी मुँह लगाएगी तो अपने खेत के ही, नहीं तो नहीं।
जिस प्रेम के साथ उसने मटर के नर्म बीज बोए थे। दुलार के साथ पौधों को बड़ा किया था उसी का परिणाम था कि नाजुक से पौधों पर प्यारे-प्यारे फूल खिले थे और कहीं-कहीं नन्ही-नन्ही फलियाँ भी पत्तों के बीच से झाँक रही थीं। बार-बार वह उन पर वारी जाती और कहती कि भगवान करे तुम सदा ऐसे ही रहो, मुस्कुराती-झूलती रहो।
दिसंबर का आखिरी सप्ताह था और लोमड़ी ने अभी तक अपने खेत का एक भी दाना मुँह में नहीं डाला था। हाय दैया! कहीं इन मुई फलियों ने मेरी बात को सच तो नहीं मान लिया, कि तुम सदा ऐसी ही रहो। मुटियाओ नहीं। दानों से भरो नहीं। फिर वह एक-एक फली को छूते-टटोलते हुए खेत में घूमने लगी। तो उसने क्या देखा? जगह-जगह खाई हुई मटर के छिलके पड़े हैं। कहीं-कहीं कच्ची फलियाँ भी किसी नासमझ ने तोड़कर पटक दी हैं। अब समझ में आया। जरूर कोई न कोई मेरी फलियाँ चुरा रहा है।
मटर के हरे-भरे खेत में भूरी लोमड़ी गुस्से से लाल-पीली होने लगी। और लगी पगलाकर अपनी ही दुम नोचने- मैं चालाक लोमड़ी और कोई मुझे ही बेवकूफ बना रहा है। जब दुम में जलन होने लगी तो उसे ध्यान में आया कि चिढ़ने-कुढ़ने से कुछ होना-जाना नहीं। अकल का उपयोग करके खुराफाती जीव को पकड़ना होगा।
खेत की बागड़ में जहाँ अंदर घुसने जितनी जगह थी, वहीं पर फंदा लगाने का लोमड़ी ने तय किया। खरगोश, गिलहरी, नेवला जो भी हो, यहीं से आता-जाता होगा। फंदा एकदम सीधा-सादा पतली रस्सी का था, जिसका एक सिरा बागड़ में बनी पोल के इर्द-गिर्द छुपा था और दूसरा अमरूद के पेड़ में। अमरूद की एक लचीली टहनी को मोड़कर नीचे अटका दिया था, इस तरह कि झटका लगते ही फट से निकलकर ऊपर हो जाए। रस्सी खिंचेगी, फंदा कसेगा और चोरी करने की नीयत से घुसा प्राणी बिलबिलाते हुए डाल से लटक जाएगा।
ऐसा ही हुआ। मटरगश्त खरहा शाम होते ही रोज की भाँति उछलते-कूदते मटर की दावत उड़ाने चला आया। अमावस की रात थी। अँधेरा घुप्प था। किसी के देखने का डर नहीं था। सो वह ज्यादा ही लापरवाह था। मटर के खेतों में हाथ साफ करने का लंबा अनुभव था उसे। तभी तो नाम मटरगश्त पाया था उसने। आज किस्मत धोखा दे गई। मुँह से चूँ तक न निकला। इसके पहले ही वह जाकर अमरूद की डाली से लटकने लगा, विक्रमादित्य के वेताल की तरह। सामने के पंजे फंदे में अटके थे और घिग्गी बँध गई थी सो अलग।
पूस की रात में भी खरहे को पसीना छूट गया, लेकिन क्या करता। लटका रातभर कुल्फी जमाते हुए। झुटपुटा हो रहा था। रात को देर से सोयी लोमड़ी साल के पहले दिन देर से ही जागेगी। लेकिन यहाँ से छूटने की कुछ जुगत तो भिड़ानी ही होगी। खरहे का फितूरी दिमाग खट-खट चलने लगा। तभी पगडंडी पर धप्प-धप्प की आहट सुनाई दी। बागड़ के उस पार कुछ काला सा चला आ रहा था।
अरे यह तो भुक्कड़ भालू है। खुराक की तलाश में मुँह अँधेरे ही बालों का घना लबादा ओढ़े निकल पड़ा है। खरहे के दिमाग में क्लिक हुआ और वह लगा जोर-जोर से झूलने। जो भी दोहे-चौपाइयाँ उसे याद आईं लगा उनका ऊँची आवाज में पाठ करने।

पहले तो भालू भी चौंका कि यह क्या माजरा है। भूत-प्रेत तो नहीं? थोड़ी देर वह दूर से ही खरहे की ये हरकतें देखता रहा, फिर पूछ बैठा कि यह क्या चल रहा है? लटूम रहा हूँ और कूदा-फाँद करके रुपया भी बना रहा हूँ। इतना कहकर खरहा और जोर से झूमने लगा। अब भालू से रहा न गया। भई लटूम झूम रहे हो, यह तो मैं भी देख रहा हूँ...लेकिन रुपया बनता नहीं दीख रहा।
खरहे ने अपना प्रलाप बंद किया और कहा कि लोमड़ी ने बड़े जतन से मटर उगाई है। चिड़िया-कौवे आकर उन्हें चुग न जाए इसलिए उसने मुझे रखवाली का काम सौंपा है। मैं जिंदा लाल बुझक्कड़ बनकर उन्हें भगा रहा हूँ। इसके लिए लोमड़ी मुझे घंटे के दस रुपए दे रही है। पिछली शाम से अब तक सवा सौ रुपया बना चुका हूँ। लंबे समय तक भालू को चुप देखकर खरहे ने पूछा- क्या तुम्हें भी रोजगार चाहिए?
मानो उसने भालू के मन की बात कह दी। भालू का बड़ा कुनबा था और सबके सब उसी की तरह भुक्कड़। बच्चे-कच्चों के लिए राशन जुटाते-जुटाते बेचारा आजीज आ जाता। उसने तुरंत हाँ भरी। अमरूद के पेड़ पर चढ़कर पहले तो उसने खरहे के पंजे छुड़ाए फिर खुद के पंजे फंदे में अटकाकर डाल से लटूम गया। श्लोक-दोहे उसे आते न थे, सो लगा घों-घों की आवाज निकालने।
नए साल का पहला सूरज निकला और अभी पूरब के आसमान में बाँस भर ही चढ़ा था कि लोमड़ी उधर आ निकली। कुछ न कुछ तो फँसा होगा। छोटा-मोटा जीव होगा तो दावत हो जाएगी। भारी-भरकम लोठ को लटका देख उसका दिल धक से रह गया। यह तो छूटते ही मुझे मारने दौड़ेगा। लेकिन गुस्सा भी था। लोमड़ ने अपने हाथ की बेंत से भालू की खूब पिटाई उड़ाई।
इतनी कि बेंत तो टूटी ही, भालू के छटपटाने से रस्सी भी टूटी और वह धम्म से नीचे आ गिरा। लोमड़ी पहले ही निकल भागी थी सो वह तो भालू को दिखी नहीं लेकिन खरहे पर अपना गुस्सा निकालने के लिए वह उसके पीछे हो लिया। खरहे को पहले से इस होनी का अंदाज था और डर भी। क्योंकि अब सामना लोमड़ी से नहीं भालू से था।
रातभर के थके-हारे भूखे खरहे से वैसे भी दौड़ते नहीं बना था सो वह थोड़ी ही दूर पगडंडी पर मचे कीचड़ में छुप कर बैठ गया। इस तरह कि पूरा शरीर तो कीचड़ में धँसा, सिर्फ मुँह और आँखें ऊपर, मानो वह एक मेंढक हो। लाल आँखों वाला खौफनाक मेंढक, खरहे ने मन ही मन सोचा। थोड़ी ही देर बाद हड़बड़ाया भालू उधर आ निकला। ऐसे अजीब से मेंढक को देखकर चौंका। इतनी सुबह जब जंगल में चहल-पहल की शुरुआत भी न हुई हो, इस अजीबो-गरीब मेंढक से ही पूछना होगा कि क्या कोई खरगोश अभी-अभी यहाँ से गुजरा है क्या।
भालू अभी सोच ही रहा था कि खरहे ने भर्राई आवाज में टर्राने की कोशिश करते हुए पूछा कि खुशकिस्मत खरहे को बिदा करने आए थे क्या? सुबह गला फाड़कर पाठ करने के कारण खरहे की आवाज में बला का खरखरापन आ गया था- 'खरहे को कहीं से रुपया हाथ आ गया था सो सुबह की पहली बस पकड़कर अभी-अभी शहर निकल गया है वहीं नई जिंदगी शुरू करने। सबको नए वर्ष की शुभकामनाएँ देने के लिए कह गया है मुझे।'

एक ही थैली के चट्टे-बट्टे

अनुपम को लगभग सभी एक स्मार्ट बच्चा मानते थे। वह था भी। पढ़ाई में होशियार, खेलों में बेहतर और हाजिर जवाब। सिर्फ मम्मी-पापा और छोटी बहन कुमकुम को ही यह रहस्य मालूम था कि रात होते ही उसकी पमपम बज जाती है। अनुपम को अँधेरे से बहुत डर लगता था। डर भी इतना कि अँधेरे कमरे में अकेले जाने की बात तो छोड़िए, मद्धिम रोशनी से भी उसे घबराहट होने लगती थी। उसके कारण लंबे समय से वे लोग कोई फिल्म सिनेमा हॉल में नहीं देख पाए थे। मम्मी-पापा के बेडरूम और कुमकुम के कमरे के बीच अनुपम का सुंदर, हवादार कमरा था। फिर भी रात को सोने के लिए वह कुमकुम के कमरे में घुस आता था। कुमकुम को भैया से बड़ी चिढ़ छूटती, क्योंकि अनुपम सारी रात एक बड़ा-सा बल्ब नाइट लैंप की तरह जलाए रखता।
अनुपम को भी अपनी इस कमजोरी पर बड़ी बौखलाहट होती। वह खुद समझ नहीं पाता था कि अँधेरे में ऐसा क्या है जिसका उसे डर लगा रहता है। राक्षस... शेर...? नहीं। वह जानता था कि ये सब केवल कहानियों में या जंगल में ही पाए जाते हैं। 'मैं नहीं जानता', 'मुझसे कुछ मत पूछो' यही उसका उत्तर रहता।
शनिवार की शाम दफ्तर से घर लौटते समय पापा एक टेलीस्कोप प्रोजेक्ट ले आए। रविवार की पूरी सुबह और दोपहर अनुपम और पापा ने साथ बैठकर डिब्बा भर कलपुर्जों से एक पूरी टेलीस्कोप बना ली। अनुपम को इसमें काफी मजा आ रहा था। उसे अंदाज नहीं था कि रात होते ही यह टेलीस्कोप उसकी परेशानी का सबब बन जाएगी। इसका ध्यान तो उसे तब आया, जब रात को खाना खाने के बाद सब लोग तारे देखने के लिए छत पर जाने को तैयार हो गए। इसका मतलब कुम्मी को भी इस योजना का पता था।
अनुपम को गुस्सा तो आया, लेकिन अँधेरे का डर उससे भी बड़ा निकला। पापा कंधों से ठेलकर उसे छत पर ले गए। पापा का सोचना था कि चन्द्रमा, तारे और नक्षत्रों की तिलस्मी दुनिया देखकर अनुपम उनमें खो जाएगा और उसका भय भी जाता रहेगा।
लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अनुपम की आँखें आकाश के नजारों से ज्यादा आसपास के अँधेरे को टटोल रही थीं। हवा से आकाश नीम के ऊँचे पेड़ डोल रहे थे। पीपल की पत्तियाँ लगातार हँसे जा रही थीं। 'पापा यह सरसराहट कैसी है?' अनुपम ने पूछा। 'हो सकता है कोई गिरगिट नींद नहीं आने के कारण चहलकदमी कर रहा हो' पापा ने बड़ी आसानी से कह दिया। आधा घंटा होने को आया, नीचे लौट चलने के लिए अनुपम की छटपटाहट लगातार बढ़ती ही जा रही थी। अब तो पापा को भी अपने डरपोक बेटे पर गुस्सा आ गया। गनीमत थी कि उन्होंने अनुपम को एक चपत नहीं लगाई। अच्छी-खासी हवाखोरी की किरकिरी हो गई थी।
स्नेह सम्मेलन का मौसम था। वातावरण में मौज-मजे की खुनक थी। पढ़ाई पर जोर कम था। एक दोपहर क्लास टीचर कक्षा में आई और मेज पर ही बैठ गई। बिना बताए बच्चे जान गए कि आज कुछ खास बात है। एक रेडियो जॉकी के अंदाज में हवा में हाथ लहराकर टीचर ने घोषणा की कि हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं। पिकनिक पूरे दो दिन और दो रातों की होगी। हर किसी को पिकनिक में आना जरूरी है। बच्चे तो खुशी से उछल पड़े। किलकारियाँ भरने लगे और मारे उत्तेजना के मेज थपथपाने लगे। इधर अनुपम के पेट में मारे डर के मरोड़े उठने लगे। दो दिन तो ठीक है, घर से दूर एक रात भी वह कैसे निकाल पाएगा?
रात को खाने की मेज पर अनुपम का लटका हुआ मुँह देखकर पापा ने उसका कारण पूछा। पिकनिक की बात के साथ बिना रुके अनुपम ने यह भी बता दिया कि दो दिनों तक मटरगश्ती करने के बजाए वह घर में रहकर पढ़ाई करना चाहता है। इसलिए पापा उसके लिए डॉक्टर के प्रमाण पत्र की व्यवस्था कर दे।
पापा सब जानते थे कि पिकनिक छोड़कर पमपम को पढ़ाई क्यों सूझ रही है। उन्होंने कड़े शब्दों में कह दिया कि अनुपम को जाना ही होगा। पढ़ाई होते रहेगी। दोस्तों के साथ मिल-जुलकर रहने के मौके बार-बार नहीं मिलते। पिकनिक पर जाओगे तो दो बातें सीखकर ही आओगे। अब तो दिन के उजाले में भी खाने-खेलने से अनुपम का मन उचट गया।

जंगल के अँधेरे में जो होगा सो होगा, सहपाठियों के सामने पोल खुल जाएगी सो अलग। बड़ा स्मार्ट बना फिरता था बच्चू। आखिर पिकनिक का दिन आ पहुँचा।बच्चे खुशी-खुशी बस में सवार हुए। गाते-हँसते, शोर मचाते सब चल पड़े। अनुपम अपनी सीट पर सहमा-दुबका बैठा रहा।
झमझमा फॉल्स पहुँचकर उसने देखा कि जंगल के बीच में खुले हिस्से में 30-35 छोटे-छोटे तंबू लगे हैं। यहीं उन सबको रहना-सोना था। अनुपम अपने जॅकेट के अंदर हनुमान चालीसा की पोथी भींचे हुए बस से नीचे उतरा। टीचर ने बताया कि हर तंबू में दो बच्चे रहेंगे। अपना-अपना पार्टनर चुन लो। इस बार अनुपम के सामने कोई दुविधा नहीं थी। उसने लपककर नाहर को जा पकड़ा।
सच तो उसका नाम अजीत था और वह स्कूल का जूडो चैंपियन था। दोस्तों ने उसका नाम अजीत उर्फ लायन रख छोड़ा था। हिन्दी के शिक्षक ने उसका नाम बदलकर नाहर कर दिया था। अनुपम का पार्टनर बनने के लिए नाहर ने हाँ तो कह दिया था, लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी के भाव थे। अनुपम खुश था कि जूडो चैंपियन के साथ रहते अँधेरे से निकलकर कोई उसका बिगाड़ नहीं सकता था।
रात ठंडी थी। खाना खाने के बाद दोस्तों की हँसी-ठिठौली में शामिल हुए बिना ही अनुपम और नाहर बिस्तर में आ दुबके। कंदील बुझाए बगैर ही दोनों ने अपने-अपने स्लीपिंग बैग की झिप चढ़ा ली। अनुपम इंतजार करता रहा कि नाहर अब रोशनी बंद करेगा, तब रोशनी बंद करेगा। तभी एक खरखरी फुसफुसाहट से अनुपम चौंक उठा। फिर उसे ध्यान में आया कि नाहर उससे कुछ पूछ रहा है।
'क्या तुम्हें अँधेरे से डर लगता है?' अनुपम को अपना भेद खुलता लगा। अरे, यह क्या देख रहा था वह... नाहर खुद थरथर काँप रहा था। नाहर ने बताया कि 'उसे अँधेरेसे बहुत डर लगता है।' और एक आश्चर्य की बात हुई, अनुपम ने खुद को यह कहते सुना कि अँधेरे से क्या डरना? अब वह स्लीपिंग बैग परे हटाकर उठ बैठा। यह तो अद्भुत था। अनुपम को अपने आप पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। उसने नाहर को थपथपाकर कहा कि दोस्त, तुमतो एकदम पोंगे निकले। डरो मत। मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम मेरा हाथ थाम लो और बेफिक्र होकर सो जाओ।
अनुपम का हाथ थामकर नाहर निश्चिंत हो गया। 'लेकिन तुम मुस्कुरा क्यों रहे हो? कहीं यह बात सब को बता तो नहीं दोगे?' नाहर ने पूछा। 'तुम्हारी यह हालत देखकर मुझे ऐसा ही एक पगला लड़का याद आ गया' अनुपम ने दूर अँधेरे में ताकते हुए कहा, 'लेकिन वह पुरानी बात है।'

शनिवार, 20 मार्च 2010

परिवार का खर्च चलाने में महिलाएँ माहिर


बेशक महिलाएँ ठाट-बाट और कीमती पोशाक की शौकीन होती हैं लेकिन वह घर का खर्चा पुरुषों से ज्यादा बेहतर ढंग से चला सकती हैं। घर के खर्चा-पानी का प्रबंधन महिलाएँ पुरुषों से ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकती हैं यह बात एक अध्ययन में सामने आई है।
ब्रिटेन के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि महिलाएँ घर का बजट ठीक ढंग से चलाती हैं, घर के फालतू खर्चों पर रोक लगा सकती हैं। महिलाओं के विपरीत पुरुष फालतू खर्चों पर रोक नहीं लगा सकते। वह आर्थिक उधारी जैसे डेबिट कार्ड या बिल चुकाने में लेट- सवेर करते हैं और कभी-कभी तो उसे पूरी तरह नजरअंदाज ही कर देते हैं।
पुरुष निवेश में विश्वास नहीं करते वह साल में कम से कम भुगतान करना पसंद करते हैं। हालाँकि महिलाओं के बारे में हमेशा से माना जाता है कि वे बहुत खर्चीली होती हैं सजने- सँवरने,कपड़ों व जूतों पर ज्यादा पैसा खर्च करती हैं।
डेली मेल की रिपोर्ट के मुताबिक इडी बोशर ऑफ लवली मनी डॉट कॉम ने अध्ययन में पाया कि पुरुष हमेशा यह सोचते रहते हैं कि वह घर का खर्चा-पानी चलाने में अपनी प्रतिष्ठा कैसे बचा सकते हैं जबकि महिलाएँ हमेशा यही सोचती रहती हैं कि उन्हें घर का खर्चा सही बजट के हिसाब से चलाना है ।
3,000 ब्रिटेन के लोगों पर अध्ययन किया गया जिसमें आदमियों ने 2176 पाउंड का ऋण देना भूल गए जबकि 1987 पाउंड का ऋण सही समय पर चुका दिया।
त्‍वचा को रखें तरो ताजा
एक बीस लीटर की बाल्टी में एक कप दूध या एक टेबल स्पून मिल्क पाउडर डालें। उसमें कुछ बूँदें चंदन के तेल की व कुछ बूँदें अपनी पसंद के परफ्यूम की डाल दें। इस पानी को धीरे-धीरे अपनी त्वचा पर डालते हुए नहाएँ।
ताजे व रसीले फलों का नियमित सेवन करें।
फलों का रस पीने के बदले पूरे फल खाएँ। जैसे संतरा, मौसंबी, पाइनेपल, सेव, अंगूर आदि का रस पीने के बजाए फल खाएँ।
सप्ताह में दो बार दो चम्मच शहद, पंद्रह से बीस बूँद नींबू का रस, आधा चम्मच मलाई या घी व एक चम्मच ओट मील डालकर पेस्ट की तरह चेहरे पर लगाएँ। आधे घंटे बाद कुनकुने पानी से चेहरा साफ करके अच्छी विटामिन क्रीम लगाएँ।
यदि आपकी ऑइली स्किन है तो मलाई का प्रयोग न करें व क्रीम के बदले मॉइश्चराइजर या लेक्टो केलेमाइन का प्रयोग करें।

गर्मियों में पंख लगाएँ पैरों को...
अगर आप गर्मी के दिनों में अपने पैरों को थोड़ा हवादार भी बनाना चाहती हैं और एड़ियों को सुरक्षित भी रखना चाहती हैं, तो सैंडल्स आपके लिए एकदम सही विकल्प हैं। ये पैरों को सुरक्षित और आरामदायक बनाए रखते हैं।
खासतौर पर चिलचिलाती धूप में या फिर उमस और नमी में जब आप जूते या बैली पहनने से बचना चाहती हैं और लगता है कि स्लीपर पहनकर ही घर से बाहर भी जाया जाए। अब ऐसा करना संभव है। बाजार में गर्मी के लिहाज से कई तरह के फुटवेयर्स सजे हुए हैं।
इनमें हल्की-फुल्की चप्पलों से लेकर, सिंपल और स्ट्राइप्स वाले ग्लेडियेटर सैंडल्स तथा वॉकर्स शामिल हैं। आप चाहें तो रंग-बिरंगे स्ट्रेप्स वाले सैंडल्स अपनाएँ या फिर सिंगल स्ट्रेप वाली खूबसूरत चप्पलें पहनकर इठलाएँ। आजकल बाजार में फ्लोरल, ज्यॉमेट्रिक और अन्य डिजायनों वाली, स्ट्रेप पर सजे फूलों वाली तथा रंग-बिरंगे स्ट्रेप्स वाली चप्पलें भी काफी मिल रही हैं। ये पैरों को खुला-खुला तो रखती ही हैं, चलने में सहूलियत देती हैं और लगती तो खूबसूरत हैं ही। इन चप्पलों की कीमत 150 रुपए से शुरू होती है।
फुटवेयर्स के मामले में डिजायनर्स भी प्रयोग करते रहते हैं क्योंकि हर मौसम में कुछ नए की चाहत तो लोगों को रहती ही है। हाल ही में एक बड़े ब्राँड 'चाइनीज़ लाँड्री' ने भी 'सुदोकू' नामक सैंडल्स की श्रृंखला जारी की है। एड़ियों को कवर करते बड़े से स्ट्रेप के साथ पैरों पर सामने तक आने वाले फीते इसकों अलग ही लुक देते हैं।
यह सही है कि हर व्यक्ति इतने महँगे और ब्राँडेड फुटवेयर नहीं खरीद सकता लेकिन आप चाहें तो 450 रुपए तक में इन्हीं जैसा लोकल ब्राँड भी खरीद सकते हैं। यही नहीं इस रेंज में आपको अच्छी क्वॉलिटीज वाली चीज़ भी मिलेगी। तो इस गर्मी पैरों को पंख लगाने दीजिए और उड़ने दीजिए आसमान में।

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

प्यार का बिंदास 'फन फॉर्मूला'


हेलो दोस्तो! हर समय हम क्यों हर वक्त छोटी-छोटी बातों को लेकर जरूरत से ज्यादा सीरियस रहते हैं। ‍रिलेशनशिप को लेकर तो हम इतने गंभीर हो जाते हैं कि उसका मस्ती, फन, छेड़खानी और खुशियों वाला साइड बिल्कुल ही गायब हो जाता है। प्यार में किसी का झूठ पकड़ा गया तो प्रेमियों के लिए यही नाराजगी का कारण बन जाता है।
हफ्ते भर यही किच-किच चलती रहती है कि मजबूरी थी तो भला आखिर कैसी मजबूरी थी। इस तफ्तीश में रिश्ते की ऐसी फजीहत होती है कि मानों इस बेसिर-पैर का मुकदमा लड़ने से सूली पर चढ़ना ज्यादा आसान हो। अब भला इससे कौन इंकार कर सकता है कि झूठ बोलना, धोखा देना, बेवफाई करना आदि नहीं चल सकता है।
लव रिलेशन में कोई यदि यह गलतियाँ बार-बार दुहरा रहा है तो क्या करना चाहिए? अरे बाबा आप तो फिर गंभीर हो गए। घबराने वाली कोई बात नहीं है। हो सकता है, वह उसके पर्सनेलिटी का हिस्सा हो। और आपका पर्सनेलिटी बिल्कुल उसके उलट। आप और आपका साथी एक-दूसरे को मैच कर रहे हैं कि नहीं यह जानने का फॉर्मूला भी निकाल लिया गया है।

कहते हैं न कि इश्क एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है। आज हम पेश करेंगे आपके सामने एक 'फन फॉर्मूला' जिसे आप आजमाएँ और अपने एकरसता भरे नीरस रिश्ते को बनाएँ सरस एवं मजेदार। यह फन फॉर्मूला वाली इन्वेस्टिगेशन दोनों के लिए है। तैयार हैं आप। पेश है आपके सामने क्वेश्चन की लिस्ट। नियम भी आपको बता रही हूँ। इस टेस्ट से आपको पता चल जाएगा कि आप दोनों की जोड़ी कितनी मैच हो रही है। तो कलम उठाएँ और तैयार हो जाएँ।
हर सवाल के सामने जवाबों के ऑप्शन दिए गए हैं। सही जवाब को एक कागज पर या फाइल पर लिखते जाएँ।
केटेगरी-1
* मैं तो बस तत्काल ही काम कर डालता हूँ :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* मेरी रुचियों का क्षेत्र काफी बड़ा है :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* दूसरों के मुकाबले मुझमें अधिक एनर्जी है :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

केटेगरी-2
* लोगों को प्रचलित मापदंडों के अनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए :
-एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* आमतौर पर मैं मानता हूँ कि नियम-कायदे का पालन करना जरूरी है :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* मेरे फ्रैंड्स और फैमेली वाले कहेंगे कि मुझमें ट्रेडिशनल वैल्यूज हैं :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

केटेगरी-3
* मैं दूसरों के मुकाबले ज्यादा एनालिसिस और आर्ग्यूमेंट करता हूँ :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* मैं इमोशन को बीच में लाए बिना ही प्रॉब्लम्स का समाधान कर सकता हूँ :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* मुझे यह पता लगाने में मजा आता है कि कोई काम कैसे होता है :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

केटेगरी-4
* मुझे अपने दोस्तों की इच्छा और जरूरत को गहराई से जानना पसंद है :
एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* मैं लगातार खुद को खयालों (डे-ड्रीमिंग) में खोया हुआ पाता हूँ :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो

* मैं अक्सर इमोशनल मूवी देखने के बाद कई घंटे तक उससे प्रभावित रहता हूँ :
- एब्सोल्यूटली यस
नो
यस
एब्सोल्यूटली नो
स्कोर इस प्रकार दें- हर एब्सोल्यूटली नो के लिए 0 प्वाइंट। हर 'नो' के लिए 1 प्वाइंट। हर 'यस' के लिए 2 प्वाइंट और हर एब्सोल्यूटली यस के लिए 3 प्वाइंट।
हर केटेगरी के जवाबों का कुल जोड़ अलग-अलग निकालें। याद रखें सभी केटेगरी को एक साथ न जोड़ें।
पहली केटेगरी आपको यह बताती है कि आप किस दर्जे (डिग्री) के खोजी हैं।
दूसरी केटेगरी यह बताती है कि आप किस डिग्री के निर्माता हैं।
तीसरी केटेगरी के अनुसार आप किस दर्जे के ऑर्डर देने वाले हैं।
चौथी केटेगरी का मतलब है कि आप किस डिग्री के मोल-तोल करने वाले हैं।
इस उत्तर के अनुसार तीसरे और चौथे केटेगरी वाले आपस में रिश्ते को आगे बढ़ाने के लिए डेट पर जा सकते हैं। यानी मिसाल के तौर पर पहली केटेगरी में चार अंक आया है और दूसरी केटेगरी में किसी को चार अंक आया है तो वे डेट पर जा सकते हैं। जबकि पहली केटेगरी वाले को पहली केटेगरी का अंक पाने वाले के साथ ही जाना चाहिए। यानी 'खोजी' को 'खोजी' के साथ और 'निर्माता' अंक पाने वाले को 'निर्माता' के साथ ही डेट पर जाना चाहिए।
अरे, आप तो फिर सीरियस हो गए। ओहो, यह सारी कसरत मजे के लिए की गई है। दिल्लगी, हँसी-मजाक को रोज के जीवन में शामिल रखें, प्यार की मुश्किलों से भरी डगर आसान हो जाएगी।

कहानी
एक बच्चा कैसे खुश हुआ
माँ बत्तख आश्चर्य से सोच रही थी कि क्या मुझसे अंडों को गिनने में कोई गलती हो गई? पर माँ बत्तख और ज्यादा कुछ सोचती इससे पहले सातवें अंडे से एक बच्चा बाहर निकल आया। यह सातवाँ बच्चा बाकी छः बच्चों से अलग था। भूरे पंख और आँखों पर पीलापन। बाकी छः नन्हे बत्तख बच्चों के बीच यह बड़ा अजीब लग रहा था। अपने इस अजीब से बच्चे को लेकर माँ बत्तख के मन में एक चिंता जरूर थी।
माँ बत्तख जब अपने सातवें बच्चे को देखती तो उसे विश्वास नहीं होता कि यह उसी का बच्चा है। यह सातवाँ बच्चा बाकी के बीच बहुत अजीब दिखता था। इसकी आदतें भी अलग थी। खाना भी वह अपने बाकी भाइयों से ज्यादा खाता था और वह उनकी तुलना में उसका शरीर भी ज्यादा बड़ा था। दिन जैसे-जैसे बीत रहे थे सातवाँ बच्चा खुद को अलग-थलग पाने लगा। कोई भी भाई उसके साथ खेलना पसंद नहीं करता था। फार्म में बाकी सारे लोग उसे देखकर उसकी हँसी उड़ाते थे।

हालाँकि माँ बत्तख अपने इस बच्चे को खुश करने की बहुत कोशिश करती थी, पर बाकी सभी लोगों के व्यवहार से वह उदास और दुखी रहने लगा। कभी-कभी माँ बत्तख कहती भी कि प्यारे बच्चे, तुम दूसरों से इतने अलग क्यों हो। यह सुनकर बच्चे को और भी बुरा लगता। कभी-कभी वह खुद से भी पूछता कि मैं दूसरों से इतना अलग क्यों हूँ। कोई भी तो मुझे पसंद नहीं करता है। उसे लगने लगा कि किसी को भी उसकी परवाह नहीं है।
फिर एक दिन सुबह वह बच्चा अपने फार्म से भाग निकला। एक पोखर के किनारे कुछ पक्षियों से उसने पूछा कि क्या तुमने कभी किसी भूरे पंख वाले बत्तख को देखा है। सभी ने मना करते हुए कहा कि हमने कभी तुम्हारे जैसा भद्दा बत्तख नहीं देखा। यह सुनकर भी उस बच्चे ने अपना धैर्य नहीं खोया। वह दूसरे पोखर गया। पर वहाँ भी उसे इसी तरह का जवाब मिला। यहाँ किसी ने उसे चेताया भी कि इंसानों से खबरदार रहना क्योंकि तुम उनकी बंदूक का निशाना बन सकते हो।
बच्चे को अहसास हुआ कि फार्म से भागकर उसने गलती की है। भटकते-भटकते एक दिन वह एक गाँव में किसी बूढ़ी महिला के पास पहुँच गया। महिला को दिखाई कम देता था। तो उसने इसे बत्तख समझकर अंडों के लालच में पकड़ लिया। पर इस बच्चे ने एक भी अंडा नहीं दिया। यह देखकर बुढ़िया के यहाँ रहने वाली मुर्गी ने बच्चे को बताया कि अगर बुढ़िया को अंडे नहीं मिले तो वह तुम्हारी गर्दन मरोड़ देगी। बच्चा यह सुनकर बहुत डर गया। फिर रात के वक्त वह बुढ़िया के यहाँ से भी भाग निकला।
एक बार फिर से वह अकेला था और उदास भी। उसे प्यार करने वाला कोई भी नहीं था। उसने खुद से कहा कि अगर कोई भी मुझे प्यार नहीं करता तो मैं सबसे छिपकर रहूँगा। यहाँ खाने को भी कोई कमी नहीं है। यह सोचकर उसने खुद को धीरज बँधाया। फिर वह जहाँ था वहाँ से उसने एक सुबह कुछ सुंदर हँसों को उड़ान भरकर दक्षिण की ओर जाते हुए देखा। सफेद और सुराहीदार गर्दन वाले पक्षियों को देखकर बहुत दिनों बाद बच्चे के चेहरे पर खुशी आई। उन पक्षियों को देखकर बच्चे ने सोचा कि मैं एक दिन के लिए भी अगर इनकी तरह सुंदर हो जाऊँ तो सब मुझे पसंद करने लगेंगे।
सर्दियाँ बहुत तेज हुई तो जहाँ यह नन्हा बच्चा रह रहा था, उस जगह दाना-पानी कम हो गया। खाने की कमी से यह बच्चा कमजोर हो गया। भोजन की तलाश में उसे बाहर निकलना पड़ा। तभी एक किसान की नजर उस पर पड़ी। किसान दयालु था और कुछ महीनों तक बच्चे को किसान ने अपने यहाँ रखकर पाला। कुछ महीने बीते तो वह काफी बड़ा हो गया था।
जब कठिन दिन बीत गए तो किसान ने उस पंछी को एक तालाब में ले जाकर छोड़ दिया। तालाब के पानी में जब उसने अपने-आप को देखा तो वह चकित रह गया। वह बावला हो गया- मैं सुंदर हूँ... मैं सुंदर हूँ...। वाकई वह अब बड़ा हो गया था और सुंदर भी। फिर जब दक्षिण गए हंस वापस उत्तर की तरफ लौटने लगे, तो इसने उन्हें देखा। उन्हें देखते ही इसे खयाल आया कि वह तो बिलकुल उड़ने वाले हंसों की तरह है।
हंसों ने भी अपने इस जोड़ीदार को पहचान लिया और उसे अपने साथ ले लिया। फिर किसी बूढ़े हंस ने उससे पूछा कि इतने दिनों वह कहाँ रहा तो वह बोला कि यह लंबी कहानी है। बाद में सुनाऊँगा। हंसों का यह झुंड एक तालाब के किनारे उतर गया। वहाँ इस सुंदर से हंस को देखकर बच्चे चिल्ला रहे थे कि देखो वह हंस कितना सुंदर लग रहा है। हंस ने यह सुना तो शरमाकर मुस्कुरा दिया। कहानी खत्म।
57 सालों से शान की सवारी

ओवेन हुक की उम्र अब 72 साल है। जब वे 15 साल के थे तब उनका मन स्कूल से उचट गया और वे एक किराना दुकान पर काम करने लगे। इसी उम्र में उन्हें साइकिल चलाने का शौक भी लगा। उन्होंने 36 महीने की किस्त पर एक साइकिल खरीदी। इसी दिन से यह साइकिल उनकी दिनचर्या का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई और पिछले 57 सालों से यह साइकिल उनके पास है।

आज भी व‍े दिन में दो बार इस पर आधा-आधा मील की यात्रा करते हैं। अब दादा बन चुके ओवन कहते हैं कि इस साइकिल के साथ उनकी दोस्ती बहुत पक्की है और अब इसे छोड़ पाना मुश्किल है। ओवेन की साइकिल की चमक-दमक अब भी बरकरार है। इतने सालों में बस एक बार उस पर रंग करवाने की जरूरत आई थी। ओवेन अब एक स्कूल के प्रभारी हैं और आज भी अपनी साइकिल पर स्कूल तक जाते-आते हैं।

सेमल पर छाई है बहार
गर्मियों के आते ही वन-उपवन, बाग-बगीचों की छटा कुछ बदली-बदली सी नजर आती है। जब हम होली की तैयारी में लगे रहते हैं तब प्रकृति में फूल भी फाग रचने को तैयार रहते हैं। फूल तो कई हैं पर मेरे कॉलेज परिसर में चार-पाँच सेमल के पेड़ प्रकृति प्रेमियों का ध्यान अपनी रंगीन अदा से खींच ही लेते हैं। इन दिनों में सेमल में बड़े-बड़े कटोरेनुमा रसभरे फूलों का गहरा लाल रंग अपने शबाब पर होता है। पलाश, सेमल और टेबेबुआ को देखकर मुझे यह लगता है कि निश्चय ही मनुष्य ने होली खेलने की प्रेरणा जंगल का यह मनमोहक, मादक दृश्य देखकर ही ली होगी।
प्रकृति हजारों लाखों वर्षों से यह होली खेलती आ रही है। निसर्ग का यह फागोत्सव फरवरी से शुरू होकर अप्रैल-मई तक चलता है। सेमल के पेड़ और होली का गहरा संबंध यह भी है कि होली को जो डांडा गाड़ा जाता है वह सेमल या अरण्डी का ही होता है। ऐसा संभवत: इसलिए किया जाता है क्योंकि सेमल के पेड़ के तने पर जो काँटे होते हैं उन्हें बुराई का प्रतीक मानकर उन्हें जला दिया जाता है।
देखा जाए तो सेमल के पेड़ की तो बात ही निराली है। भारत ही नहीं दुनिया के सुंदरतम वृक्षों में इसकी गिनती होती है। दक्षिण-पूर्वी एशिया का यह पेड़ ऑस्ट्रेलिया, हाँगकाँग, अफ्रीका और हवाई द्वीप के बाग-बगीचों का एक महत्वपूर्ण सदस्य है। पंद्रह से पैंतीस मीटर की ऊँचाई का यह एक भव्य और तेजी से बढ़ने वाला, घनी पत्तियों का स्वामी, पर्णपाती पेड़ है। इसके फूलों और पुंकेसरों की संख्‍या और रचना के कारण अँगरेज इसे 'शेविंग ब्रश' ट्री कहते हैं।
इसके तने पर मोटे तीक्ष्ण काँटों के कारण संस्कृत में इसे 'कंटक द्रुम' नाम मिला है। इसके तने पर जो काँटे हैं वे पेड़ के बड़ा होने पर कम होते जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि युवावस्था में पेड़ को जानवरों से सुरक्षा की जरूरत होती है जबकि बड़ा होने पर यह आवश्यकता खत्म हो जाती है। है न कमाल का प्रबंधन।
सेमल के मोटे तने पर गोल घेरे में निकलती टहनियाँ इसे ज्यामितीय सुंदरता प्रदान करती हैं। पलाश के तो केवल फूल ही सुंदर हैं परंतु सेमल का तना, इसकी शाखाएँ और हस्ताकार घनी हरी पत्तियाँ भी कम खूबसूरत नहीं। इसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे बाग-बगीचों और सड़कों के किनारे, छायादार पेड़ के रूप में बड़ी संख्‍या में लगाया जाता है। बसंत के जोर पकड़ते ही मार्च तक यह पर्णविहीन, सूखा-सा दिखाई देने वाला वृक्ष हजारों प्यालेनुमा गहरे लाल रंग के फूलों से लद जाता है। इसके इस पर्णविहीन एवं फिर फूलों से लटालूम स्वरूप को देखकर ही मन कह उठता है -
'पत्ता नहीं एक/फूल हजार
क्या खूब छाई है/सेमल पर बहार।'
सेमल सुंदर ही नहीं उपयोगी भी है। इसका हर हिस्सा काम आता है। पत्तियाँ चारे के रूप में, पुष्प कलिकाएँ सब्जी की तरह, तने से औषधीय महत्व का गोंद 'मोचरस' निकलता है जिसे गुजरात में कमरकस के रूप में जाना जाता है। लकड़ी नरम होने से खिलौने बनाने व मुख्‍य रूप से माचिस उद्योग में तीलियाँ बनाने के काम आती हैं। रेशमी रूई के बारे में तो सभी जानते ही हैं। बीजों से खाद्य तेल निकाला जाता है।
इन दिनों मकरंद से भरे प्यालों के रूप में लाल फूलों से लदा यह पेड़ किस्म-किस्म के पक्षियों का सभास्थल बना हुआ है। तोता, मैना, कोए, शकरखोरे और बुलबुलों का यहाँ सुबह-शाम मेला लगाता है। सेमल पर एक तरह से दोहरी बहार आती है, सुर्ख लाल फूलों की और हरी, पीली, काली चिड़ियों की। इन्हीं चिड़ियों के कारण इसकी वंशवृद्धि होती है। इस पर फल लगते हैं। बीज बनते हैं। सेमल के पेड़ और पक्षियों का यह रिश्ता पृथ्वी पर सदियों से चला आ रहा है और यदि हम इनके रंग में भंग न डालें तो यह ऐसे ही आगे भी चलता रहेगा। हालाँकि प्रकृ‍ति में दिनोंदिन हमारी दखलअंदाजी के चलते ऐसी संभावना क्षीण होती जा रही है।
पेड़-पौधों के फूलने की घटना के संदर्भ में वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि पौधों की पत्तियाँ ही उन्हें फूलने का संदेश देती हैं। परंतु सेमल पर जब बहार आती है तब तो उसके तन पर पत्तों का नामोनिशान तक नहीं होता। ‍तो फिर सेमल को फूलने का संदेश किसने दिया। दरअसल इसकी पत्तियाँ झड़ने से पूर्व ही इसके कानों में धीरे-से बहार का गीत गुनगुना जाती हैं कि उठो, जागो, फूलने का समय आ गया है बसंत आने ही वाला है। वास्तव में पतझड़ी पेड़ों की पत्तियाँ झड़कर आने वाली बहार का गीत गाकर ही इनके तन से विदा होती हैं। हमें सेमल की सुंदरता, पत्तियों के विदा गीत और प्रकृति का इस उपकार के लिए धन्यवाद करना चाहिए।

एक वर्ष की कीमत समझें
स्तो, अब वक्त आ गया है 2009 को अलविदा कहने को और 2010 के स्वागत का। आदमी का जीवन जब कुछ वर्षों का है तो स्वाभाविक है कि हरेक वर्ष की बहुत बड़ी कीमत है। कहते हैं कि 1 वर्ष की कीमत उस विद्यार्थी से पूछो जोकि अपनी कक्षा में पास नहीं हो सका। और 1 सेकंड की कीमत उस धावक से जो कि 1 सेकंड से भी कम समय से पिछड़ कर स्वर्ण पदक हासिल करने से चूक गया।
दोस्तो कभी आपने इस बात पर गौर किया कि हमारा जीवन क्या है। यही एक-एक पल से बना है। क्योंकि जो पल एक बार चला गया वह अब पलट कर कभी नहीं आएगा। तो क्यों न हम इस समय की और एक-एक वर्ष की कीमत पहचानें।
एक बार पलटकर देखें कि विगत वर्ष में हमने क्या हासिल किया और क्या हासिल करने से छूट गया। हमने अपने जिन गुणों के कारण कुछ पाया उन्हें हम बरकरार रखें और
जो हम प्राप्त कर सकते थे ‍लेकिन हमारी किसी गलती से हम उसके हकदार नहीं बन सके, उन कमियों को दूर करते चलें। और इन बातों को आगे भी ध्यान रखें और जीवन में उसे अमल में लाएँ।
गलती हर इंसान से होती है। सचिन तेंडुलकर भी कभी शतक मारता है, कभी दोहरा शतक तो कभी 0 पर या 20 रनों के भीतर ही आउट हो जाता है। आज हमारे देश में इतने बड़े-बड़े उद्योगपति हैं। सभी को पहले प्रयास में तो सफलता नहीं मिल जाती। उन्हें भी किसी-किसी व्यवसाय में कुछ समय घाटा उठाना पड़ता है। महात्मा गाँधी भी कहते थे 'चाहे सौ गलतियाँ करो, लेकिन किसी भी गलती को दोहराओ मत। क्योंकि गलती को दोहराना मूर्खता है।'
बस जरूरत है इन गलतियों को दूर करते जाने की ताकि जीवन में आप सफल कहलाएँ। ताकि आप स्वयं पर और आपके परिजन आप पर गर्व कर सकें। आशा करता हूँ इन बातों को ध्यान में रखते हुए आप अपने नव वर्ष की शुरुआत करेंगे। नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएँ।

बुधवार, 17 मार्च 2010

मिर्च-मसाला

सिर्फ प्रियंका चोपड़ा ने निभाया वादा
’जाने कहाँ से आई है’ के निर्देशक मिलाप झवेरी ने सिर्फ एक या दो शॉट के लिए बॉलीवुड की कई नामी अभिनेत्रियों को चुना था। जिसमें कैटरीना कैफ, दीपिका पादुकोण, विद्या बालन, प्रियंका चोपड़ा और अनुष्का शर्मा शामिल थीं। इन अभिनेत्रियों ने मिलाप से वादा किया कि वे उनकी फिल्म का हिस्सा जरूर बनेंगी। जब शूटिंग की बारी आई तो प्रियंका को छोड़ सभी ने बरसों पुराना ‘डेट प्राब्लम’ का बहाना बना दिया। सिर्फ प्रियंका ने वादा निभाया।
इसके बावजूद मिलाप इन अभिनेत्रियों का पक्ष लेते हुए कहते हैं कि सभी ने कुछ दिनों बाद की डेट्स दी, लेकिन मुझे फिल्म जल्दी रिलीज करना है इसलिए चाहकर भी मैं उनकी डेट्स का उपयोग नहीं कर सकता।
प्रियंका चोपड़ा ने ‘अंजाना-अंजानी’ की लंबी शूटिंग के बाद यूएस से लौटकर ‘जाने कहाँ से आई है’ की शूटिंग में हिस्सा लिया। इस फिल्म में प्रियंका के अलावा अक्षय कुमार, करण जौहर, फराह खान, साजिद खान, बोमन ईरानी और अमृता राव चंद सेकंड्‍स के लिए नजर आएँगे।
फिल्म में रितेश देशमुख और जैकलीन फर्नांडिस ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं।
सनी देओल को गुस्सा आया
सनी देओल इन दिनों गुस्से में हैं। उनकी नाराजगी का कारण है सुभाष घई और उनका प्रोडक्शन हाउस मुक्ता आर्ट्‍स। सनी का कहना है कि घई साहब और उनकी कंपनी ने ‘राइट या रांग’ का ठीक से प्रमोशन नहीं किया और न ही फिल्म को ठीक समय पर रिलीज किया। इससे फिल्म के व्यवसाय पर गहरा असर पड़ा।
सनी कहते हैं ‘राइट या रांग बेहतरीन फिल्म है, लेकिन मुक्ता आर्ट्‍स ने इसका प्रचार ऐसे किया मानो ये फिल्म छोटे निर्माता या बैनर की है। वे सिर्फ बात और बात करते रहे। मीटिंग लेते रहे। योजना बनाते रहे। लेकिन किया कुछ नहीं। मैं इन बातों से परेशान हो चुका हूँ।‘
सनी मानते हैं कि सुभाष घई को इस फिल्म में रूचि नहीं थी। ‘उन्हें कभी भी ‘राइट या रांग’ पर भरोसा नहीं था। वे ऐसे सलाहकारों से घिरे हुए थे जो उन्हें फिल्म के बारे में गलत राय देते रहे। उनके मन में फिल्म को लेकर कन्फ्यूजन था।‘
फिल्म की रिलीज डेट को लेकर भी सनी खुश नहीं हैं। वे कहते हैं ‘मुझे बताया गया कि फिल्म को सही समय पर रिलीज किया जाएगा। अंत में उन्होंने फिल्म को उस दिन रिलीज किया जिस दिन आईपीएल मैचेस शुरू हुए। क्या यही सही तारीख है? सच्चाई तो यह है कि उन्हें फिल्म में कोई रूचि नहीं थी। जब उन्होंने फिल्म का ट्रायल शो आयोजित किया तो लोगों को फिल्म पसंद आई। अचानक उन्होंने फिल्म को रिलीज कर दिया। जहाँ तक मेरा पब्लिसिटी में हिस्सा लेने का सवाल है तो कहना चाहूँगा कि पहले वे दिसम्बर में इसे रिलीज करने वाले थे, फिर जनवरी...आखिर वे क्या चाहते थे। जब वे बुलाए, मैं पब्लिसिटी के लिए हाजिर हो जाऊँ।‘
फिल्म इंडस्ट्री में आए बदलाव से भी सनी नाराज हैं। इस बारे में वे बताते हैं ‘सब कुछ बदल रहा है। जबकि कुछ फिल्में ही क्लिक हो रही हैं। हमें अच्छे निर्देशकों की जरूरत है। जिन डायरेक्टर्स को हमने (देओल्स) ब्रेक दिया था, वे आज हमसे दूर भाग रहे हैं।‘
क्या सनी, राजकुमार संतोषी के बारे में बात कर रहे हैं? ‘वे मेरे साथ एक फिल्म करने वाले थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। संतोषी उन फिल्मों में ही रुचि लेते हैं जिनमें उन्हें ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। इम्तियाज अली ने मेरे कजिन अभय देओल के साथ ‘सोचा ना था’ बनाई थी। बाद में वे इसी फिल्म को अलग-अलग तरीकों से बनाते रहे। संतोषी या अन्य फिल्ममेकर्स को सिर्फ पैसों से मतलब है।‘
अपनी आने वाली फिल्म ‘द मैन’ के बारे में सनी कहते हैं ‘फिल्म 50 प्रतिशत पूरी हो चुकी है। फिल्म को बनने में देरी इसलिए हो रही है क्योंकि यह बिग बजट फिल्म है। जहाँ तक ‘यमला पगला दीवाना’ का सवाल है तो मेरा मानना है कि यह फिल्म हिट साबित होगी। पंजाब में मैं, मेरा भाई और डैड इसकी शूटिंग कर रहे हैं और वहाँ हमें इतना प्यार मिल रहा है मानो हम उनके परिवार के ही सदस्य हों।‘
दूसरी तरफ सनी की बातों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सुभाष घई कहते हैं ‘मुक्ता आर्ट्‍स ‘राइट या रांग’ के वर्ल्डराइट कंट्रोलर्स और डिस्ट्रीब्यूटर्स है। हम फिल्म को बेच नहीं पा रहे थे क्योंकि इस फिल्म को खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं था। सनी ने ये बातें फिल्म रिलीज होने के पहले क्यों नहीं कही। मैं 6 बार सनी के घर गया। हम फिल्म को 30 नवंबर को रिलीज करने वाले थे, लेकिन इन स्टार्स (सिर्फ सनी ही नहीं बल्कि इरफान, कोंकणा और ईशा) के पास फिल्म को प्रमोट करने के लिए समय नहीं था। हमने इस फिल्म को ओवरसीज़ टैरिटरी में मात्र 20 लाख रुपए में बेचा है। डेढ़ करोड़ रुपए इसकी पब्लिसिटी पर खर्च किए हैं। पब्लिसिटी के लिए कोई भी कलाकार उपलब्ध नहीं था। सनी का कहना है कि उन्हें पब्लिसिटी करना अच्छा नहीं लगता। उन्हें शाहरुख खान और आमिर खान की तरफ देखना चाहिए कि किस तरह से वे फिल्म की पब्लिसिटी में रूचि लेते हैं। सनी भी फिल्म की पब्लिसिटी में हिस्सा लेने की बजाय पंजाब शूटिंग के लिए चले गए। मुक्ता आर्ट्‍स को दोष देना गलत है। सनी बहुत अच्छे इंसान हैं लेकिन मार्केटिंग की नई रणनीतियों से परिचित नहीं हैं।‘

कविता, कविता कब लगती है


कविता में भाषा की, शब्दों की एक खास भूमिका होती है। गद्य से कुछ अलग। यह अलग क्या है, इस पर नाना प्रकार से विचार होता रहा है। विन्यास, संगीत, लय, छलाँगें, संवेग, विचार और संवेदना की गहरी-उथली घाटियाँ और शब्दों के बीच की जगहें। ये ही वे समवेत चीजें हैं जो मोटे तौर पर उसे गद्य से अलगा सकती हैं लेकिन भाषा एकमात्र पहला और अनिवार्य तत्व होते हुए भी इतना आत्मनिर्भर और निर्णायक तत्व नहीं है कि बाकी चीजों को दरकिनार किया जा सके।
मेरे लिए केवल भाषा से, शब्दों भर से कविता संभव नहीं होगी। वह कुछ और चमत्कृत कर सकनेवाली चीज हो तो सकती है मगर कविता नहीं। जहाँ तक कविता में लोकशब्दों की आवाजाही का प्रश्न है तो यह शब्द-प्रवेश अपनी परंपरा, बोध और सहज आकस्मिकता की वजह से होगा ही।
कवि की अपनी पृष्ठभूमि और उसके जनपदीय सांस्कृतिक जुड़ाव से शब्द-संपदा स्वयमेव तय होती है। ठूँसे हुए शब्द अलग से दिखते हैं, चाहे फिर वे अंग्रेजी के हों, महानगरीय आधुनिकता में पगे हों या फिर लोक से आते दिखते हों। इसलिए महत्वपूर्ण यही है कि कविता में वे किस तरह उपस्थित हैं।
बहुत पीछे न जाएँ तो अस्सी के दशक में भी अरुण कमल की कविता में उनके लोक और अंचल के अनेक शब्द आते हैं और वे कोई लोकभाषा के कवि नहीं है। भगवत रावत और ज्ञानेंद्रपति की कविता में अनेक जनपदीय शब्दों की जगह है । बोलियों के शब्द हैं।
बद्रीनारायण, नवल, एकांत, बोधिसत्व में भी यह छटा है। दूसरी तरफ अनेक श्रेष्ठ कवि ऐसे हैं जिनकी कविता महानगरीय शुद्ध खड़ी बोली के मानकीकृत शब्दों से ही परिचालित है। मुझे इसमें कोई भलाई या बुराई नहीं दिखती है। मेरे तईं पाठक के लिए महत्वपूर्ण है कि आखिर कविता कुल रूप में कैसी है। बहरहाल, कविता में शब्द प्रवेश को लेकर कोई निषेधाज्ञा लागू नहीं की जा सकती, न ही कोई इस तरह के नियम बनाए जा सकते हैं। बोलियों के, लोक के शब्द कविता में संपन्नता और वैविध्य को जगह दे सकते हैं।
लेकिन बोलियों को समकालीन कविता का प्रचलित रूप बचाएगा, इसमें मुझे संदेह है। याददिलाही के स्तर तो बात ठीक है। बोलियों को साहित्य बचा लेता है, यह अवधारणा भी विमर्श योग्य है। क्या 'रामचरितमानस' ने अवधी बचा ली है और क्या वह इसे अमर बनाए रखेगी? अथवा अवधी को अवध का लोक ही बचाएगा?
बोलियों का प्रयोग यदि जीवन में नहीं रहेगा तो साहित्य में उनकी उपस्थिति एक ऐतिहासिक सहजता और अपने समकाल की स्मृति भर है। दरअसल, जीवन की विशालता और जीवंत लोक ही बोलियों और शब्दों को बचाते हैं, बाकी काम तो सिर्फ अकादमिक रह जाता है इसलिए कविता में सहज शब्द प्रवेश और रचना के स्वाभाविक हिस्से के रूप में शब्दों की उपस्थिति ही कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे प्रासंगिक और संप्रेषणीय हों, फिर उन शब्दों के स्रोत कहाँ हैं, यह जानना-समझना गौण है।

सोमवार, 15 मार्च 2010

मनोवांछित फल देती है भगवती दुर्गा


भारत के कर्म भूमि के सपूतों के लिए ‘माँ दुर्गा' की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है जिस प्रकार घने तिमिर अर्थात्‌ अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण। जिस व्यक्ति को बार-बार कर्म करने पर भी सफलता न मिलती हो, उचित आचार-विचार के बाद भी रोग पीछा न छोड़ते हो, अविद्या, दरिद्रता, (धनहीनता) प्रयासों के बाद भी आक्रांत करती हो या किसी नशीले पदार्थ भाँग, अफीम, धतूरे का विष व सर्प, बिच्छू आदि का विष जीवन को तबाह कर रहा हो।
मारण-मोहन अभिचार के प्रयोग अर्थात्‌ (मंत्र-यंत्र), कुलदेवी-देवता, डाकिनी-शाकिनी, ग्रह, भूत-प्रेत बाधा, राक्षस-ब्रह्मराक्षस आदि से जीना दुर्भर हो गया हो। चोर, लुटेरे, अग्नि, जल, शत्रु भय उत्पन्न कर रहे हों या स्त्री, पुत्र, बांधव, राजा आदि अनीतिपूर्ण तरीकों से उसे देश या राज्य से बाहर कर दिए हो, सारा धन राज्यादि हड़प लिए हो। उसे दृढ़ निश्चिय होकर श्रद्धा व विश्वासपूर्वक माँ भगवती की शरण में जाकर स्वयं व वैदिक मंत्रों में निपुण विद्वान ब्राह्मण की सहायता से माँ भगवती देवी की आराधना तन, मन, धन से करना चाहिए।

माँ से प्रार्थना करते हुए- हे विश्वेश्वरी! हे परमेश्वरी! हे जगदेश्वरी,! हे नारायणी! हे शिवे! हे दुर्गा! मेरी रक्षा करो, मेरा कल्याण करो। मैं अनाथ हूँ, आपकी शरण में हूँ आदि। इस प्रकार भक्तिपूर्वक समर्पित होने पर जहाँ नाना प्रकार के कष्ट मिट जाते हैं वहीं जीवन में अनेक प्रकार से रक्षा प्राप्त होती है। अर्थात्‌ माँ दुर्गा की आराधना से व्यक्ति एक सद्गृहस्थ जीवन के अनेक शुभ लक्षणों धन, ऐश्वर्य, पत्नी, पुत्र, पौत्र व स्वास्थ्य से युक्त हो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं बीमारी, महामारी, बाढ़, सूखा, प्राकृतिक उपद्रव व शत्रु से घिरे हुए किसी राज्य, देश व सम्पूर्ण विश्व के लिए भी माँ भगवती की आराधना परम कल्याणकारी है।
नवरात्रि में माँ भगवती की आराधना अनेक विद्वानों एवं साधकों ने बताई है। किन्तु सबसे प्रामाणिक व श्रेष्ठ आधार 'दुर्गा सप्तशती' है। जिसमें सात सौ श्लोकों के द्वारा भगवती दुर्गा की अर्चना व वंदना की गई है। नवरात्रि में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ दुर्गा सप्तशती के श्लोकों द्वारा माँ-दुर्गा देवी की पूजा नियमित शुद्वता व पवित्रता से की या कराई जाय तो निश्चित रूप से माँ प्रसन्न हो इष्ट फल प्रदान करती हैं।

इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व है। कलश स्थापना राहु काल, यमघण्ट काल में नहीं करना चाहिए। इस पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजा सुन्दर सर्वतोभद्र मण्डल, स्वस्तिक, नवग्रहादि, ओंकार आदि की स्थापना विधिवत शास्त्रोक्त विधि से करने या कराने तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आवाह्‌न उनके 'नाम मंत्रों' द्वारा उच्चारण कर षोडषोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायी है।
ज्योति जो साक्षात्‌ शक्ति का प्रतिरूप है उसे अखण्ड ज्योति के रूप में शुद्ध देसी घी या गाय का घी हो तो सर्वोत्तम है से प्रज्ज्वलित करना चाहिए। इस अखण्ड ज्योति को सर्वतोभद्र मण्डल के अग्निकोण में स्थापित करना चाहिए। ज्योति से ही आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हैं। अखण्ड ज्योति का विशेष महत्व है जो जीवन के हर रास्ते को सुखद व प्रकाशमय बना देती है।
नवरात्रि में व्रत का विधान भी है जिसमें पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों तक का व्रत रखा जा सकता है। इस पर्व में सभी स्वस्थ्य व्यक्तियों को समर्थ व श्रद्धा अनुसार व्रत रखना चाहिए। व्रत में शुद्ध शाकाहारी व शुद्ध व्यंजनों का ही प्रयोग करना चाहिए। सर्वसाधारण व्रती व्यक्तियों को प्याज, लहसुन आदि तामसिक व माँसाहारी पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए। व्रत में फलाहार अति उत्तम तथा श्रेष्ठ माना गया है।

भगवती जगदम्बा नवग्रहों, नव अंकोंसहित समस्त ब्रह्माण्ड की दृश्य व अदृश्य वस्तुओं, विद्याओं व कलाओं को शक्ति दे संचालित कर रही हैं। नवरात्रि में नव कन्याओं का पूजन कर उन्हें श्रद्धा के साथ, सामर्थ्य अनुसार भोजन व दक्षिणा देना अत्यंत शुभ व श्रेष्ठ माना गया है। इस कलिकाल में सर्वबाधाओं, विघ्नों से मुक्त होकर सुखद जीवन के पथ पर अग्रसर होने का सबसे सरल उपाय शक्ति रूपा जगदंबा का विधि-विधान द्वारा पूजा-अर्चना ही एक साधन है।

शनिवार, 13 मार्च 2010

नर्गिस

सीएनएन सूची में नर्गिस शामिल
न्यूयॉर्क से जारी 25 सर्वश्रेष्ठ एशियाई अदाकारों की सूची में नर्गिस का नाम भी शामिल है। ऑस्कर के लिए नामांकित जिस फिल्म 'मदर इंडिया' के लिए उनका जिक्र है वह उनकी जिंदगी में मील का पत्थर साबित हुई। 'तकदीर' (1943) से 'रात और दिन' (1967) तक नर्गिस ने कई फिल्मों में काम किया। लेकिन इस किरदार के बगैर उनका अभिनय सफर अधूरा ही रहेगा।
नई पीढ़ी की कई अभिनेत्रियाँ आज भी जिंदगी में ऐसे किरदार को अदा करने की ख्वाहिश जाहिर करती हैं। इतना जबर्दस्त असर आज भी इस किरदार का रहा है। लेकिन केवल एक शख्स ऐसा रहा जिसे लगता रहा कि नर्गिस यह किरदार अदा न करें।
'मदर इंडिया' में अदा नर्गिस का किरदार जवानी से बुढ़ापे का रहा। जब उनकी उम्र महज 28 साल रही जो बुढ़ापे के साकार करने की तो कतई नहीं थी लेकिन महबूब सा. ने उनके बुढ़ापे को इसके भी कई साल पहले खोज लिया था। जब नर्गिस केवल 20 साल की थीं। 'अंदाज' (1949) में वे बॉबकट में घूमने वाली आजाद ख्याल युवती रहीं और 'अंदाज' के सेट पर इस आधुनिक नर्गिस में महबूब ने 'मदर इंडिया' को पहचान लिया और कहा भी था- 'आज या कल जब भी मैं 'औरत' (1940) का रीमेक बनाऊँगा तब 'राधा' तुम ही करो यह मेरी ख्वाहिश है।'
आरके की फिल्मों की रोमांटिक नायिका की इमेज का 'मदर इंडिया' के चलते तड़कना तय था। इस डर के चलते राजकपूर ने उन्हें इस किरदार को स्वीकार न करने की सलाह दी लेकिन उसे नकारते 'आग' (1947) से आरके के अलावा किसी और निर्देशक के लिए काम करने की सोच से भी परहेज करने वाली नर्गिस ने महबूब साहब की 'आन' से मुँह फेर लिया था। इसके बावजूद 'मदर इंडिया' से वे इंकार न कर सकीं। जिसके लिए फिल्म फेयर के साथ अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान हासिल होने पर राज उन्हें फूलों का गुलदस्ता भेज अभिनदंन करना नहीं भूले।
आरके के साथ नजदीकी के चलते नर्गिस राजी होने पर महबूब को शक रहा। सो दूसरी नायिका के बतौर जिस नाम की सोची वह रहा- वीणा। वीणा नर्गिस से वरिष्ठ होने के बावजूद 'हुमायूँ' में उनकी सहनायिका रही क्योंकि वे महबूब सा. के अहसान को नहीं भूलीं जो उन्हें लाहौर की फिल्मी दुनिया से मुंबई लाए थे।
'मदर इंडिया' में वीणा का नाम तय होने के साथ किरदार की कॉस्टयूम भी तैयार हो गई और तब फिल्म के नायक रहे दिलीप कुमार। इस सारी तैयारी के बीच नर्गिस के रंजामदी जाहिर करते ही वीणा के साथ दिलीपकुमार का नाम भी कट गया। क्योंकि दिलीप के साथ 'अनोखा प्यार', 'अंदाज', 'बाबुल', 'दीदार', 'जोगन' और 'हलचल' सात कामयाब फिल्मों की नायिका उनकी माँ बनेगी इस बात में महबूब सा. को शक था। वीणा के साथ जिन दो और नामों पर विचार किया गया उनमें निरुपा रॉय और दूसरी रहीं मराठी फिल्मों की सुलोचना।
ऑस्कर के लिए नामांकित पहली हिन्दुस्तानी फिल्म जो मात्र एक वोट की वजह से ऑस्कर तक नहीं पहुँच सकी। 'औरत' का रीमेक होने से रंग संगति के चलते कहानी को पुरानी पार्श्वभूमि देते फ्लॅशबॅक से शुरू किया गया। 'औरत' के बाद तकनीकी तरक्की के चलते 'मदर इंडिया' को फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ छाया लेखक (फरदून ईरानी) और ध्वनि लेखक (कौशिक) सम्मान से नवाजा गया। जबकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री नर्गिस और निर्देशक महबूब के कारण फिल्म भी सर्वश्रेष्ठ रही। यही नहीं 'औरत' के दौरान महबूब और सरदार अख्तर के बीच की नजदीकियाँ निकाह में तब्दील हो गईं और 'मदर इंडिया' के वक्त भी इतिहास ने इसे दुहरा दिया। सेट पर लगी आग के दौरान जान की बाजी लगा नर्गिस को मौत के मुँह से बचाने वाले सुनील दत्त 11 मार्च 1958 को विवाह के बंधन में बँध गए।

थोड़ी सी हँसी हो जाए


अमित सुमित से : यार यह बताओ कि तुमने अपनी उँगलियों पर ये नंबर क्यों लिख रखे हैं।
सुमित : तुझे इतना भी नहीं पता। मास्टरजी ने कहा कि गिनती उँगलियों पर होनी चाहिए।
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रोनू दादी माँ से : दादी माँ ठंड में मुझे ठंडे पानी से मुँह धोने को मत कहो। मुझे ठंड लगती है।
दादी माँ : पर बेटा हम जब तुम्हारी उम्र के थे तो ठंड के दिनों में भी चार बार ठंडे पानी से मुँह धोते थे।
रोनू : तभी तो आपका चेहरा इतना सिकुड़ गया है।
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मास्टरजी : सोनू तुम्हारा होमवर्क तुम्हारे पिताजी की हैंडराइटिंग में क्यों है?
सोनू : मास्टरजी वो मैंने कल पिताजी की पेन से होमवर्क किया था ना इसलिए।
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अन्नू : पापा यह पंखा बिजली से क्यों घूमता है?
पापा : क्योंकि बेटा बिजली में बहुत शक्ति होती है।
अन्नू : हमसे भी ज्यादा?
पापा : नहीं बेटा, हमारा दिमाग ज्यादा ताकतवर होता है।
अन्नू : तो पापा फिर दिमाग से पंखा क्यों नहीं चलाते!
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अतिथि सत्कार का प्रभाव

- अरुण कुमार बंछोर
महाभारत काल की बात है। कुरुक्षेत्र में मुद्‍गल नाम के एक श्रेष्ठ ऋषि रहते थे। वे सत्यनिष्ठ, धर्मात्मा और जितेंद्रिय थे। क्रोध व अहंकार उनमें बिल्कुल नहीं था। जब खेत से किसान अनाज काट लेते और खेत में गिरा अन्न भी चुन लेते, तब उन खेतों में बचे-खुचे दाने मुद्‍गल ऋषि अपने लिए एकत्र कर लेते थे।
कबूतर की भाँति वे थोड़ा सा अन्न एकत्र करते और उसी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। पधारे हुए अतिथि का सत्कार भी उसी अन्न से करते, यहाँ तक कि पूर्णमासी तथा अमावस्या के श्राद्ध तथा आवश्यक हवन भी वे संपन्न करते थे। महात्मा मुद्‍गल एक पक्ष (पंद्रह दिन) में एक दोने भर अन्न एकत्र कर लाते थे। उतने से ही देवता, पितर और अतिथि आदि की पूजा-सेवा करने के बाद जो कुछ बचता था, उससे परिवार का काम चलाते थे।
महर्षि मुद्‍गल के दान की महिमा सुनकर महामुनि दुर्वासाजी ने उनकी परीक्षा करने का निश्चय किया। उन्होंने पहले सिर घुटाया, फिर फटे वस्त्रों के साथ पागलों-जैसा वेश बनाए हुए, कठोर वचन बोलते मुद्‍गल जी के आश्रम में पहुँचकर भोजन माँगने लगे। महर्षि मुद्‍गल ने अत्यंत श्रद्धा के साथ दुर्वासाजी का स्वागत किया। उनके चरण धोए, पूजन किया और फिर उन्हें भोजन कराया। दुर्वासाजी ने मुद्‍गल के पास जितना अन्न था, वह सब खा लिया तथा बचा हुआ जूठा अन्न अपने शरीर में पोत लिया। फिर वहाँ से उठकर चले आए।
इधर महर्षि मुद्‍गल के पास भोजन को अन्न नहीं रहा। वे पूरे एक पक्ष में दोने भर अन्न एकत्र करने को जुट गए। जब भोजन के समय देवता और पितरों का भाग देकर जैसे ही वे निवृत्त हुए, महामुनि दुर्वासा पूर्व की तरह कुटी में आ पहुँचे और फिर भोजन करके चले गए। मुद्‍गल जी पुन: परिवार सहित भूखे रह गए।
एक-दो बार नहीं पूरे छह माह तक इसी प्रकार दुर्वासा जी आते रहे। प्रत्येक बार वे मुनि मुद्‍गलजी का सारा अन्न खाते रहे। मुद्‍गल जी भी उन्हें भोजन कराकर फिर अन्न के दाने चुनने में लग जाते थे। उनके मन में क्रोध, खीज, घबराहट आदि का स्पर्श भी नहीं हुआ। दुर्वासा जी के प्रति भी उनका आदर भाव पहले की भाँ‍ति ही बना रहा।
महामुनि दुर्वासा आखिर में प्रसन्न होकर कहने लगे- महर्षि! विश्व में तुम्हारे समान ईर्ष्या व अहंकार रहित अतिथि सेवा कोई नहीं है। क्षुधा इतनी बुरी होती है कि वह मनुष्य के धर्म-ज्ञान व धैर्य को नष्ट कर देती है, लेकिन वह तुम पर अपना प्रभाव तनिक भी नहीं दिखा सकी। तुम वैसे ही सदाचारी और धार्मिक बने रहे। विप्रश्रेष्ठ! तुम अपने इसी शुद्ध शरीर से देवलोक में जाओ।'
महामुनि दुर्वासाजी के इतना कहते ही देवदूत स्वर्ग से विमान लेकर वहाँ आए और उन्होंने मुद्‍गलजी से उसमें बैठने की प्रार्थना की। महर्षि मुद्‍गल ने देवदूतों से स्वर्ग के गुण-दोष पूछे और उनकी बातें सुनकर बोले - 'जहाँ परस्पर स्पर्धा है, जहाँ पूर्ण तृप्ति नहीं और जहाँ असुरों के आक्रमण तथा पुण्य क्षीण होने से पतन का भय सदैव लगा रहता है, वह देवलोक स्वर्ग में मैं नहीं जाना चाहता।'
आखिर में देवदूतों को विमान लेकर लौट जाना पड़ा। महर्षि मुद्‍गलजी ने कुछ ही दिनों में अपने त्यागमय जीवन तथा भगवद्‍ भजन के प्रभाव से प्रभु धाम को प्राप्त किया।
सौजन्य से - देवपुत्र

बैर का परिणाम
कभी चंदन और पलाश जंगल में साथ-साथ रहते थे। चंदन महकता था। पलाश दहकता था। मित्र के रूप में वे दोनों प्रसन्न थे। किसी बात पर एक बार दोनों में गहरी अनबन हो गई। एक दिन जब एक लकड़हारा वहाँ आया और उसने सुगंधित लकड़ी की चाह की तो पलाश बोला- 'चंदन की लकड़ी काट लो ना!'
सलाह यही थी। लकड़हारे ने चंदन को ऐसे काटा कि वह लहूलुहान हो गया। उसके अंग-अंग काट दिए गए। वह कहीं का न रहा। एक दिन लकड़हारा फिर वहीं आया बोला - 'कूची बनाना है, जो अच्छी तरह पुताई कर सके।' चंदन वहाँ था, पहले से ही बौखलाया हुआ था। उसने सुझाव दिया - 'भैया, इस काम के लिए पलाश की जड़ों से अच्छा कुछ नहीं।' लकड़हारे को बात भा गई।
उसने पलाश की जड़ें खोद डाली। जड़ें क्या खुदीं, पलाश तो अधमरा हो गया। छोटी सी दुश्मनी आज तक दोनों के दुख का कारण है।
सौजन्य से - देवपुत्र

गुरुवार, 11 मार्च 2010

दादी की चतुराई


- अरुण कुमार बंछोर
आज के चकाचौंध और आँय-फाँय अँगरेजी के जमाने में कौन बच्चा अपना नाम गणेश बताना पसंद करेगा? शानदार स्कूल में पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला गणेश पटवर्द्धन अपने इस पुराने से नाम से बड़ा खुश था। इसका कारण यह था कि गणेश मार्र्ग उसके छोटे शहर की सबसे ज्यादा रौनक वाली सड़क थी। फैशनेबल मॉल उसी सड़क पर।
गणेश को लेने के लिए सुबह जब स्कूल बस आती तो वह उसके घर के दरवाजे के पास रुकती। दोपहर बाद जब वह स्कूल से लौटता तो बस उसे गणेश मार्ग की दूसरी ओर उतारती। उस समय तक चहल-पहल इतनी बढ़ जाती कि सड़क पार करना कठिन हो जाता। गणेश काफी देर तक दूर खड़े अपने घर को देखता रहता। उसे अपना घर सुंदर लगता लेकिन उसे यह समझ में नहीं आता कि उसका घर सबसे अलग क्यों है?
आजी (दादी) उसे बताती कि अभी कुछ वर्ष पहले इस रास्ते के सारे घर ऐसे ही थे। जब से इस शहर में जमीन के भाव बढ़ने लगे, उनके पड़ोसियों ने अपने-अपने घर बेच दिए। उन घरों को तोड़कर वहाँ नई दुकानें-दफ्तर और बाजार बने। पेड़ कट गए और रास्ते का हुलिया बदल गया। बस, एक पटवर्द्धनों का बंगला ही पुरानी शान के साथ खड़ा है।
गणेश और आजी की दोस्ती थी। पूरे परिवार में गणेश सबसे छोटा था, तो आजी सबसे बड़ी। घर भी आजी का ही था। आजी उसे कहानियों के साथ पुराने जमाने के किस्से सुनाती। आजी ने उसे बताया था कि बिल्डर लोग उनका घर भी खरीदना चाहते हैं। रुपयों का लालच देते हैं। इतना रुपया जो राजा की कहानी में ही सुनने को मिलता है। हम इतने रुपए लेकर क्या करेंगे? फिर आजी की आँखें दूर कहीं देखने लगतीं। तेरे परदादा बड़े वकील थे। उनसे मिलने के लिए तिलक आए थे, तब ऊपर के कोने वाले कमरे में ठहरे थे। इस घर में आए मेहमानों के नाम जब आजी गिनाती तो गणेश को लगता कि वह उसकी सोशल स्टडीज की पुस्तक में से देखकर बोल रही हैं।
घर बेचने और रुपयों वाली बात गणेश की समझ में नहीं आती। परंतु पूरे पटवर्र्द्धन परिवार में, यानी गणेश के तात्या, अप्पा काका, अण्णा काका और काकियों में घर बेचने को लेकर खासी ऊहापोह थी। पुराना बंगला सबको पसंद था परंतु रुपयों से खरीदी जा सकने वाली मोटरकार, होटलों का खाना, महाबलेश्वर में छुट्टियाँ ललचा रही थीं। आजी से सब डरते थे।
उनकी जुबान की तलवारबाजी से परिवार के लोग तो क्या, बिल्डर-मवाली-सिपहिये सब खिसकते नजर आते थे। एक जान्हवी ताई थी जो अधिक उकसाने पर वैसी जुबान चला सकती थी। जान्हवी की माँ जब बेटी की चिकिर-चिकिर से आजिज आ जाती तो रुँआसी होकर कहती- बाई, तू ठहरी दुर्गादादी की पोती, मेरा तुझसे क्या मुकाबला। तू उन्हीं के पास जा।
दादी ने जान्हवी को अच्छा साध रखा था। जान्हवी के खूब लंबे और रेशमी बाल थे। बचपन से अब तक दादी ही उन्हें तेल लगाकर चोटी गूँथती। जब सब जान्हवी के बालों की प्रशंसा करते, दादी यों मुस्कुराती जैसे उनके बालों की ही बात हो रही हो। जान्हवी कॉलेज में क्या जाने लगी, बाल कटवाने की जिद करने लगी। दादी ने उसे पुचकारा, समझाया, डाँटा... और आज तो उन दोनों ने खूब तलवारें भाँजी। सारे घर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। दादी गुस्से से तमतमाकर घर से बाहर निकल गई और जाकर नारियल के बगीचे में बैठ गई।
बचपन से उन्हें यह जगह बहुत प्रिय थी। जब उनकी शादी हुई तब वे चौदह वर्ष की ही तो थीं। यहीं पर वे घरकुल खेलती थीं। लेकिन आज की गृहस्थी उन्हें समझ में नहीं आती, ऐसा वे बड़बड़ा रही थीं। गुस्साने से ज्यादा वे बौखला गई थीं। घर क्यों बेचना है? बाल क्यों काटना है? घर में सिनेमा क्यों चाहिए? घर का खाना छोड़ बाजार का क्यों चाहिए? दादी को शोरगुल बिलकुल नापसंद था। दोपहर हो गई और गणेश मार्ग पर शोर बढ़ गया। दादी को सिरदर्द होने लगा। वे उठने के लिए झुकी ही थीं कि ऊपर लटके नारियलों को पता नहीं क्या हो गया। एक नारियल आकर उनके सिर पर गिरा।
सच कहो तो टल्ले से ज्यादा वह कुछ नहीं था लेकिन बुढ़िया को बेहोश करने के लिए वह काफी था। हो सकता है ऐसा भूख लगने के कारण हुआ हो। दादी ने जब आँखें खोलीं तब एक दर्जन चेहरे उन पर झुके हुए थे। उनमें से सबसे छोटे, प्यारे चेहरे से उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो? उसने शीश नवाकर कहा- मैं गणेश हूँ। दादी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। फिर एक मोटी-सी महिला से पूछा- तुम कौन हो? उत्तर मिला मैं शुभांगी, आपकी बड़ी बहू। इस हालत में भी दादी का चौकस स्वभाव कम नहीं हुआ था।
सबके नाम जानने के बाद उन्होंने पूछा कि पीछे छुपती फिर रही बालकटी लड़की कौन है? लड़की सहमते हुए बोली- मैं जान्हवी हूँ। दादी बोली- छुपती क्यों हो? तुम तो सबसे सुंदर लग रही हो। सब लोग चौंक पड़े। पहले तो दादी बगीचे में बेहोश पड़ी मिली। पूरे चार घंटे बाद उन्हें होश आया। फिर उनकी याददाश्त खो गई। अब वे लंबे बाल कटाने पर जान्हवी को सुंदर कह रही थीं। तभी दूर से सुनाई देते वाहियात गीतों की धुन पर दादी पैर हिलाने लगीं। यह तो वाकई में डरा देने वाली बात थी। डॉक्टर काका ने कहा कि इन्हें आईसीयू में रखकर देखते हैं।
तीन दिन अस्पताल में रहने के बाद दादी घर लौट आईं। अब वे पहले की तरह ही अच्छी-भली चल-फिर-बोल रही थीं, लेकिन सबकुछ भूल गई थीं। अब वे किसी को दादू, किसी को मोटी, किसी को चष्मिश जैसे नामों से पुकारने लगीं। दादी दिनभर जोर से टीवी चलाकर रखतीं। अब वे घर का खाना छोड़ पिज्जा-बर्गर की जिद करने लगीं। पहले तो सबको इसमें फायदा दिखा परंतु जब टीवी से सिरदर्द और बाहर के खाने से पेट गड़बड़ाने लगा तो सब बड़े परेशान हो उठे। घर बेचने की बात सब भूल गए।
महीना खत्म होने के बाद दूधवाला हिसाब लेकर आया। चालाक ने सोचा कि डोकरी की हालत का फायदा उठाकर सौ-पाँच सौ रुपए झटक लूँ। सबकी आँख बचाकर उसने बगीचे में फूल चुन रही दादी को पकड़ा और बोला कि आजी, पिछले माह के मेरे पाँच सौ रुपए बाकी हैं। आप अप्पा से कहकर दिलवा दो। दादी चमकी और आँखें तरेरकर बोलीं- महेश्या, झूठ बोलेगा तो कौवा काटेगा। छुट्टे पैसे नहीं थे इसलिए तूने ही बत्तीस रुपए लौटाए नहीं मेरे। अब बोल? महेश्या दादी के पैर छूने लगा।
दूधवाले के जाते ही पीछे से निकलकर गणेश सामने आया और आँखें नचाने लगा। दादी यह क्या शरारत है? दादी ने आँखें मिचकाकर फुसफुसाया कि तेरा गणेश विला बचाए रखना है तो वेड़ा (पागल) बनकर पेड़ा खाओ।

परीक्षा से डर कैसा
हलो दोस्तो, इन दिनों लगभग आप सभी परीक्षा में व्यस्त होंगे या इसकी तैयारियाँ कर रहे होंगे। परीक्षा के दिनों में टेलीविजन के सीरियल देखने का मन होता है। इसी बीच होली भी आई और जिन स्टुडेंट्‍स का रंगों से खेलने का मन हुआ, उन्होंने खूब रंग और गुलाल खेला होगा।
कुछ विद्यार्थियों को परीक्षा का डर ज्यादा होता है तो वे पूरे समय पढ़ाई में ही लगे रहते हैं। परीक्षा के दिनों में पढ़ाई को गंभीरता से लेना ठीक है पर परीक्षा तनाव नहीं बनना चाहिए। जो स्टूडेंट्स परीक्षा के दिनों में तरोताजा रहते हैं और अपनी तैयारी पर विश्वास रखते हैं वे अच्छा स्कोर कर जाते हैं। परीक्षा का ज्यादा टेंशन होने पर परीक्षा हॉल में भी चीजों के भूल जाने का डर रहता है। इसलिए ज्यादा अच्छा तो यह है कि परीक्षा को आने दो और अपनी तैयारी पूरी रखो।
जितनी भी तैयारी करें आत्मविश्वास से करें। कुछ कठिन होने के कारण छूट भी रहा हो तो उसमें अपनी मेहनत जाया न करें। क्योंकि इस तरह ऐसा भी हो सकता है कि आप 10 नंबरों के लिए शेष 90 नंबरों से खिलवाड़ कर रहे हों। ऐसी स्थिति में आपको जो मैटर ईजी लगे उसे और अच्छे से तैयार करें, परीक्षा में उन प्रश्नों के आने पर आप उसे किस तरह हल करें, उसका प्रस्तुतीकरण कैसा हो। इस पर ध्यान दें। तो काफी हद तक संभावना है कि कोई कठिन प्रश्न आने पर आपको छोड़ना भी पड़े तो यह अतिरिक्त तैयारी उसे काफी हद तक कवर कर लेगी।
ठीक है ना दोस्तो वैसे भी थोड़ी देर के लिए सकारात्मक होकर सोच लें कि मैरिट में आने वाले छात्रों को भी 100 में से 100 मार्क्स तो आते नहीं हैं। अत: एकदम परफैक्ट होने के चक्कर में ऐसा न हो कि जो हमें आता हो वही न कर पाएँ। आशा करता हूँ इन बातों को ध्यान रखते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ पेपर देने जाएँगे और बढ़िया करेंगे। विश यू ऑल द बेस्ट।

आपका
संपादक भैया

अगला जनम भी लूँ मैं तुम्हारा ही बेटा बनकर
देख जाओ बाबूजी अपने बेटे का पुरुषार्थ
तुम्हारे आदर्श को किया मैंने चरितार्थ।
उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने का लिया मैंने संकल्प,
यही तो था तुम्हारे जीवन का निहितार्थ।।

बाई ने तो इस धरती पर हँसना मुझे सिखाया,
तुमने मुझको जीवन में संघर्ष का पाठ पढ़ाया।
तुम ही मेरी शक्ति थे और हौसला थे मेरा,
तुमने ही जीवन का असली मकसद समझाया।।

जानकर मेरी अभिरुचि को दे दी सही दिशा,
जब भी गलत कदम उठा तो दिखाया मुझे शीशा।
साधन की शुचिता पर तुमने दिया हमेशा जोर,
दिशा-दर्शक सदा रही थी जीवन में भगवत् गीता।।

दो-दो नौकरी करके तुमने हम सबको पाला,
हमको खुश रहने की खातिर अपना सुख टाला।
झूठी शान और झूठे मान के पीछे कभी न भागे,
'सादा जीवन-उच्च विचार' को जीवन में ढाला।।

तुम्हारे पदचिह्नों पर चलने का है किया जतन,
मेरे जीवन के आभूषण सत्य, ईमान और लगन।
चादर जितने पैर पसारे, उड़ा नहीं हवाओं में,
मेरे जीवन के साक्षी हैं धरती और गगन।।

बाबूजी यह पाती भेजूँ बतलाओ किस देस में,
तुमको ढूँढूँ कहाँ-किधर मैं आखिर हो किस वेष में।
कुछ पल बस सपनों का दामन ही सहला जाओ,
पीड़ा के बस अर्थ बचे हैं जीवन के अवशेष में।

अगला जनम भी लूँ मैं तुम्हारा ही बेटा बनकर
जीवन के पाठ पढ़ेंगे हम फिर से ‍मिल जुलकर।
सीखना बहुत है तुमसे मुझे अभी जिंदगी के गुर,
हिम्मत कभी न हारी तुमने पल हो चाहे जितने दुष्कर।।

सेमल पर छाई है बहार
गर्मियों के आते ही वन-उपवन, बाग-बगीचों की छटा कुछ बदली-बदली सी नजर आती है। जब हम होली की तैयारी में लगे रहते हैं तब प्रकृति में फूल भी फाग रचने को तैयार रहते हैं। फूल तो कई हैं पर मेरे कॉलेज परिसर में चार-पाँच सेमल के पेड़ प्रकृति प्रेमियों का ध्यान अपनी रंगीन अदा से खींच ही लेते हैं। इन दिनों में सेमल में बड़े-बड़े कटोरेनुमा रसभरे फूलों का गहरा लाल रंग अपने शबाब पर होता है। पलाश, सेमल और टेबेबुआ को देखकर मुझे यह लगता है कि निश्चय ही मनुष्य ने होली खेलने की प्रेरणा जंगल का यह मनमोहक, मादक दृश्य देखकर ही ली होगी।
प्रकृति हजारों लाखों वर्षों से यह होली खेलती आ रही है। निसर्ग का यह फागोत्सव फरवरी से शुरू होकर अप्रैल-मई तक चलता है। सेमल के पेड़ और होली का गहरा संबंध यह भी है कि होली को जो डांडा गाड़ा जाता है वह सेमल या अरण्डी का ही होता है। ऐसा संभवत: इसलिए किया जाता है क्योंकि सेमल के पेड़ के तने पर जो काँटे होते हैं उन्हें बुराई का प्रतीक मानकर उन्हें जला दिया जाता है।
देखा जाए तो सेमल के पेड़ की तो बात ही निराली है। भारत ही नहीं दुनिया के सुंदरतम वृक्षों में इसकी गिनती होती है। दक्षिण-पूर्वी एशिया का यह पेड़ ऑस्ट्रेलिया, हाँगकाँग, अफ्रीका और हवाई द्वीप के बाग-बगीचों का एक महत्वपूर्ण सदस्य है। पंद्रह से पैंतीस मीटर की ऊँचाई का यह एक भव्य और तेजी से बढ़ने वाला, घनी पत्तियों का स्वामी, पर्णपाती पेड़ है। इसके फूलों और पुंकेसरों की संख्‍या और रचना के कारण अँगरेज इसे 'शेविंग ब्रश' ट्री कहते हैं।
इसके तने पर मोटे तीक्ष्ण काँटों के कारण संस्कृत में इसे 'कंटक द्रुम' नाम मिला है। इसके तने पर जो काँटे हैं वे पेड़ के बड़ा होने पर कम होते जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि युवावस्था में पेड़ को जानवरों से सुरक्षा की जरूरत होती है जबकि बड़ा होने पर यह आवश्यकता खत्म हो जाती है। है न कमाल का प्रबंधन।
सेमल के मोटे तने पर गोल घेरे में निकलती टहनियाँ इसे ज्यामितीय सुंदरता प्रदान करती हैं। पलाश के तो केवल फूल ही सुंदर हैं परंतु सेमल का तना, इसकी शाखाएँ और हस्ताकार घनी हरी पत्तियाँ भी कम खूबसूरत नहीं। इसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे बाग-बगीचों और सड़कों के किनारे, छायादार पेड़ के रूप में बड़ी संख्‍या में लगाया जाता है। बसंत के जोर पकड़ते ही मार्च तक यह पर्णविहीन, सूखा-सा दिखाई देने वाला वृक्ष हजारों प्यालेनुमा गहरे लाल रंग के फूलों से लद जाता है। इसके इस पर्णविहीन एवं फिर फूलों से लटालूम स्वरूप को देखकर ही मन कह उठता है -

'पत्ता नहीं एक/फूल हजार
क्या खूब छाई है/सेमल पर बहार।'
सेमल सुंदर ही नहीं उपयोगी भी है। इसका हर हिस्सा काम आता है। पत्तियाँ चारे के रूप में, पुष्प कलिकाएँ सब्जी की तरह, तने से औषधीय महत्व का गोंद 'मोचरस' निकलता है जिसे गुजरात में कमरकस के रूप में जाना जाता है। लकड़ी नरम होने से खिलौने बनाने व मुख्‍य रूप से माचिस उद्योग में तीलियाँ बनाने के काम आती हैं। रेशमी रूई के बारे में तो सभी जानते ही हैं। बीजों से खाद्य तेल निकाला जाता है।
इन दिनों मकरंद से भरे प्यालों के रूप में लाल फूलों से लदा यह पेड़ किस्म-किस्म के पक्षियों का सभास्थल बना हुआ है। तोता, मैना, कोए, शकरखोरे और बुलबुलों का यहाँ सुबह-शाम मेला लगाता है। सेमल पर एक तरह से दोहरी बहार आती है, सुर्ख लाल फूलों की और हरी, पीली, काली चिड़ियों की। इन्हीं चिड़ियों के कारण इसकी वंशवृद्धि होती है। इस पर फल लगते हैं। बीज बनते हैं। सेमल के पेड़ और पक्षियों का यह रिश्ता पृथ्वी पर सदियों से चला आ रहा है और यदि हम इनके रंग में भंग न डालें तो यह ऐसे ही आगे भी चलता रहेगा। हालाँकि प्रकृ‍ति में दिनोंदिन हमारी दखलअंदाजी के चलते ऐसी संभावना क्षीण होती जा रही है।

पेड़-पौधों के फूलने की घटना के संदर्भ में वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि पौधों की पत्तियाँ ही उन्हें फूलने का संदेश देती हैं। परंतु सेमल पर जब बहार आती है तब तो उसके तन पर पत्तों का नामोनिशान तक नहीं होता। ‍तो फिर सेमल को फूलने का संदेश किसने दिया। दरअसल इसकी पत्तियाँ झड़ने से पूर्व ही इसके कानों में धीरे-से बहार का गीत गुनगुना जाती हैं कि उठो, जागो, फूलने का समय आ गया है बसंत आने ही वाला है। वास्तव में पतझड़ी पेड़ों की पत्तियाँ झड़कर आने वाली बहार का गीत गाकर ही इनके तन से विदा होती हैं। हमें सेमल की सुंदरता, पत्तियों के विदा गीत और प्रकृति का इस उपकार के लिए धन्यवाद करना चाहिए।

बुधवार, 10 मार्च 2010

ट्रैकिंग में हो गई लटकिंग


इस घटना को याद करके सब मुझे लटकिंग हीरो कहकर चिढ़ाते हैं। बात दो साल पहले की है जब हम 10 वीं में थे। उस साल हमारा ग्रुप ट्रैकिंग के लिए पास की एक पहाड़ी पर गया था। ट्रैकिंग के लिए हममें बड़ा ही उत्साह था। हममें से हर एक ने छोटा-मोटा सामान ट्रैकिंग बैग में भरा और ट्रेकिंग के लिए पहुँच गए। मैं पहले भी ट्रैकिंग पर जा चुका था तो मुझे ट्रैकिंग का अनुभव था तो मैं सभी दोस्तों को जानकारी दे रहा था कि ट्रैकिंग में बहुत ध्यान से चलना होता है। कदम बड़े संभालकर रखना होते हैं। पूरे ग्रुप के साथ चलना होता है वगैरह-वगैरह। मेरी इन सारी समझाइश के साथ हम ट्रैकिंग पर चले। हमारे साथ दो टीचर भी थे।
हम छोटी-छोटी पहाड़ी पर चढ़ते ही जा रहे थे। मैं टीम का लीडर था क्योंकि मैं सभी को जानकारियाँ जो दे रहा था। मेरे साथ मेरा दोस्त आदित्य भी था। हम दोनों टीचर से भी आगे चल रहे थे। तभी पत्थरों के बीच में हमें एक चिड़िया का घोंसला दिखाई दिया। मैंने चिल्लाकर आवाज लगाई और सारे बच्चों ने उस घोंसले को देखा। अब तो अपनी और भी झाँकी जम गई। मुझे भी मजा आ रहा था। अचानक आदित्य का पैर फिसल गया और वह एक जगह पहाड़ी के नीचे लटक गया। उसने जोर से आवाज लगाई बचाओऽऽऽ। मैंने पलटकर देखा तो वह एक पत्थर के सहारे लटक गया था। जहाँ वह लटका था उसके नीचे काँटे और बहुत से पत्थर पड़े थे जिनमें गिरने का मतलब गंभीर चोट ही था। मेरे तो होश उड़ गए। मैंने सर को आवाज लगाई और सर ने सारे बच्चों को पीछे किया और अपने हाथ के सहारे से उसे ऊपर खींचा। आदित्य को तो कोई चोट नहीं लगी परंतु मुझे खूब डाँट पड़ी। यह घटना हम दोस्तों में ट्रैकिंग में लटकिंग के नाम से चल पड़ी और आज दो साल बाद भी सारे दोस्त लटकिंग हीरो कहकर बुलाते हैं।

सोचो पहले क्या करना है?
जंगल के राजा शेर को एक दिन बड़े जोरों की भूख लगी। उसने सोचा कि क्यों न शिकार करके अपने खाने का इंतजाम किया जाए। यह सोचकर वह गुफा से बाहर निकला। उसे शिकार की तलाश में ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा और उसे एक खरगोश दिखाई दिया। शेर बड़ा खुश हुआ कि शिकार की तलाश में उसे ज्यादा भटकना नहीं पड़ा। वह खरगोश पर धावा बोलने ही वाला था कि उसे एक हिरण दिखाई दिया।
हिरण को देखकर शेर के मन में लालच आ गया उसने सोचा कि छोटे खरगोश के बजाय इस हिरण को ही क्यों न शिकार बनाया जाए। यह सोचकर उसने हिरण पर छलाँग लगाई। मगर हिरण तेज था इसलिए वह बच निकला। शेर ने हिरण का बहुत पीछा किया परंतु वह कुलाँचे भरता हुआ सरपट निकल गया और शेर के हाथ नहीं लगा। शेर को जब लगा कि हिरण का पीछा करना अब व्यर्थ है तो उसे खरगोश की याद आई। उसने सोचा कि अब खरगोश को खाकर ही भूख मिटा ली जाए। यह सोचकर वह उस जगह वापस आया जहाँ उसने खरगोश देखा था पर अब तक खरगोश भी वहाँ से जा चुका था। बेचारे शेर को भूखा ही सोना पड़ा। दोस्तों हमें जो मिल रहा है उसका महत्व समझते हुए उसका फायदा उठाना चाहिए। कभी हम बड़े के चक्कर में छोटी-छोटी चीजों को छोड़ देते हैं और बाद में वही छोटी चीजें हमसे दूर हो जाती हैं। कहना बस इतना भर है कि अपनी जिम्मेदारियाँ हमें तय करना चाहिए। जो काम पहले करना हैं वे पहले करें और जो काम बाद में किए जा सकते हैं उनके लिए जल्दी न मचाएँ।

छोटी के आँसू और रूपहला सेब
यह उस जमाने की बात है जब कोई महीना, वार या तिथि नहीं चलती थी। यानी बहुत पुरानी बात है। एक सदाबहार जंगल में तीन बहनें रहती थीं। उन्हें याद नहीं वे कब से वहाँ थीं। यानी बचपन से थीं। जैसा कि परीकथाओं में हो सकता है, उनके कोई माता-पिता, सगे-संबंधी नहीं थे। न ही उन्होंने किसी और मनुष्य को देखा था। अजीब बात तो यह थी कि सबसे बड़ी बहन की एक आँख थी कपाल के बीचों-बीच। मझली बहन की तीन आँखें थीं। एक कपाल के बीचों-बीच और दो बिलकुल बाजू में, कानों के पास।
सबसे छोटी बहन की दो साधारण आँखें थीं। ठीक वैसी ही जैसी आपकी-हमारी हैं। लेकिन उन तीन बहनों में तो वह एकदम अलग थी। इसलिए अटपटी आँखों वाली दोनों बहनें छोटी से कटी-कटी रहतीं। बड़ी होने के नाते उसे बिना कारण डाँटती, उपेक्षा करती। यहाँ तक कि खाने के लिए भी अपना बचा-खुचा देतीं। पहनने को अपना उतारा हुआ देतीं। हर वक्त जली-कटी सुनातीं सो अलग।
छोटी क्या करती? दुःखी रहती फिर भी खुश रहने का प्रयत्न करती। बड़ी बहनों से यह भी देखा नहीं जाता। सो वे उसे बकरी चराने के लिए भेज देतीं। उन तीनों के पास एक बकरी थी जिसकी आँखें भी अगल-बगल थीं। छोटी कभी कोई शिकायत नहीं करती थी, बोलती नहीं थी, न आँसू बहाती थी। इसलिए उसमें अद्भुत शक्ति थी वह बोलती तो फूल खिलने लगते। आँसू बहाती तो बादल घिर आते।
एक दिन की बात है। वह पलाश के पेड़ के नीचे उदास बैठी थी। पेड़ रह-रहकर उस पर पत्ते गिरा रहा था। मानो थपकियाँ दे रहा हो। बकरी भी चुपचाप बैठी थी। छोटी की उदासी इस कदर गहराई की उसकी आँखें भर आईं। पलाश की डाल पर बैठी वनदेवी ने उसे देखा। दरअसल वह हमेशा जंगल में उसका ध्यान रखती थी। आज वह छोटी के सामने प्रकट हो पूछ बैठी कि बेटी दुखी क्यों हो? छोटी ने बताया कि मेरी दीदियाँ मुझसे इतनी नाराज हैं कि आज उन्होंने मुझे बचा-खुचा भी खाने के लिए नहीं दिया।
वनदेवी ने कहा- दुख न मनाओ। गाना गाओ-बकरी बकरी मिमियाओ, पंच-पकवान ले आओ। तब जादू देखना। जब तुम्हारा मन भर जाए तब कहना- बकरी बकरी मिमिया लिया, भरपेट खाना खा लिया। तब जादू की चीज जादू से गायब हो जाएगी जैसे मैं। ऐसा कहकर वनदेवी भी अदृश्य हो गई।
छोटी ने सहमते हुए यह मंत्र दोहराया... और लो। उसके सामने टेबल क्लॉथ और गुलदस्ते सहित एक मेज-कुर्सी आ गई। देखते ही देखते उस पर चीनी की तश्तरी और तश्तरी में पकवान सज गए। छोटी और बकरी ने डट कर खाना खाया। फिर मंत्र पढ़कर मेज-कुर्सी-तश्तरी कोहवा में गुल कर दिया। अब रोज ही छोटी और बकरी जंगल में मंगल करते, दावत उड़ाते।
छोटी को बचा-खुचा खाते न देखकर दोनों बहनों के मन में खुटका हुआ। मामला जरूर गड़बड़ है। बड़ी ने कहा- चलो आज मैं भी जंगल चलती हूँ। तुम बकरी को ठीक से चराती हो या नहीं, मैं भी तो देखूँ। सारा दिन बड़ी बहन छोटी और बकरी के आसपास डोलती रही। छोटी भूखी रही और बकरी भी। क्योंकि बकरी को भी अब पकवानों का चस्का लग गया था। भूखे पेट कमजोरी के कारण लौटते समय छोटी गिर पड़ी और उसकी आँखें छलछला उठी। और तभी वनदेवी प्रकट हो उठी और छोटी के कानों में एक नया मंत्र बुदबुदा गई। उनींदी आँख तुम क्यों जागती हो? उनींदी आँख तुम क्यों न सोती हो?
दूसरे दिन बड़ी बहन फिर छोटी के साथ हो ली लेकिन आज छोटी ने मंत्र पढ़कर बड़ी बहन को नींद में सुला दिया। छोटी और बकरी ने छककर भोजन किया। जब बड़ी बहन जागी तब हवा में अभी भी पकवानों की महक थी। अपनी दाल गलती न देखकर तीसरे दिन बड़ी ने मँझली बहन को छोटी के साथ जंगल भेजा। छोटी ने वही मंत्र दोहराया। मंत्र से मँझली की एक आँख तो लग गई, बाकि दोनों आँखें सारा नजारा देखती रहीं। असलियत का पता लगने पर दुष्ट बहनों ने बकरी को ही जंगल में भगा दिया। न बकरी मिमियाएगी न स्वादिष्ट खाना आएगा।
अब छोटी को बहुत दुख हुआ। भूखे रहने से ज्यादा उसे रोना आया उसकी साथी बकरी के दूर हो जाने से। छोटी की आँखों से आँसू ढलकने की देर थी कि वनदेवी फिर सामने आ गई। इस बार उसने छोटी को एक अनोखा बीज दिया। बीज की माया अजब थी कि उसे बोने पर वहाँ एक सेब का सुनहरा पेड़ उग आया। ऊँचा और चमचमाता। हवा से उसके पत्ते हिलते तो सारे जंगल में झिलमिल रोशनी होती और सुरीला संगीत बजता। इस पेड़ पर रुपहले फल लगते जो खाने में मीठे, स्वाद में अनूठे और चेहरे पर रौनक लाते। लेकिन उनका जादू यह था कि वे छोटी के कहने पर सिर्फ उसके हाथों में ही आ टपकते।
लड़कियों को अंदाज नहीं था कि जादू का पेड़ क्या गजब ढा रहा है। उसकी महक, उसका संगीत और उसकी झिलमिल जंगल-झरने-पहाड़ पार कर राजा के महल तक जा पहुँची। राजकुमार पेड़ के जादू का दीवाना हो तमाम ऊबड़-खाबड़ लाँघ कर लड़कियों की झोपड़ी के ऐन सामने आ खड़ा हुआ। पहले तो लड़कियाँ चौंकी लेकिन राजकुमार का रौब ही कुछ ऐसा था कि वे उस पर मोहित हो गईं।
राजकुमार का ध्यान तो ऊपर पेड़ की ओर था। उसे आकर्षित करने के लिए दोनों बड़ी बहनें लगी राजकुमार के इर्द गिर्द लगर-भगर करने। कई कोशिशों बाद जब राजकुमार से फल न टूटा तो उसने लड़कियों से कहा कि जो उसे फल तोड़कर देगा वह उसकी मन की चाह पूरी करेगा। बड़ी और मँझली लगी पेड़ पर चढ़ने-उछलने लेकिन शरारती पेड़ था कि अपनी डालियाँ ऊपर कर लेता। तना हिला कर लड़कियों को गिरा देता। सौ-सौ बार कूदने पर भी वे फल तोड़ न सकीं।
अब छोटी आगे आई। पेड़ भैया सेब भैया कहते ही दो फल गिरकर उसके हाथों में समा गए। अब तो राजकुमार पर छोटी का जादू चल गया। इतनी सुंदर लड़की तो रानी बननी चाहिए। इसकी आँखें भी मेरी तरह ही हैं। उसी क्षण बड़ी और मँझली बहन के ध्यान में भी यह बात आई। वे देखती ही रहीं- कभी छोटी को कभी राजकुमार को। उनके ध्यान में भी नहीं आया कि कब राजकुमार घोड़े से उतरा, कब उसने छोटी का अभिवादन किया, कब उसे सहारा देकर घोड़े पर चढ़ाया। उनका सम्मोहन तब टूटा जब धूल उड़ाते हुए राजकुमार छोटी को लेकर नजरों से ओझल हो गया।

मास्टरजी की छतरी
वे ऐसे ही बरसात के दिन थे जैसे कि इन दिनों हैं। हम सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। सरकारी स्कूल क्या था बरसात में हर जगह से टपकता था। पर कुछ कमरे अच्छे भी थे और हमारा कमरा उनमें से एक था। वहाँ पानी नहीं टपकता था।
हमारे टीचर थे वर्मा सर। गणित पढ़ाते थे। हम गणित से बहुत घबराते थे। पर वर्मा सर के पढ़ाने का तरीका बहुत ही अच्छा रहता तो गणित मुश्किल नहीं लगता था। बरसात के उन दिनों में वर्मा सर हमेशा अपने साथ छतरी लेकर आते थे। चाहे पानी गिरे चाहे न गिरे। हमें अजीब लगता था कि जब धूप निकली हो तो छतरी लाने का क्या मतलब है। हमने सर से पूछा भी पर वे कहते थे तुम्हें इससे क्या?
खैर एक दिन सर क्लास में पढ़ाने के बाद छतरी वहीं भूलकर चले गए। हमने सोचा मौका अच्छा है और छतरी छुपा दी। दूसरे दिन सर बड़े परेशान लगे। उन्होंने हमसे कहा कि मेरी छतरी देखी क्या? तो हम ऐसे बन गए जैसे कुछ मालूम नहीं हो।
उसी दिन जब स्कूल छूटा जो जोरदार बारिश हुई और हम तो भीगकर घर पहुँचे पर सर को भी भीगते हुए जाना पड़ा। दूसरे दिन सर नहीं आए। तीसरे दिन भी नहीं आए। और जब चौथे दिन भी नहीं आए तो हम उनके घर पहुँचे। घर जाकर देखा तो सर बीमार थे।
उन्होंने बताया कि उन्हें पानी से ठंडी लग जाती थी इसलिए वे छतरी लेकर चलते थे। हमने उनका छाता लौटाते हुए उनसे माफी माँगी और अपने किए पर शर्मिन्दा हुए।

ठंडी रात में गुडपारों का रहस्य
दीपावली के बाद के दिन थे। स्कूलों की छुट्टियाँ खत्म हो गई थीं। इससे भी अधिक दुःख की बात त्यौहारों का खत्म होना था। यानी अब लंबे समय तक छुट्टियों के आसार नहीं थे। रातें ठंडी हो गई थीं। ट्यूशन से घर लौटते ही झुटपुटा छाने लगता जिससे बाहर बगीचे में खेलने जाने का सिलसिला बंद हो चला था। ऊपर से छःमाही परीक्षा का खौफ। ऐसे में कौन बच्चा खुश रह सकता था? कुक्की और बिन्ना का भी यही हाल था। सुबह मुँह-अँधेरे उठकर स्कूल जाने के समय से ही दोनों भाई-बहन कुनमुना रहे थे। क्या यही जिंदगी है? इस पर मम्मी क्या कहती? खाने की चटपटी चीजों से शायद बच्चों का मन बहल जाए यह सोचकर दोपहर में मम्मी ने गुड़ की चाशनी में आटा भिगोकर उससे गुड़पारे बनाए। चाशनी थोड़ी गड़बड़ होने से गुड़पारे जरा कड़क बने। फिर भी कुक्की और बिन्ना के अनमनेपन को उन्होंने काफी नर्म किया। दोपहर से ही आसमान में बादल घिर आए थे। नाक और होंठों को छीलने वाली ठंडी हवा चल रही थी। रात को शायद वर्षा हो... कुक्की ने गुड़पारे चबाते हुए कहा। हमारे जीवन में कितना दुःख है, मुलायम बिस्तर में घुसते हुए बिन्ना ने इस प्रकार जवाब दिया। सोचो, उनसब पशु-पक्षियों पर क्या गुजर रही होगी, कुक्की ने बिन्ना का दुःख दूसरों पर धकेला। बिन्ना अपना दर्द छोड़ना नहीं चाहती थी- कम से कम वे आजाद हैं जहाँ चाहें वहाँ आने-जाने के लिए। कुक्की सोचने लगा उन जंगली प्राणियों के बारे में जिन्हें मन कर चिड़ियाघर के पिंजरों में रहना पड़ता है। चौबीसों घंटे-सालों-साल एक ही कोठरी में रहना, जो मिले उसे खाकर पड़े रहना। शहर की सड़कों पर घूमने वाले आवारा जानवर भले जो अलग-अलग कूड़ेदानों से वैरायटी का कचरा तो खा सकते हैं।
ठीक उसी समय शहर के चिड़ियाघर का बाघा शेर भी ऐसा ही कुछ सोच रहा था। शहर में रहते हुए उसे लंबा समय हो गया था फिर भी बचपन में जंगल में बिताए दिन उसे याद थे। वनवासी लोग उसे बाघा-बाघा कहते थे। चिड़ियाघर के दूसरे जानवरों को भी उसने अपना यही नाम बतायाथा। पिछले दिनों शहर में होने वाले बम धमाकों और सुर्रीदार आवाजों से बाघा खासा परेशान रहा था। कई बार जलते हुए पटाखे उसके पिंजरे के बाहर आकर गिरे थे। तभी से उसने तय कर लिया था वह यहाँ से दूर चला जाएगा।
वह इंतजार में था कि बाहरी दुनिया का यह डरावना शोर तो खत्म हो। आज माहौल ठीक था। रात गहराई और जैसे ही पूरब में तीन तारों का खटोला पेड़ों के ऊपर निकला, बाघा ने कोने के ढीले सरिए को धक्का दिया और पिंजरे से बाहर आ गया। बाहर खंदक थी। भादौ की आखिरी वर्षा से उसमें भरा पानी भी कभी कासूख चुका था। बाघा मजे से उसमें उतर कर दूसरी ओर चढ़ आया। अब वह आजाद था, जैसा कि जंगल का राजा होता है। हालाँकि बाघा खुद को राजा-वाजा नहीं मानता था। वह ठाठ से चल दिया। ठाठ उसके स्वभाव में ही था। पड़ोस के पिंजरे वाला भालू इतनी गहरी नींद सो रहा था कि उसे जरा भी खुटका नहीं हुआ। चिड़ियाघर के सारे प्राणी ठंडक के कारण मुँह छुपाए सो रहे थे। यहाँ से वहाँ तक कोई मनुष्य नहीं था। मुख्य दरवाजे पर पहरा देने वाला चौकीदार भी अपने दड़बे में खुर्राटे भर रहा था। हल्का टल्ला भर देने की जरूरत थी कि छोटा दरवाजा खुल गया और बाघा सड़क पर आ गया।
पहले तो बाघा को कुछ भी समझ में नहीं आया। क्योंकि न तो उसे शहर का भूगोल पता था न ही उसके दिमाग में तय था कि क्या करना। जैसे रास्ता चला, बाघा उस पर चल पड़ा। सारा शहर सुनसान पड़ा था। दिवाली में लगाई गई रोशनी की लड़ियाँ अब भी चुपचाप जगमगा रही थीं। नकोई कुत्ता भौंक रहा था न मोटर गाड़िया पीं-पीं कर रही थीं। बाघा बस यहाँ-वहाँ देखता-सूँघता चला जा रहा था। उसने सुन रखा था कि शहर में कांक्रीट का जंगल उग रहा है, उसी को वह तलाश रहा था। एक दुकान के ओटले पर गुड़ी-मुड़ी हुए पड़े भिखारियों में कुछ हलचल हुई और एक बच्चे ने अपनी माँ से कहा कि देखो शेर जा रहा है। माँ ने बच्चे को अपनी चादर में लेते हुए उनींदे स्वर में कहा कि वह चला जाएगा, सो जाओ। बच्चा सो गया और बाघा आगे चल पड़ा।
अचानक एक अनचीन्ही खुशबू ने बाघा की नाक को सहलाया। बाघा ठिठककर उसकी टोह लेने लगा। यह तो बड़ी अनोखी है। यह तो वसंत में खिलने वाले फूलों की महक से ज्यादा सुहावनी है। ऐसा मन करता है कि इसे चाटकर देखो। सीधा रास्ता छोड़कर बाघा उस वस्तु की खोज में निकल पड़ा। खुशबू एक घर की खिड़की से आ रही थी। अभी-अभी एक बिल्ली वहाँ से निकली थी इसलिए खिड़की खुली रह गई थी। खिड़की ऊँचाई पर थी लेकिन बाघा एक छलाँग में ही उसकी मुंडेर पर पहुँच गया और थोड़ी धक्का-मुक्की करके अंदर घुस गया।
घर के भीतर ठंड बिलकुल नहीं थी। दो बच्चे मुलायम रजाई ओढ़े सो रहे थे। बाघा का मन हुआ कि वह भी उनके बीच घुसकर सो जाए। लेकिन पहले उसे खुशबू की पड़ताल करनी थी। बाघा ने दबे पाँव घर का मुआयना किया और मिनट भर में उसने रसोईघर में रखे गुड़पारे ढूँढ निकाले। बाघा ने पहले जी भर के गुड़पारों को सूँघा। फिर चाटकर देखा तो बहुत ही अनोखा स्वाद पाया। अब तो उससे रहा नहीं गया। वह उन्हें चबा-चबाकर खाने लगा। उसे अंदाज भी नहीं था कि भूरे-काले, गिट्टी-पत्थर जैसी यह वस्तु खाने में इतनी बेहतरीन हो सकती है। गुड़पारों से भरी परात मिनटों में खाली हो गई।
सुबह दूध के प्यालों में चीनी घोलते समय मम्मी का ध्यान खाली पड़ी परात पर गया। ओ माँ, गुड़पारे कहाँ चले गए? रात को मैं उन्हें ढँककर रखना भूल गई और यहीं छोड़ गई थी। उन्होंने कुक्की और बिन्ना से गुड़पारों के बारे में पूछा तो कुक्की ने कहा कि शायद यह उस शेर की करतूत होगी। अब मम्मी खीझ उठी। सुबह-सुबह यह कैसी चुहलबाजी है! तब बिन्ना ने कहा कि जाकर देखिए, एक शेर हमारे कमरे के गलीचे पर सोया हुआ है। अब मम्मी जरा सहमी। अखबार और चाय का प्याला बाजू में रखकर पापा बोले- मैं देखता हूँ कि मामला क्या है? कमरे में जाकर देखा तो वहाँ न शेर था न शेर की पूँछ। लेकिन पंजों के बड़े-बड़े निशान, जो जाहिर ही किसी बिलौटे के नहीं थे, और गलीचे से चिपके शेर के बालों को देखकर पापा ने अपना निर्णय दिया कि बच्चों की बात को खारिज नहीं किया जा सकता।
रात को बाघा ने सोचा कि इस शहर से वह ज्यादा दूर नहीं जा पाएगा। अच्छा यही होगा कि जब मन करे वह पिंजरे से बाहर आकर सैर- सपाटा कर ले। बाघा रात के चौथे प्रहर उठकर चिड़ियाघर अपने पिंजरे में लौट गया। न चौकीदार को पता चला न भालू को कि बीती रात क्याहुआ। ठंडी रात के गुड़पारे कुक्की-बिन्ना और बाघा के बीच का रहस्य बना रहा। अगले ही रविवार पूरा परिवार चिड़ियाघर गया। जैसे ही कुक्की और बिन्ना शेर के पिंजरे के पास जाकर खड़े हुए, बाघा भी दुम इठलाते हुए सलाखों के पीछे उनके सामने आकर खड़ा हो गयाऔर आँखों में आँखें डाले देखता रहा। उस समय कोई और दर्शक वहाँ होता तो कहता, मानो न मानो, उसने शेर को मुस्कुराते हुए देखा है।

इरफान खान का बचपन

बचपन के दिन जंगल और शिकार
दोस्तो, मेरा जन्म जयपुरClick here to see more news from this city में हुआ और यहीं मैं पला और बड़ा हुआ। स्कूल के दिनों से ही मैं पढ़ने में बहुत तेज स्टूडेंट नहीं था। और खासकर स्कूल जाने से मुझे बहुत चिढ़ होती थी। सुबह 6.30 बजे स्कूल जाना और दोपहर में 4 बजे तक वापस आना मुझे बहुत बोरिंग काम लगता था।
इसके बजाय मुझे क्रिकेट खेलना बहुत ही अच्छा लगता था। मैं अपने पड़ोस में और चौगान स्टेडियम में जाकर क्रिकेट खेलने में खूब रुचि लेता था और बड़ा होकर क्रिकेटर ही बनना चाहता था। क्रिकेट में मेरी प्रैक्टिस भी खूब अच्छी थी और सीके नायडू ट्रॉफी के लिए मेरा सिलेक्शन भी लगभग हो गया था। पर जब घर पर सभी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने इसके लिए इजाजत नहीं दी। घर पर सभी को यह ठीक नहीं लगा कि मैं क्रिकेट खेलूँ। इस तरह मेरा क्रिकेट छूट गया।
क्रिकेट छोड़ने के बाद मुझे ठीक तरह से ग्रेजुएशन करने को कहा गया। पता नहीं कुछ भारी-भरकम विषय भी मुझे दिला दिए गए ताकि मेरा ध्यान पढ़ाई में ही लगा रहे। वैसे अब मुझे लगता है कि पढ़ाई करने से मुझे बहुत सारी चीजों की समझ मिली वरना मैं किसी काम में आगे नहीं बढ़ पाता। पर ग्रेजुएशन के साथ ही मैंने एक्टिंग की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया। पहले मैं कुछ नए कलाकारों के साथ एक्टिंग सीखने की कोशिश करने लगा। फिर मेरी मुलाकात नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के एक शख्स से हुई। वे कॉलेजों में जाकर नाटक किया करते थे। मैं भी उनके साथ उनकी टीम में शामिल हो गया और स्टूडेंट्‍स के साथ कॉरिडोर में, क्लासरूम में और कैंटीन में ड्रामा करते हुए ही एक्टिंग के प्रति मेरी समझ बढ़ी और मैं इस दिशा में करियर को लेकर गंभीर हुआ।
बड़ा होने पर कोई डॉक्टर बन जाता है तो कोई एक्टर। बड़ा होने पर चाहे हम कुछ भी बन जाएँ पर सभी को अपने बचपन के दिनों की याद तो आती ही है। बचपन के दिन सबसे मजेदार होते हैं। इन दिनों की घटनाएँ बड़ा हो जाने पर ही कहीं ना कहीं याद आती ही है। इसके बाद सीरियल और फिल्में मिलने लगी और फिर इरफान खान अभिनेता हो गए। फिल्मों में भी मैं अपने रोल को लेकर बहुत ज्यादा मेहनत करता हूँ। मुझे लगता है कि काम को दिल लगाकर करना चाहिए। यह बात आप सभी पाठकों के लिए भी जरूरी है। क्योंकि इन दिनों अगर आप दिल लगाकर पढ़ाई करेंगे तो अच्छे नंबरों के साथ अगली कक्षा में जाओगे।
बड़ा होने पर कोई डॉक्टर बन जाता है तो कोई एक्टर। बड़ा होने पर चाहे हम कुछ भी बन जाएँ पर सभी को अपने बचपन के दिनों की याद तो आती ही है। बचपन के दिन सबसे मजेदार होते हैं। इन दिनों की घटनाएँ बड़ा हो जाने पर ही कहीं ना कहीं याद आती ही है।
मैं अपने बचपन के दिनों को याद करता हूँ तो पिताजी के साथ शिकार खेलने जाने की यादें आती हैं। दोस्तो, जब मैं छोटा था तब जयपुर के आसपास घने जंगल थे। इन्हीं जंगलों में मेरे पिताजी हर सप्ताह शिकार के लिए जाते थे। मैं भी बहुत-सी बार उनके साथ गया हूँ। बचपन में मुझे जंगल में रात बिताना बहुत ही रोमांचक लगता था। वैसे बचपन में मुझे शूटिंग बिलकुल भी पसंद नहीं थी। यह प्रश्न मेरे मन में हमेशा आता था कि पिताजी जानवरों का शिकार क्यों करते हैं। पर यह बात पिताजी से पूछने की हिम्मत कभी नहीं हुई।
बाद में मुझे पता लगा कि शिकार का शौक मेरे पिता ने उनके पिता से पाया था। जब भी मुझे डर लगता था तो वे मुझे बहादुर बनने को कहते थे। जब मैं 10 साल का था तब शिकार करने पर रोक लग गई। खैर, अब मैं देखता हूँ कि सभी के समझ में यह बात आ गई है कि हमारे आसपास के परिंदे और जानवर हमारे जीवन का हिस्सा हैं और इनका शिकार नहीं करना चाहिए। अब तो शिकार रोकने के लिए बहुत सख्‍त कानून भी बन गए हैं। यह अच्छी बात है। वैसे कभी भी किसी जंगल के दृश्य को देखकर मुझे अपने बचपन के दिनों की याद आ ही जाती है।

आपका
इरफान खान