बुधवार, 27 जनवरी 2010

साहित्यिक कृतियां

वापसी
-अरुण कुमार बंछोर
लखनऊ से मन खिन्न हो गया था। उसी दिन मैंने दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं में जाने की तैयारी कर रहे मित्र उन्मेष को कॉल किया, अपनी जरूरी किताबें पैक की और एक ब्रीफकेस में कपडे रखकर स्टेशन आ गया। ट्रेन दो घंटा लेट थी। समय-सीमा से दो घंटे विलम्ब से छूटने की घोषणा हुई।
कमरे पर वापस जाने की इच्छा न थी। आदतन एक बुक स्टाल से हिन्दी मासिक पत्रिका लेकर पढने लगा। पढते-पढते एक कविता पर आकर ठहर गया। एक बार पढी, दो बार पढी और..! कवयित्री कुसुमांजलि, हां यही नाम था जिन्होंने वह कविता लिखी थी। भाव मुझे आज भी याद हैं- कि शहर बदलने से केवल शहर बदलता है, उससे जुडी स्मृतियां, वफाएं या कुछेक गिनी-चुनी सूरतें नहीं।
जीवन अनवरत् प्रवाहमान है। गतिमान होने के लिए जिंदा रहना होता है और जिंदा रहने के लिए किसी का साथ होना। साथ होने का मतलब है कि किसी का अपना होना। कविता यहीं पूरी होती थी। पता और मोबाइल नंबर भी था। कॉल करने न करने के अन्त‌र्द्वन्द्व से उबरते हुए आखिर में मैंने उनका नम्बर मिलाया और हेलो कहते ही उनकी बिना सुने, कविता में मुझे क्या अच्छा लगा, क्या बहुत अच्छा लगा, सब कुछ एक ही सांस में कहता चला गया।

बाद में हुई बातचीत में वह बहुत खुश और रोमांचित लगी। विचारों से स्वच्छ और उन्मुक्त भी। मुझे याद है बातचीत का क्रम टूटते-टूटते धीरे से हंसते हुए उन्होंने कहा था- आपकी प्रतिक्रिया और भावना ने मुझे बहुत प्रभावित किया आपकी बातें तो मुग्धकारी हैं। उस दिन की बातचीत का सिलसिला बहुत लम्बा होता गया। गाडी जाने कब आई और निकल गई, लेकिन जाने क्यों उस दिन ट्रेन छूटने का कोई अफसोस नहीं हुआ। हां इतना जरूर महसूस किया कि जिन कारणों से शहर छूट रहा था, उन्हीं कारणों से मैं शहर की ओर लौट रहा था..।


ससुराल की इज्जत
विदाई के समय मां ने दीक्षा को समझाया- बेटी अपने ससुराल वालों का ख्याल रखना। आज से वही तेरा घर है। हर सुख-दु:ख में उनका साथ देना। उनकी इज्जत ही तेरी इज्जत है। मां के बताए संस्कारों और अपने मधुर स्वभाव से दीक्षा ने ससुराल में सभी का दिल जीत लिया।
हंसते-गाते कब एक वर्ष बीत गया पता ही न चला। लेकिन अब उसके ससुराल वाले घोर चिंता में थे। उसकी ननद की शादी होनी थी। रुपयों का इंतजाम नहीं हो पा रहा था। दीक्षा भी बहुत परेशान थी।
इसी बीच वह अपने मायके आई और वहां रखे हुए अपने गहने ले जाने लगी तो उसकी मां ने कहा- बेटी दीक्षा, ननद की शादी के लिए तू अपने गहने ले जा रही है यह तू क्या कर रही है? अपने पैरों पर खुद कुल्हाडी..।
मां की बात बीच में ही रोकते हुए वह बोली- मां यह आप क्या कह रही हो! आप ही ने तो मुझे बताया है कि ससुराल की इज्जत ही मेरी इज्जत है। मां, यह गहने मेरी ननद से बढकर नहीं हैं। अपनी ननद की शादी के लिए मैं हर संभव प्रयत्न करूंगी। और वह गहने लेकर ससुराल आ गई।

बच्चे
माँ -आखिर इसका क्या कारण है??
चिंटू- जी, कारण तो पापा ही बता सकते है।
चिंटू (मां से)- मां मेरी क्या कीमत है।
मां (चिंटू से)- बेटा तू तो लाखों का है।
चिंटू- तो लाखों में से 5 रुपये देना, मुझे आइसक्रीम खानी है।


चिंटू स्कूल आता है एक काला और एक सफेद जूता पहनकर।
टीचर (चिंटू से)- घर जाओ और जूते बदलकर आओ...
चिंटू- टीचर कोई फायदा नही वहा भी एक काला और एक सफेद जूता ही रखा है...


मां (चिंटू से)- तुम बल्ब पर अपने पापा का नाम क्यों लिख रहे हो?
चिंटू (मां से)- मैं पापा का नाम रोशन करना चाहता हूं।

अध्यापक (चिंटू से)- दो ऐसी चीजों के नाम बताओ जिन्हें नाश्ते में नही खा सकते।
चिंटू- जी लंच और डिनर।

मम्मी- पिंकी क्यों रो रही हो?
पिंकी- टीचर ने मारा।
मम्मी- क्यों?
पिंकी- मैंने उनको मुर्गी कहा क्योंकि उन्होंने मुझे टेस्ट में अंडा दिया था।


एक दस साल का बच्चा बहुत ध्यान से एक किताब पढ़ रहा था, जिसका शीर्षक था बच्चों का पालन पोषण कैसे करें।
मां - तुम ये किताब क्यों पढ़ रहे हो।
बच्चा- मैं ये देखना चाहता हूं कि मेरा पालन पोषण ठीक तरह से हो रहा है या नही।

चिंटू - मम्मी इस बार हम सारे पटाखे इस दुकान से ही लेंगे।
मम्मी- लेकिन बेटा ये तो ग‌र्ल्स हॉस्टल है।
चिंटू-लेकिन पापा तो कहते हैं कि सारी फुलझडि़या यही रहती है।


अध्यापक (छात्र से)- तुम स्कूल क्यों आते हो?
छात्र (अध्यापक से)- विद्या के लिए सर!
अध्यापक- फिर तुम कक्षा में सो क्यों रहे हो?
छात्र- आज विद्या नही आयी है इसलिए सर!


एक छोटा बच्चा बहुत देर से घर के बाहर खड़ा दरवाजे की घंटी बजाने की कोशिश कर रहा था। तो एक वृद्ध व्यक्ति आया और बोला- क्या कर रहे हो बेटा?
बच्चा- अंकल, ये घंटी बजाना चाहता हूं।
वृद्ध व्यक्ति (घंटी बजाकर)- ये तो बज गयी अब क्या है।
बच्चा- अब भागो!

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