शनिवार, 23 जनवरी 2010

फिर सुबह होगी


ओमप्रकाश बंछोर
कल आश्रय के उद्घाटन अवसर पर मुख्यमंत्री आने वाले हैं। आश्रय विकलांगों तथा असाध्य रोगों से पीडित बच्चों को आश्रय देने वाला केंद्र है। जिसका निर्माण सुनीति के अथक प्रयासों से संभव हुआ है।

उद्घाटन समारोह की सभी तैयारियां पूर्ण हो चुकी हैं। दिनभर की भागदौड के बाद सुनीति शाम को घर आई है लेकिन थकान के बजाय उसके चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के गहरे भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। खाना खाकर सुनीति अपने कमरे में बिस्तर पर लेट जाती है लेकिन दिनभर अत्यधिक व्यस्त रहने के बाद भी उसे अभी नींद नहीं आ रही है। आज की यह आत्मसंतुष्टि मात्र उसके चेहरे को ही नहीं उसके अंतर को भी प्रकाशित कर रही है और अंतर का यह प्रकाशमय होना वह बखूबी महसूस भी कर रही है। आज जीवन में पहली बार सुनीति को ऐसा लग रहा है कि यह प्रकाश जीवनभर उसके साथ रहा तो अंधकार को धीरे-धीरे मिटा ही देगा। आज सुनीति को जो संतुष्टि मिल रही है उसके पीछे एक दु:ख भरा अतीत रहा है।
क्या कुछ नहीं था सुनीति के पास! रूप, रंग, गुण सभी तो था उसके पास। पापा पी.के. सिन्हा डिग्री कालेज में अर्थशास्त्र के रीडर, मां एक कुशल गृहणी तथा दो छोटे भाई संजय और अजय। संजय की उम्र चौदह साल जबकि अजय की उम्र दस साल थी। ऐसा नहीं कि इस समय वह पूर्णरूप से चिन्तामुक्त या प्रसन्न हो। संजय और अजय दोनों ही विकलांगों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे थे। डाक्टरों ने भी यह स्पष्ट बता दिया था कि पन्द्रह वर्ष की उम्र के बाद दोनों का जिन्दा रह पाना मुश्किल है लेकिन फिर भी सुनीति को भगवान पर विश्वास था। उसे आशा थी कि एक न एक दिन उसके दोनों भाई बिल्कुल ठीक हो जाएंगे। पैदाइश के समय हालांकि संजय और अजय की हालत बेहतर थी लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढने लगी वैसे-वैसे ही उन दोनों के हाथ-पैर सूखने लगे और शरीर के कुछ हिस्सों में ज्यादा मांस एकत्रित होने लगा। दरअसल यह स्यूडो मसक्यूलर हाइपरट्रोफी नामक एक अनुवांशिक बीमारी थी।
प्रो. सिन्हा और श्रीमती सिन्हा संजय और अजय के स्वास्थ्य तथा सुनीति की शादी को लेकर काफी चिन्तित रहते। सुनीति की शादी तय होने में वही दिक्कत आडे आ रही थी जिसकी सुनीति के पापा-मम्मी को आशंका थी। चूंकि सुनीति की मम्मी उस अनुवांशिक बीमारी की वाहक थी जिससे संजय और अजय पीडित थे। इस तरह सुनीति भी इसी रोग की वाहक थी। सुनीति के भविष्य में जो संतान होती उसमें लडके तो संजय और अजय की तरह ही पीडित होंगे और लडकी पुन: इस रोग की वाहक होगी।
आखिरकार बहुत कोशिशों के बाद सिन्हा साहब को सुनीति के लिए एक अच्छा वर मिल ही गया। डॉ. सुशील स्थानीय डिग्री कालेज में लेक्चरार था। जैसा नाम वैसा ही व्यक्तित्व भी। सुशील एक शिक्षक होने के साथ-साथ एक समाजसेवी भी था। सिन्हा साहब को इस समय सुशील में ही साक्षात ईश्वर के दर्शन हो रहे थे। होते भी क्यों न, सुनीति के बारे में सब कुछ जानने के बाद भी वह उससे शादी के लिए तैयार जो था। हालांकि सुशील के माता-पिता पहले इस शादी के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन सुशील की इच्छा के आगे उन्हें झुकना ही पडा।

सिन्हा साहब ने बडी धूमधाम से सुनीति का विवाह सुशील के साथ कर दिया। अनुवांशिक रोग की वाहक सुनीति का विवाह हो जाने से चिंताग्रस्त सिन्हा साहब को कुछ संतुष्टि तो अवश्य मिली लेकिन यह संतुष्टि अधिक समय तक टिक न सकी। सुनीति के विवाह के कुछ दिनों बाद ही संजय की हालत बिगडने लगी। डाक्टर तो पहले ही जवाब दे चुके थे। अंतत: बडी ही दयनीय अवस्था में उसकी मृत्यु हो गई। अब तक सिन्हा साहब और उनकी पत्नी ईश्वर के किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में थे। लेकिन संजय की मृत्यु से उनका यह विश्वास टूट चुका था। सिन्हा साहब और उनकी पत्नी संजय की मौत से पहले ही दु:खी थे. अजय पर मंडराती मौत की काली छाया देखकर उनका दु:ख और बढ गया।
संजय की मौत को लगभग एक साल ही हुआ था कि अजय की हालत भी दिन पर दिन बिगडने लगी। सिन्हा साहब ने कई डाक्टर, वैद्य और हकीमों को दिखाया। मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों में जाकर लाख मन्नतें मांगी, लेकिन सब बेकार ही सिद्ध हुई और अन्तत: निरीह जिंदगी बिता रहे अजय ने भी दम तोड दिया। एक दु:ख के बाद दूसरे दु:ख से सिन्हा परिवार टूट चुका था।
सिन्हा साहब को एक दिन अनायास ही आशा की एक किरण दिखाई दी जिसके सहारे वे और उनकी पत्नी अपनी जिंदगी काट सकते थे। सिन्हा साहब ने सोचा, हम सभी को लडके ही घर का चिराग दिखाई देते हैं लडकियां नहीं। इंसान लडकों के सहारे ही अपनी जिंदगी का सफर तय करने के सपने देखता है। मगर कितने माता-पिता ऐसे हैं जो अपने लडकों के सहारे अपनी जिंदगी काटते होंगे। अब सिन्हा साहब को सुनीति और सुशील दो-दो चिराग दिखाई दे रहे थे जिनके प्रकाश में वह अपने शेष जीवन का सफर तय कर सकते थे।

उधर अब सुनीति के पैर भारी हो चले थे। आखिरकार उसने एक बहुत ही सुंदर बेटे को जन्म दिया। सारे घर में खुशी की लहर दौड गई। सभी इस प्यारे से बच्चे को छोटू कहकर बुलाने लगे। सुशील भी छोटू को बहुत प्यार करता था। लेकिन जल्दी ही इस खुशी के बीच छोटू के अनुवांशिक रोग से पीडित होने की आशंका भी सिर उठाने लगी। चूंकि छोटू अभी तक बिल्कुल ठीक था इसलिए आशा बंधी कि शायद छोटू अनुवांशिक रोग से पीडित नहीं हो। लेकिन वह जैसे-जैसे बडा होने लगा उसके भी हाथ-पैर सूखने लगे और शरीर के कुछ हिस्सों में ज्यादा मांस एकत्रित होने लगा। जब वह छह वर्ष का हुआ तो हाल यह था कि अपने आप खाना भी नहीं खा सकता था, उठ-बैठ भी नहीं सकता था। जब कभी सुनीति की अनुपस्थिति में सुशील को छोटू का मल-मूत्र साफ करना पडता तो वह झल्ला उठता। वह धीरे-धीरे छोटू से घृणा करने लगा।

सुनीति भी सुशील के इस व्यवहार से असमंजस में थी। वह सोच रही थी कि समाज-सुधार और आदर्शवाद की बातें करने वाले सुशील को यह क्या हो गया है। आखिरकार उसके संबंधों की खटास जल्दी ही कडवाहट में बदल गई। सुनीति के सास-ससुर का व्यवहार भी वैसा ही था। इस तरह सुशील के अन्तर में काफी समय से सुलग रही तलाक की इच्छा ने आखिरकार जोर पकड ही लिया। एक दिन उसने स्पष्ट रूप से तलाक की बात कह दी। यह सुनते ही सुनीति के पैरों तले की तो जैसे जमीन ही खिसक गई। इस समय सुनीति को एक शिक्षक एवं समाजसेवी के चोले में सुशील का वास्तविक रूप स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उसे लगा कि नारी उत्थान की बात करने वाला समाज आज भी नारी को भोग्या के अतिरिक्त कुछ नहीं समझता। अंतत: सुनीति ने तलाक के कागजों पर अपने हस्ताक्षर कर ही दिए और छोटू को साथ लेकर अपने मम्मी- पापा के पास आ गई।
ऐसे समय में मम्मी-पापा भी भाग्य का लिखा झेलने के अलावा क्या कर सकते थे? छोटू अब नौ वर्ष का हो चुका था। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ रही थी वैसे-वैसे उसकी तबियत भी लगातार बिगड रही थी। अचानक एक दिन छोटू की तबियत बहुत बिगड गई और आखिरकार संजय और अजय की तरह वह भी चल बसा। सुनीति और उसके मम्मी-पापा को लगा कि जैसे ईश्वर ने दु:खों को झेलने के लिए ही उन्हें दुनिया में भेजा है। उन्हें उस समय चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई दे रहा था। वे टूट तो चुके थे, लेकिन कभी-कभी अत्यधिक दु:ख भी इंसान को और मजबूत बना देता है। ढलती उम्र और दु:खों के कारण सिन्हा साहब हार मान चुके थे लेकिन सुनीति इतनी कमजोर नहीं थी। वह तपकर वह कुन्दन बन चुकी थी। जैसे छोटू के बिछोह ने उसे हीरा बना दिया हो। इसी दीप्ति से उसका अंत:करण प्रकाशित हुआ। उसे लगा कि जैसे आज तक वह खोखले और आडम्बरपूर्ण समाज में जी रही थी।
वह उठ खडी हुई और उसने निश्चय किया कि वह विकलांगों एवं असाध्य रोगों से पीडित बच्चों के लिए एक ऐसे केंद्र की स्थापना कराएगी जिसमें उनके लालन- पोषण एवं शिक्षा का सम्पूर्ण प्रबंध होगा। वह इस मुहिम में जी जान से जुट गई। सिन्हा साहब और उनकी पत्नी बेटी के इस रूप को देखकर गौरवान्वित हो गए। उन्हें लगा कि जैसे उसकी जिंदगी एक नए अर्थ के साथ शुरू हुई है।
अनायास ही एक स्पर्श ने सुनीति को अतीत की स्मृतियों से वर्तमान में ला खडा किया। सुनीति ने देखा तो सामने खडे पापा का हाथ उसके सिर पर था और वे कह रहे थे- बेटी कहां खो गई हो! रात बहुत हो चुकी है अब सो जाओ। कल फिर सवेरे ही आश्रय का उद्घाटन है और सारी तैयारी तुम्हें ही करनी है।

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