रविवार, 14 फ़रवरी 2010

पेटूराम का भर गया पेट

हम तब 8वीं में पढ़ते थे। दोस्तों के बीच सबके नाम रखने का चलन था। हमने एक-दूसरे की खूबियों के हिसाब से सभी का नाम रखा था। हमारे ग्रुप में एक दोस्त का नाम जितेन्द्र था। वह खूब खाता था और इसलिए हमने उसका नाम रख दिया था जितेन्द्र पेटू।

जितेन्द्र को हम यूँ खूब चिढ़ाते थे, पर जब भी कहीं जाने की बारी आती थी यह तय रहता था कि जीतू से खाने के मामले में कोई मुकाबला नहीं कर सकता है।

एक बार हम घूमने के लिए एक जगह गए। रास्ते में कहीं भी कोई खाने की अच्छी जगह नहीं मिली और भूख के मारे पेट में चूहे कूदने लगे। साथ में खाने का जो भी थोड़ा-बहुत सामान था वह खाने पर भी भूख नहीं मिटी। वैसे भी हमने ज्यादा खाने- पीने की चीजें साथ लेने काझंझट नहीं पाला था। जीतू के भी बुरे हाल थे।

हम कम खाते थे तो हमारे कम बुरे हाल थे और जीतू ज्यादा खाता था तो जीतू के ज्यादा बुरे हाल थे। हम लोग सुबह 8 बजे घर से निकले थे और शाम 5 बजे तक भूख से बेहाल हो उठे। तभी रास्ते में एक ढाबा दिखाई दिया। अन्नापूर्णा ढाबा। हमने ड्राइवर से कहकर तुरंत गाड़ी रुकवाई और खाने का ऑर्डर दिया।

खाने में ज्यादा चीजें तो नहीं थी पर भूख के समय ज्यादा या कम कौन देखता है। जो भी मिले आने दो वाली बात रहती है। सबने खूब खाना दबाया। पेटू जीतू ने तो यहांँ नया रेकॉर्ड कायम किया। पट्ठा 22 रोटी और चार प्लेट चावल निपटा गया। खाना परोसने वाला भी जीतू की खुराक देखकर हैरान था। उसने कहा भी कि भैया सुबह से भूखे हो एक साथ इतना मत खाओ, पर जीतू कहाँ मानने वाला था।

इतना खाने के बाद दो गिलास छाछ भी पी गया। हमने कहा मान गए भई जीतू। तुम्हारी खुराक का भी जवाब नहीं। आखिरकार दुकानदार तक को कहनापड़ा कि कम खाओ भाई। जीतू ने ऐसे मुस्कुराहट दिखाई जैसे कोई बड़ा काम किया हो। हम फिर से गाड़ी में सवार होकर अपने सफर पर आगे बढ़े। पर अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि जीतू के पेट में दर्द होने लगा। उसका जी मचलने लगा और उसकी हालत बिगड़ गई।हम रास्ते में एक जगह डॉक्टर के पास पहुँचे।

डॉक्टर ने बताया कि कुछ नहीं ज्यादा खा लेने से जीतू की यह हालत हुई है। डॉक्टर ने जीतू को समझाया कि लंबे समय भूखे रहने के बाद कम खाना चाहिए और वैसे भी एक साथ इतना खाने की जरूरत नहीं है। इसके बाद जीतू ने खाना कम कर दिया और हमारे जितना ही खाने लगा। अब हम उसे चिढ़ाने लगे- पेटूराम का भर गया पेट।

स्कूटर की टक्कर
मेरे पापा के पास एक स्कूटर था। पापा ने जब नई बाइक खरीद ली तो स्कूटर घर में ही पड़ा रहता था। कोने में खड़े-खड़े उस पर बहुत धूल जमा हो गई थी। मुझे उस स्कूटर को चलाने की बड़ी इच्छा होती थी। मेरे दोस्त रंजन को गाड़ी चलाना आता भी था।
एक दोपहर को जब पापा ऑफिस चले गए तो मैंने और रंजन ने स्कूटर निकाला और उसे अच्छे से साफ किया। हम लोग स्कूटर लेकर एक मैदान में गए और वहाँ मैंने स्कूटर चलाना सीखना शुरू किया। पहले दिन स्कूटर सीखने में बड़ा मजा आया। मुझे लगा कि स्कूटर चलाना बड़ा मुश्किल काम है। कितना ध्यान रखना पड़ता है। गियर, ब्रेक, हैंडल और बैलेंस सभी का खयाल करना पड़ता है।
15 दिनों तक रोज दोपहर को यही काम चलता रहा और अब मैं स्कूटर चलाना लगभग सीख गया था। एक बार मैंने रंजन से जिद की कि आज बाजार से होते हुए घर चलते हैं और स्कूटर मैं ही चलाऊँगा। रंजन पहले तो नहीं माना पर मेरे ज्यादा जिद करने पर वह तैयार हो गया। मैं बाजार में पहली बार स्कूटर चला रहा था। बाजार में भीड़ बहुत ज्यादा थी। मुझे डर लगने लगा और अचानक एक साइकल वाला सामने आ गया। मैं ब्रेक नहीं लगा पाया। टक्कर होने पर पास खड़े ट्रैफिक पुलिस ने हमें पकड़ लिया और हमसे पूछताछ करने लगा।
मुझे लगा हम लोग मुसीबत में पड़ गए हैं। मैंने तुरंत पापा को फोन करके बुलाया और उन्होंने पुलिस वाले को समझाकर मुझे, रंजन को और स्कूटर को छुड़वाया। पापा इस बात से बहुत नाराज हुए कि मैंने उन्हें बताए बिना ही स्कूटर सीखा। पर वे खुश भी हुए कि अब मैं स्कूटर चलाना सीख गया हूँ।

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