गुरुवार, 11 मार्च 2010

दादी की चतुराई


- अरुण कुमार बंछोर
आज के चकाचौंध और आँय-फाँय अँगरेजी के जमाने में कौन बच्चा अपना नाम गणेश बताना पसंद करेगा? शानदार स्कूल में पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला गणेश पटवर्द्धन अपने इस पुराने से नाम से बड़ा खुश था। इसका कारण यह था कि गणेश मार्र्ग उसके छोटे शहर की सबसे ज्यादा रौनक वाली सड़क थी। फैशनेबल मॉल उसी सड़क पर।
गणेश को लेने के लिए सुबह जब स्कूल बस आती तो वह उसके घर के दरवाजे के पास रुकती। दोपहर बाद जब वह स्कूल से लौटता तो बस उसे गणेश मार्ग की दूसरी ओर उतारती। उस समय तक चहल-पहल इतनी बढ़ जाती कि सड़क पार करना कठिन हो जाता। गणेश काफी देर तक दूर खड़े अपने घर को देखता रहता। उसे अपना घर सुंदर लगता लेकिन उसे यह समझ में नहीं आता कि उसका घर सबसे अलग क्यों है?
आजी (दादी) उसे बताती कि अभी कुछ वर्ष पहले इस रास्ते के सारे घर ऐसे ही थे। जब से इस शहर में जमीन के भाव बढ़ने लगे, उनके पड़ोसियों ने अपने-अपने घर बेच दिए। उन घरों को तोड़कर वहाँ नई दुकानें-दफ्तर और बाजार बने। पेड़ कट गए और रास्ते का हुलिया बदल गया। बस, एक पटवर्द्धनों का बंगला ही पुरानी शान के साथ खड़ा है।
गणेश और आजी की दोस्ती थी। पूरे परिवार में गणेश सबसे छोटा था, तो आजी सबसे बड़ी। घर भी आजी का ही था। आजी उसे कहानियों के साथ पुराने जमाने के किस्से सुनाती। आजी ने उसे बताया था कि बिल्डर लोग उनका घर भी खरीदना चाहते हैं। रुपयों का लालच देते हैं। इतना रुपया जो राजा की कहानी में ही सुनने को मिलता है। हम इतने रुपए लेकर क्या करेंगे? फिर आजी की आँखें दूर कहीं देखने लगतीं। तेरे परदादा बड़े वकील थे। उनसे मिलने के लिए तिलक आए थे, तब ऊपर के कोने वाले कमरे में ठहरे थे। इस घर में आए मेहमानों के नाम जब आजी गिनाती तो गणेश को लगता कि वह उसकी सोशल स्टडीज की पुस्तक में से देखकर बोल रही हैं।
घर बेचने और रुपयों वाली बात गणेश की समझ में नहीं आती। परंतु पूरे पटवर्र्द्धन परिवार में, यानी गणेश के तात्या, अप्पा काका, अण्णा काका और काकियों में घर बेचने को लेकर खासी ऊहापोह थी। पुराना बंगला सबको पसंद था परंतु रुपयों से खरीदी जा सकने वाली मोटरकार, होटलों का खाना, महाबलेश्वर में छुट्टियाँ ललचा रही थीं। आजी से सब डरते थे।
उनकी जुबान की तलवारबाजी से परिवार के लोग तो क्या, बिल्डर-मवाली-सिपहिये सब खिसकते नजर आते थे। एक जान्हवी ताई थी जो अधिक उकसाने पर वैसी जुबान चला सकती थी। जान्हवी की माँ जब बेटी की चिकिर-चिकिर से आजिज आ जाती तो रुँआसी होकर कहती- बाई, तू ठहरी दुर्गादादी की पोती, मेरा तुझसे क्या मुकाबला। तू उन्हीं के पास जा।
दादी ने जान्हवी को अच्छा साध रखा था। जान्हवी के खूब लंबे और रेशमी बाल थे। बचपन से अब तक दादी ही उन्हें तेल लगाकर चोटी गूँथती। जब सब जान्हवी के बालों की प्रशंसा करते, दादी यों मुस्कुराती जैसे उनके बालों की ही बात हो रही हो। जान्हवी कॉलेज में क्या जाने लगी, बाल कटवाने की जिद करने लगी। दादी ने उसे पुचकारा, समझाया, डाँटा... और आज तो उन दोनों ने खूब तलवारें भाँजी। सारे घर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। दादी गुस्से से तमतमाकर घर से बाहर निकल गई और जाकर नारियल के बगीचे में बैठ गई।
बचपन से उन्हें यह जगह बहुत प्रिय थी। जब उनकी शादी हुई तब वे चौदह वर्ष की ही तो थीं। यहीं पर वे घरकुल खेलती थीं। लेकिन आज की गृहस्थी उन्हें समझ में नहीं आती, ऐसा वे बड़बड़ा रही थीं। गुस्साने से ज्यादा वे बौखला गई थीं। घर क्यों बेचना है? बाल क्यों काटना है? घर में सिनेमा क्यों चाहिए? घर का खाना छोड़ बाजार का क्यों चाहिए? दादी को शोरगुल बिलकुल नापसंद था। दोपहर हो गई और गणेश मार्ग पर शोर बढ़ गया। दादी को सिरदर्द होने लगा। वे उठने के लिए झुकी ही थीं कि ऊपर लटके नारियलों को पता नहीं क्या हो गया। एक नारियल आकर उनके सिर पर गिरा।
सच कहो तो टल्ले से ज्यादा वह कुछ नहीं था लेकिन बुढ़िया को बेहोश करने के लिए वह काफी था। हो सकता है ऐसा भूख लगने के कारण हुआ हो। दादी ने जब आँखें खोलीं तब एक दर्जन चेहरे उन पर झुके हुए थे। उनमें से सबसे छोटे, प्यारे चेहरे से उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो? उसने शीश नवाकर कहा- मैं गणेश हूँ। दादी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। फिर एक मोटी-सी महिला से पूछा- तुम कौन हो? उत्तर मिला मैं शुभांगी, आपकी बड़ी बहू। इस हालत में भी दादी का चौकस स्वभाव कम नहीं हुआ था।
सबके नाम जानने के बाद उन्होंने पूछा कि पीछे छुपती फिर रही बालकटी लड़की कौन है? लड़की सहमते हुए बोली- मैं जान्हवी हूँ। दादी बोली- छुपती क्यों हो? तुम तो सबसे सुंदर लग रही हो। सब लोग चौंक पड़े। पहले तो दादी बगीचे में बेहोश पड़ी मिली। पूरे चार घंटे बाद उन्हें होश आया। फिर उनकी याददाश्त खो गई। अब वे लंबे बाल कटाने पर जान्हवी को सुंदर कह रही थीं। तभी दूर से सुनाई देते वाहियात गीतों की धुन पर दादी पैर हिलाने लगीं। यह तो वाकई में डरा देने वाली बात थी। डॉक्टर काका ने कहा कि इन्हें आईसीयू में रखकर देखते हैं।
तीन दिन अस्पताल में रहने के बाद दादी घर लौट आईं। अब वे पहले की तरह ही अच्छी-भली चल-फिर-बोल रही थीं, लेकिन सबकुछ भूल गई थीं। अब वे किसी को दादू, किसी को मोटी, किसी को चष्मिश जैसे नामों से पुकारने लगीं। दादी दिनभर जोर से टीवी चलाकर रखतीं। अब वे घर का खाना छोड़ पिज्जा-बर्गर की जिद करने लगीं। पहले तो सबको इसमें फायदा दिखा परंतु जब टीवी से सिरदर्द और बाहर के खाने से पेट गड़बड़ाने लगा तो सब बड़े परेशान हो उठे। घर बेचने की बात सब भूल गए।
महीना खत्म होने के बाद दूधवाला हिसाब लेकर आया। चालाक ने सोचा कि डोकरी की हालत का फायदा उठाकर सौ-पाँच सौ रुपए झटक लूँ। सबकी आँख बचाकर उसने बगीचे में फूल चुन रही दादी को पकड़ा और बोला कि आजी, पिछले माह के मेरे पाँच सौ रुपए बाकी हैं। आप अप्पा से कहकर दिलवा दो। दादी चमकी और आँखें तरेरकर बोलीं- महेश्या, झूठ बोलेगा तो कौवा काटेगा। छुट्टे पैसे नहीं थे इसलिए तूने ही बत्तीस रुपए लौटाए नहीं मेरे। अब बोल? महेश्या दादी के पैर छूने लगा।
दूधवाले के जाते ही पीछे से निकलकर गणेश सामने आया और आँखें नचाने लगा। दादी यह क्या शरारत है? दादी ने आँखें मिचकाकर फुसफुसाया कि तेरा गणेश विला बचाए रखना है तो वेड़ा (पागल) बनकर पेड़ा खाओ।

परीक्षा से डर कैसा
हलो दोस्तो, इन दिनों लगभग आप सभी परीक्षा में व्यस्त होंगे या इसकी तैयारियाँ कर रहे होंगे। परीक्षा के दिनों में टेलीविजन के सीरियल देखने का मन होता है। इसी बीच होली भी आई और जिन स्टुडेंट्‍स का रंगों से खेलने का मन हुआ, उन्होंने खूब रंग और गुलाल खेला होगा।
कुछ विद्यार्थियों को परीक्षा का डर ज्यादा होता है तो वे पूरे समय पढ़ाई में ही लगे रहते हैं। परीक्षा के दिनों में पढ़ाई को गंभीरता से लेना ठीक है पर परीक्षा तनाव नहीं बनना चाहिए। जो स्टूडेंट्स परीक्षा के दिनों में तरोताजा रहते हैं और अपनी तैयारी पर विश्वास रखते हैं वे अच्छा स्कोर कर जाते हैं। परीक्षा का ज्यादा टेंशन होने पर परीक्षा हॉल में भी चीजों के भूल जाने का डर रहता है। इसलिए ज्यादा अच्छा तो यह है कि परीक्षा को आने दो और अपनी तैयारी पूरी रखो।
जितनी भी तैयारी करें आत्मविश्वास से करें। कुछ कठिन होने के कारण छूट भी रहा हो तो उसमें अपनी मेहनत जाया न करें। क्योंकि इस तरह ऐसा भी हो सकता है कि आप 10 नंबरों के लिए शेष 90 नंबरों से खिलवाड़ कर रहे हों। ऐसी स्थिति में आपको जो मैटर ईजी लगे उसे और अच्छे से तैयार करें, परीक्षा में उन प्रश्नों के आने पर आप उसे किस तरह हल करें, उसका प्रस्तुतीकरण कैसा हो। इस पर ध्यान दें। तो काफी हद तक संभावना है कि कोई कठिन प्रश्न आने पर आपको छोड़ना भी पड़े तो यह अतिरिक्त तैयारी उसे काफी हद तक कवर कर लेगी।
ठीक है ना दोस्तो वैसे भी थोड़ी देर के लिए सकारात्मक होकर सोच लें कि मैरिट में आने वाले छात्रों को भी 100 में से 100 मार्क्स तो आते नहीं हैं। अत: एकदम परफैक्ट होने के चक्कर में ऐसा न हो कि जो हमें आता हो वही न कर पाएँ। आशा करता हूँ इन बातों को ध्यान रखते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ पेपर देने जाएँगे और बढ़िया करेंगे। विश यू ऑल द बेस्ट।

आपका
संपादक भैया

अगला जनम भी लूँ मैं तुम्हारा ही बेटा बनकर
देख जाओ बाबूजी अपने बेटे का पुरुषार्थ
तुम्हारे आदर्श को किया मैंने चरितार्थ।
उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने का लिया मैंने संकल्प,
यही तो था तुम्हारे जीवन का निहितार्थ।।

बाई ने तो इस धरती पर हँसना मुझे सिखाया,
तुमने मुझको जीवन में संघर्ष का पाठ पढ़ाया।
तुम ही मेरी शक्ति थे और हौसला थे मेरा,
तुमने ही जीवन का असली मकसद समझाया।।

जानकर मेरी अभिरुचि को दे दी सही दिशा,
जब भी गलत कदम उठा तो दिखाया मुझे शीशा।
साधन की शुचिता पर तुमने दिया हमेशा जोर,
दिशा-दर्शक सदा रही थी जीवन में भगवत् गीता।।

दो-दो नौकरी करके तुमने हम सबको पाला,
हमको खुश रहने की खातिर अपना सुख टाला।
झूठी शान और झूठे मान के पीछे कभी न भागे,
'सादा जीवन-उच्च विचार' को जीवन में ढाला।।

तुम्हारे पदचिह्नों पर चलने का है किया जतन,
मेरे जीवन के आभूषण सत्य, ईमान और लगन।
चादर जितने पैर पसारे, उड़ा नहीं हवाओं में,
मेरे जीवन के साक्षी हैं धरती और गगन।।

बाबूजी यह पाती भेजूँ बतलाओ किस देस में,
तुमको ढूँढूँ कहाँ-किधर मैं आखिर हो किस वेष में।
कुछ पल बस सपनों का दामन ही सहला जाओ,
पीड़ा के बस अर्थ बचे हैं जीवन के अवशेष में।

अगला जनम भी लूँ मैं तुम्हारा ही बेटा बनकर
जीवन के पाठ पढ़ेंगे हम फिर से ‍मिल जुलकर।
सीखना बहुत है तुमसे मुझे अभी जिंदगी के गुर,
हिम्मत कभी न हारी तुमने पल हो चाहे जितने दुष्कर।।

सेमल पर छाई है बहार
गर्मियों के आते ही वन-उपवन, बाग-बगीचों की छटा कुछ बदली-बदली सी नजर आती है। जब हम होली की तैयारी में लगे रहते हैं तब प्रकृति में फूल भी फाग रचने को तैयार रहते हैं। फूल तो कई हैं पर मेरे कॉलेज परिसर में चार-पाँच सेमल के पेड़ प्रकृति प्रेमियों का ध्यान अपनी रंगीन अदा से खींच ही लेते हैं। इन दिनों में सेमल में बड़े-बड़े कटोरेनुमा रसभरे फूलों का गहरा लाल रंग अपने शबाब पर होता है। पलाश, सेमल और टेबेबुआ को देखकर मुझे यह लगता है कि निश्चय ही मनुष्य ने होली खेलने की प्रेरणा जंगल का यह मनमोहक, मादक दृश्य देखकर ही ली होगी।
प्रकृति हजारों लाखों वर्षों से यह होली खेलती आ रही है। निसर्ग का यह फागोत्सव फरवरी से शुरू होकर अप्रैल-मई तक चलता है। सेमल के पेड़ और होली का गहरा संबंध यह भी है कि होली को जो डांडा गाड़ा जाता है वह सेमल या अरण्डी का ही होता है। ऐसा संभवत: इसलिए किया जाता है क्योंकि सेमल के पेड़ के तने पर जो काँटे होते हैं उन्हें बुराई का प्रतीक मानकर उन्हें जला दिया जाता है।
देखा जाए तो सेमल के पेड़ की तो बात ही निराली है। भारत ही नहीं दुनिया के सुंदरतम वृक्षों में इसकी गिनती होती है। दक्षिण-पूर्वी एशिया का यह पेड़ ऑस्ट्रेलिया, हाँगकाँग, अफ्रीका और हवाई द्वीप के बाग-बगीचों का एक महत्वपूर्ण सदस्य है। पंद्रह से पैंतीस मीटर की ऊँचाई का यह एक भव्य और तेजी से बढ़ने वाला, घनी पत्तियों का स्वामी, पर्णपाती पेड़ है। इसके फूलों और पुंकेसरों की संख्‍या और रचना के कारण अँगरेज इसे 'शेविंग ब्रश' ट्री कहते हैं।
इसके तने पर मोटे तीक्ष्ण काँटों के कारण संस्कृत में इसे 'कंटक द्रुम' नाम मिला है। इसके तने पर जो काँटे हैं वे पेड़ के बड़ा होने पर कम होते जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि युवावस्था में पेड़ को जानवरों से सुरक्षा की जरूरत होती है जबकि बड़ा होने पर यह आवश्यकता खत्म हो जाती है। है न कमाल का प्रबंधन।
सेमल के मोटे तने पर गोल घेरे में निकलती टहनियाँ इसे ज्यामितीय सुंदरता प्रदान करती हैं। पलाश के तो केवल फूल ही सुंदर हैं परंतु सेमल का तना, इसकी शाखाएँ और हस्ताकार घनी हरी पत्तियाँ भी कम खूबसूरत नहीं। इसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे बाग-बगीचों और सड़कों के किनारे, छायादार पेड़ के रूप में बड़ी संख्‍या में लगाया जाता है। बसंत के जोर पकड़ते ही मार्च तक यह पर्णविहीन, सूखा-सा दिखाई देने वाला वृक्ष हजारों प्यालेनुमा गहरे लाल रंग के फूलों से लद जाता है। इसके इस पर्णविहीन एवं फिर फूलों से लटालूम स्वरूप को देखकर ही मन कह उठता है -

'पत्ता नहीं एक/फूल हजार
क्या खूब छाई है/सेमल पर बहार।'
सेमल सुंदर ही नहीं उपयोगी भी है। इसका हर हिस्सा काम आता है। पत्तियाँ चारे के रूप में, पुष्प कलिकाएँ सब्जी की तरह, तने से औषधीय महत्व का गोंद 'मोचरस' निकलता है जिसे गुजरात में कमरकस के रूप में जाना जाता है। लकड़ी नरम होने से खिलौने बनाने व मुख्‍य रूप से माचिस उद्योग में तीलियाँ बनाने के काम आती हैं। रेशमी रूई के बारे में तो सभी जानते ही हैं। बीजों से खाद्य तेल निकाला जाता है।
इन दिनों मकरंद से भरे प्यालों के रूप में लाल फूलों से लदा यह पेड़ किस्म-किस्म के पक्षियों का सभास्थल बना हुआ है। तोता, मैना, कोए, शकरखोरे और बुलबुलों का यहाँ सुबह-शाम मेला लगाता है। सेमल पर एक तरह से दोहरी बहार आती है, सुर्ख लाल फूलों की और हरी, पीली, काली चिड़ियों की। इन्हीं चिड़ियों के कारण इसकी वंशवृद्धि होती है। इस पर फल लगते हैं। बीज बनते हैं। सेमल के पेड़ और पक्षियों का यह रिश्ता पृथ्वी पर सदियों से चला आ रहा है और यदि हम इनके रंग में भंग न डालें तो यह ऐसे ही आगे भी चलता रहेगा। हालाँकि प्रकृ‍ति में दिनोंदिन हमारी दखलअंदाजी के चलते ऐसी संभावना क्षीण होती जा रही है।

पेड़-पौधों के फूलने की घटना के संदर्भ में वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि पौधों की पत्तियाँ ही उन्हें फूलने का संदेश देती हैं। परंतु सेमल पर जब बहार आती है तब तो उसके तन पर पत्तों का नामोनिशान तक नहीं होता। ‍तो फिर सेमल को फूलने का संदेश किसने दिया। दरअसल इसकी पत्तियाँ झड़ने से पूर्व ही इसके कानों में धीरे-से बहार का गीत गुनगुना जाती हैं कि उठो, जागो, फूलने का समय आ गया है बसंत आने ही वाला है। वास्तव में पतझड़ी पेड़ों की पत्तियाँ झड़कर आने वाली बहार का गीत गाकर ही इनके तन से विदा होती हैं। हमें सेमल की सुंदरता, पत्तियों के विदा गीत और प्रकृति का इस उपकार के लिए धन्यवाद करना चाहिए।

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