मंगलवार, 20 जुलाई 2010

अम्मा का खेल

बचपन में अम्मा का अपने समय के परे चले जाना जादुई चमत्कार सा लगता। मशीन पर उसकी सांवली कुहनियां टिकी रहतीं। वह अपने अतीत की नदी में उतर जाती। मेरे सामने अम्मा नहीं, सिर्फ़ उसकी देह रहती। सांवले रंग की कमजोर देह और तपेदिक से बाहर निकला शरीर..

हमारे घर के नजदीक उन्नीसवीं शताब्दी में बना गिरजाघर था। गोथिक शैली में ढला हुआ! बरसों पुराने पेड़ों से घिरा हुआ! उसके सामने टूटे हुए स्कूल के खंडहर थे। कभी-कभी हम वहां छिप जाते। कहा जाता था कि बरसों पहले वहां चर्च के चौकीदार की पत्नी ने आत्महत्या की थी। उसके बाद से वहां वीरानगी छा गई थी। शाम की प्रार्थना के बाद वहां सन्नाटा छा जाता। बूढ़े भक्तों के जाते ही वहां चौकीदार के सिवाय कोई नहीं रहता। उस सड़क पर रात होते ही वेश्याएं घूमने लगतीं। ग्राहकों की तलाश में। उनके बारे में हमें बाद में पता चला। पहले लोग उनकी चूड़ियों की आवाजों को चुड़ैल से जोड़ देते थे। पता नहीं अब गिरजाघर के आसपास क्या होता होगा।

उस गिरजाघर के सामने मेरा बचपन वैसा ही ठहरा हुआ है, जैसे उसके सामने की जीसस की प्रतिमा, उसकी बुर्ज से जुड़े हुए दो क्रॉस, उसकी खिड़कियों पर बने चित्र, उसके अंधेरे कोने, उसकी ख़ामोशी , उसका अकेलापन। वहीं चर्च के मैदान में अमित, मारियो और मैं तरह-तरह के खेल खेलते। वहीं एक दिन पेड़ से गिरने से मेरे हाथ की हड्डी टूटी थी। वे बारिश के दिन थे। अख़बारों में देश की बड़ी-बड़ी नदियों में आई बाढ़ के समाचार छपते। मैं हाथ में पलस्तर बांधे सारा दिन घर में गुजरता। अम्मा ग्राहकों के कपड़े सीने में व्यस्त रहती। मारियों और अमित स्कूल चले जाते। आज बरसों बाद बारिश के उन दिनों को याद करता हूं, तो कितने ही भिखारियों, पागलों और परिचितों के चेहरों की याद आती है, लेकिन जो चेहरा बिल्कुल साफ़-साफ़ याद आता है, वह अम्मा का चेहरा है। उदास। मरा हुआ। ख़ामोश।

शाम के समय अम्मा की उदासी गहराने लगती। उस समय पक्षी अपने घोसलों की तरफ़ लौटते रहते। मैं अपनी दहलीज पर बैठकर बाहर की उदास शाम और उसमें फैलती अम्मा की उदासी देखता रहता। किसी-किसी शाम में मारियो से मिलने खेल के मैदान में चला जाता। वहां से लौटने पर दरवाजे पर ताला दिखाई देता। ऐसे समय मैं अकेला बैठकर अम्मा के बारे में सोचने लगता। वह नौ बजे के आसपास रामकृष्ण आश्रम से लौटती। उसके साथ पड़ोस की बंगाली बुढ़िया रहती। अक्सर अम्मा के बारे सोचते हुए मैं स्कूल के पादरी की बातें याद करता..।

स्कूल में ग़रीब और अनाथ बच्चों को पढ़ने के लिए मदद मिलती थी। ऐसे बच्चों को बीच-बीच में पादरी के पास जाना पड़ता था- उनके कमरे की सफ़ेद दीवारों पर ईसाई संतों की तस्वीरें टंगी रहतीं- एक-बड़ी तस्वीर में जीसस कंधे पर सूली उठाकर पहाड़ पर चढ़ते रहते। पादरी एक-एक छात्र को प्यार से समझाते- उनकी ममतामयी आवाज में अम्मा की करुण जिंदगी और भी तकलीफ़देह होकर सामने आती। अम्मा उन्नीस-बीस की उम्र में दक्षिण के किसी गांव से उस शहर में आई थी। अनाथ। अनपढ़। साधारण चेहरे की एक साधारण लड़की। उसी शहर के सरकारी अस्पताल में उसने नर्स की जिंदगी शुरू की।

उसने अस्पताल में प्रसव पीड़ा से मरने वाली ग़रीब औरतों को देखा। उसके सामने ही टी.बी. और कैंसर से पीड़ित लोग दम तोड़ते। सरकारी अस्पताल की यातनामय जिंदगी से वह बहुत जल्दी ही मुक्त होने के लिए तड़पने लगी। उसे अस्पताल में ख़त्म होती जिंदगियों से उतनी तकलीफ़ नहीं होती, जितनी उनकी जिंदगी के ख़त्म होने की प्रक्रिया से। उसे आदमी के ख़त्म होने की क्रूर प्रक्रिया से नफ़रत थी। उन्हीं दिनों एक आदमी उसकी जिंदगी में आया और कुछ साल बाद हमेशा के लिए चला गया। वह आदमी उसका पति था, मेरा पिता। उसके बाद उसकी विधवा जिंदगी की शुरुआत हुई- एक हिंदुस्तानी विधवा की यातना की शुरुआत। उसके बाद अम्मा तपेदिक की शिकार हुई.. उसके बाद..।

हमेशा पादरी के कमरे से लौटते हुए मैं एकदम दूसरे बच्चे में बदल जाता था। आवारा लड़कों के साथ शैतानी करने की इच्छा हमेशा के लिए मर जाती। मैं स्कूल से भागकर सिनेमा न देखने की प्रतिज्ञा करता। ज्यादातर समय अम्मा के क़रीब रहकर पढ़ने में गुजरता- ग्राहकों के कपड़े तैयार करने में अम्मा की मदद करता- रात को सोने के पहले अम्मा के पैर दबाता। लेकिन यह सब करते हुए भी लगातार महसूस होता रहता कि अम्मा का दुख जहां था वहीं है।

कभी-कभी मुझे लगता कि वह अपने दुख को मुझसे ज्यादा प्यार करती है- उसे अपने अतीत से गहरा लगाव था। आज सोचता हूं कि पादरी के लिए अम्मा एक दुखी औरत थी, क्योंकि वह जवानी में विधवा हो गई, क्योंकि वह तपेदिक की मरीज होकर भी लोगों के कपड़े सीती थी। मेरे लिए उसका दुख अजनबी नहीं था, लेकिन फिर भी लगता है कि वह इसलिए भी दुखी रही कि उसे अपने दुख से बहुत प्यार था।

वह अपनी उदासी को किसी मासूम बच्चे की तरह सीने से चिपकाए रहती। शायद यह उसका जीने का अपना रास्ता रहा होगा। वह मेरे सामने बैठी रहती। लेकिन मुझसे मीलों दूर। वह अक्सर अपनी जगह और समय में मौजूद रहते हुए भी उनसे परे चली जाती। दूसरी दुनिया में। जहां उसका बचपन था। जहां पिता के साथ बीते हुए दिन थे। जहां उसका ठहरा हुआ सुख था।

बचपन में अम्मा का इस तरह से अपने समय के परे चले जाना जादुई चमत्कार सा लगता। मशीन पर उसकी सांवली कुहनियां टिकी रहतीं। वह अपने अतीत की नदी में उतर जाती। मेरे सामने अम्मा नहीं, सिर्फ़ उसकी देह रहती। सांवले रंग की कमजोर देह। तपेदिक से बाहर निकला शरीर। मैं उसके खेल के जादुई सम्मोहन से लथपथ होकर उसकी तरफ़ देखता रहता। दीवार पर परमहंस की तस्वीर के नीचे उसकी छाया गिरती रहती।

इस खेल को अम्मा हमेशा खेलती थी, इसलिए मैं इसे ‘अम्मा का खेल’ कहा करता। कभी-कभी मारियो से मैं अम्मा के इस खेल की चर्चा करता, तो वह ईश्वर, जीसस, शैतान आदि के बारे में उबकाई पैदा करने वाली बकवास सुनाता। मैं अम्मा के इस खेल को किसी दूसरे अपरिचित आदमी से जोड़ना नहीं चाहता था।

उस दिन भी दुपहर आज ही की तरह डरी हुई थी। अंतर सिर्फ़ इतना है, वह गर्मियों की दुपहर थी। सर्दियों की नहीं। धूप और गर्मी से लबालब भरी हुई दुपहर। कफ्र्यू से फैले सन्नाटे में उन दिनों की दुपहरों की शक्ल शैतानी हो जाती। वे शैतानी रातों के शैतानी दिन थे। सड़कों पर पुलिस और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां घूमती रहतीं। पूरा शहर आतंक से दुबका रहता। उन्ही दिनों मैंने हिंदू-मुस्लिम दंगे जैसे शब्द को जाना था।

जहां दंगा जारी था, वहां आग थी, नफ़रत थी, मृत्यु थी, हिंसा थी। वहां हिंदू थे, वहां मुस्लिम थे। उस समय मेरे लिए दंगे से निकला डर अंधेरे में घूमती चुड़ैल के डर से भी ज्यादा ख़तरनाक था। इतनी-इतनी उम्र के इतने सारे लोगों को मैंने पहली बार इतना ज्यादा डरा हुआ देखा था।

मई की उस शैतानी दुपहर में शुरू हुआ दंगा सात-आठ दिनों तक चलता रहा। दंगे में कितने ही मासूम, ग़रीब और बेगुनाह लोग नष्ट हुए। गिरजाघर का बूढ़ा चौकीदार उनमें एक था। सात-आठ दिनों में कितने ही घरों को आग में झुलसना पड़ा। हमारी बस्ती में कई लोग ऊंचे मकानों की छत पर खड़े होकर दूसरी बस्तियों में जलते घरों को देखते रहते। वे दिन मेरे लिए दुनिया को समझने के दिन थे। वे अम्मा के लिए अपनी उजाड़ जिंदगी की तरफ़ लौटने के दिन थे।

अम्मा जलते हुए घरों को देखने के लिए मुझे मना करती। उसे आदमी की जिंदगी को इतनी क्रूरता से नष्ट होते देखकर गहरी तकलीफ़ होती। अपनी जिंदगी में उसने बहुत कुछ नष्ट होते हुए देखा था और वह नष्ट होने की यातना को जानती थी। दंगों के कुछ बरसों बाद ही अस्पताल में उसकी मृत्यु हुई। उस समय मैं मैट्रिक में था। जब मैं उसके लिए चाय लेकर पहुंचा, तब वहां अम्मा नहीं, अम्मा की लाश थी। नीले रंग की चादर से लिपटी हुई।

उसके आसपास बंगाली बुढ़िया और मारियो की अम्मा खड़ी थी। उसके सिरहाने पादरी के नाम लिखा हुआ अधूरा प्रार्थना-पत्र था। उसके क़रीब ही अम्मा का चश्मा और पेन। अस्पताल के गलियारे में मृत्यु से उपजा सन्नाटा और दुख था। अम्मा की देह मेरे सामने थी, लेकिन अम्मा मुझसे मीलों दूर। जनवरी की उस सुबह उसने अपने खेल को अंतिम बार खेला था। उसकी शवयात्रा में सात-आठ लोग आए थे। अम्मा की मृत देह के क़रीब खड़े हुए पादरी को देखकर मैं चीख-चीखकर रोया था। अपने बचपन के शहर में वे मेरे अंतिम दिन थे।

एक छोटा-सा मजाक़ अंतोन चेख़व
इस वर्ष, विश्वप्रसिद्ध महान कथाकार अंतोन चेख़व की एक सौ पचासवीं जयंती मनाई जा रही है। चवालीस साल की कम उम्र में चेख़व का देहांत हो गया था। लेकिन इससे पहले ही साहित्य-जगत को वे इतना कुछ दे चुके थे कि उनका संपूर्ण लेखन आठ-आठ सौ पृष्ठों के चौबीस खंडों में समाहित हुआ है। यादों के इस मौक़े पर पढ़िए यादों भरी उनकी यह यादगार कहानी..


सर्दियों की ख़ूबसूरत दोपहर.. सर्दी बहुत तेज है। नाद्या ने मेरी बांह पकड़ रखी है। उसके घुंघराले बालों में बर्फ़ इस तरह जम गई है कि वे चांदनी की तरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बर्फ़ की एक लकीर-सी दिखाई देने लगी है। हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है, जिसमें सूरज की रोशनी ऐसे चमक रही है, जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो। हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी हुई है, जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है।

-चलो नाद्या, एक बार फिसलें! -मैंने नाद्या से कहा- सिर्फ़ एक बार! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुंच जाएंगे।

लेकिन नाद्या डर रही है। यहां से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लंबा लग रहा है। वह भय से पीली पड़ गई है। जब वह ऊपर से नीचे की ओर झांकती है और मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूं, तो जैसे उसका दम निकल जाता है। मैं सोचता हूं- लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने का ख़तरा उठा लेगी! वह तो डर से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी।

-मेरी बात मान लो! -मैंने उससे कहा- नहीं-नहीं, डरो नहीं, तुममें हिम्मत की कमी है क्या?

आख़िरकार वह मान जाती है। और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूं। ऐसा लगता है, जैसे मौत का ख़तरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है। वह डर से सफ़ेद पड़ चुकी है और कांप रही है। मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कंधों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूं।

हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं। स्लेज गोली की तरह बड़ी तेजी से नीचे जा रही है। बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है। हवा जैसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानो कोई तेज सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे ग़ुस्से से हमारे बदनों को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है।

हवा इतनी तेज है कि सांस लेना भी मुश्किल है। लगता है, मानो शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है। आसपास की सारी चीजों जैसे एक तेजी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं। ऐसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएंगे।

मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या! -मैं धीमे से कहता हूं।
स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है। हवा का गरजना और स्लेज का गूंजना अब इतना भयानक नहीं लगता। हमारे दम में दम आता है और आख़िरकार हम नीचे पहुंच जाते हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है। वह सफ़ेद पड़ गई है। उसकी सांसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं.. मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूं।

अब चाहे जो भी हो जाए, मैं कभी नहीं फिसलूंगी, हरगिज़ नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूं। मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई दे रहा है, पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी। क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऐसा बस महसूस हुआ था, सिर्फ़ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूं, मैं सिगरेट पी रहा हूं और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूं।

नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं। यह पहेली उसको परेशान कर रही है। वे शब्द, जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं। यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है।

उसकी इज्जत का सवाल हो गया है। जैसे उसकी जिंदगी और उसके जीवन की ख़ुशी इस बात पर निर्भर करती है। यह बात उसके लिए महत्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण। नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नजरों से ताकती है, मानो मेरे अंदर की बात भांपना चाहती हो। मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है। वह इस इंतजार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूं।

मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूं- अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं? मैं देखता हूं कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है। लेकिन वह अपने ़ख्यालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती। वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही ख़ुशी उसे तंग कर रही है..। -सुनिए! -मुझ से मुंह चुराते हुए वह कहती है। -क्या? -मैं पूछता हूं। -चलिए, एक बार फिर फिसलें।

हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं। मैं फिर से भय से सफ़ेद पड़ चुकी और कांपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूं। हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं। फिर से हवा की गरज और स्लेज की गूंज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था, मैं धीमी आवाज में कहता हूं- मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या।

नीचे पहुंचकर जब स्लेज रुक जाती है, तो नाद्या एक नजर पहले ऊपर की तरफ़ ढलान को देखती है, जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नजर मेरे चेहरे पर डालती है। वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज को सुनती है। उसके चेहरे पर हैरानी है। न सिर्फ़ चेहरे पर, बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है। वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है- क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस ऐसा लगा हो, बस ऐसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों?

उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है। यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है। मुझे उस पर तरस आ रहा है। बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है। लगता है वह रोने ही वाली है। -घर चलें? -मैं पूछता हूं। -लेकिन मुझे.. मुझे तो यहां फिसलने में ख़ूब मजा आ रहा है। -वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती है- और क्यों न हम एक बार फिर फिसलें?

हुम.. तो उसे यह फिसलना अच्छा लगता है। पर स्लेज पर बैठते हुए, तो वह पहले की तरह ही डर से सफ़ेद दिखाई दे रही है और कांप रही है। उसे सांस लेना भी मुश्किल हो रहा है। लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खांसता हूं और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुंच जाते हैं, तो मैं एक बार फिर कहता हूं- मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!

और यह पहेली पहेली ही रह जाती है। नाद्या चुप रहती है, वह कुछ सोचती है.. मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूं। वह धीमे-धीमे क़दमों से चल रही है और इंतजार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूंगा। मैं यह नोट करता हूं कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है। लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है। शायद वह सोच रही है।

दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है- आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएं, तो मुझे अपने साथ ले लें। नाद्या। -उस दिन से हम दोनों रोज फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज में वे ही शब्द कहता हूं- मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!

जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फ़ीन का होता है। वह अब इन शब्दों की ख़ुमारी में रहने लगी है। हालांकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है, लेकिन अब भय और ख़तरा मोहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं, जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं।

उसका शक हम दो ही लोगों पर है- मुझ पर और हवा पर। हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इजहार करता है, उसे पता नहीं। पर अब उसे इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों न पी जाए- नशा तो वह उतना ही देती है। अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुंचा। भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आंखें मुझे ही तलाश रही हैं।

फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है ..अकेले फिसलने में हालांकि उसे डर लगता है, बहुत ज्यादा डर! वह बर्फ़ की तरह सफ़ेद पड़ चुकी है, वह कांप रही है, जैसे उसे फांसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके। शायद आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि -जब मैं अकेली होऊंगी, तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं? -मैं देखता हूं कि वह बेहद घबराई हुई डर के मारे मुंह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है।

वह अपनी आंखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है.. स्लेज के फिसलने की गूंज सुनाई पड़ रही है। नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं, मुझे नहीं मालूम, मैं बस यह देखता हूं कि वह बेहद थकी हुई और कमजोर-सी स्लेज से उठती है।

मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूं कि वह ख़ुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं। नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्किल था। फिर कुछ ही समय बाद वसंत का मौसम आ गया। मार्च का महीना है.. सूरज की किरणों पहले से अधिक गरम हो गई हैं।

हमारी बर्फ़ से ढकी वह सफ़ेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक ख़त्म हो गई है। धीरे-धीरे सारी बर्फ़ पिघल जाती है। हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है -हवा ख़ामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पितेरबुर्ग जाने वाला हूं- हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहां चला जाऊंगा।

मेरे पितेरबुर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है। संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था। जिस मकान में नाद्या रहती है, यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊंची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी। अभी भी मौसम में काफ़ी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ़ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है, लेकिन वसंत की सुगंध महसूस होने लगी है। शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है।

मैं बाड़ के पास आ जाता हूं और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ़ देखता हूं। नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नजरों से आसमान की ओर ताक रही है। वसंती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है। यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है, जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी, जब उसने वे शब्द सुने थे।

उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आंसू ढुलकने लगते हैं.. और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है, मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही हो कि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए। और जब हवा का एक झोंका आता है, तो मैं फिर धीमी आवाज में कहता हूं- मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!

अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है। वह बेहद ख़ुश है, बेहद सुखी, बेहद सुंदर।

और मैं अपना सामान बांधने के लिए घर लौट आता हूं..।
यह बहुत पहले की बात है। अब नाद्या की शादी हो चुकी है। उसने ख़ुद शादी का फ़ैसला किया या नहीं- इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उसका पति- एक बड़ा अफ़सर है और उनके तीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे। हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद और ख़ूबसूरत याद है। और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूं, मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऐसा मज़ाक़ किया था!..

लेखक :
29 जनवरी, 1860 को जन्मे अंतोन चेख़व रूस ही नहीं दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय और महान साहित्यकारों में शरीक हैं। 20 साल की उम्र में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हो गई थी। स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम किया, हास्य चित्र कथाएं लिखीं, दुनिया भर में नाटक किए और जबर्दस्त ख्याति अर्जित की। ‘पुश्किन पुरस्कार’ के अलावा उन्होंने अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार-सम्मान हासिल किए। 2 जुलाई, 1904 को उनकी मृत्यु हो गई।

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