गुरुवार, 15 जुलाई 2010

मुस्लिम क्यों करते हैं हज यात्रा?


दुनिया के हर मुसलमान की ख्वाहिश होती है कि वह अपने जीवन काल में एक बार हज की यात्रा अवश्य करे। हज यात्रियों के सपनों में काबा पहुंचना, जन्नत पहुंचने के ही समान है। काबा शरीफ़ मक्का में है। असल में हज यात्रा मुस्लिमों के लिये सर्वोच्च इबादत है। इबादत भी ऐसी जो आम इबादतों से कुछ अलग तरह की होती है। यह ऐसी इबादत है जिसमें काफ़ी चलना-फि रना पड़ता है। सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का और उसके आसपास स्थित अलग-अलग जगहों पर हज की इबादतें अदा की जाती हैं। इनके लिए पहले से तैयारी करना ज़रूरी होता है, ताकि हज ठीक से किया जा सके। इसीलिए हज पर जाने वालों के लिए तरबियती कैंप मतलब कि प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं।

एहराम: हज यात्रा वास्तव में पक्का इरादा यानि कि संकल्प करके 'काबा' की जिय़ारत यानी दर्शन करने और उन इबादतों को एक विशेष तरीक़े से अदा करने को कहा जाता है। इनके बारे में किताबों में बताया गया है। हज के लिए विशेष लिबास पहना जाता है, जिसे एहराम कहते हैं। यह एक फकीराना लिबास है। ऐसा लिबास जो हर तरह के भेदभाव मिटा देता है। छोटे-बड़े का, अमीर-गऱीब, गोरे-काले का। इस दरवेशाना लिबास को धारण करते ही तमाम इंसान बराबर हो जाते हैं और हर तरह की ऊंच-नीच ख़त्म हो जाती है।
जुंबा पर एक ही नाम: पूरी हज यात्रा के दरमियान हज यात्रियों की ज़बान पर 'हाजिऱ हूँ अल्लाह, मैं हाजिऱ हूँ। हाजिऱ हूँ। तेरा कोई शरीक नहीं, हाजिऱ हूँ। तमाम तारीफ़ात अल्लाह ही के लिए है और नेमतें भी तेरी हैं। मुल्क भी तेरा है और तेरा कोई शरीक नहीं है़,...जैसे शब्द कायम रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि इस पूरी यात्रा के दोरान हर पल हज यात्रियों को यह बात याद रहती है कि वह कायनात के सृष्टा, उस दयालु-करीम के समक्ष हाजिऱ है, जिसका कोई संगी-साथी नहीं है। इसके अलावा यह भी कि मुल्को-माल सब अल्लाह तआला का है। इसलिए हमें इस दुनिया में फ़ क़ीरों की तरह रहना चाहिए।

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