गुरुवार, 26 अगस्त 2010

रुह को नेक बनाता है रोजा

मुस्लिम समाज की एक धार्मिक प्रथा है - रमजान में रोजा रखना। रोजा रखना इस्लाम धर्म में बताए गए पांच जरूरी कर्तव्यों में से एक है। 12 वर्ष की उम्र के ऊपर हर मुसलमान रमजान में रोजा रखता है। रमजान के महीने के दौरान मुसलमान रोजा यानि उपवास रखते हैं जिसमें वे भोजन नहीं करते, पानी नहीं पीते, धूम्रपान और अनेक प्रकार की सुख-सुविधाओं का त्याग करते हैं।

रोजों के धार्मिक अहमियत पर विचार करें तो यही बात साफ है कि रोजे के दौरान हर व्यक्ति अल्लाह की इबादत में डूबा होता है। हर कोई अल्लाह के आगे सजदा कर उनकी रहमत चाहता है। अल्लाह के खयालात ही उसे बुरी सोच और कामों से दूर रखते हैं। इस तरह रोजा रोजेदार को हर वक्त नेक बनने का ही सबक देता है। पूरे रमजान माह यही अभ्यास रुह और आदतों को पवित्र बना देता है। इस्लामी मान्यता भी यही है कि अल्लाह ही जानता है कि कौन सच्चा रोजेदार है और उसी पर वह रहमत करता है। इसलिए न केवल रमजान में बल्कि जिंदगीभर नेक दिल से जीना और रहना सीखें।

रमजान के रोजों को न केवल धार्मिक महत्व है, बल्कि इसका वैज्ञानिक महत्व भी है। एक ओर रोजा किसी भी व्यक्ति को शारीरिक लाभ देता है, बल्कि मानसिक रुप से भी मजबूत बनाता है। क्योंकि सालभर के दौरान दैनिक जीवन की आपाधापी में हर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक परेशानियों से गुजरता है। इससे जहां उसका मन अशांत रहता है, वहीं तरह-तरह के खान-पान से भी उसके शरीर के अंग और क्रियाएं प्रभावित होती है। जिसे शरीर में हरारत आना भी कहा जाता है।

किंतु रमजान के नियमित रोजे रखने से व्यक्ति के जेहन में एक ओर अल्लाह का ख्याल रहता है और वह धर्म और अध्यात्म से जुड़ा होता है, वहीं दूसरी ओर रोजे के नियम और संयम से खान-पान शरीर की क्रियाओं को आराम देकर थकान और दोषों को दूर करते हैं। इस प्रकार रमजान के पूरे माह रोजेदार पवित्र विचारों और व्यवहार के बीच रहने से मानसिक शांति और नई शारीरिक ऊर्जा से भर जाता है, जिससे वह न केवल पूरे साल बल्कि जीवन को संतुलित बनाए रखने में सहज हो जाता है।
(साभार दैनिक भास्कर)