रविवार, 8 अगस्त 2010

बलि

दुनिया का दस्तूर है कि लोग ख़ुद की मामूली सी चाहत के लिए दूसरों के गहरे दुख को भी अनदेखा कर देते हैं। जिस समाज में किसी बच्चे की मौत के मुक़ाबले, एक बच्चे के खेल को तरजीह दी जाए, तो फिर क्या उम्मीद कर सकते हैं! पढ़िए, इसी सामाजिक विडंबना का बोध कराती यह रोचक कहानी..

इश्तियाक़ ख़ां कसाई ने अपने लंबे-चैड़े बदन में दिलदारी से अंगड़ाई खींची- ‘मालिक, बहुत मोहब्बतों से पाला है। ऐसे जाने देने पर हमारा भी दिल दुखता है।’ ‘सौदे की बात बोल भाई, इतना जज्बाती ना बन, धंधा कैसे करेगा?’ तपन मजुमदार ने अपनी पतली सी देह हिलाकर अफ़सरी झाड़ने की कोशिश की। इश्तियाक़ ने मेमने की पीठ पर हाथ फेरा- ‘साब अभी दो-चार महीने रुक जाता, तो ये जवान बकरा हो जाता। अभी भी पट्ठे में तीस-पैंतीस किलो गोश्त है।
वो तो आप के रोजे की क़ुर्बानी है, सो राजी हो गया हूं देने को, पर चार सौ पचास से एक रुपया कम नहीं होगा।’ मजुमदार थोड़ा सोच में पड़ गए। इस छोटे से क़स्बे में बहुत कम कसाई की दुकानें हैं। उस पर कोई छोटा जानवर देने को तैयार नहीं होता है। उन्हें घोष बाबू का ध्यान आया। आज दुर्गा पूजा का पहला दिन है। मेमने को पूजा में चढ़ाने के यही कुछ दिन हैं। वो बोले- ‘मियां, मौक़े का फ़ायदा उठा रहे हो, चलो चार सौ में मान जाओ। मैं गाड़ी लेके शाम तक आता हूं, तुम दुकान जल्दी मत उठा लेना आज।’ इश्तियाक़ बालों में हाथ फेरता हुआ वापस अपने खोखे मंे जाकर बैठ गया। मजुमदार साब वापस चले गए।
थोड़ा व़क्त बीता। सूरज की आंच कुछ कम हुई। इश्तियाक़ की आंख लग गई। थोड़ी देर बाद जब उसकी आंख खुली, तो उसका चार-पांच बरस का लड़का झरोखा दुकान पर आ गया था और जानवरों के बीच जाकर खेलने लगा था। इश्तियाक़ अलसाया सा बोला- ‘क्यों बे झरोखे, आज स्कूल से जल्दी कैसे आ गया? फिर कोई मास्टर मर गया क्या?’ लड़का अपने खेल में तल्लीन था। उसने बात अनसुनी कर दी। फिर थोड़ी देर बाद बाप की गोद में चढ़ गया और बोला- ‘अब्बू ये छोटा वाला बकरा मुझे दे दो ना। मैं इसका घोड़ा बनाऊंगा। हाशिम और सुखू दोनों के पास बढ़िया-बढ़िया खिलौने हैं। वो मुझे उनसे खेलने नहीं देते हैं।
मैं अब इस घोड़े की सवारी करूंगा। वो दोनों कैसे मेरे पीछे-पीछे भाग कर आएंगे।’ इश्तियाक़ को बच्चे की बात पर छुड़ी हुई सी हंसी आई- ‘तू ये मेमना ले जा और तेरी अम्मी को मैं भैंसिया दे आता हूं। शहर भर में डंडी फटक कर सवारी करेगी उस पे।’ झरोखा मचल गया- ‘अब्बू तुम मेरी बात कभी नहीं मानते हो। सबके अब्बू उन्हें क्या-क्या लाके देते हैं, मैं तो बस ये छोटा सा घोड़ा मांग रहा हूं। मुझे बस यही चाहिए। अभी चाहिए! बस!’
इश्तियाक़ ने बच्चे को गोदी से उतार के खोखे के बाहर जमीन पर बैठा दिया और नए ग्राहकों से बात करने लगा। झरोखा जोर-जोर से रोने लगा। बाप का इस तरह बेदिली से उसकी अनसुनी करना उसे बहुत ख़राब लगा। दुकान के बग़ल में झाड़ियां थीं। झरोखा ने बाप की नजर बचा के गुप्ती उठाई और झाड़ काटने चल दिया। उसे अपने घोड़े की फ़िक्र थी। उसकी सेहत के लिए ताजी पत्तियां बहुत जरूरी थीं। जिस व़क्त मजुमदार और उनकी पत्नी तारा, इश्तियाक़ की दुकान तक पहुंचे, तब तक अंधेरा होने लगा था।
इश्तियाक़ अभी भी बैठा हुआ था और उसका लड़का मेमने को अपनी गोद में लिए दुनिया से बेख़बर कुछ खेल कर रहा था। मजुमदार की गाड़ी में इश्तियाक़ को एक पांच-छह साल का बच्चा दिखाई दिया। उसकी शक्ल और हरकतें अजीब सी मालूम देती थीं। तारा बंगाली लहजे में जोर से बोली- ‘भाई ओ बकरा ला दो।’ इश्तियाक़ माथे पर बल डाल कर माफ़ी मांगते हुए बोला- ‘ये बकरा तो नहीं मिल सकता अब। मेरा लड़का मचल गया है इसके लिए। अभी ह़फ्ते-दो ह़फ्ते तक ये नहीं मानने वाला।’ तारा को धक्का लगा, वो लड़ने के अंदाज से बोली- ‘तुमने दिन में इसका सौदा किया था। हमें ये पूजा में चढ़ाना है। हमारे लड़के की जिंदगी का सवाल है।’
इश्तियाक़ आवाज थोड़ी पटक के बोला- ‘मेमसाब क्या करूं! छोकरा मान नहीं रहा है। बहुत जिद्दी है। इसकी मां ने बिगाड़ के रखा है इसको। सौदा तो अब नहीं हो पाएगा।’ मजूमदार जो अभी तक चुप थे, बिगड़ उठे- ‘ऐसे कैसे तू अपनी बात पलट सकता है। हमारा पूजा नौ दिन में ख़त्म हो जाएगा। हमारे बच्चे की हालत ठीक नहीं है, उसको बचाने के लिए बस दुआ कर सकते हैं हम।’ इश्तियाक़ सिर खुजा के गद्दी पर बैठ गया। उसने बीड़ी जलाई और कुछ सोचकर बोला- ‘ठीक है साब, दो-चार दिन रुक सकते हो, तो रुक जाओ।
मैं इसे इसकी मां के साथ कुछ दिन के लिए कहीं भेज दूंगा और आपके रोजे ख़त्म होने से पहले इस बकरे को आपके घर ख़ुद से पहुंचा दूंगा।’ तारा कुछ और आगे बोलती इससे पहले मजुमदार ने उसकी हथेली कस के दबा दी। तारा भीगी आंखें लिए कार की तरफ़ बढ़ी। उसने बच्चे को गोद में बिठाया। और पुचकार के बोली- ‘कैसे-कैसे प्यार दे के तुझे बड़ा किया है! ऐसे कैसे चला जाएगा तू! तारा और मजुमदार घर लौट आए। तारा ने बच्चे को उसके कमरे में सुला दिया और फिर तपन के पास लौट आई। तपन चुपचाप खाने के लिए कुछ प्रबंध करने में जुटा था।
उन दोनों में कुछ देर तक कोई बात नहीं हुई, फिर तारा के मन में जैसे यकायक कोई भाव आया और वो जाकर तपन से लिपट गई। जाने कितनी बार उन दोनों के बीच ऐसा दृश्य घट चुका था। अब वो दोनों ऐसी स्थिति में बहुत ज्यादा भावुक नहीं हो पाते थे। तारा एक क्षणिक भावावेश के बाद झटके से तपन से अलग हो गई और फिर लड़ने के अंदाज में बोली- ‘ऐसे सब लोग हमें क्यों धोखा देते हैं? उस कसाई का बच्चा बच्चा है, हमारा बच्चा मिट्टी है? उसका खेल खेल है, हमारे बच्चे का’ फिर तारा को ध्यान आया कि उसे पूजा की बहुत सी तैयारी भी करनी है।
वो फिर बिगड़ी- ‘ये घोष बाबू भी क्या-क्या बता के जाते हैं। अब इस जीवन में अपने हाथों से बलि देना भी लिखा है। मुझे मालूम है, इससे कुछ नहीं होने वाला है। तुम ऐसे ही सबकी बात मान लेते हो। देखना अभी ये दस दिन ऐसे ही निकल जाएगा, इसी दुर्गा पूजा में हमारा बच्चा नहीं रहेगा। देखना कोई कुछ नहीं कर पाएगा- कोई कुछ नहीं कर पाएगा।’ तारा चुपचाप कमरे में पड़ी कुर्सी पर जा के बैठ गई और फिर धीरे-धीरे किसी दूसरे काम में उलझने की कोशिश करने लगी। तपन ने कुछ रखा हुआ खाना गरम किया और मेज पर बैठ के अपने आप अकेला खाने लगा।
तीन दिन बाद बच्चा चल बसा। शाम को सब क्रिया-कर्म के बाद तारा और तपन दोनों अपने-अपने काम में लग गए। आज तारा के चहरे में पहले से कुछ अधिक चमक थी। बहुत दिनों बाद उसका मन हुआ कि कुछ अच्छा खाने को बनाए। तपन भी पूरे दिन शांत था। घर लौटने के बाद वो बच्चे की तस्वीर, एक शीशे के फ्रेम में लगाने की कोशिश करता रहा और फिर उस तस्वीर को ले जाके अपने बिस्तर के सिरहाने रख दिया। रात बीती, वो दोनों उठे, तो उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे बहुत लंबे बुखार के बाद आज कई दिनों बाद वो ठीक होके उठे हों। सवेरे-सवेरे घर की कॉल बेल बजी।
तारा ने जाके दरवाजा खोला, तो सामने इश्तियाक़ खां कसाई अपना मेमना लेके खड़ा था। तारा को देख के वो ऐसे ख़ुश होके बोला, जैसे अपना वादा निभा के उसने कोई बहुत बड़ा काम किया हो- ‘मेम साब बड़ी मुश्किल से छुड़ा पाया। कल ही झरोखे को रिश्तेदारों के वहां भेजा है, उसकी मां तो देने को तैयार ही ना थी। कहती थी, लड़के का रोना नहीं देख सकती मैं। अब आप ही बताओ कोई लड़के भी रोवे हैं? ये तो सब जनानों का काम है।’ इश्तियाक़ अपनी बात पूरी करके ऐसे खड़ा हो गया, जैसे उसने कोई बहुत पते की बात की हो और सामने वाले से दाद मिलने की उम्मीद हो।
तारा को उसकी बात पर हल्की सी हंसी आ गई। बोली- ‘भाई अब ये नहीं चाहिए। इसकी जरूरत नहीं रही। तुम अपने बच्चे के लिए इसको ले जाओ, वो इससे खेलेगा तो ख़ुश होगा।’ इश्तियाक़ खां ने अपनी दाढ़ी खुजाई और बुदबुदाया- ‘सौदे में देर करो तो ऐसा ही होवे है।’ अच्छा जी मेमसाब कोई बात नहीं। उसने शराफ़त से बात ख़त्म की और चलने लगा।
तारा भी मुड़के अंदर आने लगी फिर कुछ उसे ध्यान आया और उसने पलट के इश्तियाक़ को आवाजदी- ‘ओ भाई, कुछ खिलौना पड़ा है घर पे। अपने बच्चे के लिए ले जाओगे तुम?’ इश्तियाक़ अपनी ही धुन में मेमने से बतिया रहा था- ‘बौस तेरा नंबर सबसे पहले है आज।’ उसने तारा की बात सुनी और पलटा- ‘क्यों नहीं मेमसाब? जरूर ले लेंगे। ऐसे बात-दो बात पे उसे घर से भेजना कोई हमें भी अच्छा थोड़े लगता है।
शायद देख के ख़ुश ही हो जावे।’ तारा ने घर का कोना-कोना ढूंढ़ा। एक-एक खिलौना, एक-एक कपड़ा खोज निकाला। एक बड़े थैले में भर कर वो इश्तियाक़ को दे आई। फिर थोड़ी देर बाद उसका कुछ सिंगार करने का मन हुआ। उसने अटैची टटोल के एक साड़ी निकाली। तैयार होकर वो बरामदे के झूले में बैठ गई। थोड़ी देर बाद कुछ गुनगुनाने लगी।
(दैनिक भास्कर )

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