बुधवार, 11 अगस्त 2010

क्यों बजाते हैं ढ़ोल, शादी-विवाह और त्योहारों पर?

जीवन भर इंसान आनंद या खुशी के लिये ही हर तरह की कोशिसें करता है। इंसान की सुख और आनंद की इस अंतिम और असली प्यास, को ध्यान में रखकर ही ऋषि-मुनियों या विद्वान महापुरुषों ने इंसानी जिंदगी में त्योहारों और शादीविवाह जैसे उत्सवों को शामिल किया है। जीवन के संघर्षों और दुखों से परेशान होकर इंसान निराश और हताश न हो जाए यही सोचकर जीवन को त्योहारों और उत्सवों सजाया, संवारा और संभाला गया है।

खुशी और ढ़ोल- संगीत और आंनद के गहरे ताल्लुकात से सभी वाकिफ हैं। संगीत के बगैर किसी भी प्रकार के सेलीबे्रशन की सफलता अधूरी ही मानी जाती है। ढ़ोल, नगाड़े और सहनाई संगीत के पारंपरिक साधन हैं। इनका प्रयोग हमारे यहां बड़े प्राचीन समय से होता आ रहा है। धीरे-धीरे इस क्रिया को परंपरा के रूप में शामिल कर लिया गया। हम देखते हैं कि भगवान शिव के पास भी अपना डमरु था, जो कि तांडव करते समय वे स्वयं ही बजाते भी थे।
जीवन युद्ध और ढ़ोल- संगीत के अन्य वाद्य यंत्रों की बजाय ढ़ोल की अपनी अलग ही खासियतें होती हैं। मन में उत्साह, साहस और जोश जगाने में ढ़ोल का बड़ा ही आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। तभी तो पुराने समय में युद्ध का प्रारंभ भी ढ़ोल-नगाड़ों से ही होता था। ढ़ोल से निकलने वाली ध्वनि तरंगें योद्धओं को जोश और साहस से भर देती थीं।