शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

उसकी तक़दीर का फ़ैसला

. 1974 के मार्च महीने की एक शाम का वाक़या है, हिंदुस्तान की क़ैद से आजाद होने वाले पाकिस्तानी जंगी क़ैदियों की एक खेप लिए हुए एक्सप्रेस ट्रेन मुलतान रेलवे जंक्शन पर आकर रुकी। सबसे पहले जो फ़ौजी जवान गाड़ी से उतरा, वह था अब्दुल रशीद खां, पाकिस्तानी फ़ौज की पंजाब रेजीमेंट का एक सिपाही।

वह बड़ी जल्दी से अपना सामान उठाकर बाहर जाने लगा। इन फ़ौजियों के इस्तक़बाल के लिए आए हुए इनके रिश्तेदारों और एहबाब से सारा प्लेटफार्म खचाखच भरा था। मगर उसे ख़ुशामदीद कहने स्टेशन पर कोई नहीं आया था। उसने किसी को अपने आने की ख़बर ही नहीं दी थी।
वह तो बस जल्द से जल्द अपने घर पहुंचकर, मां, बीवी, भाई और बहनों को एकबारगी हैरत व ख़ुशी में डाल देना चाहता था। इसीलिए वह अपने क़स्बे को जाने वाली बस बिना देर किए पकड़ने के लिए बेताब था। वहां से कई मील पैदल चलकर उसे अपने गांव पहुंचना था। आज तीन साल के बाद उसने अपने वतन की सरजामीन पर क़दम रखा था। सिपाही रशीद जब बस स्टैंड पहुंचा, तो बस छूट ही रही थी। वह लपककर बस में सवार हो गया। बस चल पड़ी तो उसने ख़ुदा का शुक्र अदा किया।
अगर बस छूट जाती, तो दूसरी बस के इंतÊार में उसे एक-एक पल काटना दूभर हो जाता। बस के जरिए और पैदल रास्ता तय करने के लिए उसे कई घंटे लगने थे। शाम हो चुकी थी, और आने वाली रात अंधेरी थी, लिहाजा उसे घर पहुंचने की और भी जल्दी थी। इतने क़रीब पहुंचकर घर से बाहर रात गुजरने की बात तो वह सोच भी नहीं सकता था। उसे बस में खिड़की के पास एक सीट मिल गई, इत्मीनान से बैठने के बाद उसने सारे मुसाफ़िरों पर एक नÊार डाली, सब लोग उसके क़स्बे के ही बाशिंदे थे।
रशीद ख़ुद को अपनों के दरम्यान पाकर ख़ुशी से खिल उठा। उसे लगा कि वह उठकर इन सब से लिपट-लिपट कर और चिल्ला-चिल्लाकर कहे- ‘देखो मैं तुम्हारे पास फिर लौट आया हूं’ अपने भाइयों अपने अजीज के पास। आज फिर अपने वतन, अपने दयार, अपने घर आ गया हूं। मगर वह वैसा न कर सका, अलबत्ता उसकी आंखों में प्यार के अनमोल मोती आंसुओं की शक्ल में देर तक झिलमिलाते रहे। उसने खिड़की के बाहर पीछे भागते हुए प्रकृति के रंगीन नजारे पर निगाहें गड़ा दीं- हरेभरे दरख्तों की ख़ुशनुमा लाइनें आंखों के रास्ते दिल में उतरने लगीं।
खेतों में झूमती हुई फ़सलें और फ़सलों में लहराती हुई हरियाली मुस्कराते हुए फल और फूलों पर इतराती हुई रंगीन तितलियां, निखरी हुई फ़िजा और फ़िजा में उड़ते हुए ख़ुशनुमा परिंदे, गांव के कच्चे-पक्के मकानात और शाम को घर लौटते चौपाये.. ये सब देखकर उसे ऐसा लग रहा था, जैसे वह Êामीन की घुटी-घुटी जिंदगी से आजाद होकर सपनों की दुनिया में आ पहुंचा हो। उसे वतन की मिट्टी से प्यार की ऐसी ख़ुशबू मिल रही थी, जो कस्तूरी के घिरते बादलों को भी शर्मिदा करती हो।
रशीद की आंखें बाहर के दिलकश नाजारे में खोई हुई थीं, मगर जहन के परदे पर एक रंगीन तस्वीर थिरक रही थी। शाहेदा की तस्वीर। शाहेदा, जो उसकी शरीके हयात थी, उसकी जिंदगी , उसकी दुनिया थी। चार साल पहले जब उसकी शादी हुई थी, तो शाहेदा के पास चंद महीने ही रह सका था, कि फ़ौज में भरती होकर जंग पर चला गया था। उसने शाहेदा की जुदाई में एक-एक लम्हा किस तरह काटा था, उसका दिल ही जानता था।
शाहेदा उसके सामने इस तरह आ खड़ी हुई थी, जैसे कोहेक़ाफ़ (काकेशिया का ख़ूबसूरत पहाड़) से कोई परी अचानक उतर आई हो। ख़ूबसूरत चेहरा जिस पर बला की मासूमियत और भोलापन है। घनेरी पलकों के पीछे शराब छलकाती हुई चमकीली आंखें, जो दिल में कटार की तरह उतर जाएं, रसीले होंठ रेश्मी जुल्फ़ें यकायक एक भीनी ख़ुशबू का एहसास उसकी रूह में उतर गया और उसने घबराकर आंखें बंद कर लीं। देर तक वह आसपास की दुनिया से बेख़बर चांद-तारों की दुनिया में खोया रहा।
बस एक झटके के साथ रुकी, और उसके ख्यालात का सिलसिला टूट गया। बस अपनी मंजिल पर पहुंच चुकी थी। मुसाफ़िर उतरने लगे थे। रशीद हड़बड़ा कर बस से उतरा। अपना मु़ख्तसिर सामान कंधे पर लादा और गांव जाने वाले रास्ते पर हो लिया। एक बार उसका दिमाग़ फिर ख्यालों की दुनिया में परवाÊा भरने लगा था- ‘जब वह अपने घर पहुंचेगा, तो काफ़ी रात बीत चुकी होगी। सब लोग सो चुके होंगे, शायद उसकी मां जाग रही हो, क्योंकि उसे यह ख़बर मिलती रही है कि बेटे की जुदाई के ग़म ने उस पर गहरा असर डाला है। वह रातों को उठकर अपने जिगर के टुकड़े की वापसी की दुआएं करती रहती है। अब उसकी आंखों की रौनक लौट आएगी। और यकायक जब वह पहुंचेगा, तो उसकी ख़ुशी का क्या ठिकाना होगा!’
आधी रात को जब वह अपने गांव पहुंचा, तो हर तरफ़ मुक़म्मिल सुकून था। सारा गांव सन्नाटे की चादर ओढ़े हुए सोया था। उसने धीरे से अपने घर के दरवाÊो पर दस्तक दी। दरवाजा खुला, तो वह ख़ुशी से झूम उठा। शाहेदा उसके सामने पूरी ख़ूबसूरती के साथ मौजूद थी। उसने दीवाने की तरह अपनी जाने-हयात को सीने से लिपटा लिया। दोनों की आंखों से आंसू बहने लगे। चंद लम्हे तो वे बेख़ुदी और मदहोशी के आलम में रहे, फिर धीरे-धीरे उन्हें होश आया। कैसी हो शाहेदा? दीदार की आस में अब तक जिंदा हूं वरना!
और घर के सब लोग? अच्छे हैं। आप इतनी रात गए क्यूं चले आए, सुबह आते- शाहेदा के लहजे में डर और घबराहट की झलक थी। क़रीब आकर भी तुमसे दूर रहता? रशीद ने उसकी हसीन आखों में झांकते हुए कहा। अंदर चलिए। सब को जगाती हूं। आज तो हमारे यहां शादी-ब्याह से बढ़कर रतजगा रहेगा। शाहेदा का चेहरा ख़ुशी से जगमगा रहा था। नहीं-नहीं! उन्हें सोने दो और फिर सब जग जाएंगे, तो मैं तुमसे ठीक से बात भी नहीं कर सकूंगा। रशीद ने शाहेदा को रोकते हुए कहा। तो फिर?
लो चलकर बाहरी कमरे में सो लेते हैं। रशीद के होंठों पर एक चंचल मुस्कान बिखर गई और शाहेदा की घनेरी पलकें ख़ुद-बख़ुद झुक गईं। रशीद जब अपने घर के बाहरी कमरे में Êामीन पर मामूली बिस्तर बिछाए पड़ा था, तो भी वह उसे मखमल के गद्दों के बिस्तर से Êयादा मुलायम और आरामदेह लग रहा था। ख़ुशी की एक जबर्दस्त लहर उसके शरीर में दौड़ रही थी। देर तक मिलने-बिछुड़ने, घरवाले और रिश्तेदारों और हंगामाओ-जंग की बातें होती रहीं। देर रात उनकी आंखें लग गईं और वे गहरी नींद में जा पड़े। सुबह चार बजे रशीद के छोटे भाई मजीद की बीवी आसेफ़ा बिस्तर से उठी और बाहर दालान में गाय को चारा डालने चली, तो बाहरी कमरे में शाहेदा को एक मर्द के पहलू में सोते हुए पाया।
मर्द चादर ओढ़े हुए था, जिसका Êयादातर हिस्सा नींद की हालत में जिस्म से अलग हो गया था, अलबत्ता सर और चेहरे को चादर ने छुपा रखा था। उसका एक पैर शाहेदा के ऊपर पर था और शाहेदा का एक हाथ मर्द के सीने पर। ये मंजर देखकर आसेफ़ा को लगा, जैसे उसके बदन से बिजली का नंगा तार छू गया हो। फ़ौरन उलटे पांव वो घर के अंदर भागी, और अपने शौहर मजीद को उठा लाई, फिर उन दोनों की तरफ़ इशारा करते हुए बोली- देख लीजिए अपनी आंखों से। भाभी मोहतरमा कैसा ख़ानदान का नाम रोशन कर रही हैं। फिर उसने नाक सिकोड़ कर और ज्यादा ग़ुस्से से कहा- हम सब की इजाजत ख़ाक में मिला दी इसने। न जाने किस मर्द का पहलू गरमा रही हैं। मजीद के लिए भी नजारा नाक़ाबिले बर्दाश्त था।
ग़मो-ग़ुस्से ने उसे पागल बना दिया और वह मुंह से एक ल़फ्ज निकाले बग़ैर तेजी से घर के अंदर लपका। और फिर दूसरे लम्हे अचानक एक ख़ौफ़नाक धमाके से उस पुरसुकून सुबह का कलेजा दहल गया। Êामीनो-आसमान थर्रा उठे। ग़ुस्से से कांपते हुए मजीद के हाथों में बंदूक़ लराह रही थी, जिसकी नाल से धुआं निकलकर कमरे की फ़िÊा में घुमड़ रहा था और जिससे अभी एक शोला सा लपककर शाहेदा के पहलू में सोए हुए मर्द के सीने में उतर चुका था। जहां से गर्म-गर्म ख़ून का फ़व्वारा उबल रहा था। बंदूक़ के धमाके पर शाहेदा एक वहशतÊादा हिरनी की तरह तड़प कर खड़ी हो गई। उसके मुंह से एक दर्दभरी चीख़ बुलंद हुई और वह सिर्फ़ इतना कह सकी- हाय, तुमने यह क्या किया! अपने भाई को मार डा..ला.. और वह बेहोश होकर एक कटे दरख़्त की तरह अपना दम तोड़ते हुए शौहर के ऊपर जा गिरी। ‘भाई’ का ल़फ्जा सुनकर मजीद के हाथों से बंदूक छूटकर उसके क़दमों में गिर पड़ी।
उसने तड़प कर रशीद के चेहरे से चादर हटाई, तो उसके मुंह से एक दिलख़राश चीख़ निकल गई। ‘मेरा भाईजान’ कहकर वह पागलों की तरह अपने भाई से लिपट गया। रशीद के सीने से ताÊा लहू उबल-उबल कर फ़र्श पर बह रहा था, उसके लब साकेत थे, आंखें खुली हुई थीं और वह आंखें जैसे कह रही थीं- ‘भाई मत रो, तुमने अनजाने में जो क़दम उठाया, वह सही था, ख़ानदान की इÊÊात और मर्यादा की हिफ़ाजत तुम्हारा फ़र्जा था। क़िस्मत के लिखे को कौन टाल सकता है।’रशीद के होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट उभरी और चेहरे पर एक सुकून सा फैल गया- और-और फिर उसकी सर एक तरफ़ ढलक गया। उस सिपाही का सर जो मैदाने-जंग से सही सलामत अपने घर लौटा था।
(‘हुमा’ पत्रिका, दिसंबर 1974 से साभार)