आचार्य श्री देवेंद्र मुनि महाराज
भयानक जंगल में एक झोपड़ी थी उसमें एक संन्यासी रहता था, जो स्वभाव से बड़ा फक्कड़ था। जो भी मिल जाता उसी में संतोष कर लेता था।
एक बार रात्रि में बहुत जोर की वर्षा हुई। वह झोपड़ी का दरवाजा बंद कर सो रहा था। अचानक किसी ने द्वार खटखटाया। संन्यासी ने सोचा इस समय कौन आया है, कहीं कोई जंगली जानवर तो नहीं है।
ऐसे तूफान और मूसलाधार वर्षा में इस जंगल में कौन आ सकता है? वह उठा और दरवाजा खोलकर देखा - सामने एक मानव है। वर्षा से उसके कपड़े तरबतर हो रहे थे। ठंडी हवा का मारा काँप रहा था।
संन्यासी को देखते ही उसने कहा - महाराज! मैं रास्ता भूलकर इधर आ गया हूँ। वर्षा से बचने के लिए आसपास कोई स्थान नहीं है। विश्राम के लिए ठौर मिल जाए तो जीवन भर उपकार मानूँगा, सूर्योदय होने पर चला जाऊँगा।' संन्यासी ने आत्मीयता व्यक्त करते हुए कहा - 'चिंता मत करो। यह कुटिया तुम्हारी ही है, एक आदमी लेट सकता है, दो आदमी अच्छी तरह बैठ सकते हैं आओ हम दोनों सुखपूर्वक बैठेंगे।'
साधु ने बड़े प्रेम से उसको अंदर लिया। द्वार बंद कर दोनों आराम से बैठ गए। कुछ समय व्यतीत होने पर फिर दरवाजे पर थपकियाँ लगी। संन्यासी ने द्वार खोला। पूर्व की भाँति ही भीगता एक आदमी काँप रहा था।
उसने भी रात्रि-विश्राम के लिए निवेदन किया। संन्यासी ने कहा - 'प्रसन्नता से अंदर आ जाओ, इसमें अहसान की कोई बात नहीं है। संकट के समय किसी का भी सहयोग करना मानव का कर्तव्य है। इस कुटिया में आदमी लेट सकता है, दो बैठ सकते हैं। तीन आदमी का एक साथ रहना बड़ा सौभाग्य है। आओ अंदर हम तीनों खड़े रहेंगे।' तीनों अंदर खड़े हो गए कुछ समय पश्चात फिर द्वार को खटखटाने की आवाज आई। संन्यासी ने द्वार खोलकर देखा एक व्यक्ति पूर्ववत ही द्वार पर खड़ा ठिठुर रहा है।
संन्यासी ने कहा 'तुम अंदर आकर खड़े रहो। मैं बाहर खड़ा रहूँगा। तुम बहुत देर से ठिठुरते रहे हो, अब मैं ठिठुरन का अनुभव करूँगा। अंदर तीन से अधिक मनुष्य खड़े नहीं रह सकते।'
संन्यासी ने उस व्यक्ति को अंदर लिया और स्वयं झोपड़ी के बाहर खड़ा हो गया। वह रात भर सर्दी में खड़ा रहा, पर दूसरों के कष्ट निवारण में अद्भुत आनंद का अनुभव उसे हो रहा था। सहयोग मानव का कर्तव्य है। प्राय: मानव दूसरों से सहयोग तो चाहता है। पर दूसरों के लिए त्याग करना नहीं चाहता। उसे सदा स्मरण रखना चाहिए कि मानव समाज की नींव पारस्परिक सहयोग ही है।
भयानक जंगल में एक झोपड़ी थी उसमें एक संन्यासी रहता था, जो स्वभाव से बड़ा फक्कड़ था। जो भी मिल जाता उसी में संतोष कर लेता था।
एक बार रात्रि में बहुत जोर की वर्षा हुई। वह झोपड़ी का दरवाजा बंद कर सो रहा था। अचानक किसी ने द्वार खटखटाया। संन्यासी ने सोचा इस समय कौन आया है, कहीं कोई जंगली जानवर तो नहीं है।
ऐसे तूफान और मूसलाधार वर्षा में इस जंगल में कौन आ सकता है? वह उठा और दरवाजा खोलकर देखा - सामने एक मानव है। वर्षा से उसके कपड़े तरबतर हो रहे थे। ठंडी हवा का मारा काँप रहा था।
संन्यासी को देखते ही उसने कहा - महाराज! मैं रास्ता भूलकर इधर आ गया हूँ। वर्षा से बचने के लिए आसपास कोई स्थान नहीं है। विश्राम के लिए ठौर मिल जाए तो जीवन भर उपकार मानूँगा, सूर्योदय होने पर चला जाऊँगा।' संन्यासी ने आत्मीयता व्यक्त करते हुए कहा - 'चिंता मत करो। यह कुटिया तुम्हारी ही है, एक आदमी लेट सकता है, दो आदमी अच्छी तरह बैठ सकते हैं आओ हम दोनों सुखपूर्वक बैठेंगे।'
साधु ने बड़े प्रेम से उसको अंदर लिया। द्वार बंद कर दोनों आराम से बैठ गए। कुछ समय व्यतीत होने पर फिर दरवाजे पर थपकियाँ लगी। संन्यासी ने द्वार खोला। पूर्व की भाँति ही भीगता एक आदमी काँप रहा था।
उसने भी रात्रि-विश्राम के लिए निवेदन किया। संन्यासी ने कहा - 'प्रसन्नता से अंदर आ जाओ, इसमें अहसान की कोई बात नहीं है। संकट के समय किसी का भी सहयोग करना मानव का कर्तव्य है। इस कुटिया में आदमी लेट सकता है, दो बैठ सकते हैं। तीन आदमी का एक साथ रहना बड़ा सौभाग्य है। आओ अंदर हम तीनों खड़े रहेंगे।' तीनों अंदर खड़े हो गए कुछ समय पश्चात फिर द्वार को खटखटाने की आवाज आई। संन्यासी ने द्वार खोलकर देखा एक व्यक्ति पूर्ववत ही द्वार पर खड़ा ठिठुर रहा है।
संन्यासी ने कहा 'तुम अंदर आकर खड़े रहो। मैं बाहर खड़ा रहूँगा। तुम बहुत देर से ठिठुरते रहे हो, अब मैं ठिठुरन का अनुभव करूँगा। अंदर तीन से अधिक मनुष्य खड़े नहीं रह सकते।'
संन्यासी ने उस व्यक्ति को अंदर लिया और स्वयं झोपड़ी के बाहर खड़ा हो गया। वह रात भर सर्दी में खड़ा रहा, पर दूसरों के कष्ट निवारण में अद्भुत आनंद का अनुभव उसे हो रहा था। सहयोग मानव का कर्तव्य है। प्राय: मानव दूसरों से सहयोग तो चाहता है। पर दूसरों के लिए त्याग करना नहीं चाहता। उसे सदा स्मरण रखना चाहिए कि मानव समाज की नींव पारस्परिक सहयोग ही है।