बुधवार, 22 सितंबर 2010

भागवत: ७३- ७४ : दाम्पत्य में झूठ नहीं होना चाहिए



भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने के लिए सतीदेवी गईं । विचार किया इनकी परीक्षा लूं तो सीता का वेश धर लिया और सोचा ये तो राजकुमार हैं सीता-सीता चिल्ला रहे हैं मुझे पहचान नहीं पाएंगे। सीता बनकर गईं और रामजी ने देखा तो दूर से प्रणाम किया। श्रीराम बोले आपको नमन है माताजी, पिताजी कहां हैं। ओह! सतीजी समझ गईं कि मैं पकड़ी गईं। ये तो मुझे पहचान गए। भागी वहां से, लौटकर आई और अपने पति के पास आकर बैठ गईं।

शंकरजी ने पूछा देवी परीक्षा ले ली? कुछ उत्तर नहीं दिया, झूठ बोल दिया। ''कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।'' इतना झूठ बोला कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया।झूठ बोल गईं अपने पति से। भगवान शंकर ने ध्यान लगाकर देखा कि घटना तो कुछ और हुई है और ये कुछ और बता रही हैं। इन्होनें सबसे बड़ी गलती यह की कि ये सीता बन गई, मेरी मां का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूं। दोनों लौटकर कैलाश आए भगवान ध्यान में बैठ गए।
थोड़े दिन तो सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गए, लंबे रूठ गए, दो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भी, तो मना लेती थी पर इस बार तो स्थायी हो गया । तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैं, ध्यान में चले गए। उसी समय देखा ऊपर से विमान उड़कर जा रहे थे। मालूम हुआ कि पिता दक्ष ने बड़ा भारी यज्ञ किया है, ये सारे देवता उसी में भाग लेने जा रहे हैं। बेटी को चिंता हुई, पिता के घर इतना बड़ा काम और मुझे आमंत्रित नहीं किया। तब उनको ध्यान आया कि श्वसुर-दामाद का बैर चल का रहा है। सती ने कहा- हमको बुलाया नहीं गया लेकिन मैं जाऊंगी।

अहंकार ही पतन का कारण है

पिता दक्ष के यहां यज्ञ की बात सुनकर सतीजी अपने पति शंकरजी से बोलती हैं पिता के घर यज्ञ हो रहा है आप मुझे जाने दीजिए। शंकरजी कह रहे हैं देवी बात समझो, बिना आमंत्रण के नहीं जाना चाहिए। दक्षराज के मन में मेरे प्रति ईश्र्या है, आप मत जाइए। लेकिन सती बोलीं नहीं मैं तो जाऊंगी। शंकरजी ने कहा आप जाएं साथ में ये दो गण भी ले जाएं। ये आपकी रक्षा करेंगे।

वे गईं और जैसे ही वहां पहुंची तो देखा दक्षराज का बड़ा भारी यज्ञ चल रहा था। दक्षराज ने देखा मेरी बेटी आई है तो ध्यान ही नहीं दिया अपनी बेटी पर। माता प्रसूति ने देखा तो बेटी से बोला आ तू बैठ। सतीजी ने कहा मां तू तो लाड़ करती हैं पर यह सब क्या, मेरे पति शंकरजी का आसन नहीं है। उनका स्थान नहीं इस यज्ञ में, यह तो बड़ा भारी अपमान है। तब बड़ा क्रोध आया सतीजी को और क्रोधाग्नि में उन्होंने अपनी देह को भस्म कर दिया। जैसे ही उनकी देह भस्म हुई शंकरजी के गणों ने उपद्रव शुरू कर दिया। दक्ष के सैनिकों ने उनकी पिटाई कर दी। कुटे-पिटे गण आए शंकरजी के पास कैलाश पर। पूरा वृत्तांत सुनाया। शंकरजी को क्रोध आया, जटाएं हिलाईं। वीरभद्र नाम का एक गण पैदा किया, और कहा जाओ ध्वंस कर दो दक्ष के यज्ञ को।
शिवजी तांडव की मुद्रा में आ गए। वीरभद्र ने सारा यज्ञ ध्वंस कर दिया। सारे देवता दौड़ते-भागते ब्रह्मा और विष्णुजी के पास गए। भगवान ने कहा तुमने शिव के प्रति अपराध किया तो यह तो भुगतना ही है। सबने जाकर भगवान शंकरजी से प्रार्थना की कि आप शांत हो जाएं इनको क्षमा कर दें, उन्होंने क्षमा भी किया। इसीलिए उनका एक नाम आशुतोष पड़ा। इस तरह यह कथा हमको यह बता रही है कि दक्ष का अहंकार दक्ष को ले डूबा। सती को जाते-जाते ये बड़ा दु:ख था कि मैं अपने पति का अपमान नहीं देख सकती इसलिए मैं जा रही हूं लेकिन मैं जन्म-जन्म तक इन्हें ही पति चाहती हूं।

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