शनिवार, 11 सितंबर 2010

गुणों के देव : भगवान श्री गणेश

गणेश हमारी संस्कृति के मंगलमूर्ति देव हैं । वैसे तो हमारे समस्त देवी-देवताओं में दातापन है, किन्तु गणेश मंगलदाता हैं। वे सारे काज निर्विघ्न पूर्ण करते हैं। हमारे लोकगीतों में उनकी प्रशस्ति के गीत हैं। मालवी लोकगीतों में तो गणेश की पारस की मूर्ति बनाने की कल्पना है, जिसे छू कर हमारा विकारी जीवन स्वर्ण बन जाए। दरअसल, गणेश हमारे सोच, चिंतन, धारणा और व्यवहार में इसलिए पूजनीय हैं क्योंकि वे गुणों की खान हैं। उनमें समस्त गुण और शक्तियाँ शोभायमान हैं। श्री गणेश अर्थात्‌ श्री गुणेश। वे श्री अर्थात्‌ श्रेष्ठ तो हैं ही, देवताओं में गुणों के देव हैं।

आज जगह-जगह अमंगल का साम्राज्य है। दुर्गुणों का बोल-बाला है। हिंसा, क्रोध और विकारों से भरपूर है पूरा जीवन। विवेक लुप्त है। सहानुभूतियाँ गुम हैं। धर्म के नाम पर आडम्बर शीर्ष पर है। मनुष्य मात्र जैसे अपने लक्ष्य अर्थात्‌ अन्तरदर्शन को भूल गया है। ज्ञान और विवेक ही जब विलुप्त है तो फिर आदमी से दैवोचित व्यवहार की उम्मीद कैसे की जाए? गणेश हमें दैवोचित गुणों को धारण करने की प्रेरणा देते हैं।
सच पूछो तो हमारे देवताओं की पवित्र नज़रों में निहाल करने की शक्तियाँ हैं। इसीलिए तो आज भी उनकी जड़-मूर्तियों के सम्मुख लाखों, हज़ारों लोग सिर टेकते हैं, मन्नतें माँगते हैं और कल्याण की कामना करते हैं। गणेश विघ्न-विनाशक मंगलमूर्ति देव ऐसे देव हैं जिनका दर्शन मात्र हमारे समस्त विकारों का नाश करता है।

गणेश हमारे बोल, संकल्प, दृष्टि, चलन, व्यवहार को पवित्र बनाने वाले परम प्रेरक देव हैं। गणेश की आकृति ही स्पष्ट रूप से सिद्ध करती है कि उनका स्वरूप सचमुच दैवी गुणों की आकृति है। गणेश की आँखें छोटी हैं जो हमें सिखाती है कि हमारी दृष्टि सूक्ष्म हो । गणेश के सूप जैसे कान बताते हैं कि हम दुनिया की बातें सुनें, सबकी सुनें, किन्तु अचल-अडौल बने रहें। गणेश का छोटा मुँह इस बात का प्रतीक है कि हम कम बोलें, कम आकांक्षाएँ रखें।
गणेश का बड़ा सिर विवेक का प्रतीक है। गणेश का बड़ा पेट सूचक है सहनशीलता का, समाने का। विशाल उदर, उदारता का प्रतीक है। गणेश की सूँड अद्‌भुत परख-शक्ति की प्रतीक है। गणेश का वाहन चूहा है। चूहा हमारे साधनों को कुतरता है, काटता है, अर्थात्‌ समर्थ को व्यर्थ बनाता है।
हमें ऐसे तमाम साधनों को अपने वश में करके रखना चाहिए जो व्यर्थ को बढ़ावा देते हैं, उन्हें दबाकर रखना चाहिए, चाहे ये साधन कितने ही छोटे क्यों न हों। कहने का तात्पर्य है कि जब हम गणेश जैसे विकार रहित हो जाएँगे तो स्वयं मंगल-मूरत बन जाएँगे। गणेश की प्रशस्ति और पूजा इसी में है कि हम गणेश के स्वरूप को अपने गुणों में धारण करें।

श्री गणेश : एक नजर में
* लाल व सिंदूरी रंग प्रिय है।
* दूर्वा के प्रति विशेष लगाव है।
* चूहा इनका वाहन है।
* बैठे रहना इनकी आदत है।

* लिखने में इनकी विशेषज्ञता है।
* पूर्व दिशा अच्छी लगती है।
* लाल रंग के पुष्प से शीघ्र खुश होते हैं।
* प्रथम स्मरण से कार्य को निर्विघ्न संपन्न करते हैं।
* दक्षिण दिशा की ओर मुँह करना पसंद नहीं है।
* चतुर्थी तिथि इनकी प्रिय तिथि है।
* स्वस्तिक इनका चिन्ह है।
* सिंदूर व शुद्ध घी की मालिश इनको प्रसन्न करती है।
* गृहस्थाश्रम के लिए ये आदर्श देवता हैं।
* कामना को शीघ्र पूर्ण कर देते हैं।

क्या है श्री सिद्धि विनायक व्रत
भारतीय संस्कृति के सुसंस्कारों में किसी कार्य की सफलता हेतु पहले उसके मंगला चरण या फिर पूज्य देवों के वंदना की परम्परा रही है। किसी कार्य को सुचारू रूप से निर्विघ्नपूर्वक सम्पन्न करने हेतु सर्वप्रथम श्रीगणेश जी की वंदना व अर्चना का विधान है। इसीलिए सनातन धर्म में सर्वप्रथम श्रीगणेश की पूजा से ही किसी कार्य की शुरूआत होती है।

श्रीगणेश पूजा अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण व कल्याणकारी है। चाहे वह किसी कार्य की सफलता के लिए हो या फिर चाहे किसी कामनापूर्ति स्त्री, पुत्र, पौत्र, धन, समृद्धि के लिए या फिर अचानक ही किसी संकट मे पड़े हुए दुखों के निवारण हेतु हो। अर्थात्‌ जब कभी किसी व्यक्ति को किसी अनिष्ट की आशंका हो या उसे नाना प्रकार के शारीरिक या आर्थिक कष्ट उठाने पड़ रहे हो तो उसे श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक किसी योग्य व विद्वान ब्राह्मण के सहयोग से श्रीगणपति प्रभु व शिव परिवार का व्रत, आराधना व पूजन करना चाहिए।
इस वर्ष इस श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत 11 सितंबर 2010, दिन शनिवार को मनाया जाएगा इसे श्रीगणेश चतुर्थी, पत्थर चौथ और कलंक चौथ के नाम भी जाना जाता है। यह प्रति वर्ष भाद्रपद मास को शुक्ल चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है। तृतीया तिथि का क्षय होने के कारण द्वितीया युक्त चतुर्थी में यह व्रत किया जाएगा। चतुर्थी तिथि को श्री गणपति भगवान की उत्पत्ति हुई थी इसलिए इन्हें यह तिथि अधिक प्रिय है। जो विघ्नों का नाश करने वाले और ऋद्धि-सिद्धि के दाता हैं। इसलिए इन्हें सिद्धि विनायक भगवान भी कहा जाता है।
पूजा विधिः- जो गणेश व्रत या पूजा करता है उसे मनोवांछित फल तथा श्रीगणेश प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। पूजन से पहले नित्यादि क्रियाओं से निवृत्त होकर शुद्ध आसन में बैठकर सभी पूजन सामग्री को एकत्रित कर पुष्प, धूप, दीप, कपूर, रोली, मौली लाल, चंदन, मोदक आदि एकत्रित कर क्रमश: पूजा करें। भगवान श्रीगेश को तुलसी दल व तुलसी पत्र नहीं चढ़ाना चाहिए। उन्हें, शुद्ध स्थान से चुनी हुई दूर्वा को धोकर ही चढ़ाना चाहिए।
श्रीगणेश भगवान को मोदक (लड्डू) अधिक प्रिय होते हैं इसलिए उन्हें देशी घी से बने मोदक का प्रसाद भी चढ़ाना चाहिए। श्रीगणेश स्त्रोत से विशेष फल की प्राप्ति होती है। श्रीगणेश सहित प्रभु शिव व गौरी, नन्दी, कार्तिकेय सहित सम्पूर्ण शिव परिवार की पूजा षोड़षोपचार विधि से करना चाहिए। व्रत व पूजा के समय किसी प्रकार का क्रोध व गुस्सा न करें। यह हानिप्रद सिद्ध हो सकता है, श्रीगणेश का ध्यान करते हुए शुद्ध व सात्विक चित्त से प्रसन्न रहना चाहिए।
शास्त्रानुसार श्रीगणेश की पार्थिव प्रतिमा बनाकर उसे प्राणप्रति‍ष्ठित कर पूजन-अर्चन के बाद विसर्जित कर देने का आख्यान मिलता है। किन्तु भजन-कीर्तन आदि आयोजनों और सांस्कृतिक आयोजनों के कारण भक्त 1, 2, 3, 5, 7, 10 आदि दिनों तक पूजन अर्चन करते हुए प्रतिमा का विसर्जन करते हैं। 11 सितंबर को प्रातः कालीन समय से ही श्रीगणेश का पूजन-अर्चन का शुभारंभ हो जाएगा। श्रीगणेशोत्सव की महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात आदि स्थानों में बड़ी ही धूम होती है।
भक्तगत यह ध्यान दें, कि किसी भी पूजा के उपरांत सभी आवाहित देवताओं की शास्त्रीय विधि से पूजा-अर्चना करने के बाद उनका विसर्जन किया जाता है, किन्तु श्री लक्ष्मी और श्रीगणेश का विसर्जन नहीं किया जाता है। इसलिए श्रीगणेश जी की प्रतिमा का विसर्जन करें, किन्तु उन्हें अपने निवास स्थान में श्री लक्ष्मी जी सहित रहने के लिए निमंत्रित करें।
पूजा के उपरांत अपराध क्षमा प्रार्थना करें, सभी अतिथि व भक्तों का यथा व्यवहार स्वागत करें और पूजा कराने वाले ब्राह्मण को संतुष्ट कर यथा विधि पारिश्रामिक (दान) आदि दें, उन्हें प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर दीर्घायु, आरोग्यता, सुख, समृद्धि, धन-ऐश्वर्य आदि को बढ़ाने के योग्य बनें।