मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

भागवत: १०३: गुरु ही जीवन को सफल बनाता है

अब आगे राजा परीक्षित ने प्रश्न किया कि देवताओं के किस अपराध के कारण बृहस्पति ने अपना पुरोहित पद छोड़ा। तब शुकदेवजी ने बताया कि त्रिलोक की संपदा प्राप्त कर इंद्र को प्रमाद हो गया था। एक बार इंद्र अपनी सभा में इंद्राणी के साथ उच्चासन पर विराजमान थे। उनका यशोगान हो रहा था और उसी समय देवगुरु बृहस्पतिजी सभा में पधारे।किंतु इंद्र ने उनका उचित आदर-सत्कार नहीं किया। बृहस्पतिजी ने इस अपमान का अनुभव किया और वे चुपचाप वहां से चले गए।

इंद्र को जब अपनी भूल का ज्ञान हुआ तो वे बृहस्पतिजी से क्षमायाचना की योजना बनाने लगे लेकिन बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए। दैत्यों को जब यह सूचना मिली कि देवगुरु बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए हैं तो उन्होंने तुरंत अपने गुरु शुक्राचार्य की अनुमति से देवताओं पर आक्रमण कर दिया और उन्हें पराजित कर दिया। इंद्र ने बृहस्पति का अपमान किया यह तो अनुचित हुआ लेकिन बृहस्पति उस बात को हृदय में रखकर अपना स्थान छोड़ गए, विलुप्त हो गए। उनके जाने से देवताओं पर आक्रमण हो गया। क्या बृहस्पति जी ने यह उचित किया ?
बृहस्पतिजी का यह सोचना कि इंद्र ने मुझे प्रणाम नहीं किया। इंद्र और देवता मुझे गुरु मानते हैं, तो उन्होंने अपने सम्मान की अपनी स्थिति की जैसी तुलना की ऐसी हम न कर बैठें। वो युग देवताओं का था। वह तो दुनिया उनकी निराली है लेकिन उनकी कथा से हम अपने लिए कुछ समझ हासिल कर सकते हैं। इंद्र की दृष्टि से बृहस्पति ने अपने को देखा। बृहस्पति गुरू हैं वो लीला कर रहे हैं, लेकिन कम से कम हम को यह संकेत मिले। सभी देवगण इंद्र के नेतृत्व में ब्रह्माजी के पास पहुंचे क्योंकि बृहस्पतिजी लुप्त हो गए थे और दैत्यों ने आक्रमण कर दिया था। तब ब्रह्माजी ने समझाया कि गुरु का अपमान किया है तो फल तो भुगतना होगा।

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