गुरुवार, 18 नवंबर 2010

कुशल प्रबंधक

नीरज ने शनिवार के मेटिनी शो की टिकटें अपनी पत्नी के हाथ में रखी ही थीं कि मोबाइल की घंटी बज उठी। उधर से चाचाजी की मृत्यु का दुखद समाचार मिला। चाचाजी का चौथा भी शनिवार को ही तीन बजे था। दोनों का समय तो एक ही है।
अब तो फिल्म देखने जा नहीं सकते? पत्नी के स्वर में चाचाजी की मृत्यु से अधिक फिल्म न जा पाने का दर्द व निराशा स्पष्ट थी। वह कई दिनों से इस फिल्म को देखने का इंतजार जो कर रही थी।
नीरज भी अजीब असमंजस में पडा बस इतना ही कह पाया हां अब कैसे जा सकते हैं? शनिवार को तीन बजे पति पत्नी चाचाजी के घर पहुंच गये। अभी उन्हें बैठे हुए दस मिनट ही हुए थे कि नीरज ने चाची को कान में कहा चाची दरअसल मेरे एक दोस्त के पिताजी का चौथा भी आज ही तीन बजे है।
हमने सोचा दोनों जगह हो लेंगे। इसलिये हमें जरा जल्दी जाना होगा रास्ते में पत्नी ने हैरानी से पूछा अब ये चौथा किसका निकल आया? अरे जल्दी करो, सिनेमा हाल यहां से दस मिनट की दूरी पर है। हम लोग टाइम से पहुंच जायेंगे।
नीरज ने स्कूटर तेज करते हुये कहा। दस मिनट बाद दोनों हाल के अंदर थे। पत्नी अपने योग्य पति की कुशल प्रबंध क्षमता पर मुग्ध थी।

उन्मुक्तता
कॉलेज में प्रवेश करते ही उसे लगा, कि अब वह उन्मुक्त वातावरण में स्वच्छंद परिन्दे की भांति विचरण कर सकेगा, साथ ही उसे माध्यमिक स्तर के स्कूल की कैद से छुटकारा मिल चुका है, हां अनुशासन के डंडे से वह भयाक्रान्त रहता था।
मगर सायंकाल में जैसे ही उसकी नजर सांध्य दैनिक के मुख्य समाचार पर पडी, तो उसके पैरों तले की धरती खिसक गई। समाचार शीर्षक था- महाविद्यालय में रैगिंग का कहर, दो छात्र गंभीर रूप से घायल। वह विचारमग्न था- क्या उन्मुक्तता यही है? अब उन्मुक्त वातावरण ही उसके भीतर भय उत्पन्न कर रहा था।

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