शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

सरकार को लग गई प्याज की झांस

प्याज की बढ़ती कीमतों पर केंद्र सरकार ने जिस तरह की सक्रियता दिखाई, वह अभूतपूर्व है। बढ़ती कीमतों को रोकने के लिए पहले भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों ने कदम उठाए हैं, लेकिन इस बार जिस तरह से प्याज की कीमत को नियंत्रित करने के लिए सरकार सक्रियता दिखा रही है, वैसी पहले कभी नहीं देखी गई। हालांकि उपभोक्ता मामले के मंत्री शरद पवार ने पहले यह कहकर लोगों के रोंगटे खड़े कर दिए थे कि तीन सप्ताह तक प्याज की कीमतों का यही हाल रहेगा।
पवार के बयान के बाद केंद्र सरकार ने एक के बाद एक इतने कदम उठाए कि थोक बाजार में इसकी कीमतों पर तत्काल असर पड़ा। सबसे पहले तो इसके निर्यात पर रोक लगी। फिर इसके आयात पर लगाए जा रहे आयात शुल्क को ही समाप्त कर दिया गया। नैफेड भी अपने स्तर पर सक्रिय हो गया और भारतीय रेल ने तो प्याज की ढुलाई को प्राथमिकता में सबसे ऊपर स्थान दे डाला। रेलवे बोर्ड ने एक प्याज प्रकोष्ठ का ही गठन कर डाला, ताकि प्याज की ढुलाई में देरी न हो।
केंद्र ने राज्य सरकारों से छापेमारी के जरिये प्याज की जमाखोरी पर तत्काल अंकुश लगाने का आह्वान भी कर डाला और राष्ट्रीय राजधानी में धड़ाधड़ छापे भी पड़ने लगे। सरकार की इस तेजी की अकेली वजह यह है कि प्याज की कीमतों में देश की राजनीति की धारा बदल देने की क्षमता रही है। तेल कीमतों के झटकों की तरह देश को प्याज की कीमतों का झटका भी लगता है, लेकिन तेल के झटके राजनीति को उतना नहीं झकझोरते, जितना प्याज के झटके झकझोरते हैं।
देश की राजनीति को प्याज का सबसे बड़ा झटका करीब 31 साल पहले 1979-80 मे लगा था। दिसंबर का ही महीना था और लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हो रहे थे। उस समय इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर थीं। श्रीमती गांधी ने प्याज की बढ़ी कीमतों को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया। हालांकि सच यह भी था कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद लोगों को महंगाई के मसले पर बहुत राहत मिल रही थी। अनेक खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ने के बजाय घट गई थीं। चीनी भी सस्ती हो गई थी।
आज की तरह उस समय महंगाई कोई समस्या नहीं थी। जनता पार्टी में विभाजन के कारण पहले मोरारजी भाई और फिर चौधरी चरण सिंह की सरकार के पतन के बाद चुनाव हो रहे थे। अन्य चीजों की कीमतें नियंत्रण में होने के बावजूद प्याज महंगे हो गए थे। उसी को मुद्दा बनाकर इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को लोकसभा में दो तिहाई से भी ज्यादा का बहुमत दिलाने में सफलता हासिल कर ली थी। उनकी पार्टी को 340 से ज्यादा सीटें मिली थीं। चुनाव जीतने के बाद इंदिरा गांधी ने उस चुनाव को ओनियन चुनाव तक कह डाला था।
दूसरी बार फिर कांग्रेस को ही प्याज के झटके का चुनावी लाभ मिला। वाकया 1998 का है। दिल्ली और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। दोनों राज्यों में भाजपा की सरकारें थीं। नवंबर का महीना था और प्याज की कीमतें आसमान छूने लगी थीं। तब केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार नहीं थी। उस समय भी कांग्रेस ने प्याज की कीमतों को चुनावी मुद्दा बना डाला। दोनों राज्यों की भाजपा सरकारें सत्ता से बाहर हो गईं। यानी प्याज ने एक बार नहीं, बल्कि दो बार यह साबित किया है कि उसमें सत्ता बदल देने की ताकत है।
प्याज भारत के लोगों का प्रिय आहार है और उसका कोई विकल्प भी उनके पास नहीं है। यदि आलू महंगा हुआ, तो उसकी जगह दूसरी सब्जियों से काम चलाया जा सकता है। यदि कोई दूसरी सब्जी महंगी हुई, तो आलू या किसी तीसरी सब्जी से काम चलाया जा सकता है, लेकिन प्याज की जगह लेने की क्षमता किसी और सब्जी में है ही नहीं। यही कारण है कि जब प्याज महंगा होता है, तो उसकी रसोई में अनुपस्थिति लोगों को रुला देती है और सब्जी को बेस्वाद बना देती है।
इस समय कोई चुनाव नहीं हो रहे हैं। कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव भी चार-पांच महीने बाद ही होंगे। इसलिए फिलहाल केंद्र सरकार में शामिल पार्टियों को किसी चुनावी हार का खतरा नहीं है। इसके बावजूद शरद पवार का वह बयान कि तीन सप्ताह तक प्याज सस्ता नहीं होगा, केंद्र सरकार को हिला गया। इसका कारण यह है कि उस दिन प्याज 80 से 100 रुपये प्रति किलो तक बिक रहा था। उस बयान के बाद जमाखोरी को और भी बढ़ावा मिलना लाजिमी था और उसके कारण प्याज और महंगे ही होते।
उतनी बड़ी कीमतों पर प्याज को रखने से केंद्र सरकार के खिलाफ कैसे माहौल बनता, इसके बारे में कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा और कौन जान सकता है। उन्हें पता है कि पूरा विपक्ष 2-जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों के भ्रष्टाचार के खिलाफ जेपीसी जांच की मांग नहीं माने जाने के कारण देश भर में आंदोलन करने जा रहा है। प्याज की बढ़ी कीमतें उनके आंदोलन की आग में घी का काम कर सकती हैं। इसके कारण ही केंद्र सरकार ने प्याज की बढ़ती कीमतों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
केंद्र सरकार लोगों को तेल का झटका भी देने वाली थी। 22 दिसंबर को ही डीजल और रसोई गैस की कीमतों से नियंत्रण हटाने संबंधित फैसला किया जाना था। प्याज के झटके खा रहे लोगों को तेल का झटका भी देना केंद्र सरकार ने मुनासिब नहीं समझा और 22 तारीख को होने वाले फैसले को आगे के लिए टाल दिया।
केंद्र सरकार ने प्याज की कीमतों पर नियंत्रण करने के लिए जो तत्परता दिखाई, वैसी ही तत्परता की उम्मीद लोग उसे अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर अंकुश लगाने की भी करेंगे। आने वाले महीनों में अन्य खाद्य पदार्थो की कीमतों में वृद्धि की प्रवृत्ति बन सकती है, क्योंकि इस साल मानसून त्रुटिपूर्ण रहा है और उसके कारण अनेक खाद्य पदार्थो के उत्पादन पर असर पड़ा है।
उत्पादन पर असर तो थोड़ा पड़ता है, लेकिन जमाखोरी के कारण कीमतें कृत्रिम रूप से और भी बढ़ा दी जाती हैं और फिर मुनाफाखोरों की चांदी हो जाती है। सरकार को उनके खिलाफ भी युद्ध छेड़ना चाहिए। प्याज की झांस से पीड़ित सरकार ने तो इतना साबित ही कर दिया है कि यदि वह चाहे, तो कीमतों का बेहतर प्रबंधन कर सकती है।
उपेन्द्र प्रसाद

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