गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

भागवत १५४

जब कंस ने देवकी व वसुदेव से क्षमा मांगी
पं. विजयशंकर मेहता
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि वसुदेव भगवान श्रीकृष्ण को गोकुल छोड़ आए और योगमाया को अपने साथ कारागार में ले आए। किसी को इसका भान तक नहीं हुआ। जब कारागार में से शिशु के रोने की आवाज आई तो द्वारपालों की नींद टूट गई और वे तुरंत कंस के पास गए और देवकी की आठवीं संतान के जन्म की बात बताई। यह सुनकर कंस बड़ा डर गया क्योंकि उसे पता था कि देवकी की आठवीं संतान ही मेरा वध करेगी। फिर भी वह गिरते-पड़ते कारागार तक पहुंचा।

जब उसे मालूम हुआ कि देवकी की आठवीं संतान तो कन्या है तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उस कन्या को उठाया और जैसे ही पत्थर पर पटकने लगा वह कन्या हवा में उड़ गई और उसने अष्टभुजा देवी का रूप धारण कर लिया। उसके हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा थे। देवी योगमाया ने कंस को बताया कि तेरा काल कहीं ओर जन्म ले चुका है। इतना कहकर वह अन्तर्धान हो गई। देवी की यह बात सुनकर कंस ने देवकी और वसुदेव को कैद से छोड़ दिया और अपने किए पर पश्चाताप करने लगा। कंस ने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजी के चरण पकड़ लिए और वह तरह-तरह से उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा।
जब देवकी ने देखा कि भाई कंस को पश्चाताप हो रहा है तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। जिनके गर्भ में भगवान ने निवास किया व जिन्हें भगवान के दर्शन हुए। उन देवकी व वसुदेव के दर्शन का ही फल था कि कंस के ह्रदय में सद्गुणों का उदय हो गया। जब तक कंस देवकी व वसुदेव के सामने रहा तब तक ये सद्गुण रहे। दुष्ट मंत्रियों के बीच जाते ही वह फिर पहले जैसा दुष्ट हो गया।
क्रमश:...

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