शनिवार, 22 जनवरी 2011

भागवत १७१: जब श्रीकृष्ण ने मुक्ति दी कुबेरपुत्रों को

जब माता यशोदा ने बालकृष्ण को ओखल से बांध दिया तब कृष्ण वृक्ष रूप में शापित जीवन बिताने वाले कुबेर के पुत्र नलकुबेर और मणिग्रीव के उद्धार करने के विचार से मूसल खींचकर वृक्षों के समीप ले गए और दोनों के मध्य से स्वयं निकलकर ज्यों ही जोर लगाया कि दोनों वृक्ष उखड़ गए और इन दोनों का उद्धार हो गया।

शुकदेवजी ने कहा-परीक्षित। नलकुबेर और मणिग्रीव। ये दोनों धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और इनकी गिनती रुद्र भगवान के अनुचरों में भी होती थी। इससे उनका घमंड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मंदाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत हो गए थे। बहुत सी स्त्रियां उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गए और जल क्रीडा करने लगे। संयोगवश उधर से देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने यक्षपुत्रों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं।
इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आएंगे। तभी से वे वृक्षयोनि में अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे थे।

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