रविवार, 2 जनवरी 2011

दो कहानियाँ

तीन गहने
ईश्वरचंद्र विद्यासागर का बचपन बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीर सिंह गांव में बीता। एक बार ईश्वरचंद्र के मन में सवाल उठा कि गांव में सभी महिलाएं अच्छे - अच्छे गहने पहनती हैं , लेकिन उनकी मां कभी कोई गहना क्यों नहीं पहनती। एक दिन उन्होंने मां से बड़े प्यार से पूछा , ' मां , तुम्हें कौन - कौन से गहने अच्छे लगते हैं ?' मां हंसती हुई बोली , ' क्यों पूछ रहे हो बेटा ?' ईश्वर चंद्र ने कहा , ' जब मैं बड़ा होऊंगा न , तो तुम्हारे लिए ढेर सारे गहने बनवाऊंगा। ' यह सुन कर मां ने कहा , ' बेटा , मुझे बहुत सारे गहने तो नहीं चाहिए मगर तुम बनवा सको तो मेरे लिए तीन गहने अवश्य बनवाना। ' ईश्वरचंद्र ने पूछा , ' बताओ न मां , वे तीन गहने कौन - कौन हैं। '
मां बोली , ' बेटा , पहला गहना यह है कि तुम बड़े होकर गांव में एक स्कूल बनवाना। यहां एक भी स्कूल नहीं है। गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। दूसरा गहना यह होगा कि गांव में एक दवाखाना बनवाना और तीसरा गहना यह होगा कि तुम यहां के अनाथ और गरीब बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था करना। मुझे यही गहने सबसे प्रिय हैं। ' यह सुन कर ईश्वरचंद्र की आंखों में आंसू आ गए।
वह बोले , ' मां , मैं आप की इच्छानुसार आप के ये तीनों गहने अवश्य बनवाऊंगा। ' उन्होंने उसी समय प्रण किया कि जब तक मां की इच्छा पूरी नहीं होगी वह दूसरा कोई काम नहीं करेंगे। बड़े होने पर उन्होंने सबसे पहले मां के नाम पर भगवती देवी विद्यालय की स्थापना की , फिर एक दवाखाना बनवाया और ऐसी व्यवस्था की कि गांव के गरीब और अनाथ बच्चे कभी भूखा न सोएं। उनके काम की प्रशंसा सुन कर एक दिन एक विद्वान उनके योगदान की सराहना करने आए। उन्होंने कहा , ' तुम्हारी समझ बहुत अच्छी है जो ऐसा काम कर रहे हो। ' ईश्वचंद्र ने कहा , ' यह मेरी समझ नहीं है। यह तो बचपन में मां की दी हुई शिक्षा का फल है। '

अहंकार का अंत
यह वैदिक युग की कथा है। सिंधु नदी के किनारे एक वन में किसी महर्षि के आश्रम में दो शिष्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। गुरु उन दोनों के प्रति काफी स्नेह रखते थे। वह कोशिश करते थे कि दोनों को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान उपलब्ध कराएं। कई वर्षों तक कड़ी साधना करने के बाद दोनों शिष्य अपने - अपने विषयों के प्रकांड विद्वान बन गए। पर जल्दी ही दोनों को अपनी विद्वत्ता पर अहंकार हो गया और दोनों एक दूसरे से ईर्ष्या करने लगे। बात - बात में वे एक - दूसरे से बहस करने लगते या एक - दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते। एक दिन उनके गुरु स्नान करने के लिए गए थे।
जब थोड़ी देर बाद वह आश्रम लौटे तो दोनों शिष्यों को आपस में झगड़ते हुए पाया। दोनों ही एक दूसरे को आश्रम की सफाई करने के लिए कह रहे थे। यह देखकर महर्षि हैरान हो गए। उन्होंने शिष्यों से झगड़े का कारण पूछा। एक शिष्य बोला , ' गुरुदेव , मैं इससे विद्वान और श्रेष्ठ हो गया हूं इसलिए सफाई जैसा छोटा काम इसे करना चाहिए। ' दूसरे शिष्य ने भी गुरु को वही बात कही कि वह दूसरे से श्रेष्ठ है इसलिए सफाई का काम उसे शोभा नहीं देता। दोनों की बातें सुनकर महर्षि मुस्कराते हुए बोले , ' तुम दोनों ने बिल्कुल ठीक कहा। तुम दोनों वास्तव में विद्वान और श्रेष्ठ हो गए हो , इसलिए सफाई जैसा छोटा काम अब मैं किया करूंगा। ' यह सुनते ही दोनों शिष्यों की आंखें खुल गईंं। गुरु के दिए संस्कार जाग उठे। अहंकार चूर - चूर हो गया। फिर दोनों ही आश्रम की सफाई करने लगे।

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