बुधवार, 23 मार्च 2011

भागवत २१५-यह कहानी आपको जीवन के भीतर की महाभारत दिखाएगी

सच पूछो तो धृतराष्ट्र में अपने दुष्ट पुत्रों की इच्छा के विपरीत कुछ भी करने का साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टों की सलाह के अनुसार ही काम करते थे। अक्रूरजी को कुन्ती और विदुर ने यह बतलाया कि धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि पाण्डवों के प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देख-देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवों से ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवों का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। अब तक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों पर कई बार विषदान आदि बहुत से अत्याचार किए हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं।
यह कथा हमें हमारे जीवन के भीतर चल रही महाभारत को दिखाएगी। हमारा मन भी एक कुरुक्षेत्र है, जिसमें हर समय विचारों, भावनाओं और न जाने कितने सवालों का युद्ध चलता रहता है। यह कथा हमें इसी द्वंद्व में जीना और जीतना सिखाएगी। जब अक्रूरजी कुन्ती के घर आए, तब वह अपने भाई के पास जो बैठी। अक्रूरजी को देखकर कुन्ती के मन में अपने मायके की स्मृति जग गई और नेत्रों में आंसू भर आए।
उन्होंने कहा - प्यारे भाई! क्या कभी मेरे मां-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुल की स्त्रियां और सखी-सहेलियां मेरी याद करती हैं? मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयों को भी याद करते हैं? मैं शत्रु के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूं। मेरे बच्चे बिना बाप के हो गए हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहां आकर मुझको और इन अनाथ बालकों को सांत्वना देंगे? अपने बच्चों के साथ दुख पर दुख भोग रही हूं। तुम्हारी शरण में आई हूं। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चों को बचाओ। श्रीकृष्ण को स्मरण करके अत्यंत दुखित हो गई और रोने लगी।
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