शनिवार, 12 मार्च 2011

ये फर्क है जीने और रहने में....

रहने और जीने में फर्क है। रहते पशु भी हैं लेकिन जीने की संभावना सिर्फ मनुष्यों में होती है। कोई पशु अच्छा होगा तो आज्ञाकारी हो जाएगा, थोड़ी अधिक सेवा कर देगा। इससे ज्यादा वह और कुछ नहीं हो सकता लेकिन मनुष्य के पास हमेशा यह संभावना बनी रहेगी कि वह अपने ही मनुष्य होने का अतिक्रमण कर ले।
इसीलिए मनुष्य होना गौरव की बात है। और हमारा सबसे बड़ा गौरव यह होना चाहिए कि हम इस धरती को जीते-जी क्या देकर जाएंगे। हमारे लेने की सूची बहुत लम्बी है लेकिन देने का हिसाब छोटा और गड़बड़ है। क्या दिया जाए इस पर कभी-कभी भ्रम भी हो जाता है। इसीलिए महापुरुषों की जिंदगी में झांक लेना चाहिए। वे हमें सिखा गए क्या और कैसे दिया जा सकता है। ऐसा ही मनुष्य का एक जीवन जिया था गांधीजी ने। जो दिया था वैसा कोई भी व्यक्ति दे सकता है बस, गांधीजी के निकट जाना होगा। गांधी पूरी तरह आत्मा पर जिए थे। बाहर और भीतर का अद्भुत संतुलन उनके व्यक्तित्व में था। उनके भौतिक निर्णयों पर मतभेद हो सकते हैं लेकिन उनका अध्यात्म निर्विवाद था। उन्होंने जीवन को सिर्फ शरीर से नहीं जोड़ा बल्कि आत्मा से सम्बद्ध कर दिया था। और वे इस संसार को वह दे गए जो आश्चर्य में डालता है। जो लोग दुनिया को कुछ श्रेष्ठ देना चाहते हैं उन्हें पहले अपने भीतर स्पष्ट होना पड़ेगा।
जितना हम अपने केन्द्र से जुड़ेंगे जो कि भीतर होता है उतना ही हम परिधि पर पड़े हुए संसार को अच्छा दे सकेंगे। अभी हम उल्टा कर जाते हैं। संसार को केन्द्र में रखते हैं और खुद परिधि पर आ जाते हैं। इसीलिए हमारा कॉन्ट्रीब्यूशन भी उल्टा हो जाता है। बेहतर देने के लिए बेहतर होना ही पड़ेगा। जो भीतर जाकर हुआ जाता है।

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