शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

भागवत २३४- २३५

सुखी रहने के लिए जरूरी है,अपने हक में ही संतुष्ट रहे
पं.विजयशंकर मेहता
जब पांडव वन में चले गए तब धृतराष्ट्र को बहुत चिंता होने लगी। धृतराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और उनसे कहा - भाई विदुर तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्य जैसी शुद्ध है। तुम धर्म को बहुत अच्छे से समझते हो। कौरव और पांडव दोनों ही तुम्हारा सम्मान करते हैं। अब तुम कुछ ऐसा उपाय बताओं की जिससे दोनों का ही भला हो जाए। प्रजा किस प्रकार हम लोगों से प्रेम क रे। पाण्डव भी गुस्से में आकर हमें कोई हानि नहीं पहुंचाएं। ऐसा उपाय तुम बताओ। विदुरजी ने कहा अर्थ, धर्म और काम इन तीनों फल की प्राप्ति धर्म से ही होती है।राज्य की जड़ है धर्म आप धर्म की मर्यादा में रहकर अपने पुत्रों की रक्षा कीजिए। आपके पुत्रों की सलाह से आपने भरी सभा में उनका तिरस्कार किया है। उन्हें धोखे से हराकर वनवास दे दिया गया।
यह अधर्म हुआ। इसके निवारण का एक ही उपाय है कि आपने पांडवों का जो कुछ छीन लिया है, वह सब उन्हें दे दिया जाए। राजा का यह परम धर्म है कि वह अपने हक में ही संतुष्ट रहे, दूसरे का हक ना चाहे। जो उपाय मैंने बतलाया है उससे आपका कलंक भी हट जाएगा। भाई-भाई में फूट भी नहीं पढ़ेगी और अधर्म भी नहीं होगा।यह काम आपके लिए सबसे बढ़कर है कि आप पांडवों को संतुष्ट करें और शकुनि का अपमान करें। अगर आप अपने पुत्रों की भलाई चाहते हैं तो आपको जल्दी से जल्दी यह काम कर डालना चाहिए।
यदि आप मोहवश ऐसा नहीं करेंगे तो कुरुवंश का नाश हो जाएगा। युधिष्ठिर के मन में किसी तरह का रागद्वेष नहीं है इसलिए वे धर्मपूर्वक सभी पर शासन करें। इसके लिए यह जरूरी है कि आप युधिष्ठिर को संात्वना देकर राजगद्दी पर बैठा देना चाहिए। धृतराष्ट्र ने कहा तुम्हारा में इतना सम्मान करता हूं और तुम मुझे ऐसी सलाह दे रहे हो। तुम्हारी इच्छा हो तो यहां रहो वरना चले जाओ। धृतराष्ट्र की ऐसी दशा देखकर विदुर ने कहा कि कौरवकुल का नाश निश्चित है।


अपने भी पराए हो जाते हैं जब...
भयभीत होकर द्वारिका में भाग खड़े हुए। भगवान ने दूत को भेजकर अक्रूरजी को ढुंढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान् ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे संभाशण किया। भगवान् सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इस लिए उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा- चाचाजी! आप दान-धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है।
आप जानते ही हैं कि सत्राजीत के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के यानी उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकाऐंगे और जो कुछ बचेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे।इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे, क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है।
परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गई है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणि के संबंध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान् अक्रूरजी!आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिए।जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी।
भगवान् श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तक मणि अपने जाति भाइयों को दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुन: अक्रूरजी को लौटा दिया।धन का मोह ऐसा ही होता है। एक स्यमन्तक मणि ने ऐसी माया फैलाई कि खुद भगवान पर उनके ही परिजन शक करने लगे। एक ज्ञानी पुरुष सद्मार्ग से भटक गया, तप से पाई मणि को खुद की सम्पदा समझने वाला सत्राजीत अपने प्राण खो बैठा। आपके पास जो सम्पत्ति है उसे केवल अपना समझकर न रखें।
भगवान कहते हैं यह समाज और राष्ट्रहित में लगा दें। तप को सम्पत्ति की सम्पत्ति का इससे बेहतर और कोई सदुपयोग नहीं है।सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है।जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।देखिए सम्पत्ति जो है कलह का कारण बन जाएगी। यदि द्वेष भाव है, षडय़न्त्र है, एक दूसरे पर सन्देेह है तो भगवान् ने सबको समझाया कि इतनी बढिय़ा मणि द्वारिका में है और हम लोग इसके लिए लड़ रहे हैं यह प्रतिदिन सोना देती है।

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