गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

जादू के नींबू

ये आंटी मुझे बिलकुल पसंद नहीं। जब घर आएगी, कुछ न कुछ काम जरूर बताएँगी। कभी कहेंगी चिट्ठी डाल आ, कभी बढ़िया-सा पान लगवाकर लाने की फरमाइश करेंगी और कुछ नहीं सूझेगा तो टाँगें दबाने को कहेंगी, जैसे पता नहीं कहाँ हल जोतकर आए हैं।
साफ मना कर सकता हूँ, पर ये माँ की बचपन की सहेली है। दोनों साथ-साथ पढ़ी हैं।
लो मुसीबत आई- वे मुझे पुकार रही हैं।
'पप्पू बेटे, मरने पर कोई अपनी यादगार मकान के रूप में, कोई जमीन के, कोई बैंक के लाखों रुपयों के रूप में छोड़ जाते हैं, पर मेरे पास तो कुछ नहीं, मकान भी किराए का है। मुझे पता नहीं क्यों, लगता है कि अब जल्दी भगवान के घर से मुझे बुलावा आने वालाहै। यह नींबू की कलम ले आई हूँ। जा, जल्दी से एक गड्ढा खोद और खाद देकर इसे लगा दे।
जब यह फल देगा तो मेरी याद करना। मरने के पीछे लोग हमें याद करें, यह इच्छा क्यों होती है, बेटे?'
'मुझे क्या मालूम'- मैं मन ही मन झुँझलाया और उस छोटे पौधे को बरामदे के कोने में रख दिया।
'न-न बेटे, रख मत, जल्दी से लगा दे, नहीं तो सूख जाएगा।'
'नींबू का पौधा ऐसे दो दिन भी रखा रहे तो नहीं सूखता। अभी मैं खेलने जा रहा हूँ कल लगाऊँगा।' मैंने टालने के लिए कहा।
'क्यों रजनी, यह जल्दी नहीं सूखता?' माँ से उनकी सहेली ने पूछा।
'हाँ, देखा तो यही गया है कि मिट्टी में थोड़ा-सा दबाकर रख दो तो हफ्ता तो आसानी से खींच ले जाता है।' माँ ने उत्तर दिया।
मुझे मौका मिला और मैं रैकेट लेकर बाहर दौड़ गया।
दूसरे दिन माँ ने कई बार मुझे गड्ढा खोदने को कहा, पर मकान के पीछे जगह नहीं और आगे सड़क चलती है। लोग क्या कहेंगे कि खुद गड्ढा खोद रहा है, किसी माली को कुछ पैसे देकर नहीं खुदवा सकते।
मैं जानता हूँ कि माँ इन कामों में बिलकुल शर्म नहीं करतीं,पर वे गड्ढा नहीं खोद सकतीं, क्योंकि वे हमेशा ही अस्वस्थ रहती हैं। नींबू का ही तो पौधा है। नींबू ही लगेंगे न, हीरे-जवाहरात तो लगने से रहे और नींबू बाजार में बहुत मिलते हैं।
नींबू के पेड़ में फल लगे और खूब लगे। सारे घर में नींबू लुढ़कते, माँ बाँटते-बाँटते थक गईं। नींबू बारहमास लगे रहते।
उस बार किसी कारणवश पिताजी को ऑफिस से तनख्वाह समय पर नहीं मिली। सब भाई-बहनों को वार्षिक परीक्षा से पहले फीस के रुपए देने ही थे। उनके न देने से भी चलता, पर मेरी बोर्ड की परीक्षा थी, रुक नहीं सकती थी। माँ को इधर-उधर से माँगने की आदत न थी, पर
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, 'माँ, सभी तो एक-दूसरे से लेकर काम चलाते हैं। तुम्हें माँगने में क्यों शर्म लगती है?'
'पर मुझे माँगने की जरूरत ही नहीं। मैं तुम्हें नींबू तोड़कर देती हूँ। आजकल नींबू बहुत महँगा है। इनके कम से कम तुमको पचास रु. मिल जाएँगे। तुम इन्हें बाजार में किसी दुकानदार को दे आओ। यदि कुछ रुपए फीस में कम हो गए तो मैं उनका इंतजाम कर दूँगी।' मैं ऐसे उछला, जैसे साँप पास से निकल गया हो।
बाजार में नींबू बेचने जाऊँ, इससे तो परीक्षा ही न दूँ, तो ठीक है। मैंने साफ मना किया तो माँ शेरनी-सी गरजीं, 'शांता ने उस दिन एक गड्ढा खोदकर यह नींबू लगाने की तुझसे मिन्नातें कीं, पर तेरी शान में बट्टा लगता था। आज इन्हें बेचने जाने में भी तुझे शर्म आती है। पर तू
इसी गड्ढे से माल निकालकर महँगी शर्ट बनवाने के चक्कर में था। वह तो दूसरे का पैसा होता, तेरा क्या हक उस पर? उसको इस्तेमाल करने में तुझे संकोच नहीं होता! घर में तुम जैसे लड़कों के कारण ही पैसा नहीं रह पाता। जब देखो, तब गंदी पिक्चरें देखने के लिए माँ-बाप से पैसे के लिए झगड़ा। न दो तो चोरी। उसमें नहीं आती शर्म तुम्हें?
हैसियत से ज्यादा शान जताते हो, उसमें तुम्हें बुरा नहीं लगता? जा, मत दे परीक्षा, मेरे पास पैसे नहीं। जीवन की असली परीक्षाओं में हमेशा फेल होते हो,इस परीक्षा में पास होकर ही क्या तीर मारोगे? इंसान नहीं बने और केवल रुपया कमाने की मशीन बने तो क्या बने!'
माँ मुझे डाँट रही थीं। मेरा सिर शर्म से झुक गया। मैं चुपचाप नीबुओं को एक थैले में भरकर बाजार चल दिया। हफ्तेभर में नींबू के पेड़ ने हमें चार सौ रु. दिलवा दिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें