रविवार, 10 अप्रैल 2011

हनुमान से सीखें महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का तरीका

महत्वाकांक्षाओं को हर हालत में पूरा करने का यह दौर है। तुलसीदास जी ने इस महत्वाकांक्षा को ही मनोरथ कहा है।
कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा
मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है, ऐसा धैर्यवान कौन है जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो। आगे उन्होंने इसे और साफ करते हुए कहा है-
सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी
पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलीन नहीं कर दिया, यानी बिगाड़ नहीं दिया। अच्छे-अच्छे इस चक्कर में उलझ गए। आज के प्रबंधन की भाषा में इसे ही अति व्यावसायिक दृष्टिकोण कहा गया है।
मान लिया गया है कि अपने लक्ष्य की पूर्ति में संवेदनाएं खतरा हो सकती हैं। अत: सिर्फ प्रोफेशनल एट्यीट्यूड रखो। व्यक्तिगत, संवेदनशील सम्बन्ध कुछ नहीं होते। सम्बन्ध काम के रखे जाएं, दिल के नहीं। अब तो आदमी इतना कामकाजी हो गया है कि दिल के भी सौदे करने लग गया। इस दौर में जो लोग जॉब शिफ्ट या जंप करते हैं ज्यादातर मौकों पर उनके साथ यही होता है कि वे या तो अपने पुराने मैनेजमेंट को भूल ही जाते हैं या उनके पुराने मालिक उनकी सूरत नहीं देखना चाहते।
हनुमानजी से सीखें कि सारे व्यावसायिक दायित्व रखते हुए भी सम्बन्धों में संवेदनाओं की गरिमा कैसे रखी जाए। रावण को मारकर जब राम अयोध्या लौटे तो कुछ समय बाद उन्होंने सभी वानरों को विदा किया। हनुमानजी थे तो राजा सुग्रीव के सचिव पर अब श्रीराम के साथ रहना चाहते थे, बड़ी मर्यादा से उन्होंने सुग्रीव से अनुमति ली थी-
तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना
सुग्रीव के चरण पकड़कर हनुमानजी ने अनेक प्रकार से विनीती की। उनके स्पष्ट और संवेदनशील व्यवहार के कारण ही उनके पुराने बॉस सुग्रीव को कहना पड़ा-
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा
पवनकुमार तुम पुण्य की राशि हो, जाओ कृपाधाम राम की सेवा करो। हनुमानजी से सीखें अपने मनोरथों की पूर्ति में संवेदनाओं की गरिमा को कैसे जीवित रखें।

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