प्लानिंग जरूरी है क्योंकि..
पं.विजयशंकर मेहता
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो। देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।
भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है। आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा। अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम।
इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईष्वरार्थ कर्म करने का निर्देश देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है।
आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है।
व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, षान्ति, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है। माना कि सब गुण न तो मनुष्य में एक साथ आ सकते हैं न अल्पकाल में ये उसमें समाहित हो सकते हैं। किन्तु आत्मा को बचाने के लिए काम, क्रोध, लोभ को त्यागना चाहिए, क्योंकि इनके रहते दैवी सम्पद या गुण केवल कल्पना जैसे लगते हैं।
पं.विजयशंकर मेहता
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो। देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।
भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है। आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा। अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम।
इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईष्वरार्थ कर्म करने का निर्देश देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है।
आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है।
व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, षान्ति, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है। माना कि सब गुण न तो मनुष्य में एक साथ आ सकते हैं न अल्पकाल में ये उसमें समाहित हो सकते हैं। किन्तु आत्मा को बचाने के लिए काम, क्रोध, लोभ को त्यागना चाहिए, क्योंकि इनके रहते दैवी सम्पद या गुण केवल कल्पना जैसे लगते हैं।
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