पं. विजयशंकर मेहता
अहंकार बर्फ की चट्टान की तरह होता है। न पिघलाओ तो पत्थर जैसा कड़क रहेगा और हमें घायल भी करता रहेगा, लेकिन इस चट्टान में पिघलने की संभावा होती है, इसलिए कोई गर्मी तलाशना पड़ेगी। परमात्मा हमारे जीवन में सूरज की तरह है।
उनका प्रकाश, तेज, ओज हमारे व्यक्तित्व के लिए जितना जरूरी है उतना ही उसकी गर्मी अहंकार की चट्टान को पिघलाने के लिए आवश्यक है। हम जब संसार के कामकाज में व्यस्त होते हैं तो वहां हमारी अपनी पहचान बनाना जरूरी होती है। दुनिया में चारों तरफ प्रतिस्पर्धा है।
यदि स्वयं की रक्षा नहीं करेंगे तो दूसरे आपको पटकनी भी दे सकते हैं, पीछे भी छोड़ सकते हैं और नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इसलिए अपनी पहचान, अपना अस्तित्व और अपना अहंकार आत्म-रक्षा का कवच भी बन जाता है।
कभी-कभी मैं को हथियार बनाना पड़ता है ताकि दूसरे आपको घायल न कर जाएं, आपका दुरूपयोग न कर जाएं, लेकिन इस 'मैंÓ को एक सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाएंगे मैं को गिराना पड़ेगा और रक्षा के दूसरे हथियार अपनाना पड़ेंगे। उनमें से एक है ईश्वर के प्रति श्रद्धा।
श्रद्धा का यह भाव अगले चरण में हमारे भीतर जाग जाना चाहिए। श्रद्धा पैदा करने के लिए सेवा के कार्य हाथ में लेते रहिए। ऐसा कहते हैं अहंकार गिराना हो तो संगठन से जुडऩे के प्रयोग करें। जब हम कुछ समूह में लोगों के साथ रहेंगे तब हमारे अहंकार की लगातार परीक्षा होती रहेगी। समूह में समानता का अधिकार, एक-दूसरे को सहयोग करना यह सब जरूरी होता है।
और यहीं से अहंकार गिरता है, सेवा जागती है और परमात्मा की ओर हम चलते हैं। इसलिए संसार के आरंभ में मैं जरूरी है और परमात्मा के आरंभ में मैं गैर जरूरी है।
अहंकार बर्फ की चट्टान की तरह होता है। न पिघलाओ तो पत्थर जैसा कड़क रहेगा और हमें घायल भी करता रहेगा, लेकिन इस चट्टान में पिघलने की संभावा होती है, इसलिए कोई गर्मी तलाशना पड़ेगी। परमात्मा हमारे जीवन में सूरज की तरह है।
उनका प्रकाश, तेज, ओज हमारे व्यक्तित्व के लिए जितना जरूरी है उतना ही उसकी गर्मी अहंकार की चट्टान को पिघलाने के लिए आवश्यक है। हम जब संसार के कामकाज में व्यस्त होते हैं तो वहां हमारी अपनी पहचान बनाना जरूरी होती है। दुनिया में चारों तरफ प्रतिस्पर्धा है।
यदि स्वयं की रक्षा नहीं करेंगे तो दूसरे आपको पटकनी भी दे सकते हैं, पीछे भी छोड़ सकते हैं और नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इसलिए अपनी पहचान, अपना अस्तित्व और अपना अहंकार आत्म-रक्षा का कवच भी बन जाता है।
कभी-कभी मैं को हथियार बनाना पड़ता है ताकि दूसरे आपको घायल न कर जाएं, आपका दुरूपयोग न कर जाएं, लेकिन इस 'मैंÓ को एक सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाएंगे मैं को गिराना पड़ेगा और रक्षा के दूसरे हथियार अपनाना पड़ेंगे। उनमें से एक है ईश्वर के प्रति श्रद्धा।
श्रद्धा का यह भाव अगले चरण में हमारे भीतर जाग जाना चाहिए। श्रद्धा पैदा करने के लिए सेवा के कार्य हाथ में लेते रहिए। ऐसा कहते हैं अहंकार गिराना हो तो संगठन से जुडऩे के प्रयोग करें। जब हम कुछ समूह में लोगों के साथ रहेंगे तब हमारे अहंकार की लगातार परीक्षा होती रहेगी। समूह में समानता का अधिकार, एक-दूसरे को सहयोग करना यह सब जरूरी होता है।
और यहीं से अहंकार गिरता है, सेवा जागती है और परमात्मा की ओर हम चलते हैं। इसलिए संसार के आरंभ में मैं जरूरी है और परमात्मा के आरंभ में मैं गैर जरूरी है।
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