शनिवार, 7 मई 2011

भागवत २४९

बस थोड़ा वक्त अपनों के लिए
पं.विजयशंकर मेहता
मायायुक्त संसार और दूसरा मायामुक्त परमात्मा। मायायुक्त संसार में तो वह लगा ही रहता है यह उसका एक नैसर्गिक कार्य है, उसकी यह स्वभावसंगत लाचारी है जो सहज स्वभावगत स्थिति है, उससे विमुख होना आसान नहीं होता है। उसके अभ्यास से दूसरे बिन्दु परमात्मा की ओर मोड़ा जा सकता है। अभ्यास आसान नहीं है। इसलिए भागवत स्मरण बनाए रखें। भागवत केवल ग्रंथ नहीं एक पूरी आचार संहिता है।

अब भगवान के परिवार में संवेदनाओं के प्रसंग आएंगे। श्रीकृष्ण अपने परिवार के हर सदस्य की योग्यता के अनुसार उपयोग करना जानते थे। बलरामजी से अब परिवार में भावनाओं को जोड़ रहे हैं। बलरामजी व्रज में जाएं यह भगवान की ही इच्छा थी। वे एक तरह से भगवान के प्रतिनिधि बन कर ही गए थे। यदि हम अधिक व्यस्त हों अपने कामकाज में तो परिवार के अन्य सदस्यों की भूमिका, सुनिश्चित करें। रिक्त सदस्य अकारण तनाव में स्वयं भी डूबेगा तथा पूरे परिवार को भी परेशानी में डालेगा। इसीलिए यहां भागवत संदेश दे रही है कि आप चाहे कितने व्यस्त हों लेकिन कुछ समय अपनों के लिए जरूर निकाले।
बलरामजी के मन में व्रज के नन्दबाबा आदि सम्बन्धियों से मिलने की बड़ी इच्छा थी। वे द्वारिका से नन्दबाबा के व्रज में आए। उन्हें अपने बीच में पाकर सबने बड़े प्रेम से गले लगाया। किसी से हाथ मिलाया, किसी को खूब हंस-हंस कर गले लगाया। अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान् श्रीकृष्ण की हंसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मूर्तिमान होकर नाचने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं। बलरामजी ने वसंत के दो महीने चैत्र और वैशाख वहीं बिताए। जीवन में समय निकालकर अपने लोगों से मेल मिलाप करते रहना चाहिए।बलरामजी की व्रज क्रीड़ा में आत्म शासन का संदेश छिपा है। गोपियों के साथ विचरणे का सही अर्थ समझा जाए।
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में प्रथम तीन अदृश्य किंतु व्यवहार में अनुभूति प्राप्त करते हैं, अहंकार सृष्टि तथा स्वयं के देह में पंचतत्वीय स्वरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है। मन की निर्मलता, बुद्धि की शुद्धता, चित्त की संस्कार मुक्त और अहंकार की निराभिमानिता प्रभु पथ के एक साथ चलने वाले चार आगम हैं। चारों के एक वर्णीय बने बिना प्रभु वर्ण में विलीनता का पथ प्रशस्त नहीं होता। भागवत स्वरूप प्राप्त करने के लिए इन चारों तत्वों का पवित्रनाम् और शुद्धतम होना आवश्यक है क्योंकि प्रभुतत्व निर्विकार, पवित्रतम और शुद्धतम होता है।

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