कहते हैं शंका करके काम करने से नुकसान और फायदा दोनों होता है। फायदा यह होता है कि हम धोखा खाने से बच जाते हैं, क्योंकि शंका एक तरह की सावधानी बन जाती है। नुकसान यह होता है कि शंका की वृत्ति यदि लंबे समय कायम रह जाए तो हर एक पर अविश्वास करने की आदत बन जाती है।
धीरे-धीरे आदमी खुद पर भी विश्वास करना बंद कर देता है और यहीं से वह सारे हानि-लाभ दूसरों में, अपने से बाहर देखने लगता है। कुछ लोग जब गुरु बनाते हैं, कोई विशेष भक्ति का मार्ग चुनते हैं, ध्यान के क्षेत्र में उतरते हैं और कुछ समय बाद उन्हें वैसा लाभ नहीं मिलता जैसा वे चाहते हैं तो वे इन विधियों को बदलते हैं, गुरु बदल देते हैं और तो और धर्म बदल देते हैं।
शायद फिर भी उन्हें लाभ नहीं मिलता। आदमी खुद को नहीं बदलता। कारण वही है लगातार शंका और अविश्वास की आदत बन जाना। खुद को बदलने के लिए एक आसान उपाय है अपने भीतर आस्था का जन्म देना। किसी धर्म, गुरु, व्यवस्था में जैसे-जैसे हम आस्था बढ़ाएंगे, स्वयं पर विश्वास भी बढऩे लगेगा। आस्थावान लोगों की देखने की क्षमता बढऩे लगती है।
वे हर बात को अलग निगाह से देखते हैं, जिसको कहते हैं पॉजिटिव एटीट्यूट। आस्था हमें थोड़ा भीतर ले जाती है। हम व्यक्ति या वस्तुओं को बहिर्मुखी होकर नहीं देखते। आस्था हमें भीतर से जोड़ती है। एक बात और है आस्थावान व्यक्ति अपने ही भीतर से जुड़कर बाहर सक्रिय होता है और हमारा चिंतन स्पष्ट हो जाता है कि जो भी अच्छा और बुरा हम करते हैं उसके जिम्मेदार हम होते हैं। दूसरों पर दोष न दिया जाए। अपने भीतर आस्था का भाव बढ़ाने के लिए एक प्रयोग लगातार करते रहिए,
धीरे-धीरे आदमी खुद पर भी विश्वास करना बंद कर देता है और यहीं से वह सारे हानि-लाभ दूसरों में, अपने से बाहर देखने लगता है। कुछ लोग जब गुरु बनाते हैं, कोई विशेष भक्ति का मार्ग चुनते हैं, ध्यान के क्षेत्र में उतरते हैं और कुछ समय बाद उन्हें वैसा लाभ नहीं मिलता जैसा वे चाहते हैं तो वे इन विधियों को बदलते हैं, गुरु बदल देते हैं और तो और धर्म बदल देते हैं।
शायद फिर भी उन्हें लाभ नहीं मिलता। आदमी खुद को नहीं बदलता। कारण वही है लगातार शंका और अविश्वास की आदत बन जाना। खुद को बदलने के लिए एक आसान उपाय है अपने भीतर आस्था का जन्म देना। किसी धर्म, गुरु, व्यवस्था में जैसे-जैसे हम आस्था बढ़ाएंगे, स्वयं पर विश्वास भी बढऩे लगेगा। आस्थावान लोगों की देखने की क्षमता बढऩे लगती है।
वे हर बात को अलग निगाह से देखते हैं, जिसको कहते हैं पॉजिटिव एटीट्यूट। आस्था हमें थोड़ा भीतर ले जाती है। हम व्यक्ति या वस्तुओं को बहिर्मुखी होकर नहीं देखते। आस्था हमें भीतर से जोड़ती है। एक बात और है आस्थावान व्यक्ति अपने ही भीतर से जुड़कर बाहर सक्रिय होता है और हमारा चिंतन स्पष्ट हो जाता है कि जो भी अच्छा और बुरा हम करते हैं उसके जिम्मेदार हम होते हैं। दूसरों पर दोष न दिया जाए। अपने भीतर आस्था का भाव बढ़ाने के लिए एक प्रयोग लगातार करते रहिए,
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