मंगलवार, 28 जून 2011

जब बारात विदा हुई तो...

राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह व ऐश्वर्य की हर तरह से सराहना करते हैं। प्रतिदिन उठकर दशरथजी विदा मांगते हैं। जनकजी उन्हें प्रेम से उनसे रूकने के लिए कहते हैं और उन्हें जाने नहीं देते हैं। इस तरह बहुत दिन बीत गए, मानो बाराती प्रेम की डोरी से बंध से गए। तब विश्वामित्रजी और शतानंदजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा- आप स्नेह नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। तब जनकीजी ने कहा राजा दशरथ अब जाना चाहते हैं।भीतर यह खबर दो। जनकपुरी के लोगों ने सुना कि बारात जाएगी। तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से पूछने लगे। जनकपुरी के सभी लोग उदास हो गए। आते समय जहां-जहां बाराती ठहरे थे। वहां बहुत प्रकार का रसोई का समान भेजा गया। दस हजार हाथी, भैस, गाय, एक लाख घोड़े आदि कई चीजे जनकजी ने असिमित मात्रा में दहेज में दी। इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी भेज दिया। बारात अब विदा होगी यह सुनकर सभी रानियां दुखी हो गई।
वे सीताजी को गले से लगाकर समझाने लगी सास, ससुर की सेवा करना। पति का रूख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। आदर के साथ सभी पुत्रियों को समझाकर रानियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। उसी समय रामजी व उनके सारे भाई विदा करवाने के लिए जनकजी के महल पहुंचे। रानियों ने सीताजी को रामचंद्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा सीता हमें प्राणों से ज्यादा प्रिय है आप इनका ध्यान रखिएगा। राजा ने शुभ मुर्हूत निकलवाकर कन्याओं को पालकी में बैठाया।

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