मंगलवार, 28 जून 2011

मौत से हमें डर क्यों लगता है?

जीवन को जी लेने के बाद मन में गहरी शांति का अहसास होना चाहिये। जबकि ऐसा होता नहीं है जैसे-जैसे जीवन बीतता जाता है और मौत करीब आती जाती है इंसान के मन में मौत का भय गहराता जाता है। जैसे-जैसे हमारी उम्र बीतती है जीवन का मृत्यु से साक्षात्कार होता जाता है। ऐसे में मृत्यु ये भय कैसा? मृत्यु और जीवन का साथ तो दिन और रात की तरह ही है। सदैव दोनों का अस्तित्व है, लेकिन दोनों एक साथ दिखाई नहीं देते। इस कारण हमें केवल जीवन का ही अहसास रहता है।
जीवित रहते हुए हम जिन स्वजनों को शरीर त्यागते हुए देखते हैं, उसे मृत्यु का अन्तिम सत्य मानकर, हम मृत्यु ये घबरा जाते हैं। जबकि सच तो यही है कि प्रत्येक क्षण हम जो जीवन जी रहे हैं, अगले ही क्षण, पिछले क्षण को सदा-सदा के लिये समाप्त कर(गंवा)चुके होते हैं। समाप्त ही तो मृत्य का अन्तिम सत्य है। इसलिये प्रतिक्षण समाप्त और प्रारम्भ दोनों क्रियाएं साथ-साथ चल रही हैं। हमें केवल जीवन दिखता है। मृत्यु को हम देखना नहीं चाहते। देख सकते हैं, बशर्ते कि प्रत्येक क्षण को सकारात्मक एवं संजीदगी से जी सकें। जब सबकुछ सजगता से जी लिया जाये तो पछतावा किस बात का? सारी तकलीफ तो इच्छानुसार नहीं जी पाने की विवशता में ही छिपी है।
जिसके लिये समाज की सीमाएं एवं कभी न समाप्त होने वाली भौतिक इच्छाएं जिम्मेदार हंै। इन दोनों में हम ऐसे बंधे रहते हैं कि हर क्षण जीने के बजाय केवल मरते ही रहते हैं। पूर्णता से नहीं जी पाने के कारण मृत्यु के भय से भयभीत रहकर न तो वर्तमान को जी पाते हैं और न ही भविष्य को संवार पाते हैं। ऐसे में जीवन और मृत्यु के बीच कम्पन या भयभीत होना स्वाभाविक है।
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