शनिवार, 18 जून 2011

तुम कितने अच्छे हो पापा!

‘पापा, आज मां बन जाओ न! बहुत याद आ रही है मां की।’ नौ वर्षीय विभोर के मुंह से यह वाक्य सुनते ही विशाल स्तब्ध रह गया। पूरे तीन महीने हो गए थे शालिनी को गुजरे हुए। अपनी कैंसर की बीमारी से चार साल लड़ने के बाद, नन्हे से विभोर को विशाल की गोद में सौंप वह चिरनिंद्रा में लीन हो गई।
शालिनी की मृत्यु के बाद दादी, बुआ, नानी सभी ने विभोर को बहुत लाड़-प्यार दिया। उसे मां की कमी महसूस होने नहीं दी, पर कब तक? पिछले कुछ दिनों से इस घर में दो ही प्राणी थे विभोर और विशाल। और थी घर के हर कोने में बिखरी, हर सामान के साथ पसरी ढेर सारी यादें।
आज तीन महीने बाद रविवार की सुबह मां को याद करते हुए विभोर ने विशाल से मां बनने का अनुरोध किया। उसे गोद में लेते हुए विशाल बोला, ‘ओके विभु, मैं मां बनता हूं। बताओ तो क्या करना होगा मुझे?’
चहक उठा विभोर। दोनों हाथ पापा के गले में डालकर बोला, ‘पहले मुझे गोदी में उठाकर किचन में ले चलो, फिर किचन प्लेटफॉर्म पर बिठाकर दूध तैयार करो।’
‘चलो, ये उठाया गोदी में और ये आ गया किचन। अभी करता हूं तुम्हारा दूध तैयार।’ विशाल ने बहुत प्यार से कहा।
‘पापा बॉर्नवीटा दूध में मत डालता, मैं घुला हुआ बॉर्नवीटा नहीं पीता। दूध को गिलास में ऊपर से डालना। झाग आ जाए, तो धीरे-से बॉर्नवीटा डालना। मां की तरह। मैं ऐसे ही पीता हूं।’
विशाल उसी तरह करता रहा, जैसे विभोर बताता जा रहा था। उसे भी ‘मां’ की भूमिका निभाने में आनंद आ रहा था।
‘चलो पापा, अब नहलाओ न!’
विशाल उसे बाथरूम में ले जाकर नहलाने लगा। वह ‘मां’ बनने की पूरी कोशिश कर रहा था, तभी विभोर तुनककर बोला, ‘पापा, धीरे-धीरे साबुन लगाओ न! मां के नरम हाथों की तरह। इतनी तेजी से मत रगड़िए।’
विशाल चुपचाप उंगली के पोरों से साबुन फैलाने लगा। टॉवल कंधों पर डालते ही विभोर फिर मचला, ‘ऐसे नहीं पापा, मां तो सिर के ऊपर से डालती थी, फिर कहती थी, ‘मेरी छोटी-सी, प्यारी-सी दुल्हन..’’, विशाल ने बिना कुछ कहे टॉवल विभोर के सिर पर डाल दिया। मां की पसंद के कपड़े पहनाए विभोर को। फिर कंघी करके कहा, ‘देखो तो आइने में बिलकुल मां जैसा तैयार किया है न मैंने?’
‘यस पापा!’ कहते हुए विभोर ने उसके गाल पर पप्पी दे दी। विशाल बोला, ‘..पर एक बात के लिए सॉरी बेटा, मैं तुम्हारी पसंद के नाश्ते में मां जैसा हलवा नहीं बना पाऊंगा।’
‘कोई बात नहीं पापा, मुझे आपके हाथ का पुलाव बहुत पसंद है।’
विशाल किचन की ओर गया और विभोर अलग-अलग कोणों से खुद को आइने में निहारने लगा। किचन में कुर्सी पर बैठकर विशाल बीती यादों में खो गया। आज उसे भी रह-रहकर शालिनी की याद आ रही थी। तभी पीछे से आई पतली-सी आवाज से वह चौंक गया,‘विशु, प्लीज आज तुम चाय बनाओ न! तुम्हारे हाथों की चाय पीने का मन है।’
विशाल ने हैरानी से पलटकर पीछे देखा, तो विभोर बिलकुल शालिनी की तरह कंधे पर दुपट्टे की जगह टॉवेल लटकाकर, पीछे से विशाल के गले में बांहे डालकर अनुरोध कर रहा था। नन्हे से विभोर का यह रूप देखकर विशाल की आंखों में आंसू आ गए। फिर भी सम्भलकर बोला, ‘जरूर शालू, अभी हाजिर करता हूं।’
पिता-पुत्र दोनों गले लगकर देर तक सुबकते रहे। दोनों के मन में भाव थे कभी तुम मां बनना, कभी मैं.।www.bhaskar.com

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