शनिवार, 18 जून 2011

भागवत २८२

बस यही हमारा सुख और दुख तय करता है....
यदुवंशियों तथा शाल्व की सेना के लोगों ने युद्धभूमि में प्रवेश करते ही भगवान् को पहचान लिया। घोर युद्ध हुआ।तब एक मनुष्य ने भगवान् के पास पहुंच कर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला-मुझे आपकी माता देवकीजी ने भेजा है।
उन्होंने कहा है कि अपने पिता के प्रति अत्यंत प्रेम रखने वाले महाबाहु श्रीकृष्ण! शाल्व तुम्हारे पिता को बांध कर ले गया है। यह समाचार सुनकर भगवान् कृष्ण मनुष्य से बन गए।
उनके मुंह पर कुछ उदासी छा गई। वे साधारण पुरुष के समान अत्यंत करुणा और स्नेह से कहने लगे-मेरे भाई बलरामजी को तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सका। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्व का बल-पौरुष तो अत्यंत अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजी को बांधकर ले गया? सचमुच प्रारब्ध बहुत बलवान है।
प्रारब्ध ही हमारे सुख-दुख तय करता है। भगवान ने भी माना और इस मान्यता को स्थापित भी किया। वे भले ही अवतार थे लेकिन मनुष्य का अवतार लिया था सो प्रारब्ध के साथ तो चलना ही था।प्रारब्ध पर भगवान का भी मत है। इसे तो भोग कर ही पूरा करना पड़ता है। प्रारब्ध को साधन के द्वारा भोगा जाना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें