मंगलवार, 12 जुलाई 2011

भागवत 310 : उपासना का मतलब क्या है?

देवकीजी द्वारा श्रीकृष्ण की जो उपासना की गई थी यह प्रसंग उसका परिणाम है। उपासना क्या है, इस पर संतों ने कहा है कि उपासना का अर्थ है परमेश्वर के पास बैठना। बड़ों के पास बैठने का अर्थ है तद्रूप बनना। परमेश्वर अर्थात सत्य। अतएव सत्य रूप बनना उपासना है। सत्य रूप बनने की तीव्र इच्छा करना, उसके लिए भगवान् से विनती करना प्रार्थना है।
महात्मा गांधी की यह दृष्टि एकदम व्यावहारिक है। हमारे लगभग सब आध्यात्मिक ग्रंथ गांधीजी की इस दृष्टि को पुष्ट करते हैं। सत्यरूप आचरण शुद्धि के लिए स्पष्ट संकेत हैं। बिना आचरण शुद्धि के निर्विकार स्थिति नहीं आती। गांधीजी आगे स्पष्ट करते हैं कि निर्विकार बनने के लिए विकारी विचार भी न उठने देना। मन कभी खाली नहीं रहता। वह विकारी विचारों को अपने में समेटे रहेगा या सत्य (परमेश्वर) के प्रति बढ़ेगा। राम, कृष्ण, विष्णु, अल्लाह, प्रभु, ग्रंथ-साहिब, महावीर स्वामी, बुद्ध या अन्य कोई प्रतीक वस्तुत: सत्य के मूर्तिरूप हैं। उनका स्मरण करना नाम-स्मरण है। यह स्मरण हृदयगत जब होता है तब तद्रूपता की संभावना बलवती हो जाती है। हमें स्मरण रखना होगा कि उपासना बुद्धि का नहीं, श्रद्धा का और विश्वास का विषय है। उपासना करते-करते निर्मलता या शुद्धता आती है। नित्य उपासना-प्रार्थना करते रहने से आत्मा पुष्ट होती है। आत्मा की शुद्धता (निर्मलता) और पुष्टता में ही ईश्वरीय तत्व की झलक मिलना शक्य होता है। उपासना एकाकी या सामुहिक या दोनों हो सकती है।
पंथानुसार उपासना के स्वरूप अलग-अलग होते हैं। वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन, इस्लामी, ईसाई या अन्य उपासना पद्धति ईश्वरीय स्वरूप और निज स्वरूप को एकाकार करने के लिए होती है। यह एकाकारिता बिना तीव्र, श्रद्धाविश्वास के संयुक्त प्रवाह के संभव नहीं यह शक्ति और शिव की परम कल्याणमयी अभिव्यक्ति कही जा सकती है।प्राय: पाया जाता है और साधकों या उपासकों का अनुभव भी बतलाता है कि श्रद्धा और विश्वास होने के बाद भी मन नाना प्रकार के सात्विक, राजसिक, विचारों में मगन रहता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें