गुरुवार, 21 जुलाई 2011

भागवत ३१७

जरूरी है जिम्मेदारियों को निभाना क्योंकि....
गृहस्थ का उद्देश्य परमात्मा के निकट जाने का नहीं उसे अपने निकट बुलाने का है। यह एक तरह का वशीकरण है। संन्यास में संन्यासी भगवान के निकट पहुंचकर उसे अपने वश में करने का प्रयास करता है, गृहस्थ का वशीकरण इससे विपरीत खुद भगवान के प्रति समर्पित होने का है। उसके रचे संसार का पालन कर, कर्तव्यों का निर्वहन कर वह भगवान को समर्पित हो जाता है। फिर भगवान खुद उसके वश में होकर उसे ढूंढने निकल पड़ते हैं। एक कथा है कि एक संन्यासी किसी गांव में पहुंचा। वहां मंदिर में एक पुजारी रहता था, जो बहुत धार्मिक स्वभाव का था, उसके पत्नी और बच्चे भी आज्ञाकारी थे। पुजारी भगवान की सेवा तो करता था लेकिन उसका मन फिर भी बेचैन रहता था कि भगवान को पाना है। साधु गांव में पहुंचे तो उसकी इच्छा और अधिक बलवती हो गई।
पुजारी ने संन्यास लेने की ठान ली और परिवार को रोता-बिलखता छोड़ साधु के साथ चला गया। गांववालों ने बहुत समझाया, पत्नी और पुत्र ने पैर पकड़ लिए लेकिन वह नहीं माना। उसकी पत्नी भी काफी समझदार और धार्मिक थी, सो नियति का खेल समझकर इसे स्वीकार कर लिया। पुत्र की जिम्मेदारी, मंदिर की सेवा और खेती भी उसके जिम्मे आ गई।
वह सारी बातें भूलकर अपनी जिम्मेदारी निभाने लगी। पुत्र को गुरु के पास भेज दिया अच्छी शिक्षा के लिए। मंदिर में सुबह-शाम पूजा का सिलसिला भी बंद नहीं होने दिया और खेती भी मुरझाने नहीं दी। वह जब भी भगवान की पूजा करती तो एक ही बात दोहराती कि मेरे पति को भगवान आपकी प्राप्ति जल्दी हो, जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ त्याग दिया है।
उधर पुजारी साधु के साथ वन-वन भटकने लगा। एक दिन उसे भगवान नारायण गुजरते दिखाई दिए। उसने पैर पकड़ लिए, भगवान आपके दर्शन हो गए। भगवान ने उससे कहा-हट जा मैं अभी तेरे लिए नहीं आया हूं। मुझे कहीं और जाना है। कोई मेरा इंतजार कर रहा है। पुजारी ने पूछा मैं भी तो आपके लिए सबकुछ छोड़कर भटक रहा हूं। आपका इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए कब आएंगे।
नारायण ने कहा-अभी तुम्हें बहुत समय लगेगा। तुमने मेरी तलाश तो की लेकिन मैंने तुम्हें जो काम सौंपा था वह नहीं किया।
जारी बोला-कौन सा काम भगवन, मैं तो दिन-रात आपकी ही सेवा कर रहा हूं। इसके सिवा तो मेरी जिंदगी में कुछ और रह ही नहीं गया है।भगवान बोले- मैंने अपनी एक भक्त और उसके पुत्र की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी थी लेकिन तुम उस जिम्मेदारी से मुंह छिपाकर भाग आए। पुजारी को समझते देर नहीं लगी कि वह अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर आया है। बस उसकी आंखें खुल गई। फिर गांव की ओर लौट पड़ा।
गांव में आया तो देखा उसकी पत्नी की चारों ओर जय-जयकार हो रही है। कच्चे मकान की जगह महल खड़ा है। पुत्र राजकुमारों जैसे कपड़े पहने था। घर में नौकर-चाकरों की कतार लगी थी।मंदिर में गया तो खुद नारायण बैठे, उसकी पत्नी का बनाया भोग खा रहे हैं। पत्नी की सेवा और जिम्मेदारियों के पालन से भगवान प्रसन्न हो गए। पुजारी ने अपनी पत्नी से क्षमा मांगी। नारायण ने उसे आशीर्वाद दिया। कहा-तुझे तेरे तप के कारण नहीं, तेरी पत्नी के सेवाभाव और तुम्हारे प्रति उसकी श्रद्धा के कारण दे रहा हूं।कथा का सारांश यह है कि भगवान ने आपको जो जिम्मेदारियां दी हैं सबसे पहले उसका पालन करें।
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