बुधवार, 27 जुलाई 2011

जब नहीं होंगी लड़कियां

यह कहानी चीन के एक गांव में रहने वाली झांग मेई की है। 37 साल की झांग मेई देहाती औरत है और उस समाज में औरत की हालत का जीता-जागता बयान है जिसमें आदमियों की तुलना में औरतों की संख्या बहुत कम हैं। हमारे देश से भी कम। दुबली-पतली झांग मेई को तिब्बत के पास के एक सीमांत पहाड़ी गांव से बीस साल पहले औरतों की खरीद-फरोख्त करने वाले एक शख्स ने यहां लाकर पैसों के बदले ब्याह दिया था। तब वह 17 बरस की थी और उसे नहीं पता था कि कहां ले जाया जा रहा है। आखिर उसका अपहरण नहीं किया गया था। उसे उसके माता-पिता ने पैसों के बदले बेच दिया था।
लंबे सफर के दौरान झांग मेई ने पहली बार शहर और बड़े आधुनिक बाजार देखे थे। यहीं एक बाजार में किसी ने उसकी फोटो खींची थी जो आज भी उसने संभालकर रखी है। इसमें उसके कमर तक लटकते लंबे बाल देखते ही बनते हैं। लेकिन इस गांव में पैसों के बदले ब्याह दी गई झांग मेई ने आते ही वे लंबे घने बाल कटवा दिए। जिस शख्स से उसकी शादी कर दी गई थी वह हालांकि सज्जन था, लेकिन उम्र में पंद्रह साल बड़ा था। वह कुरूप और गांव का सबसे गरीब आदमी भी था। झांग मेई को पहले ही दिन बता दिया गया कि गुजारे के लिए उसें हाड़ तोड़ मेहनत करनी होगी और छुट्टी एक दिन की भी नहीं मिलेगी। अपने पैतृक गांव जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। आज हालत यह है कि वह घर से भेजी गई तस्वीरों में अपनी बहन के बच्चों को बड़ा होते हुए देखती है।
सबसे दुखद बात यह कि झांग मेई जिस दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास का शिकार हुई, वह खुद उसे ही दोहराने को विवश है। शादी होते ही उस पर दबाव था कि वह एक बेटे को जन्म दे। बेटा हुआ लेकिन दो बेटियों के बाद। लेकिन बच्चे जैसे-जैसे बड़े हुए पति ने कहा कि वह उनका खर्चा नहीं उठा सकता। लिहाजा दोनों लड़कियों को परवरिश के लिए उसने झांग मेई के माता-पिता के घर भिजवा दिया। जो माता-पिता झांग मेई का खर्च नहीं उठा सके और उसे पैसों के बदले सुदूर अनजाने गांव में ब्याहने को मजबूर हो गए, वे एक पीढ़ी बाद उसकी बेटियों के साथ क्या करेंगे? जाहिर है, झांग मेई की कहानी उनकी बेटियों के साथ भी दोहराई जाएगी।
यह करुण कहानी लिखी है चीन में विज्ञान पत्रकारिता कर रही मारा व्हिस्टेंडाल ने अपनी नई किताब में जिसका शीर्षक है अननेचुरल सेलेक्शन : चूजिंग बॉयेज ओवर गल्र्स एंड द कॉन्सीक्वेंसेज ऑफ ए वर्ल्ड फुल ऑफ मेन। मारा एशियाई देशों में लड़कियों की बजाय लड़कों के ‘अप्राकृतिक चुनाव’ की तह में जाकर पड़ताल करती हैं और बताती हैं कि वह दुनिया कैसी होगी जिसमें स्त्रियां बहुत कम और आदमी बहुत ज्यादा होंगे।
अपने देश में हम जानते हैं कि स्त्री-पुरुष आबादी का अनुपात किस तेजी से गड़बड़ा रहा है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब 2011 के जनगणना के आंकड़ों ने कई राज्यों और जिलों में चौंकाने वाली स्थिति का ब्योरा उजागर किया था। ऐसे में वे देश हमारे लिए एक सबक हो सकते हैं जहां समाज में महिला और पुरुष आबादी का संतुलन और भी ज्यादा बिगड़ चुका है और इसके भयावह नतीजे सामने आ रहे हैं।
मारा बताती हैं कि एशिया की आबादी में 16 करोड़ औरतें ‘गायब’ हो चुकी हैं। यह अमेरिका की आधी आबादी के बराबर हैं। ये गायब औरतें दरअसल लड़कियों की भ्रूण या शिशु हत्या का नतीजा हैं। चीन और भारत तो इन देशों में अग्रणी हैं ही, वियतनाम, ताईवान, दक्षिण कोरिया जैसे कई दूसरे देशों में भी लिंगानुपात के बिगड़ने का बदतरीन चेहरा सामने आ रहा है।चौंकाने वाली बात यह कि अब यह सिर्फ एशिया की ही समस्या नहीं रही। अल्बानिया, जॉर्जिया, अजरबैजान और आर्मीनिया जैसे पूर्वी यूरोपीय देशों और अमेरिका के भी कुछ समाजों में लोग यह सुनिश्चित करने लगे हैं कि उनकी संतानों में बेटा जरूर हो।
दुनिया में 100 महिलाओं पर 105 पुरुषों का अनुपात आदर्श माना जाता है। ऐसा इसलिए कि लड़ाई जैसे जोखिमपूर्ण कार्यो में भागीदारी के कारण पुरुष की असमय मृत्यु का खतरा अधिक होता है। इस प्राकृतिक संतुलन में थोड़ी भी गड़बड़ी के नतीजे विनाशकारी हो सकते हैं। आज हालत यह है कि चीन में 100 स्त्रियों पर 121 और भारत में 112 पुरुष हैं। चीन के बंदरगाह पर बसे शहर लिआनयुगांग में हालत इतनी बदतर है कि 100 औरतों पर 163 पुरुष हैं। यही नहीं, 1990 के दशक में कुछ दौर ऐसे थे जब दक्षिण कोरिया के कुछ शहरों में 100 लड़कियों का जन्म होता था, वहीं 200 लड़के जन्मते थे। बदतरीन इलाकों में यह अनुपात 100 लड़कियों पर 150 लड़कों का है।
वस्तुओं के मामले में यह होता है कि जब वे कम मात्रा में उपलब्ध होती हैं तो उनका मूल्य बढ़ जाता है। लेकिन लड़कियों के मामले में ऐसा नहीं। लिंगानुपात बिगड़ने का खामियाजा भी स्त्रियों को ही भुगतना पड़ रहा है। मारा बताती हैं कि ताईवान और कोरिया में जहां सबसे पहले लड़कियों से छुटकारा पाने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा, आदमियों के लिए शादी के लिए लड़की खोजना मुश्किल हो गया। वहां अविवाहित लड़कों के लिए मैरिज टूर आयोजित किए जाते हैं जो उन्हें 10,000 डॉलर में वियतनाम ले जाते हैं। इसमें विमान यात्रा, रहने और खाने का खर्च शामिल होता है। वहां देहाती महिलाएं उनके लिए कतार में खड़ी की जाती हैं और उनमें से एक को चुनकर वे शादी के लिए खरीदते हैं।
लिंगानुपात गड़बड़ाने का एक नतीजा यह हो रहा है कि इससे प्रभावित इलाकों में वेश्यावृत्ति बढ़ी है। एक से ज्यादा भाइयों के साथ शादी की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। यह भी होने लगा है कि लोग गरीब परिवारों की कम उम्र की लड़कियों को खरीदकर लाते हैं, उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करते हैं और फिर शादी की उम्र हो जाने पर अपने बेटों से शादी कर देते हैं। मारा महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को लड़कियों की घटती संख्या का नतीजा मानती हैं। वे बताती हैं कि भारत के जिन हिस्सों में लिंगानुपात गड़बड़ा रहा है, वहां महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध बढ़े हैं।
एशिया के इन समाजों में परिवार में लड़के की चाह तो सदियों से रही हैं, फिर ऐसा क्यों है कि लिंगानुपात बिगड़ने की समस्या अभी ही पैदा हुई है। मारा की रिसर्च बताती है कि इसके पीछे अमेरिका और पश्चिमी देशों में 1960 और 70 के दशक में अपनाई गई जनसंख्या नियंत्रण की आक्रामक नीति जिम्मेदार है। वह कहती हैं कि 1951 में संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या विभाग ने घोषणा की थी कि दुनिया में आबादी का विस्फोट दस्तक देने वाला है। जल्दी ही यह विस्फोट खासकर चीन और भारत जैसे देशों में दिखाई देने लगा। यह माना गया कि इन देशों में परिवारों में बेटे की पारंपरिक चाह के कारण आबादी बढ़ रही है। मारा ठोस ब्योरों के आधार पर बताती हैं कि तभी पश्चिमी नीति-निर्माता ऐसे तरीकों पर विचार करने लगे जिनसे पहला बच्च ही बेटा हो ताकि दंपती बड़े परिवार के लिए विवश न हों। इसी नीति के तहत एशियाई देशों में गर्भ में भ्रूण की पहचान के लिए अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीकों का प्रचार किया गया और उन्हें सहज सुलभ बनाया गया। इसी का नतीजा आज लड़कियों और लड़कों के बिगड़ते अनुपात में दिखाई दे रहा है।
www.bhaskar.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें