शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

तब कैकयी ने मांगे दशरथ से ये दो वचन....

राजा ने कैकयी कि बात सुनकर कहा अब मैं तुम्हारा मतलब समझा। तुमने उन वरों को रखकर फिर कभी मांगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी याद नहीं आया। मुझे झूठा दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार मांग लो। रघुकुल में हमेशा यही रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाए, पर वचन नहीं जाता । उस पर मैंने राम की शपथ ली है।
तब कैकयी बोली मुझे मेरी इच्छा के अनुसार एक वर तो दीजिए भरत को राजतिलक। दूसरा वर है कि राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। राजा कैकयी की बात सुनकर जैसे सहम गए, उनसे कुछ कहते नहीं बना। राजा दशरथ ने अपना हाथ माथे पर रखकर दोनों आंखें बंद कर ली। राजा का ऐसा हाल देखकर कै कयी मन ही मन मे गुस्से से भर गई। कैकयी बोली क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं। क्या आप मुझे आप दाम देकर खरीद लाए हैं? आपको मेरा वचन सुनते ही इतना बुरा लगा तो सोच-समझकर बात क्यों नहीं करते हैं।
आपने ही वर देने को कहा था अब भले ही मत दीजिए। सच का साथ छोड़ दीजिए। राजा ने जब देखा कि कैकयी का स्वरूप बड़ा ही भयानक और कठोर है।
तब उन्होंने कहा कैकयी मैं शंकरजी को साक्षी मानकर सच कहता हूं कि मैं जरूर सुबह दूत भेज दूंगा। भरत व शत्रुघ्र दोनों तुरंत आ जाएंगे। मैं भरत का राजतिलक कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ दो । कुछ ही दिनों में भरत युवराज हो जाएंगे। अब ये क्रोध छोड़कर विचार करके कोई और दूसरा वर मांगो क्योंकि राम के बिना मेरा जीवन नहीं है।

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