बुधवार, 13 जुलाई 2011

तंत्र शास्त्र का इतिहास और इसका विकास

तंत्र शब्द तन और त्र: से मिलकर बना है। तन का अर्थ है विस्तार और त्र से त्राण अर्थात रक्षा का बोध होता है। धर्म ग्रंथों में तंत्र के देवता भगवान शिव को माना गया है। पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि तंत्र-मंत्रों का लगभग आज जैसा ही रूप प्राचीन काल में भी प्रचलित था। तंत्र विद्या षट् कर्मों में यथा- शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण कर्मों में उस समय भी विभाजित थी।
हमारे ऋषिमुनियों ने इस विद्या को समझा और मानव कल्याण के लिए वे इसे भी अन्य शास्त्रों की तरह प्रकाश में लाएं। बाद में यह विद्या शास्तों और नाथ संप्रदाय में अधिक प्रचलित हुई। दत्तात्रेय तंत्र, उड्डीस तंत्र, रुद्रयामल तंत्र, गुरु गोरखनाथ का गोरख तंत्र जैसे ग्रंथ आज भी हमें तंत्र प्रयोगों की जानकारी प्रदान कर रहे हैं। तंत्र विद्या का विस्तार भारत में हो रहा था वहीं बौद्ध मतालंबी भिक्षुओं और विद्वानों ने भी इसमें रुचि लेकर इसे बौद्धतंत्र के रूप में विकसित किया।
बौद्धों की तरह ही अन्य धर्मावलंबियों ने भी तंत्र विद्या को अपने मतों के अनुसार अपनाया और वैष्णव तंत्र, शैव तंत्र, शाक्तों द्वारा शक्ति तंत्र व वनस्पति तंत्र के नाम से इसे अपने अध्ययन एवं प्रयोगों से विकसित किया। भारत में इस्लामी राज्य में इस्लाम तंत्र का रूप भी आया। वर्तमान समय का तंत्र शास्त्र इन्हीं तंत्रों का परिवर्तित स्वरूप है। हम यह जानते हैं कि हमारा संपूर्ण वैदिक साहित्य चारों वेदों से ही समावेषित हुआ है अत: तंत्र शास्त्र में भी मंत्र-जप व हवन यत्र आदि विधानों को हम अधिक पाते हैं क्योंकि तंत्र शास्त्र का मूल भी धर्म ही है।

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