गुरुवार, 29 मार्च 2012

भागवत ३३४ से ३३७

कैसे पाएं किसी संत का आशीर्वाद?
संत के पास जब उनके दर्शनार्थ जाया जाए तो अहंकार रहित नम्र बन कर जाना चाहिए। संत पुरुष इस बात को तोड़ जाते हैं कि यह नम्रता ओढ़ी हुई है अथवा स्वाभाविक। अत: नम्रता को स्वाभाविक बनाने का, साधक को प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि साधक विद्वान है तो विद्वत्ता का अभिमान नहीं होना चाहिए। पाण्डित्य का प्रदर्शन करने, संत की परीक्षा लेने संत के पास जाओगे तो रिक्तहस्त ही वापस आओगे।
अत्युत्तम तो यही है कि जीव में प्रभु-प्रेम की सच्ची लगन हो। बाकी सभी नम्रता, सौम्यता, निरहंकारता इत्यादि स्वाभाविक लक्षण अपनेआप प्रकट होते जाएंगे। ऐसे जीव को ही अधिकारी कहा गया है।ऐसे अधिकारी, भक्त-साधक के लिए संत अगम्य नहीं रहते। वह उनकी कृपा प्राप्त करने में, प्रभु कृपा से सफल होता है तथा परिणाम स्वरूप परम-प्रेम-रूपा भक्ति फल को प्राप्त करता है।
अब तनिक संतों की कृपा की अमोघता पर विचार करते हैं। जिस प्रकार सूर्य के सामने बैठने पर शरीर को गरमी मिलेगी, जल ग्रहण करने पर पिपासा निवृत्ति होगी ही, इसी प्रकार संत की कृपा का फल परम-प्रेम-रूपा भक्ति प्राप्त होगी ही, किन्तु रात को सोया हुआ व्यक्ति सूर्योदय हो जाने के उपरांत भी सोता ही रहे तो उसे सूर्याेदय का ज्ञान ही नहीं होगा। इसी प्रकार जब तक मनुष्य को संत की कृपा तथा उससे प्राप्त होने वाले फल का ज्ञान नहीं होता, उसका पता नहीं चलता।

भक्ति-शक्ति का अन्तुर्मुखी जाग्रत होना तथा क्रियाशीलता, यह दोनों एक दूसरे से भिन्न बातें हैं। संत कृपा होने पर मनुष्य को तत्काल उसका फल प्राप्त हो जाता है, किन्तु किन्हीं अवस्थाओं में उसके क्रियाशील होने में कुछ देर लग जाती है। जाग्रति का ज्ञान, उसके क्रियाशील होने पर ही होता है। तब तक भक्त पूर्ववत् निद्रावस्था में ही रहता है। इसमें उसके प्रबल विपरीत संस्कार ही कारण होते हैं। शक्ति को प्रथम, इन संस्कारों को हटाकर, चित्त को क्रिया योग्य बनाना होता है। यह भी क्रिया ही होती है जिसे सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।

संतों और महापुरूषों के सान्निध्य के लिए सबसे बड़ा सूत्र यह है कि वे क्या कर रहे हैं इस पर ध्यान न दें, वो क्या कह रहे हैं अपना मन वहां लगाएं। आजकल लोग संतों का वैभव ही देखते रहते हैं उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते। शब्दों को समझेंगे तो ही ज्ञान आएगा। जो वैभव है, संत उसके बिना भी रह सकते हैं, लेकिन अगर हम वैभव पर टिक गए तो फिर इसी के मोह में उलझकर रह जाएंगे। हम माया में फंसकर इसी को सबकुछ मान बैठेंगे। संतों का साथ अमोघ तभी होगा जब हम उनके रहन-सहन की बजाय उनके उपदेशों पर ध्यान देंगे।

भाव यह है कि महापुरुषों की कृपा प्राप्ति का मार्ग कहीं अधिक सरल तथा निश्चित है, किन्तु इतना सरल भी नहीं कि कोई कैसा भी हो जब चाहे, जहां चाहे उसे प्राप्त कर सकता है। यदि यह कृपा कहीं एक बार प्राप्त हो जाए तो उसका फल निश्चित है, क्योंकि वह अमोघ है। इतने पर भी भक्त कभी निराश नहीं होता। उसे प्रभु पर विश्वास होता है कि वह एक न एक दिन उसे संत दर्शन भी अवश्य कराएंगे तथा उस पर कृपा भी करेंगे।
जब हो कोई भी शुभ काम तो इस एक बात का ध्यान जरुर रखें क्योंकि....
कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे।

जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए।

हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे।

उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें। 

कभी भी वक्त का इंतजार नहीं करना चाहिए क्योंकि....
नारदजी कहते हैं कि उसे एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। भक्त के जीवन में एक-एक क्षण का भी महत्व होता है। भक्त समय की कीमत जानता है। यह उसके भौतिक सुविधाओं की बहुमूल्य निधि है, जिसका उपयोग वह भक्ति के प्रति करता है। वह यह भी समझता है कि जो क्षण बीत गया, उसे कोई भी कीमत देकर भी वापस नहीं लाया जा सकता। इसलिए वह एक-एक क्षण का उपयोग भजन करने के प्रति ही करता है। यदि कोई भक्त ऐसा नहीं करता है तो उसे करना चाहिए, क्योंकि शुभ समय की केवल बाट ही देखते रहना, कुछ साधन नहीं करना यह कोई प्रतीक्षा नहीं है।

मनुष्य का जीवन अत्यंत अनिश्चित है, कितना समय उसके पास है, कहा नहीं जा सकता। अत: उसका एक-एक पल महत्वपूर्ण है। कार्य बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि अनेकों जन्मों की तपस्या एवं निरंतर साधना से भी पूर्ण हो पाएगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह सोचते रहना कि अमुक काम पूर्ण हो जाए, अमुक परिस्थिति आ जाए तो भजन करूंगा। अपने आप को धोखा देना तथा समय नष्ट करना है।

एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आज हम अच्छे सात्विक भगवद् भक्तों की संगत में हैं जिससे हमारे मन में भी प्रभु को प्राप्त करने के लिए परम-प्रेम-रूपा भक्ति जाग्रत करने की शुभ इच्छा जाग्रत है। किन्तु, यदि हम विचार ही करते रह गए, भजन कुछ किया नहीं, केवल अनुकूल समय का रास्ता ही देखा। जब अनुकूल समय प्राप्त हुआ तो हमारे मन का विचार ही बदल गया। इसलिए उत्तम यही है कि जो भी परिस्थितियां प्राप्त हों तथा जो भी समय उपलब्ध हो एवं जो कुछ आपके पास सुविधाएं हों, उनमें जैसा भी, जितना भी भजन सम्भव हो आरंभ कर दो। यह नियम जाग्रति से पूर्व एवं पश्चात दोनों अवस्थाओं में लागू होता है।

विशेषकर भजन का स्वभाव तथा भक्ति जाग्रति का उपर्युक्त समय युवावस्था ही होता है। बुढ़ापे में जब मन का स्वभाव पक जाता है, इन्द्रियों में शिथिलता आ जाती है, उठा-बैठा भी नहीं जाता, तब क्या साधन-भजन होगा। हां, यदि युवावस्था में ही ऐसा स्वभाव तथा परिस्थितियां बन जाएं तो बुढ़ापे में भी क्रम चलता रह सकता है। अत: आधा क्षण बिगाड़े बिना भी साधन में जुट जाओ। आयु तो देखते ही देखते निकली जा रही है। दिन पर दिन तथा रातों पर रातें व्यतीत होती जा रही हैं। सूर्य उदय होता है, सायं को ढल जाता है। यह क्रम घड़ीभर के लिए भी नहीं ठहरता। इसी के साथ व्यतीत हो जाता है मनुष्य का जीवन भी। सुविधा पूर्वक तथा अनुकूल समय का भजन जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रतीक्षा करना उचित नहीं।
महाभारत के बाद, ऐसा क्या किया धृतराष्ट्र ने कि पांडव डर गए?
भगवान को विचार आता है मुझे शाप मिला था। आज शाप को पूर्ण करने का अवसर आया है। जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था और जब पांडव विजय हो गए थे, राजतिलक हुआ और हस्तिनापुर में प्रवेश कराने के लिए भगवान स्वयं गए। भगवान कृष्ण ने पांडवों से कहा- देखो, हम जीत तो गए हैं लेकिन कौरवों के माता-पिता धृतराष्ट्र और गांधारी अब अकेले हैं, सारा महल सुनसान हो चुका है। हम वहां चलकर उनको प्रणाम करें। पांडवों को लेकर भगवान हस्तिनापुर पहुंचे। महल जिसमें आदमी ही आदमी होते थे, सेवक-सेविकाएं होती थीं।

किसी माता-पिता के सौ बच्चे हों, क्या आनंद रहा होगा। सारा हस्तिनापुर सुनसान, सब लोग मारे गए युद्ध में। केवल विधवाओं की चित्कार सुनाई दे रही थी। बच्चे किलकारी मार रहे हैं, याद कर रहे हैं अपने लोगों को। भगवान जैसे ही पहुंचे हैं धृतराष्ट्र पूछ रहा था कहां हैं पांडव। जैसे ही उनके कक्ष में पहुंचे तो वहां भीम की एक लोहे की मूर्ति रखी हुई थी। दुर्योधन भीम को मारने के लिए उस मूर्ति पर गदा अभ्यास किया करता था, उस पर प्रहार करता था। इसलिए बहुत बलवान था। पांचों पांडव आए,

भगवान आगे थे। धृतराष्ट्र खड़े हैं। भगवान कहते हैं राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम। युधिष्ठिर जैसे ही धृतराष्ट्र को प्रणाम करते हैं धृतराष्ट्र कहता है भीम कहां है, भीम कहां है। मुझे भीम को अपनी बाहों में भरना है, हृदय से लगाना है। भीम बांवरा था एकदम दौड़ा। भगवान ने भीम को रोका और लोहे की प्रतिमा को आगे कर दिया और जैसे ही लोहे की प्रतिमा धृतराष्ट्र की बाहों में आई उसने मूर्ति को इतनी जोर से दबाया कि वह चकनाचूर हो गई। पांडव घबरा गए, कांपने लगे।

इसलिए धृतराष्ट्र पूछ रहा था, आज भीम को बाहों में भर लूं और सब समाप्त कर दूं। भगवान बोलते हैं यह जीवन है सबकुछ लुट गया इस नेत्रहीन का, फिर भी इच्छा बची है कि भीम को मार डालूं। हमारा सबकुछ चला जाता है जीवन में सारी इंद्रियां शिथिल हो गईं, सारे राज चले गए। फिर आदमी को ऐसा लगता है कि संसार को बाहों में भर लूं एक बार।
(bhaskar.com)

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