सोमवार, 7 जून 2010

रिश्ते

प्यार ही काफी नहीं
मैट्रीमोनियल लॉयर श्री रविंद्र गडिया का मानना है कि जब कोई दंपती अपने रिश्ते से किनारा करने का फैसला लेकर हमारे पास आता है, तब तक वह हर उपाय अपना चुका होता है। काउंसलिंग हो या कम्युनिकेशन, स्पेस देने का सवाल हो या कोई अन्य। सभी तरीके अपनाने के बाद जब ऐसा लगता है कि अब रिश्ते को आगे बनाए रखने का कोई उपाय नहीं बचा तो तलाक एकमात्र विकल्प होता है।

हालांकि जब भी ऐसे मामले आते हैं, सोचने पर मजबूर होना पडता है कि क्या था जो इन रिश्तों को साथ चलने पर बाध्य न कर सका? कहां क्या कमी रह गई? एक बार कोई कपल मेरे पास आया तो मैंने समझा कि ये भी अन्य लोगों की तरह अपनी समस्या लेकर आए होंगे। लेकिन मैं तब हैरान रह गया, जब उन्होंने मुझसे यह बताने को कहा कि आखिर संबंधों में खतरे की घंटी कब बजती है? घंटी बजे, इससे पूर्व ही कैसे सजग होना चाहिए? उनकी बात ने मुझे लॉयर से अलग एक सलाहकार की भूमिका में ला खडा कर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर कौन सी वजह रिश्तों को टूटने की तरफ ले जाती है।

अपने को इंपोज करना

यह कहना काफी हद तक सही है कि रिश्ते की सफलता के लिए प्यार ही काफी नहीं होता। जिम्मेदारियों के बीच प्यार कहींगुम हो जाता है। अधिकार जमाते-जमाते कब हम दूसरे पर हावी हो जाते हैं, पता भी नहीं चलता। जब यह भावना इतनी बढ जाती है कि दूसरे का दम घुटने लगे तो स्थिति बिगड जाती है।

सोनी और राहुल का प्रेम विवाह था। शुरू में सोनी को लाने-छोडने की जिम्मेदारी सहजता से राहुल ने ले ली। सोनी कामकाजी थी, कई बार उसका समय राहुल के साथ मैच नहींहो पाता। एक-दूसरे को समय न दे पाने से धीरे-धीरे तकरार बढी। राहुल ऑफिस के बाहर खडे होकर लगातार फोन बजाता और वह काम में उलझी होती, गुस्सा आता और सबके बीच मजाक भी बनता। क्या पहनना है, क्या खाना बनेगा से लेकर कहां जाना है तक हर बात में मर्जी राहुल की चलती। सही हो या गलत उसे ही मानना पडता। ऐसे जीवन में खुशी कहां बचती।

विश्वास सबसे जरूरी

प्यार से ज्यादा जरूरी है विश्वास। यदि आपको अपने साथी पर भरोसा है तो कई बातें अनदेखी हो सकती हैं। यदि भरोसा नहीं तो मुश्किलेंआ सकती हैं। सुप्रिया सी.ए. है। उसके आने-जाने व काम करने का समय नियत नहीं। रोज वह कैसे बताए कि कब काम खत्म होगा, वह कैसे घर लौटेगी। कैब की सुविधा है, लेकिन न कैब वाले पर भरोसा है, न सहकर्मियों पर, अब कैसे आए-जाए? इसका कोई जवाब उसके इंजीनियर पति के पास नहीं था। रोज-रोज की खिटपिट से अछा था कि दोनों अपने रास्ते अलग-अलग कर लें। हर क्षेत्र की अपनी डिमांड होती है। यह काम करने वाला ही समझ सकता है। सुप्रिया कहती है कि यदि पति को विश्वास होता तो शायद यह नौबत नहीं आती।

आपसी समझ

एक-दूसरे की इछाओं, भावनाओं और जरूरतों को समझना किसी भी रिश्ते के लिए महत्वपूर्ण होता है। जब यह समझ विकसित नहीं होती, तो परेशानियां शुरू होती हैं। पति-पत्नी बनते ही प्यार सेकंडरी हो जाता है और रोजमर्रा की जरूरतें उस पर हावी हो जाती हैं। ऐसे में एक-दूसरे को समझना बेहद जरूरी है। शहरों में तेज भागती जिंदगी ने चैन छीन लिया है। समझदारी न हो तो अलग होते देर नहीं लगती। एकल परिवारों ने समस्याओं को बढा दिया है। अब घर-परिवार, बचों के साथ वर्कप्रेशर का भी सामना करना पडता है।

सम्मान न खोएं

रिश्तों में सम्मान का भाव नहींखोना चाहिए। ज्यादा अपेक्षाएं रखने से तनाव बढता है। जरूरी नहीं कि हर अपेक्षा पूरी हो। रिश्ते पॉवर-गेम नहीं हैं। इसलिए आदेश नहीं, निवेदन करें और अपेक्षाएं उतनी ही रखें जितनी पूरी हो सकती हों। आप साथी का सम्मान करेंगे, तभी आपके बचे और घर के दूसरे लोग भी उसका सम्मान करेंगे।

अन्य मुद्दे

ईगो कम करें

विवादों की सबसे कॉमन वजह है ईगो। इस भावना का खुशहाल वैवाहिक जीवन में कोई स्थान नहीं। संभ्रांत व्यवसायी की पुत्री अलका विवाह के बाद कभी भी ससुराल में सामंजस्य नहीं बैठा पाई। नौकर-चाकरों के बीच पली-बढी अलका को यहां हर काम स्वयं करना पडता। उस पर गुमान इतना कि नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती। ससुराल वालों ने बहुत कोशिश की कि किसी प्रकार लाडली सुपुत्री को एडजस्ट होने का समय दें व सहयोग करें, लेकिन उसका दिमाग जमीन पर आने के बजाय आसमान में ही बना रहा। आखिर तंग आकर एक दिन संबंध कटघरे में जा खडा हुआ। परिवार मैं नहीं, हम के सिद्धांत पर चलता है। यहां आप अकेले नहीं, आपके साथ पूरा परिवार, आपका व आपके साथी का भी है। दोनों के संगी-साथी व समाज भी साथ में हैं। अकेले बीन बजाने से कुछ हासिल नहीं होगा। वह तभी संभव है जब आप स्व से ऊपर उठें।

जिम्मेदारियां बांटें

तेजी से बदलती लाइफस्टाइल में जब दोनों कामकाजी हों तब यह बहुत जरूरी हो गया है कि घर-बाहर की जिम्मेदारियों को ईमानदारी से बांटा जाए। दोनों एक-दूसरे को सहयोग करें और मिलकर गृहस्थी की गाडी खींचें। बढती व्यस्तता और जिम्मेदारियों के बोझ तले कब रिश्तों में प्रॉब्लम हो जाती है पता भी नहीं चलता। हिना ने बहुत कोशिश की अपने सीधे-सादे पति से कोपअप करने की। लेकिन वह थे कि सुधरने का नाम नहीं लिया। सुबह से रात तक भागते-भागते वह जब थक कर बेड पर जाती तो बेहोश जैसी पडी होती। ये भी कोई जिंदगी है? ऐसे कब तक चल सकेगा यही सोच कर उसने अलग होने का फैसला लिया। घर वाले हैरान थे कि इतना सीधा पति है, फिर कहां मुश्किल है। उसका कहना था आओ देखो, सहयोग करना तो दूर, यह खुद भी बोझ है मुझ पर। बिल जमा करने से लेकर घर संभालने और नौकरी करने तक के सारे काम मुझे ही करने पडते हैं। उस पर अपने काम भी वह नहीं करते। न जगह पर तौलिया होगा, न कपडे। यदि हाथ में पर्स न पकडाओ तो उसके बिना ही चले जाएंगे साहब। इतना निरपेक्ष रहकर गृहस्थी नहीं चल सकती। हिना कहती है कि ऐसे लोगों को एकला चलो रे के सिद्धांत पर अमल करना चाहिए।

प्यार

अब प्यार के बिना तो कोई रिश्ता न बनता है, न पल्लवित होता है। लेकिन शादी के बाद लडने-झगडने के बीच प्यार कहां गायब हो गया, यह आभास भी नहीं होता। इसे खोने न दें, जो भी छोटे-छोटे पल आपको मिल रहे हैं, उन्हें समय से चुरा लें।

सेक्स

रिश्ते का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा है सेक्स। व्यस्तता में भले ही एक-दूसरे के लिए समय न मिल रहा हो, लेकिन आपसी रिश्ते घनिष्ठ बनाने के लिए इससे बेहतर उपाय अन्य नहीं।

संयुक्त परिवार

विशेषज्ञों का कहना है कि एकल परिवार भी बडा कारण है समस्याएं बढने का। पहले संयुक्त परिवारों में बडे-बूढे घर के भीतर ही समस्याएं सुलझा लेते थे। डांट-डपट या समझाकर सबको सही रास्ते पर ले आते थे। लेकिन अब न कोई समझाने वाला बचा, न रास्ता दिखाने वाला। सारी समस्याएं सबको खुद ही सुलझानी हैं।

थोड़ा झुक कर ही निभते हैं रिश्ते
दिल्ली के व्यस्त इलाके कालका जी के शांत हिस्से में मृदुला जी का घर है। निचली मंजिल पर उनका ऑफिस है। हम वहां पहुंचे तो पहली मंजिल पर ले जाने के लिए स्वयं मृदुला जी नीचे आई। बेहद सौम्य, साधारण और शांत व्यक्तित्व है उनका। पूछा, कहां बैठना चाहेंगी? मैंने कहा, जहां आपको सुविधा हो। बातचीत करते हुए ही हम ऊपर पहुंचे। ड्रांइग रूम उनकी रचनात्मकता की कहानी कह रहा था। पेटिंग और किताबों के बीच ही आराम से बैठने की व्यवस्था थी। मृदुला जी से डॉक्टर साहब के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, हा,ं वह भी हैं, अभी आते हैं।

रिश्ते पर बातचीत शुरू हुई तो वह अपने शुरुआती दौर को याद करने लगीं। बताती हैं, बिहार के छपरा जिले के एक गांव से हूं मैं। मेरे गांव की कोई लडकी दूसरी-तीसरी क्लास से आगे नहीं पढ सकी। लेकिन मैंने बालिका विद्यापीठ, लखीसराय से स्कूलिंग की। बचपन से अपने रूप-रंग को लेकर आलोचना सुनती आई थी। विवाह योग्य होने पर पिता ने वर देखने शुरू किए। दहेज में देने के लिए कुछ था नहीं, उस पर कोई ऐसा गुण भी नहीं, जो उल्लेखनीय हो। जब सिन्हा साहब को मेरी पढाई और कॉलेज के बारे में पता चला तो उन्होंने रिश्ते की स्वीकृति दे दी। मैं फ‌र्स्ट ईयर में थी जब शादी हुई। मेरी तुलना में यह कहीं ज्यादा सुंदर व पढे-लिखे थे। पहले कई दिन तक बारात ठहराने की परंपरा थी। मेरी बारात भी रुकी। विवाह के अगले दिन मेरी भाभी ने यह सोच कर कि वर पढा-लिखा है तो इसे एक बार वधू से मिलवा दिया जाए, अकेले में मिलने की व्यवस्था बनाई। शुक्ल पक्ष की दूज की अंधेरी रात। गांव में बिजली थी नहीं, लालटेन की मटमैली रोशनी में जहां कमरे का दरवाजा व खिडकियां भी बंद हों, इन्होंने मुझसे पूछा,कैसा रंग है, कचिया या पकिया? मैं कुछ नहीं बोली। जाहिर है, क्या बोलती!

डॉ. सिन्हा: बगल में चांद था, पर रोशनी के अभाव में ठीक से दिखा भी नहीं। हालांकि उस समय इस तरह से मिलना भी कम कानाफूसी का विषय नहीं बना, लेकिन मेरे लिए वे पल यादगार बन गए।

धीरे-धीरे हुआ प्यार

मृदुला: विवाह के कुछ दिन बाद मैं अपने कॉलेज चली गई और यह काम पर चले गए। सास के कहने पर यह मेरे लिए एक साडी खरीद कर लाए। वह साडी मुझे पसंद नहीं आई। मैं जाकर बदल लाई। पता लगने पर इन्होंने कहा, जब मेरी पसंद तुम्हें नापसंद है तो ठीक है, अब कुछ नहीं लाऊंगा। शादी के अगले साल बंगाल के जिस कॉलेज में यह लेक्चरर थे, वहां मैं अपने भाई-भाभी के साथ कुछ दिन बिताने गई। एक दिन हमें इन्होंने कोलकाता घूमने को कह दिया और खुद कॉपियां जांचने में व्यस्त हो गए। लेकिन जब मैं वही साडी पहन कर घूमने जाने के लिए बाहर निकली तो इन्होंने कॉपियां जांचना छोड हमारे साथ घूमने का इरादा बना लिया। अब सोचिए कि उस साडी की खूबसूरती ने साधारण पत्नी को खास बना दिया था। इस तरह की छोटी-छोटी बातों से ही हमारे बीच प्यार बढता गया।

कैसे जीवनसाथी की तमन्ना थी

डॉ. सिन्हा: मृदुला की पढाई मुजफ्फरपुर के महंत दर्शनदास महिला कॉलेज से हुई। मुझे लगा कि पढी-लिखी आधुनिक युवती होगी। मुझसे कुछ लोगों ने शादी से पहले लडकी देखने पर जोर दिया, पर मैंने खुद ही इंकार कर दिया था। मेरे लिए रूप-रंग से ज्यादा महत्व विचारों के मेल का था। मृदुला में मुझे मेरी सोच रखने वाली जीवनसंगिनी मिली।

मृदुला : मुझे आज भी याद है डॉक्टर साहब ने पहली मुलाकात में ही स्पष्ट कर दिया था, मैं तुम्हें सुख-समृद्धि नहीं दे सकता। राजनीति मेरा लक्ष्य है, हो सकता है मेरे साथ तुम्हें गांव-गांव भटकना पडे। मनोविज्ञान में एम.ए. करने के बाद मुझे मोतिहारी में लेक्चररशिप मिल गई। घर-परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियां अधिकतर मुझ पर ही थीं। उसी समय जनसंघ की जिला प्रधान भी बन गई। व्यस्तताएं और भी बढ गई। सबसे अच्छी बात यह रही कि मुश्किल वक्त में मैंने हमेशा इन्हें अपने साथ पाया। बच्चों को पालने में भी इन्होंने मेरी पूरी मदद की।

अब मिले जिंदगी के मायने

मृदुला : हमारा जीवन तो सही मायने में अब शुरू हुआ है, जब हम अपनी सारी जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं। हम दोनों चार बजे उठ जाते हैं। चार से साढे छह तक बातें करते हैं। इन बातों का हिस्सा पारिवारिक मसले बिलकुल नहीं होते। जो कुछ पढते-देखते-सुनते हैं, उसी पर चर्चा होती है। उसके बाद यह अखबार पढते हैं और मैं लिखने में जुट जाती हूं। जो सुनती हूं, उसे ही कागज पर उतारना शुरू कर देती हूं। कई बार ऐसा भी होता है कि सोच इनकी और शब्द मेरे होते हैं। मेरे लिए बताना कठिन है कि लेखन में यह कहां हैं और मैं कहां हूं? आज हमारा सब कुछ एक है, हमारे दोस्त, हमारे विचार और हमारा जीवन। यह संतोष पर्याप्त है कि जो कुछ इनके पास है वह मेरा है।

सबसे अच्छे आलोचक

डॉ. सिन्हा: रास्ते में चलते हुए इन्होंने कभी हाथ नहीं पकडने दिया। बाल तक कटवाने को राजी नहीं हुई। मैं इनकी सुनता नहीं, यह शिकायत इनकी हमेशा रही। कभी उपहार नहीं देता, क्योंकि इन्हें पसंद नहीं आता।

मृदुला : इन्होंने निंदक नियरे राखिए को सही मायनों में चरितार्थ किया। मेरे सबसे अच्छे आलोचक हैं डॉक्टर साहब। मुझे याद नहीं आता कि मेरे द्वारा किए गए किसी काम की आलोचना इन्होंने न की हो।

यादगार पल

मृदुला : सबसे अच्छा समय वह रहा जब हम मुजफ्फरपुर में थे। अपनी जमीन खरीद कर खपरे का मकान बनाया। किचन गार्डन लगाया। खुले आकाश में पूरे चांद की रोशनी का आनंद ही अलग था। खाना खाते-खाते यह कहते, चोखा नहीं बनाया? और मैं तुरंत गार्डन से बैगन तोड चोखा बनाने में जुट जाती। वे दिन शायद ही कभी भुलाए जा सकें।

मुझसे किसी ने पूछा कि आपने कितना संघर्ष किया परिवार और रिश्तों के लिए? तो मैं कहती हूं कि संघर्ष नहीं, मैंने मेहनत की। कोई शॉर्ट-कट नहीं है जीवन के रास्तों का।

रिश्ते का सार

मृदुला : मैंने पति से बराबरी का नहीं, समझदारी का रिश्ता रखा। थोडा झुक कर ही रिश्ते निभते हैं। कभी-कभी हार में ही जीत छिपी होती है। घर और संबंध स्त्री से बनते हैं, पति केवल सहयोगी होता है। यह विवाह का गठबंधन भी बडा अजीब है। पति इसे अपनी ओर तो पत्नी अपनी ओर खींचना चाहती है। इस खींचतान से यह गांठ और मजबूत होती है। गठबंधन का सार ही यही है।

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