ओमप्रकाश बंछोर
एक मंगल वन था। वहाँ के जानवरों में बहुत एकता थी। वह बहुत ही हरा-भरा व खुशहाल था। वहाँ दिनभर जानवर मस्ती करते व प्रसन्न रहते।
सभी जानवर अपने-अपने परिवार के साथ खुश थे। गिलहरियाँ इधर से उधर उछलकूद करती, बंदरों की तो बात ही अलग थी। जानवरों की आवाज मानों मधुर संगीत हो और मोर बादलों को देखकर इस प्रकार झूमते मानों चातक पक्षी मेघ के जल को देखकर खुशी से झूमते।
एक दिन उस वन को किसी की नजर सी लग गई। उस वन के सभी पेड़ों की पत्तियाँ गिर गईं और पेड़ सूख गए। अब न तो वहाँ के पेड़ों पर फल-फूल लगते न ही जानवरों को छाया मिलती।
वन की स्थिति ऐसी हो गई थी कि वह उजड़े हुए घर सा रह गया था। पास ही एक और हरा-भरा वन था। किंतु वहाँ के जानवर उस सूखे वन को छोड़कर हरे-भरे वन में नहीं गए। उनकी दिनचर्या आज भी वैसी ही थी जैसी कभी हरे-भरे वन में हुआ करती थी।
एक समय वहाँ से एक संत का निकलना हुआ। वे सभी जानवरों को उजड़े हुए वन में प्रसन्न देखकर अचंभित हो गए। उन्होंने एक हिरण से पूछा - 'तुम इस उजड़े हुए वन में कैसे रहते हो और वह भी इतने प्रसन्न? पास ही एक हरा-भरा वन है, वहाँ क्यों नहीं चले जाते?'
हिरण ने कहा कि - 'इसके दो कारण हैं। पहला कारण यह तो यह कि हम उस वन में जा ही रहे थे कि अचानक वन के राजा के मन में विचार आया। और उन्होंने कहा - 'जब यह हरा-भरा था तब हम इसके साथ थे। किंतु अब यह विषम परिस्थिति में है, तो हम इसका साथ कैसे छोड़ सकते हैं।'
दूसरा कारण यह है कि - अगर इस वन के पास यह हरा-भरा वन नहीं होता तो हम क्या करते? यदि हमें प्रसन्न रहना है तो हमें अपनी आवश्यकताओं को कम करना होगा और परिस्थितियों के अनुसार अनुकूल होना होगा। हमें समय के साथ चलना होगा। समय न किसी के लिए रुका है, न रुकेगा।
समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। इसी प्रकार परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हो सकतीं हमें ही परिस्थितियों के अनुसार ढलना होगा। यह प्रकृति का नियम है और हम प्रकृति के नियमों का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं।'
हिरण की बात सुनकर संत प्रसन्न होकर सोचने लगे कि जंगल के जानवरों में भी मानवता है। अब उन्हें जानवरों के प्रसन्न रहने का रहस्य समझ में आ गया था।
सौजन्य से - देवपुत्र
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