शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

भागवत-८-९

निष्काम भक्ति सीखाती है भागवत
आज इस बात की चर्चा की जाए कि भागवत का मूल विषय क्या है? भागवत का मूल है निष्काम भक्ति। भागवत में बार-बार आपको यह शब्द मिलता रहेगा। भागवत ने कहा है मेरा मूल विषय है निष्काम भक्ति। निष्काम भक्ति का अर्थ है आप कर रहे हैं फिर भी आप नहीं कर रहे हैं। जिसको अंग्रेजी में कहते हैं डूइंग है डूअर नहीं है। निष्कामता वहीं घटती है जिसमें आपके कर्म में से मैं चला जाए। आपके काम में से जिस दिन कर्ता बोध का अभाव हो जाए उस दिन निष्कामता घटती है।

बहुत लोगों को समझ में नहीं आता निष्कामता होती क्या है? मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। जिन लोगों ने बेटियां पैदा की हैं, बेटियां बड़ी की हैं, पाली हैं और विदा किया है। वो लोग जान सकते हैं निष्कामता क्या होती है। जब कोई अपनी बेटी को पालता है तो बेटे की तरह ही पालता है। लेकिन एक दिन वह बेटी बड़ी होती है और आदमी उसको विदा कर देता है। एक दिन उस बेटी का विवाह हो जाता है। उसका नाम, वंश, कुल, परंपरा सब एक क्षण में बदल जाता है।
ये भारतीय संस्कृति का ऐसा गौरव है कि जब स्त्री का विवाह होता है तो एक क्षण में उसका सबकुछ बदल जाता है। देहरी पार जाकर उसकी पहचान, उसका वंश, उसका कुल, उसके रिश्ते और सोलह श्रृंगार। आदमी जानता है मैं इस बेटी को बड़ा कर रहा हूं। एक दिन मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं रहेगा। जिस दिन आपके कर्म में, कर्म के फल के प्रति बेटी के विदा करने जैसा भाव जाग जाए बस वहीं से निष्कामता का जन्म होता है। भागवत का मूल विषय यही है कि निष्काम भक्ति योग।

तीनों दुखों का नाश करते हैं श्रीकृष्ण
तापत्रय अर्थात आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तीन तरह के दु:ख होते हैं इंसान को। भागवत कितना सावधान ग्रंथ है। पापत्रयविनाशाये नहीं लिखा तापत्रयविनाशाय लिखा। पाप आता है चला जाता है। यदि आदमी पश्चाताप कर ले। लेकिन पाप का परिणाम क्या है ताप। पाप अपने पीछे ताप छोड़कर जाता है। आदमी को पता नहीं लगता इसी को संताप कहते हैं।

लिखा है आध्यात्मिक आदिदैविक, अदिभौतिक तीनों प्रकार के पापों को नाश करने वाले भगवान श्रीकृष्ण की हम वंदना करते हैं। अनेक लोगों को मन में यह प्रश्न उठता है कि वंदना करने से क्या लाभ है? वंदना करने से पाप जलते हैं। श्रीराधा व कृष्ण की वंदना करेंगे तो हमारे सारे पाप नष्ट होंगे। परंतु वंदना केवल शरीर से नहीं मन से भी करना पड़ेगी। अत: ईश्वर वंदनीय है। वंदना करने का अर्थ है अपनी क्रियाशक्ति को और बुद्धि शक्ति को श्रीभगवान को अर्पित करना।
वंदन करने से अभिमान का बोझ कम होता है। श्रीभागवत का आरंभ ही वंदना से किया गया है। और वंदना से समाप्ति की गई है। संत महात्मा कहते हैं कि ये जो 'श्रीकृष्ण' शब्द लिखा है इसमें जो ये 'श्री' है यह राधाजी का प्रतीक है। राधाजी को 'श्री' भी कहा गया है। विद्वानों का प्रश्न है और शोध का विषय भी है बड़ी चर्चा होती है इसकी लोग हमसे भी प्रश्न पूछते हैं कि भागवत में राधाजी की चर्चा नहीं आती? पूरे भागवत में राधाजी का नाम ही नहीं है। नायक कृष्ण और राधा का नाम नहीं। लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है कि वेदव्यासजी ने क्या सोचकर राधाजी का नाम नहीं लिखा। जबकि राधा के बिना कुछ नहीं हो सकता।

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