शनिवार, 24 जुलाई 2010

क्यों मानते हैं अतिथि को भगवान ?


क्या कारण है कि गृहस्थ जीवन को सन्यास से भी अधिक श्रेष्ठ व कठिन माना गया है? एक गृहस्थ व्यक्ति की जिंदगी में अनायास ही सारी तप साधना शामिल है। इसीलिये तो गृहस्थ इंसान बगैर घर-परिवार छोड़े ही जीवन के असली मकसद यानि कि पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। जिंदगी के जिस मकसद को पाने की खातिर कोई साधक घर-परिवार ही नहीं पूरा संसार ही छोड़कर सन्यासी बन जाता है। आखिर इतनी अनमोल उपलब्धि दुनियादारी में डूबा हुआ सामान्य व्यक्ति कैसे प्राप्त कर लेता है?
सारा रहस्य गृहस्थ इंसान के कर्तव्यों में छुपा है। इंसानी जिंदगी को जिन चार अनिवार्य और अति महत्वपूर्ण भागों में बांटा गया है, उनमें से दूसरा है- गृहस्थ आश्रम। गृहस्थ में रहकर कुछ कर्तव्यों को करना अनिवार्य बताया गया है।

किसी विवाहित या परिवार वाले गृहस्थ इंसान के लिये जिन कार्यों करना निहायत ही जरूरी है वे इस प्रकार हैं-
जीव ऋण: यानि घर आए अतिथि, याचक तथा पशु-पक्षियों का उचित सेवा- सत्कार करना ।
देव ऋण: यानि यज्ञ आदि कार्यों द्वारा देवताओं को प्रशन्न एवं पुष्ट करना।
शास्त्र ऋण: जिन शास्त्रों या ग्रंथों से हमने ज्ञान-विज्ञान सीखकर जीवन को श्रेष्ठ बनाया है, उनका सम्मान, हिफाजत एवं प्रचार प्रसार करना।
पितृ ऋण: यानि कि अपने पूर्वजों और पित्रों की सुख-शांति के लिये शास्त्रोक्त तरीके से श्राद्ध-कर्म का करना।
ग्राम ऋण: यानि कि जिस गांव समाज और देश में पल-बढ़कर हम बड़े हुए हैं, उसकी भलाई की खातिर अपनी क्षमता के अनुसार प्रयास करना।
ऊपर दी गई जानकारी से स्पष्ट हे कि अतिथि को भगवान मानकर सेवा करना इंसान को उस ऋण से छुटकारा दिलाता है जिससे मुक्ति पाकर ही गृहस्थ जीवन सफल हो सकता है।

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