बुधवार, 7 जुलाई 2010

गृहस्थ धर्म

खास मुहूर्तों में शादियों की धूम
- डॉ. गोविन्द बल्लभ जोशी
इन दिनों शादियाँ भी बड़ी तादात में रही हैं क्योंकि जल्दी ही सावन लगने वाला है और देवशयनी एकादशी के बाद तो शादी जैसे गृहस्थ धर्म के मुहूर्त तीन महीने तक के लिए नहीं मिल पाते हैं। इसलिए मुहूर्त देखकर शादी करने वालों का इन दिनों जोर चल रहा है। यद्यपि अप्रैल की तरह इस महीने अधिक मुहूर्त नहीं होने के कारण शादियाँ के बारे में कोई प्रचार नहीं दिखाई दे रहा है लेकिन खास मुहूर्तों में इन दिनों शादियों की धूम मची हुई है।

इतना ही नहीं प्रेम विवाह कर गृहस्थ डोर से बाँधने वाले अधिकांश जोड़े भी गुप-चुप तरीके से ज्योतिषियों एवं पंडितों से शादी के मुहूर्त पूछने पहुँच रहे हैं। ताकि उसके अनुसार वह विवाह कर सकें। आर्य समाज मंदिर, हिंदू महासभा भवन एवं अन्य विवाह के लिए अनेक पंजीकृत संस्थाएँ आचार्य विद्वानों की अपने यहाँ व्यवस्था रखती हैं इसलिए ऐसे जोड़ों को मुहूर्त निकालने के लिए इधर-उधर जाने की जरूरत नहीं पड़ती है।

विवाह समारोह में जहाँ खान-पान एवं समारोह स्थल के सजावट की चकाचौंध रहती है वहीं विवाह के समय आचार्य द्वारा किए जाने वाले विवाह संस्कार कर्म को बहुत कम समय में पूरा करने की माँग रहती है। इस प्रकार के विवाह वर माला के बाद मुख्य मंत्रों से यज्ञवेदी में लाजाहोम के साथ सात फेरे लगाकर संपन्न हो जाते हैं। वैसे कई विद्वानों का कहना है वर माला कर लेने के बाद विवाह के अन्य प्रकरणों कोई आवश्यकता नहीं रह जाती लेकिन लोगों का विश्वास है कि अग्नि को साक्षी रखते हुए सात फेरे होने ही चाहिए।
वैसे विवाह संस्कार में कन्या दान संकल्प एवं सप्तपदी (सात फेरों) का ही सबसे ज्यादा महत्व है क्योंकि कन्या दान संकल्प के द्वारा माता-पिता अपने पुत्री को जल धारा के साथ वर को समर्पित कर देते हैं और कन्या पिता से प्राप्त दुल्हन के साथ सात फेरे लगाकर दुल्हे राजा उसे जीवन के हर क्षण में, हर परिस्थिति में अपनी प्रियतमा बनाए रखने और उससे श्रेष्ठ संतान प्राप्त कर वंश परंपरा की धारा को आगे बढ़ाने का विश्वास दिलाते हैं।

आर्य समाज के आचार्य डॉ. कर्णदेव शास्त्री कहते हैं स्त्री और पुरुष परस्पर पति-पत्नी भाव से जिस सभ्य गृहस्थ बनने वाले कर्म को स्वीकार करते हैं उस संस्कार को हमारे शास्त्रों और विद्वत जनों ने विवाह का नाम लिया है। आज भी दुनिया में परिवार नामक संस्था का आदर्श परिचय भारतीय समाज इसी संस्कार के द्वारा सजोए हुए है। वेद में कहा है 'सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरावाच प्रजापितः।' अर्थात्‌ प्रजापति ब्रह्मा ने प्रजा की सृष्टि तथा उसकी सहायता के लिए यज्ञ का उपदेश करते हुए कहा है कि इसने संपूर्ण प्रकार की कामनाओं को पूरा कर लो यह आपकी इच्छा पूर्ति के लिए कामधेनु होगा। अतः धर्म-अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थ बिना काम पुरुषार्थ के संभव ही नहीं है। विवाह संस्कार काम पुरुषार्थ का पवित्र आधार है।

सात फेरों के सातों वचनों का मूल भाव बताते हुए आचार्य अरविन्द जखमोला का कहना है कि 'ॐ एकमिषे विष्णुस्त्वा नयतु' इस मंत्र के साथ पहले कदम में कन्या के साथ अग्नि परिक्रमा करते हुए दुल्हा यह विश्वास दिलाता है कि विष्णु स्वरूप में वर धन-धान्य से भरपूर रखते हुए तुम्हें अपने जीवन की संगिनी बनाने का वचन देता हूँ।

इस प्रकार अनेक प्रकार से लौकिक सुख-साधनों की व्यवस्था एवं परस्पर प्रीति एक-दूसरे को समझना सुख-दुख में साथ देना, विश्वास बनाए रखना एवं परिवारिक जनों, इष्ट मित्रों एवं समाज के साथ समन्वयपूर्वक व्यवहार करना एक-दूसरे का सम्मान बढ़ाना, सामाजिक सेवा के कार्य करना इस प्रकार के वचनों के साथ-साथ राष्ट्रभृद्होम यज्ञ के द्वारा राष्ट्र भक्ति के ऊँचे आदर्शों का संकल्प भी दुल्हा और दुल्हन इन सात फेरों के समय लेते हैं।

इस प्रकार विवाह संस्कार केवल वर कन्या के मिलन एक दिखावा मात्र नहीं है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इस संस्कार को पारिवारिक संस्कार से लेकर राष्ट्रीय संस्कार तक के सूत्रों में पिरोया हुआ है।

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