चरित्र में दृढ़ता, विचारों में प्रतिबद्धता लाएं
आज मुझे फिल्मी गीत की एक पंक्ति याद आ रही है, जिसे मैं आपके साथ शेयर करना चाहूंगा। इस गीत की पहली लाइन है-"जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ शाम।" कितनी सुन्दर पंक्ति है यह। थम जाने के बाद तो जीवन खत्म ही हो जाता है, फिर चाहे हमारा सीना सांस के आने-जाने से धौकनी की तरह फूलता-पिचकता ही क्यों न रहे। जब यहां मैं चलने की बात कह रहा हूं, तो वह शरीर के ही चलने की बात नहीं है, बल्कि उससे भी कहीं अधिक चेतना के चलने की बात है।
यह ऎसे चलने की बात है, जहां हम कहीं भी न तो थककर बैठते हैं और न ही घबराकर अपना रास्ता छोड़ देते हैं। यह वह चलना है, जब जीवन के हर पल को हम पूरे उल्लास से जीने की कोशिश करते हैं और यहां तक कि तब भी, जबकि हमें मालूम है कि अगले ही पल मृत्यु होने वाली है। मृत्यु के अंतिम क्षण तक को अपने कर्म से पकड़ लेना सही मायने में जिन्दगी भर चलते चले जाना है। तो इसके बारे में मैं आपको इतिहास की एक ऎसी सच्ची घटना सुनाने जा रहा हूं, जिस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल होता है।
सनाका रोम के महान दार्शनिक और सम्राट नीरो के गुरू थे। उन्होंने नीरो को सम्राट बनाने में उसकी मां की मदद भी की थी। नीरो को शक हो गया कि उसके राजगुरू सनाका उसके विरूद्ध षडयंत्र कर रहे हैं। नीरो ने सनाका को राजदरबार में नस काटकर बूंद-बंूद रक्त के बहने से होने वाली मौत की सजा दी। सनाका ने घर जाकर परिवार से विदा लेना चाहा। लेकिन नीरो ने इसकी तक इजाजत नहीं दी। सनाका ने कहा-""दर्शन की पुस्तके मंगवा दो।"" उनकी यह इच्छा भी ठुकरा दी गई। तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा-""आ जाओ! हम दर्शन पर यहीं चर्चा करेंगे। इससे अच्छा अवसर भला और क्या होगा।"" सचमुच, मुझे विश्वास ही नहीं होता ऎसे लोगों के बारे में सुनकर कि ये सब किस धातु के बने हुए होंगे? कैसा होगा इनका मन और इनकी आत्मा कितनी अधिक शक्तिशाली होगी। ये वे लोग थे, जिन्हें यमराज तक नहीं डरा सका फिर भला जीवन की अन्य परेशानियां तो इन्हें क्या डरा पातीं।
महान दार्शनिक सुकरात और सनाका जैसे लोगों में यह जो शकित आती है, यह मूलत: उनके चरित्र की दृढ़ता और अपने विचारों की प्रतिबद्धता के कारण आती है। यदि हम अपने उद्देश्यों के प्रति संकल्पबद्ध हो जाते हैं, और संकल्पबद्ध होकर उसमें अपने-आपको पूरी तरह झोंक देते हैं, तो हमारे लिए कोई भी भय, भय नहीं रह जाता। हम अभय हो जाते हैं। तभी तो प्रेम दीवानी मीरा के लिए जहर का प्याला भी अमृत का प्याला बन गया था। मुझे लगता है कि हमें भी अपने जीवन में आत्मा की इस शक्ति को पाने के प्रयास करने चाहिए। ऎसा हो सकता है, इसमें कतई सन्देह नहीं है। अपनी चेतना में सात्विक भावों को स्थान देकर धीरे-धीरे हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
आज मुझे फिल्मी गीत की एक पंक्ति याद आ रही है, जिसे मैं आपके साथ शेयर करना चाहूंगा। इस गीत की पहली लाइन है-"जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ शाम।" कितनी सुन्दर पंक्ति है यह। थम जाने के बाद तो जीवन खत्म ही हो जाता है, फिर चाहे हमारा सीना सांस के आने-जाने से धौकनी की तरह फूलता-पिचकता ही क्यों न रहे। जब यहां मैं चलने की बात कह रहा हूं, तो वह शरीर के ही चलने की बात नहीं है, बल्कि उससे भी कहीं अधिक चेतना के चलने की बात है।
यह ऎसे चलने की बात है, जहां हम कहीं भी न तो थककर बैठते हैं और न ही घबराकर अपना रास्ता छोड़ देते हैं। यह वह चलना है, जब जीवन के हर पल को हम पूरे उल्लास से जीने की कोशिश करते हैं और यहां तक कि तब भी, जबकि हमें मालूम है कि अगले ही पल मृत्यु होने वाली है। मृत्यु के अंतिम क्षण तक को अपने कर्म से पकड़ लेना सही मायने में जिन्दगी भर चलते चले जाना है। तो इसके बारे में मैं आपको इतिहास की एक ऎसी सच्ची घटना सुनाने जा रहा हूं, जिस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल होता है।
सनाका रोम के महान दार्शनिक और सम्राट नीरो के गुरू थे। उन्होंने नीरो को सम्राट बनाने में उसकी मां की मदद भी की थी। नीरो को शक हो गया कि उसके राजगुरू सनाका उसके विरूद्ध षडयंत्र कर रहे हैं। नीरो ने सनाका को राजदरबार में नस काटकर बूंद-बंूद रक्त के बहने से होने वाली मौत की सजा दी। सनाका ने घर जाकर परिवार से विदा लेना चाहा। लेकिन नीरो ने इसकी तक इजाजत नहीं दी। सनाका ने कहा-""दर्शन की पुस्तके मंगवा दो।"" उनकी यह इच्छा भी ठुकरा दी गई। तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा-""आ जाओ! हम दर्शन पर यहीं चर्चा करेंगे। इससे अच्छा अवसर भला और क्या होगा।"" सचमुच, मुझे विश्वास ही नहीं होता ऎसे लोगों के बारे में सुनकर कि ये सब किस धातु के बने हुए होंगे? कैसा होगा इनका मन और इनकी आत्मा कितनी अधिक शक्तिशाली होगी। ये वे लोग थे, जिन्हें यमराज तक नहीं डरा सका फिर भला जीवन की अन्य परेशानियां तो इन्हें क्या डरा पातीं।
महान दार्शनिक सुकरात और सनाका जैसे लोगों में यह जो शकित आती है, यह मूलत: उनके चरित्र की दृढ़ता और अपने विचारों की प्रतिबद्धता के कारण आती है। यदि हम अपने उद्देश्यों के प्रति संकल्पबद्ध हो जाते हैं, और संकल्पबद्ध होकर उसमें अपने-आपको पूरी तरह झोंक देते हैं, तो हमारे लिए कोई भी भय, भय नहीं रह जाता। हम अभय हो जाते हैं। तभी तो प्रेम दीवानी मीरा के लिए जहर का प्याला भी अमृत का प्याला बन गया था। मुझे लगता है कि हमें भी अपने जीवन में आत्मा की इस शक्ति को पाने के प्रयास करने चाहिए। ऎसा हो सकता है, इसमें कतई सन्देह नहीं है। अपनी चेतना में सात्विक भावों को स्थान देकर धीरे-धीरे हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
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