शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

महाभारत में भीष्म से सीखिए निष्ठा


महाभारत एक बहुनायक प्रधान रचना है। इस कथा में कई नायक हैं, जिनके जीवन पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। हर पात्र का एक विशेष गुण है और वह हमें इसी का संदेश भी देता है। महाभारत का पहला ऐसा पात्र है भीष्म। भीष्म पितामह जैसी निष्ठा महाभारत के अन्य पात्रों में कम ही दिखाई देती है। पितामह भीष्म का नाम देवव्रत था उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य की जो भीष्म प्रतिज्ञा की इस कारण उनका नाम भीष्म पढ़ गया। हस्तिनापुर राज्य के राजा का पद अस्वीकार कर दो पीढिय़ों के बाद उन्हीं की मौजूदगी में हुए भीषण नरसंहारकारी महायुद्ध के वे दृष्टा बने। उन्हें यह ज्ञात होने पर भी कि कौरवों ने अधर्म और छल से पांडवों को राज्य से हटा दिया फिर भी वे निष्ठा पूर्वक कौरवों का साथ निभाते रहें। जबकि हृदय से तो वे पांडवों के साथ ही थे।भीष्म की ही निष्ठता का प्रमाण है कि उन जैसे वीर ने दस दिन तक लगातार युद्ध कर पांडवों की सेना को समाप्त कर ही रहे हैं किंतु कृष्ण के द्वारा अर्जुन को भीष्म के पास भेजे जाने पर उन्होंने स्वयं अपनी ही पराजय का गुप्त राज अर्जुन को बताया था। यह सत्य के प्रति उनकी निष्ठा थी।हमें भीष्म जैसे व्यक्तियों से जो कि नि:संतान होते हुए भी पितामह कहलाए जिनका श्राद्ध आज भी हर सनातन धर्म का अनुयायी करता है।हमें भी उनके जीवन के आदर्शों को अपने जीवन में उतारकर जीवन को विभिन्न आनंदों के साथ जीना चाहिए। जीवन में बहुत सी घटनाएं हमें हमारी प्रतिज्ञाओं से अलग हटा देती है। भीष्म पर भी कई बार दुविधा के क्षण आए किंतु वे अपनी प्रतिज्ञा से हटे नहीं।
कर्ण ने दिया मित्रता का संदेश
जीवन मित्रों के बिना अधूरा है। महाभारत काल में यदि मित्रता का प्रसंग हो और दुर्योधन और कर्ण की मित्रता की बात न हो ऐसा कभी नहीं हो सकता। कर्ण-दुर्योधन की मित्रता का परिचय हमें इस घटना से मिलता है जब श्रीकृष्ण संधि दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे तो लौटते समय उन्होंने कर्ण को अपने रथ पर बैठाकर बताया कि वे सूतपुत्र नहीं बल्कि कुंती पुत्र हैं और कहा कि यदि तुम पांडवों की ओर से युद्ध करोगे तो राज्य तुम्हें ही मिलेगा। कर्ण ने इस बात पर जो कहा वह उनकी दोस्ती की सच्ची मिसाल है। उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पांडवों के पक्ष में श्रीकृष्ण आप हंै तो विजय तो पांडवों की निश्चय ही है। परंतु दुर्योधन ने मुझको आज तक बहुत मान-सम्मान से अपने राज्य में रखा है तथा मेरे भरोसे ही वह युद्ध में खड़ा है। ऐसी संकट की स्थिति में यदि मैं उसे छोड़ता हूं तो यह अन्याय होगा। तथा मित्र धर्म के विरुद्ध होगा। श्रीकृष्ण अर्जुन के परम सखा थे।

ये हैं मानव इतिहास के सबसे बड़े दानी....

दुनिया के सभी धर्मों ने दान को बहुत पुण्य का कार्य माना है। अपनी मेहनत की कमाई पर से अपना अधिकार समाप्त कर किसी जरूरतमंद इंसान को उसका मालिक बना देना वंदनीय कार्य है। अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार किसी को कुछ देना मनुष्य की करुणा और उदारता का प्रमाण है। संसार में कुछ ऐसे नर रत्न हो चुके हैं जिन्होंने दान को ही अपना जीवन धर्म मान लिया। इतिहास के पन्नों पर जिन दानियों का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है, आइये उन्हैं जाने:- ऋषि दधीचि- वृत्रासुर के वध के लिए इंद्र आदि देवताओं को जीते जी अपनी अस्थियां दान कर दीं।कर्ण: अपने प्राणों की परवाह न करते हुए इंद्र के आग्रह पर कवच, कुंडल दिए।राजा शिबि- शरण में आए कबूतर के प्राण बचाने के लिए अपने शरीर का मांस बाज को दे दिया। राजा रंतिदेव- अकाल पीडि़तों के लिए अपने हिस्से का अन्न भी दे दिया।राजा बलि- यह जानते हुए कि याचक साक्षात् विष्णु हैं, फिर भी अपनी सारी संपदा दान कर दी।

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